वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 147
From जैनकोष
आवासं जइ इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं।
तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स।।147।।
आवश्यक के इच्छुक को आदेश―हे साधक मुमुक्षु ! यदि तुम आवश्यक को चाहते हो तो आत्मा के स्वभाव में स्थिर भाव को करो। इस स्थिरता से ही जीव का सामायिक गुण संपूर्ण होता है। इस गाथा में शुद्ध निश्चय आवश्यक की प्राप्ति का उपाय बताया गया है। आवश्यक का अर्थ है स्वतंत्र होने के लिए किया जाने वाला अपूर्व पुरुषार्थ। इस परतंत्र जीव को परतंत्रता से हटकर स्वतंत्रता कैसे मिले? उस स्वतंत्रता की प्राप्ति का उपाय इस गाथा में कहा गया है।
परमावश्यक में बाह्यक्रियाकांडों की पराड्मुखता-बाह्य में 6 आवश्यककर्म साधुजनों के होते हैं, जिनके नाम हैं―समता, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग। इनका नाम आवश्यक इसलिए रक्खा गया है कि इन कार्यों में व्यस्त होने वाले संतजनों में यह पात्रता रहती हे कि वे निश्चय परम आवश्यक पुरुषार्थ प्राप्त कर लें। वास्तव में आवश्यक नाम है शुद्धज्ञाताद्रष्टा रहनेरूप पुरुषार्थ का। उस पुरुषार्थ में जो हमारे क्रियाकलाप, पात्रता,लीनता हैं उसका नाम भी आवश्यक कर्म है। जो शिष्य बाह्य षट् आवश्यक के विस्ताररूप नदी के कोलाहल के शब्दों से पराड्मुख है उस शिष्य को यह समझाया जा रहा है। जो बाह्य षट् आवश्यक में ही अपनी बुद्धि लगाता है, मन, वचन, काय की इन शुभ क्रियावों में ही जिसकी बुद्धि बसी है उसके यह परमआवश्यक कार्य नहीं होता है। जो इन षट् आवश्यक के कोलाहल से पराड्.मुख है ऐसे शिष्य को कहा जा रहा है कि हे शिष्य ! यह आवश्यक कर्म जो कि शुद्ध निश्चयधर्मध्यानरूप है और शुद्ध निश्चय शुक्लध्यान है, निज आत्मा के ही आश्रित है, ऐसे इन आवश्यककर्मों को यदि तुम चाहते हो तो अपने आत्मतत्त्व में स्थिर भाव को उत्पन्न करो।
आनंद के उपाय में एकमात्र पुरुषार्थ―भैया ! इस जीव को आनंद के लिए केवल एक ही काम करना है, अपने सहजस्वरूप को जानना और इस सहजस्वरूप अपनी प्रतीति करके इसके अनुरूप ही अपना आचरण रखना, इस ही का नाम है आवश्यक। यह आवश्यक पुरुषार्थ संसाररूप लता को नष्ट करने में कुठार की तरह है। जैसे कुठार लता को भेदकर छिन्नभिन्न कर देता है, इस ही प्रकार यह आवश्यक पुरुषार्थ संसार के संकटों को पूर्णतया छेद देने में समर्थ है।
कल्पनाजाल का संकट―संकट कल्पनाजाल का नाम है। कल्पनाजाल किसी परवस्तु को विषय बनाकर ही उत्पन्न हुआ करता है। परवस्तुवों को अपनाना, यह अज्ञान के कारण होता है। इस कारण संसार के संकटों का विनाश करना चाहो ही तो अज्ञान को मिटाना अपना प्रथम कर्तव्य है, लेकिन आप अन्याय करके धनसंचय करने वाले पुरुषों की गति भी निरखते जा रहे हैं। उनको इस लोक में कितना संकट उठाना पड़ता है और उनकी अंत में गति कैसी होती है, और परलोक में क्या होगा,उसका अनुमान भी यहाँ की करतूत से हो रहा है?इतने पर भी जड़ बाह्यवैभव की ओर इतना अनिष्ट झुकाव किए जा रहे हैं, यह कितनी बड़ी विपदा है इस मोही जीव पर? यह सब कल्पना की ही तो विपदा है। बाह्य पदार्थ तो जहाँ हैं वे वहाँ ही हैं। यह अपनी कल्पना को बढ़ाकर अपने आपको कष्टमय बना रहा है। हे शिष्य ! यदि तू संसार के संकटों का छिन्न कर देना चाहता है तो इस आत्मा के स्वरूप की आराधना में लग।
