वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 154
From जैनकोष
जदि सक्कादि काटुं जे पडिकमणादि करेज्ज झाणमयं।
सत्तिविहीणो जा जइ सद्दहणं चेव कायव्बं।।154।।
श्रमणों का कर्तव्य और श्रद्धान―निश्चय से योगिराजों को क्या करना चाहिए? इस संबंध में बहुत कुछ वर्णन के बाद अब आचार्यदेव यह कह रहे हैं कि करने योग्य कार्य तो ध्यानमय प्रतिक्रमण आदिक ही हैं। यदि तेरी सामर्थ्य है तो तू इस ध्यानमय प्रतिक्रमण आदिक को कर, किंतु यदि शक्तिहीन है, हीन संहनन का धारी है तो उसका श्रद्धान तो कर ही कर। इस गाथा में शुद्ध निश्चय धर्मध्यानरूप प्रतिक्रमण ही करना चाहिए, इस बात पर जोर दिया है।
मुक्तिलक्ष्मीदर्शन की भेंट―यह निश्चयप्रतिक्रमण आदि परमावश्यक पुरुषार्थ मुक्तिलक्ष्मी के प्रथम दर्शन करने के लिए भेंट की तरह है। जैसे किसी महापुरुष से प्रथम बार मिला जाय तो उस मिलने के समय में भेंट नजर की जाती है, इसी प्रकार मोक्षलक्ष्मी के दर्शन की तुम्हें भावना हो तो सर्वप्रथम तू अपने भेंट की तैयारी कर। जो भेंट नजर किया जायेगा वह भेंट है, शुद्ध निश्चयप्रतिक्रमण आदिक परमआवश्यक पुरुषार्थ। हे हितैषी श्रमण ! तुझे यह निश्चय कार्य ही करने योग्य है। तू अपने स्वरूप से बाहर कुछ मत देख। बाहर में तो सब कुछ तेरी बरबादी के ही साधन हैं। बाहर देखने में तू बाह्य पदार्थों में अपना उपयोग लगायेगा और कल्पनावश नाना विकल्प मचायेगा। उसमें तेरे स्वरूप का घात है, बाहर कुछ मत निरख।
कुल का आदर्श―हे श्रमण ! तू तीर्थंकरों के कुल का है। तेरे कुल में अनेक महापुरुष दिगंबरी दीक्षा धारण करके अपने आत्मा के उपयोग को आत्मा में ही स्थित करके परमधाम निर्वाण को पधारे हैं, शुद्ध हो गए हैं। बाह्य पदार्थों की ओर दृष्टि मत दो। समस्त बाह्य पदार्थों को तू भिन्न,अहित,असार समझ। तेरे हित का साधन तेरे स्वरूप का ही आलंबन है। निश्चय प्रतिक्रमण आदिक सत् कर्तव्य हैं। श्रमणजनों को यह शिक्षा दी जा रही है, मुनिजनों की यह बात है, किंतु इस प्रकरण को सुनकर गृहस्थजन भी अपने पद के योग्य अपना कल्याण कर सकते हैं।
श्रावक का श्रद्धान, ज्ञान व झुकाव―जो करने योग्य काम है, उसका ज्ञान गृहस्थ और साधु के एक समान होता है। गृहस्थ और साधु में करने का अंतर है, पर जानने, मानने, श्रद्धान करने का अंतर नहीं है। जानने,प्रयोजनभूत बात को समझने की जितनी स्पष्टता साधु में है उतनी ही स्पष्टता गृहस्थ में भी होनी चाहिए। मोक्षमार्ग के प्रति, आत्मधर्म के प्रति जो श्रद्धान साधु का होता है वही श्रद्धान गृहस्थ का होता है। फर्क केवल आचरण का है। यह गृहस्थ व्यापार आदिक अनेक प्रसंगों में पड़ा हुआ है इसलिए यह करने में कमजोर है। जो तत्त्व समझा है उसको आचरण में लेने का यहाँ काम रहता है, किंतु श्रमण चूँकि समस्त आरंभ और परिग्रहों से विरक्त हुए हैं, असंग हैं, नि:शंक हैं, केवल गात्र मात्र ही उनके परिग्रह है, सो उनको ज्ञानानुभूति करना, ज्ञानचर्चा करना आसान है, वे स्वरूप में उपयोग की स्थिरता को किया करते हैं।इस प्रकार आचरण में तो अंतर हो जाता है, पर श्रद्धान और प्रयोजनभूत तत्त्वज्ञान इन दोनों बातों में जितना साधु है उतना ही गृहस्थ हो सकता है और होना चाहिए।
