वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 153
From जैनकोष
वणयमयं पडिकमणं वयणमयं पच्चखाण णियमं च।
आलोयण वणयमयं तं सव्बं जाण सज्झाउं।।153।।
परमावश्यक का दिग्दर्शन―आत्मा को आनंदमय अवस्था में धारण करना सो आत्मा का उद्धार है। आत्मा के उद्धार के लिए निश्चय से क्या करना चाहिए? उसका दिग्दर्शन करने के लिए यह निश्चय परम आवश्यक अधिकार कहा जा रहा है। कल्याणार्थी पुरुष को समस्त अनात्मतत्त्वों से दृष्टि हटाकर देह, संपदा, रागादिकभाव, कल्पना―इन समस्त परभावों से दृष्टि हटाकर एक शाश्वत अविकार ज्ञायकस्वरूप चित्स्वभाव में दृष्टि रखना चाहिए और यहाँ ही अपना उपयोग स्थिर रखना चाहिए, यही है आवश्यक काम।
वचनमय प्रतिक्रमणादिक की स्वाध्यायरूपता-निश्चय आवश्यककाम का लक्ष्य रखते हुए जो मन, वचन, काय की चेष्टा होती है वह व्यवहारिक आवश्यक कर्तव्य कहलाता है। उन व्यवहारिक आवश्यक कर्तव्यों में जो प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना की जाती है वह वचनमय ही तो होगा। यहाँ इस परमआवश्यक के प्रसंग में यह बता रहे हैं कि वचनमय जो प्रतिक्रमण है, प्रत्याख्यान है, नियम है, आलोचना है इन सबको स्वाध्याय कहते हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ है लगे हुए दोषों का निराकरण करना। प्रतिक्रमण रोज सुबहशाम किया जाता है और फिर पक्ष में एक बार किया जाता है, फिर चार महीने में इकट्ठा प्रतिक्रमण किया जाता है, फिर एक वर्ष में एक बार एक वर्ष के दोषों का प्रतिक्रमण किया जाता है और फिर अंत में मरण के समय में समस्त जीवन में लगे हुए दोषों के निराकरण के लिए प्रतिक्रमण किया जाता है। उन प्रतिक्रमणों में वचनों से कहना कि मैंने अमुक अपराध किया, अमुक दोष हुआ, यह मिथ्या हो, दूर हो, इस प्रकार वचनों से प्रतिक्रमण को कहना इसे स्वाध्याय बताया गया है।
स्वस्वचनमय धार्मिक प्रकरणों की स्वाध्यायरूपता―वचनों से जो कुछ कहा जा रहा है उसे अंतरंग में रख लेना सो तो वास्तविक प्रतिक्रमण है। जैसे कोई पूजन रोज-रोज करता है, दर्शन और स्तुति पढ़ता है रोजरोज,तो उस दर्शनपूजन में जो कुछ कहा जा रहा है, प्रभु के गुणों का जो गान किया जा रहा है, हे प्रभु ! तुम वीतराग हो, सर्वलोक के जाननहार हो, तुम शुद्ध हो, समस्त संकटों से दूर हो, जो कुछ कहा जा रहा है उस रूप निरखने का उपयोग सो तो है वास्तविक, पूजनदर्शन और केवल वचनों से कह लेना यह स्वाध्यायमात्र है। जैसे ग्रंथ में पढ़ लिया वह स्वाध्याय है, इसी प्रकार पूजनस्तवन इनका भी मुख से पढ़ लेना सो स्वाध्याय है।
प्राकरणिक शिक्षण-इस गाथा में, इस प्रसंग को कहने का प्रयोजन यह है कि कल्याणार्थी पुरुष को परमावश्यक कार्य करने के लिए सर्व प्रकार के वचनों का व्यापार छोड़ना चाहिए। जैसे किसी कार्य के प्रसंग में लोग कहते हैं―अब यह बात करना तो छोड़ दो, काम शुरू करो। जैसे सभा सोसाइटी में जब प्रस्ताव बड़े-बड़े रक्खे जाते हैं तो कोई लोग यह भी प्रस्ताव कर बैठते हैं कि प्रस्ताव तो बहुत हो चुके, किंतु अब इनको अमल में लेना चाहिए। ऐसे ही जो हमारे कल्याण के लिए आवश्यक कर्तव्य हैं―पूजन, वंदन, स्तवन, प्रतिक्रमण, आलोचना आदिक। वे सब वचनमय ही नहीं रहें, किंतु उनका असली रूप होना चाहिए। जो असलीरूप होता है उसमें फिर वचन नहीं रहते हैं। जब तक वचन बोले जाते हैं वे वचन ही हैं, अतएव परमआवश्यक के प्रसंग में समस्त वचन व्यापारों का निरोध किया गया है।