निरंजन निर्विकल्प आत्मस्वभाव के उपयोग में आत्मविकास―यह परमात्मभाव समस्त विकल्पजालों से विनिर्मुक्त है। इन रागद्वेष आदिक अंजनों का इसमें प्रवेश नहीं है। स्वभाव और निर्मल विकास इन दोनों का वर्णन एक ही प्रकार से होता है। जल का स्वभाव क्या है? जो निर्मल जल को देखते हो वही जल का स्वभाव है, चाहे कीचड़ मिला जल हो तिस पर भी जल में जल ही है और गंदगी में गंदगी है। जल का स्वभाव वही है जो एक निर्मल जल में होता है। हमारे आत्मा का स्वभाव क्या है? आत्मस्वभाव वही है जो निर्मल आत्मा परमात्मप्रभु जिस प्रकार वर्त रहे हैं, जो वहाँ ज्ञप्ति है वही मेरे आत्मा का स्वभाव है।इस स्वभाव का विकास इस स्वभाव को जाने बिना कैसे हो सकता है? जिसे यह निर्णय नहीं है कि मेरा आत्मा केवल ज्ञानानंदस्वरूप मात्र है,इसमें रागद्वेष आदिक अंजन नहीं लगे हैं,वर्तमान सांजन परिणमन होकर भी स्वभाव में मेरा आत्मा निरंजन है, ऐसा निर्णय हुए बिना कोई पुरुष शुद्ध विकास कैसे कर सकता है? हे शिष्य ! निरंजन इस निज परमात्म तत्त्व में तू निश्चल स्थिर भाव को कर।
आत्मा को सहजज्ञान―सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजआनंद आदिक जो सहज शक्तियाँ हैं वे ही सब आत्मा के स्वभाव हैं। सहजज्ञान का अर्थ यह है कि जितने भी ज्ञान प्रकट हो रहे हैं वे पर्यायरूप ज्ञान हैं। प्रकट होकर दूसरे क्षण नहीं ठहरते हैं। जो ज्ञान मलिन संसारी जीवों के हो रहे है उनमें तो झट यह परिचय हो जाता है कि हां यह बात सही है कि यह ज्ञानपरिणमन अगले क्षण नहीं रहता है, किंतु केवल ज्ञान जो निर्मल ज्ञान है उसके समय में यह कठिनाई से समझ में आता है कि केवलज्ञान भी क्या अगले क्षण में विलीन हो जाता है? शुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से देखा जाय तो हम छद्मस्थों के ज्ञान तो परंपरा से अंतर्मुहूर्त तक उपयोगरूप रहता है, किंतु भगवान का ज्ञान तो इतना स्वतंत्र है कि अगले समय में भी नहीं रहता। अगले समय में दूसरा केवलज्ञान हो जाता है और प्रत्येक समय नवीन-नवीन केवलज्ञानपर्याय होती रहती है और अनंत काल तक इसी प्रकार होता रहेगा।
परिणमन की क्षणवर्तिता―केवलज्ञान का विषय जो पहिले क्षण केवलज्ञान के है वही उतना दूसरे केवल ज्ञान में रहता है। इस कारण परवस्तु की अपेक्षा से ज्ञान का परिचय करने वाले जीवों को यह शंका रहती है कि केवलज्ञान का कैसे विलय हो सकता है? हम लोग किसी के ज्ञान का स्वरूप परवस्तु का नाम लेकर जान पाते हैं। यह चौकी का ज्ञान है, यह पुस्तक का ज्ञान है, यह अमुक चीज का ज्ञान है। अरे ! उन चीजों का नाम लेकर ही तो निरखा। वह अपने आपमें किस रूप परिणमता है? इसके बताने का इसका अन्य साधन नहीं है, यह पटक ज्ञान है। परवस्तु का ज्ञान मिट गया, इस कारण यह ज्ञान भी बदल गया, ऐसी बात नहीं है, किंतु ज्ञान ही बदल गया तब उसका विषय भी अन्य हो गया। परवस्तु के कारण ज्ञान का परिणमन नहीं होता है किंतु ज्ञान आत्मद्रव्यत्व के कारण निरंतर परिणमता रहता है।
क्षणवर्ती ज्ञान के परिणमनों के मूलमें सहजज्ञान का प्रकाश―स्वभावगुणपर्याय का एकसापरिणमन होने पर भी शक्ति नवीन-नवीन लग रही है, इस कारण परिणमन भी नवीननवीन समझना। कोई बल्ब 8 बजे से 8 बजे तक निरंतर जलता रहा है एकसा और उसमें पावर भी एकसा बहने के कारण रंच भी मंद या तेज नजर नहीं आया। उस समय कोई कहे कि यह बल्ब क्या कर रहा है? कुछ भी नहीं करता है। अरे !वह प्रतिक्षण नवीन-नवीन काम कर रहा है। प्रतिक्षण वह अपनी नवीन-नवीन शक्ति लगाकर परिणमन कर रहा है। यदि प्रतिक्षण वह बल्ब नवीन काम न करे तो बिजली वालों को घाटा हो जाय। वे जान जाते हैं कि अब इतने मीटर बिजली खर्च हुई है। तो एकसा काम होने पर भी शक्ति नई-नई लगती चली जा रही है। यों ही ये समस्त ज्ञान प्रतिक्षण नवीन-नवीन परिणमन करते चले जा रहे हैं। ये परिणमन ज्ञप्ति अपेक्षा भिन्नभिन्न हैं परंतु एक तांता तोड़कर परिणमन क्या भिन्न-भिन्न है? जिस ज्ञानशक्ति पर यह परिणमनजाल चलता रहता है उस ज्ञानशक्ति का नाम है सहज ज्ञान। यह सहज ज्ञान शाश्वत है और यह विकाररूप ज्ञान अध्रुव है।आत्मा का स्वभाव यह अध्रुव ज्ञान परिणमन नहीं है किंतु इन ज्ञानपरिणमनों का आधारभूत जो शाश्वत सहजज्ञान है वह है।