मुक्तिप्राभृत―भैया ! ज्ञान का काम जानन है। ज्ञान को अपना काम करने में अटक नहीं आती है। यह ज्ञान बेअटक जिस ओरचाहे पहुंचता है। यह ज्ञान बाह्य पदार्थों की ओर न जाकर अपने आपके अंत:चमत्कार में इंद्रियों को संयत करके बाह्य पदार्थों की दृष्टि न करके अपने आपमें अंतरंग में कुछ खोजा जाय तो क्या जान नहीं सकता। जानेगा।अपने आपके अंत:स्वरूप को जानना और जानते ही रहना, यह है परमआवश्यक काम और यही है मुक्तिलक्ष्मी के प्रथम दर्शन के लिए भेंट। भेंट के बिना महापुरुष के दर्शन न करना चाहिए, होते भी नहीं हैं, फल भी नहीं मिलता है। तो मुक्तिलक्ष्मी के प्रथम दर्शन में यह साधक की भेंट है। भेंट में जैसे मूल्यवान् अनेक प्रकार के पदार्थ होते हैं वे सब पदार्थ मूल्यवान् होते हैं। इस ही प्रकार एक मोक्षमार्ग की दृष्टि से वह समस्त भेंट एक समान है लेकिन प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, शुद्धनिश्चयनय की ये सब क्रियाएँ नाना हैं। इन भेंटरूप निश्चयक्रियावों को हितार्थी पुरुषों को करना ही चाहिए।
अंत:पुरुषार्थ का महत्त्व―हम धर्म के प्रसंग में अपना समय लगाते हैं, तन से श्रम करते हैं, वचनों से पाठ भी करते हैं, मन को लगाने का यत्न भी करते हैं, एक हार्दिक भावना से यह धर्म की लगन बने तो इसका लाभ भी उठाया जा सकता है। धर्म का लाभ वही पुरुष उठा सकता है जिसका अंतरंग में यह शत् प्रतिशत निर्णय है कि यह परिजन,धन,वैभव,यह देह,सभी के सभी अत्यंत भिन्न हैं, इनसे मेरा रंच भी नाता नहीं है। यह तो सब बखेड़ा है, जितने दिन जी रहे हैं उतने दिन मिल रहे हैं। जब दो में से कोई बिछुड़ जाता है तब पता पड़ता है कि ओह ! कोई न था मेरा, ध्यान में तब आता है। अरे ! जो ध्यान में पीछे आयेगा कि कुछ भी न था मेरा, वह ध्यान पहिले से रहे तो कुछ जीवन भी सफल हो जायेगा। आखिर अंत में मानना तो पड़ेगा ही। स्ववश न माने, परवश माने, पर अपनी श्रद्धा से स्ववश ही पहिले से मान लेवे तो उसका भला हो जायेगा। अरे ! दिन रात के 24 घंटे तो हैं उनमें यदि दस पाँचमिनट एक सच्चाई के पथ पर चलने का आग्रह करके उद्यम करें अपने आपको केवल समझने के लिए तो कौनसा बिगाड़ हो गया। रातदिन तो संपदा और परिजन के विकल्प तो लादे हुए हैं। उनसे कौनसा सुधार हो जायेगा? सर्वविकल्पों को छोड़कर केवल एक अपने को असहाय निरखकर आत्मा के ध्यान में ही समय व्यतीत किया जाय तो यह जीवन भी सफल हो जाय।
संगप्रसंग में आत्मविघात―लोग कहते हैं कोयले की दलाली में काला हाथ। अरे ! कोयले की कोठरी में तो काला हाथ होता है, उनसे तो कुछ टके मिल जाते हैं, पर इन सांसारिक समागमों से लाभ कुछ नहीं मिलता है। यहाँ जिंदगी से जिये, मोह बढ़ाया और सब बिछुड़ गए। सभी लोग अपने-अपने मोह की करतूत के माफिक पापबंध करके जिस-जिस कुगति में उत्पन्न होते हैं उनका दु:ख भोगना पड़ता है, सहाय कोई नहीं होगा। जब यह जीव नरकगति में जन्म लेता है तब यह पछताता है। जिस कुटुंब के कारण जिस इज्जतप्रतिष्ठा के लिए, धनसंपदा के लिये अन्याय किया, पाप किया,मिथ्याचार किया वे सब बिछुड़ेंगे। उनमें से आज कोई साथी नहीं है। ये सारे क्लेश उसे अकेले ही भोगने पड रहे हैं। किसका विश्वास करते हो? अरे दस-पाँच मिनट अपना हृदय शुद्ध बनावो और किसी भी परवस्तु में ममता न लावो। नाते की रस्सी को एकदम काट दो, यह निर्णय रक्खो कि मेरा किसी से रंच भी संबंध नहीं है, सभी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में परिपूर्ण हैं, किसी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ से, न द्रव्य, न क्षेत्र, न काल, न भाव किसी भी दृष्टि से संबंध नहीं है। अपने को अकेला तको उत्कृष्ट आनंद जगेगा। अपने को शुद्ध ज्ञानमात्र निरखो, मोह में कुछ न पा सकोगे। अपने आपको अकेला निरखने में तू अलौकिक चमत्कार पा लेगा।