कर्तव्य प्रवर्तन―आवश्यक कर्तव्य में, व्यवहार में यह सब किया जाता है। प्रत्येक कल्याणार्थी पुरुष अपने निर्यापक आचार्य के शासन में रहा करता है। आचार्य दो प्रकार के होते हैं―एक दीक्षादायक आचार्य और एक निर्यापक आचार्य। जो दूसरे को दीक्षा दे, व्रत दे वह तो है प्रवज्यादायक आचार्य और यह ही आचार्य निर्यापक भी होता है। निर्यापक का अर्थ है उसके व्रत को निभा देना। कोई कभी दोष होता है तो आचार्य से आलोचना करना, उसका दोष दूर कराने के लिए प्रायश्चित्त देना, यह निर्यापक का कार्य होता है, पर कभी दीक्षादायक आचार्य न हों, उनका संग न मिले, उनका स्वर्गवास हो जाय अथवा दूर देशांतर वियोग हो जाय तो किसी योग्य श्रमण को निर्यापक आचार्य चुन लिया जाता है और उनके शासन में अपना व्रतपालन किया जाता है। यह सब व्यवहार में करना आवश्यक है। निर्यापक आचार्य के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना, उनके समक्ष प्रतिक्रमण करना, ये सब आवश्यक कर्तव्य हैं। निर्यापक आचार्य के मुख से जो वचन निकले उसे ग्रहण करना व उसका पालन करना यह भी आवश्यकहै। निर्यापक के आदेश का पालन करना समस्त पापों के क्षय का कारणभूत है, किंतु केवल एक वचनों की ही बात रह गयी तो यद्यपि वह भी काम किया जाता है, किंतु साधारणरूप से जो स्वाध्याय करना है वह जितना फल देता है उतना ही फल उस वचनमय प्रतिक्रमण आदिक से मिलता है।
शुभ और शुद्ध प्रयत्न―भैया ! श्रमण के विषयसाधनों से पूर्ण उपेक्षा हो गई, कहाँ मन रखे अब? शुभभाव होगा कुछ अंतरंग में कर्तव्य का ध्यान रहेगा, पर वह सब स्वाध्याय है। वचनमय व्यवहारप्रतिक्रमण आदिक में जो कुछ करना चाहिए, उपयोग द्वारा अंतर में करने लगे वह है परमावश्यक और निश्चयप्रतिक्रमण। समस्त श्रूत वचनरूप है, प्रतिक्रमण आदिक के पाठ भी द्रव्यश्रुत में आये हैं और उस द्रव्यश्रुत को वचनों से वह बोल रहा है यों वह स्वाध्याय ही कर रहा है, उसे अपने अमल में उतारें। उपयोग में उसे लिया जाय तो वे निश्चयप्रतिक्रमण आदिक हो जाते हैं। ये सब बोलना तो वचनवर्गणा के योग्य जो पुद्गल द्रव्य हैं उनका परिणमन है। वे शब्द परमार्थत: बाह्य नहीं हैं, किंतु आत्मभाव, जिसको आश्रय लेने से समस्त कर्म और बंधन कट जाते हैं, वह आत्मतत्त्व ग्रहण के योग्य है।
प्रत्याख्यान और आलोचना―प्रत्याख्यान नाम है त्याग करने का। अब आगामी काल में मैं ऐसा न करूँगा, इस प्रकार का वचनव्यवहार प्रत्याख्यान पाठ का स्वाध्याय है, उस प्रकार का जो परिणाम करना है उसका नाम है परमप्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान करने लगे और उसे भी निश्चयरूप से करने लगे, बाह्य वस्तुवों का विकल्प तोड़कर निर्विकल्प शाश्वत आत्मस्वभाव में अपना उपयोग रत करे, यह है वास्तविक याने शुद्ध निश्चयत: प्रत्याख्यान। त्याग संबंधी निश्चयों को वचनों से कहना उसका नाम वचनमय नियम है।‘मैं यह नियम करता हूँ’ऐसा वचनों से बोलना यह तो स्वाध्याय का रूप है। बोल देने पर उसे अमल में लेवे वह है निश्चय नियमपालन और परमआवश्यक में यह नियमपालन शुद्धनिश्चय से एकरूप है। यों ही आलोचना, गुरु के सम्मुख वचनों से बोल देना वह स्वाध्याय है। हृदयभीने भाव से कहा गया तो यह स्वाध्याय का एक विशिष्ट रूप है, जिसमें उपयोग भी लगा और उस दोष का निराकरण किया तो उस प्रसंग में दोषरहित शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का दर्शन हुआ, लक्ष्य हुआ, उसकी ओर ही झुकाव हुआ तो वह नियमपालन होने लगा। वचनमय जो आलोचन होता है वह भी स्वाध्याय है।