क्षणवर्ती परिणमनों के मूल में सहजभाव का प्रकाश―इस ही प्रकार दर्शन के परिणमन की आधारभूत जो शक्ति है वह सहजदर्शन है, चारित्र के परिणमन की आधारभूत जो सहज शक्ति है वह सहजचारित्र है। आनंदगुण के परिणमन की आधारभूत जो एक शक्ति है उसका नाम सहज आनंद है। इस स्वभाव में अपने उपयोग को लगा, अर्थात् इस सहजस्वभावरूप अपने को मानकर स्थिर हो जा। अब अन्यरूप कल्पना मत कर। अन्यरूप विकल्प मत कर तो तुझे वह निश्चय परम आवश्यक प्रकट हो जायेगा जिस परम आवश्यक गुण के प्रसाद से यह निश्चय समता का गुण प्रकट हुआ है।
अभीष्ठप्रयोजन सिद्धि―हे जीव ! तुझे चाहिए क्या? शुद्ध आनंद ना। यह विशुद्ध आनंद समतापरिणाम में ही मिलता है। जहाँ कोई रागद्वेष,पक्षपात का विकल्प चलता है वहाँ नियम से इसे कष्ट है, आकुलता है। जहाँ समतापरिणाम है वहाँ इसको आनंद है। यह समतापरिणाम अपने आपके शाश्वत स्वभाव में इस उपयोग को स्थिर करने से प्रकट होता है। तुझे तो आनंद चाहिए ना? उसका उपाय यह है कि समताभाव को स्थिर कर। जब समता प्रकट हो जाय, आनंद प्रकट हो जाय तब फिर तुझे और क्या चीज चाहिए? ये बाह्य 6 आवश्यक क्रियाकांड इनसे फिर क्या सिद्धि है? ये प्राक्पदवी के कार्य हैं। जब तक वह उत्कृष्ट अवस्था नहीं मिलती है उसके पा लेने पर फिर तुझे उन क्रियाकांडों से क्या प्रयोजन है, ये उपादेय नहीं हैं। एक दृष्टि इस परम आवश्यक की ओर लगा।
निश्चयपरमावश्यक से ही कल्याणलाभ―यह परम आवश्यक कार्य निष्क्रिय है अर्थात् हलनचलन, क्रियाकांड, विकल्पजाल―इन सब दोषों से परे है। वह तो एक निश्चय आत्मस्वरूप में निर्मग्नता उत्पन्न करने वाला है। इस आवश्यककार्य से ही जीव के सामायिक चारित्र की निर्भरता होती है। यह आवश्यक कार्य सुगम रीति से मुक्ति के आनंद को प्राप्त करा देने वाला है। हे आत्मन् ! यदि किसी प्रकार यह मन अपने स्वरूप से चलित होता हो,किसी बाह्य पदार्थ में हितबुद्धि करके सुख का विकल्प करके रह रहा हो तो समझो कि मैं संकटों की ओरजा रहा हूँ। जो तुझे रुचिकर हो रहे हैं ये बाह्यपदार्थ तेरी बरबादी के कारणभूत ही हैं। जिन कुटुंबजनों से रागभाव हो रहा है, चित्त में सर्वथा वही समा रहे हैं;जिनके सामने देव,शास्त्र अथवा गुरु ये कुछ भी नहीं जंच रहे हैं,तन, मन, धन, वचन जो कुछ भी अपने वर्तमान परिकर हैं उनमें ही अपने को न्यौछावर किये जा रहे हैं, ये सब बाह्य वैभव ही तेरी बरबादी के कारण हैं। जिन जीवों में तेरा मोह नहीं है वे जीव तेरे लिए भले हैं। तेरे विनाश का कारण तो नहीं बन रहे हैं। विनाश के कारण तो कोई परजीव नहीं होते।स्वयं की कल्पना ही विनाश का कारण है।
वैराग्य से आत्मा की संभाल―हे सुखार्थी ! तेरा मन अपने स्वरूप से चलित होकर बाहर भटक रहा हो तो तेरे में सर्व अवगुणों का प्रसंग आ गया है। अब तू अपने आपमें मग्न रहने का यत्न कर। इन परपदार्थों से तू वैराग्य धारण कर। कुछ सार न मिलेगा राग करके। राग हो रहा हो तो कम से कम उसे त्रुटि तो जान लो। अपराध भी करें और अपराध को अपराध भी न मान सकें तब फिर उसको कहीं पंथ न मिलेगा। तू संविद् चित्त वाला बन अथवा विषयप्रसंगों का खेद मान।‘गले पड़े बजाय सरे’ जैसी दृष्टि तो बना, मग्न तो मत हो जा। तू परद्रव्यों से उपेक्षाभाव करता रहेगा तो तू कभी मोक्षरूप स्थायी आनंदधाम का अधिपति बन जायेगा और इन बाह्य पदार्थों में राग करता रहेगा तो तू इन बाह्य पदार्थों के व्यामोह में भटकता ही रहेगा। न जाने किन-किन कुयोनियों में जन्ममरण करता रहेगा?
अपनी संभाल से संकट का विनाश―हे मुमुक्षु आत्मन् ! अपने चित्त को संभाल, इस लोक में अन्य कोई शरण नहीं है। सब जीव अपना-अपना परिणमन और प्रयोजन ही किया करते हैं, दूसरे का न कोई चाहने वाला है, न कोई पालनहार है। समस्त पदार्थ अपने स्वरूपसत्त्व के कारण स्वयं स्वरक्षित हैं और अपनीअपनी योग्यतानुसार योग्य उपाधि का निमित्त पाकर अपना ही परिणमन किए चले जा रहे हैं। अपने आपकी संभाल कर। मन, वचन,काय की क्रियावों के आडंबरों में निजबुद्धि मत कर। यदि इस प्रकार नियत चारित्र बना लेगा अर्थात् आत्मा का जैसा स्वरूप है शुद्ध ज्ञानप्रकाशमात्र उसमें रमेगा, शुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहने का यत्न करेगा, रागद्वेष पक्ष,इनको न अपनायेगा तो संसार के दु:ख अवश्य दूर होंगे।
दोष के यत्न से दोष के मिटने का अभाव―ये दु:ख,दु:ख को अपनाने से दूर न होंगे। खून का लगा हुआ दाग खून के धोने से नहीं मिटता है। वह तो यों दाग बढ़ता ही चला जायेगा। इस प्रकार मोहरागद्वेष की कल्पना से उत्पन्न हुआ यह क्लेश मोहरागद्वेष करने से न मिटेगा। दूसरे जीव के प्रति कोई द्वेष जग गया है तो द्वेष करने से यह द्वेष न मिटेगा। ऐसे ही किसी जीव के प्रति रागभाव होता है और उस राग के कारण क्लेश पाते चले जा रहे हैं तो यह क्लेश राग करने से न मिटेगा, ऐसे ही मोहजन्य विपदा मोह करने से दूर न होगी, किंतु इन रागद्वेषमोहभावों का प्रतिपक्षी जो आत्मा का शुद्ध ज्ञानप्रकाश है, इस ज्ञानप्रकाश के द्वारा ही यह समस्त क्लेशजाल मिटेगा। तू अपनी ओरआ। यह चारित्र, यह आत्मरमण, यह आत्मसंतोष, यह आत्ममग्नता नियम से सातिशय सुख का कारण होगा।
केवल के आलंबन से कैवल्यलाभ―भैया ! मोक्ष इस ही को तो कहते हैं कि केवल रह जाना। कर्मों का बंधन टूटना, भावकर्मों का बंधन छूटना और शरीर का वियोग हो जाना। केवल यह आत्मा स्वयं जिस स्वरूप वाला है उतना ही मात्र रह जाय इस ही का नाम मोक्ष है। यदि ऐसा मोक्ष पाना चाहते हो, इस मोक्ष के निरंतर वर्त रहे शुद्ध आनंद को यदि प्राप्त करना चाहते हो तो अपने कैवल्यस्वरूप का अनुभव करो। अपने आपको केवल जानो। केवल जाने माने बिना कैवल्य मिलेगा कहाँ? अब इन बाह्य विकल्पजालों में आत्मबुद्धि न रखकर एक इस शुद्ध ज्ञानप्रकाश में अपना स्वरूप स्वीकार करें। इस शुद्ध दृष्टि के प्रताप से तू नियम से निर्वाण का आनंद पायेगा। ऐसी शुद्ध दृष्टि होना अथवा ज्ञाताद्रष्टा रहना यही है परम आवश्यक कार्य। इस कार्य के लिए तू अपने स्वरूप का ज्ञान कर, यत्न कर और इसही में रमण कर।