परमकर्तव्य शिक्षण―इस प्रसंग में यह शिक्षा लेनी है कि हम धार्मिक विषयों से संबंधित जितने भी व्यवहारवचन करें, केवल बोलकर तुष्ट न हों, हमारी दृष्टि पालन में होनी चाहिए, उस व्यवहार में शांति करके हम उसके पालन में लगें। ये सब पौद्गलिक वचनमय हैं भक्ति पाठ आदिक करना है,वह सब स्वाध्याय हैं। कोईकोई प्रभु की भक्ति के अर्थ जयवाद भी बोलते हैं―भगवान की जय हो, शांतिनाथ की जय हो, प्रभु को नमस्कार हो, धन्य हो प्रभु आदिक जो शब्द बोलते हैं, स्तवन पढ़ते हैं, जितने समय जो कुछ उच्चारण करते हैं, मुख से पाठ करते हैं, बारह भावना बोलते हैं उनकी दृष्टि करना, यह है भावना आदिक कार्य, परवचनों से बोला जाना भी तो स्वाध्याय है। स्वाध्याय भी केवल वचन बोलने का नाम नहीं है, स्वाध्याय में भी स्व का अध्ययन होता है। अपने आत्मा के हित की दृष्टि से अपने आत्मा का स्पर्श करता हुआ पढ़ना सो स्वाध्याय है। ये सब पौद्गलिक वचन होने से सबके सब स्वाध्याय हैं। इस प्रकार हे शिष्य ! तू इन वचनव्यवहारों से भी आगे बढकर अंतर में आकर अपने स्वरूप में अनुभव कर।
उत्थान के लिये कैवल्य के आलंबन की आवश्यकता―जिसे मोक्ष के सुख की चाह हो उसे अपने आपको केवल अनुभव करना चाहिए। मोक्ष नाम है केवल रह जाने का। न शरीर रहे, न कर्म रहे,न आत्मा के विभाव रहें, तर्कवितर्क कल्पनाएँ रागादिक कुछ भी न रहें, केवल शुद्ध ज्ञाताद्रष्टारूप परिणमन रहे और केवल आत्मप्रदेश अबद्ध रहा करे उसका नाम मोक्ष है। उस मोक्ष में जो सुख मिला है, आनंद का अनुभवन हो रहा है वह कल्पना का अनुभव है, केवल अपने आपके स्वरूप का वहाँ अनुभव है, यही आनंदहै। तो कैवल्य का आनंद पाने के लिए यहाँ भी तो कैवल्य दृष्टि होनी चाहिए। जो पुरुष अपने को केवल नहीं देखता है, देह को लक्ष्य करके कहता है कि यह मैं मनुष्य हूँ,अमुक परिस्थिति का हूँ,इस प्रकार से नानारूप अपने को मान रहा हो वह मोक्षमार्ग में नहीं है। अपने आपको अकेला अनुभव करोगे तोआनंद मिलेगा। अपने को अकेला अनुभव करना यही शांति का मार्ग है अपने की किसी दूसरे रूप अनुभव करना―यह तो अशांति का मार्ग है और संसार में रुलने का कारण है। इस कारण सुखार्थी पुरुषों को अपने आपको अकेला निरखना चाहिए।
अनात्मतत्त्व की उपेक्षा का शांतिमिलन में पूर्ण सहयोग―भैया ! इस समस्त जगत-जाल को, लौकिक वैभवसंपदा को,इन समस्त समूहों को तृण समान जानो। जैसे किसी तृण से कुछ मेरा लाभ नहीं होता है ऐसे ही इन सबको तिनके के समान मानना है। जैसे आपके कोट पर कोई तिनका लगा हो तो उसे आप उपेक्षा करके उठाकर फैंक देते हैं, फिर उस ओर दृष्टि भी नहीं करते, इसी तरह एक आत्मस्वरूप को छोड़कर शेष जितने भी अनात्मतत्त्व हैं, परभाव हैं, परपदार्थ हैं वे सब भी इस आत्मा का हित नहीं कर सकते हैं। ये आत्महित करने में त्रिकाल असमर्थ हैं। अत: उपयोग द्वारा उन समस्त परपदार्थों की,परभावों की दृष्टि त्यागकर और उनको इस तरह त्यागकर कि फिर उनकी ओर देखने का अंतरंग में परिणाम न उत्पन्न हो, एक बार इस निज शुद्ध कैवल्यस्वरूप का अनुभव तो किया जाय। इससे आत्मा को शांति का मार्ग मिलेगा।
अनंतमहिम चैतन्य महाप्रभु की ओर ज्ञानी का आकर्षण―यह आत्मस्वरूप निरंतर नित्य आनंद आदिक अतुल महिमा को धारण करने वाला है जिसने आत्ममहिमा नहीं जानी हैवह दूसरे जीवों को, दूसरे पदार्थों को चित्त से चाहकर उनका भिखारी बन रहा है, उनसे भीख मांग रहा है। इसे अपने आपकी इस अनंत महिमा का परिचय नहीं होता है। जो महिमा प्रभु में पूर्ण व्यक्त हो गयी है उस महिमा को व्यक्त करने की दृष्टि ही इसकी नहीं होती है। यह पुरुष, यह निकट भव्य सर्वप्रकार की वचनरचना को छोड़कर ऐसा अपने आपमें उत्साह जगाता है कि मैं अबसे सदाकाल के लिए गुप्त, वचनों के अगोचर इस आत्मतत्त्व में ही ठहरूँगा। इस संकल्प के साथ इन समस्त परभावों से उपयोग हटाकर अपने में स्थित होता हे और सारे जगजाल को रागद्वेष, यश, प्रतिष्ठा, परिजन व्यवहार, इन समस्त जगजालों को त्यागकर परमविश्राम लेता है।
स्वाध्याय के प्रकार―इस गाथा में यह बताया गया है कि ये सब प्रतिक्रमण आदिक वचनरूप होने से स्वाध्याय कहलाते हैं। स्वाध्याय 5 प्रकार के कहे गए हैं। पहिला है परिवर्तन।पढ़े हुए पाठ को दुहरा लेना यह स्वाध्याय कहलाता है। जिसे अपन भी रोज-रोज करते हैं;स्तुति, पूजन अथवा किसी ग्रंथ को बारबार दुहराना―ये सब परिवर्तन हैं। शास्त्र का व्याख्यान करना यह सब बांचना है।पढ़ लेना और उसका जो अर्थ है, मर्म है उसे भी उपयोग में लेते रहना यह सब बांचना है। पृच्छना, (पूछना) अथवा शास्त्र सुनना यह सब भी स्वाध्याय है। बड़ी हितबुद्धि से जिससे मुझे लाभ हो, मेरी शंकाएँ दूर हों, ऐसा नम्रतापूर्वक जो पूछना है कुछ भी,उसे भी स्वाध्याय कहते हैं। शास्त्र का सुनना यह भी स्वाध्याय है, शास्त्र को बांचना यह भी स्वाध्याय है और अनित्य आदिक बारह भावनावों का,अन्य भी तत्त्वों का बारबार चिंतन करना सो अनुप्रेक्षा नामक स्वाध्याय है। महापुरुषों के, शलाका पुरुषों के चारित्र कहना यह धर्मकथा है, यह भी स्वाध्याय है, ऐसे 5 प्रकारों का जो स्तुति मंगल सहित शब्द वाचन है वह सब स्वाध्याय है। इस परिभाषा में वे प्रतिक्रमण आदिक के वचन भी गर्भित हो जाते हैं। यह चीज हमारे स्वाध्यायरूप रहे। स्वाध्याय का मार्ग है पर स्वाध्याय में जो लक्ष्य है स्वाध्याय का, स्व की दृष्टि, स्व में स्थिरता, उस और भी हमारा पुरुषार्थ होना चाहिए।
धर्मपालन का अनुरोध―हम यदि मोह ममता को हटाकर अपने आपमें शुद्ध ज्ञानस्वरूप अपने आपको निरखने का यत्न करते हैं तब तो हम धर्म का पुरुषार्थ कर रहे हैं, उससे हमें लाभ होगा, मोक्षमार्ग मिलेगा और अंतरंग में वह पुरुषार्थ न लगे और ये वचनमय हमारे समस्त आवश्यक कर्म चलते रहें तो ये स्वर्ग आदिक सद्गतियां देने वाले हैं, साक्षात् मोक्ष का कारण नहीं है।धर्म और पुण्य में अंतर है। धर्म है मोक्ष का कारण और पुण्य है स्वर्ग,संपदा,श्रेष्ठ मनुष्यजन्म आदिक सद्गतियों का कारण। पुण्य से सांसारिक समृद्धि मिलती है और धर्म से कैवल्य का आनंद मिलता है। इसीलिए धर्म निरालंब है और पुण्य सालंब है। धर्म अपने आपमें अपने द्वारा अपने आप होता है और पुण्य भी यद्यपि आत्मा का ही परिणमन है पर उसमें कोई परद्रव्य विषय रहते हैं। प्रभु के गुणों की ओरदृष्टि रखकर जो भक्ति,स्तवन होता है उसका नाम पुण्यकार्य है। पुण्यकार्य से भी परे होकर धर्मकार्य में लगें। इसके लिए यहाँ प्रेरणा दी गई है कि उस वचनमय व्यवहार से भी और ऊपर उठकर अपने आत्मा के स्वरूप में दृष्टि दें और उत्तम ध्यान करें।