कलिप्रभाव―हे श्रमण ! करने योग्य तो कार्य केवल आत्मध्यान ही है। इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप आत्मा के ध्यान से प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान,आलोचना समस्त सत्क्रियाएँ गर्भित हैं। यह ग्रंथ पंचमकाल में बना हुआ है। इसमें तत्त्व तो जिनेंद्रदेव का ही है, किंतु ग्रंथ उस समय का बनाया है जिस समय में श्रमणों की शक्ति हीन हो जाने से, शरीर का संहनन कमजोर होने से मुक्ति का मार्ग न रहा था, साक्षात् मोक्ष का लाभ न होता था। आचार्यदेव थोड़ा खेद के साथ कह रहे हैं―हे मुने ! करना तो यही चाहिए एक अभेद आत्मध्यान, लेकिन संहनन की शक्ति कमजोर है, तब हे श्रमण ! यद्यपि भाव से तूने तो अपनी तैयारी में कोई कसर न रख रखी है, पंचेंद्रिय के विषयों से तू अत्यंत दूर है, शरीर मात्र ही तेरे साथ परिग्रह रह गया है,बड़ी सच्चाई ईमानदारी से तू अपने आत्मकल्याण में जुटा है लेकिन संहनन की हीनता में यह उत्कृष्ट ध्यान नहीं हो पाता है, साक्षात् मोक्ष का लाभ नहीं मिल पाता है। तू इतना तो दृढ़ता से ही कर कि उसका पूर्ण श्रद्धान रख और जितनी शक्ति है, जितना पुरुषार्थ है, बल है उसे लाभ की ओरलगा।
आत्मा का पर से पार्थक्य―भैया ! यह जीवन विनश्वर है। प्रतिक्षण हम मरण के निकट पहुंच रहे हैं। कोई पुरुष 50 वर्ष का हो गया, इसका अर्थ यह है कि जितना जीना था उसमें से 50 वर्ष निकल गए।अब थोड़ी आयु रह गयी है। जो कुछ आयु रह गयी है वह भी शीघ्र व्यतीत होगी। दूसरों को भी तो इसने देखा है वे पैदा हुए, जल्दी समय बिता गये, गुजर गए। वही हाल हमआपका भी होने को है। रहा सहा शेष यह थोड़ा समय भी किसी प्रकार व्यतीत करना है। परिजन में रागभरी बातें बढ़ा-बढ़ाकर व्यर्थ ही अपने मन को बिगाड़कर इस ही प्रकार बरबाद करना है क्या? ऐसा बरबाद करने के बाद भी तो तू यहाँ न रहेगा। तेरा यहाँ किसी से भी रंच भी तो संबंध नहीं है।
आनंदनिधि निजप्रभु से आनंदविकास―भैया ! आनंद तो आनंद के निधान इस निजस्वरूप में बसने से प्रकट होता है। वह आनंदनिधि का आत्मप्रभु इतना बिगड़ गया है कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि जैसे विकट नाना शरीरों में भी आज फँसा है। अपने आपके अंत:स्वरूप में प्रवेश नहीं कर पा रहा है। इतनी बंधनदशा होने पर भी जो भी जिसे सुख हो रहा है, वैषयिक सुखों के बहाने ये आनंद की ही किरणें मलिन बन-बनकर प्रकट हो रही हैं। यह सुख विषयों से नहीं निकल रहा है, भोजन, वस्त्र, परिजन ये जुदे पदार्थ हैं, जो दिख रहे हैं इनमें आनंद नाम का गुण भी नहीं है, फिर ये पदार्थ मुझे आनंद कहाँ से देंगे? इनको सोचकर भी जो हम सुखी हुआ करते हैं वह मेरे ही स्वरूप का आनंद मलिन बन-बनकर सुख के रूप में प्रकट होता है। कहीं बाह्य चीजों से सुख नहीं मिल रहा है। ऐसे अतुल आनंदनिधान अपने प्रभु की उपेक्षा कर रहा है यह मोही जीव और स्वयं जो मलिन है, मिथ्यात्वअंधकार में ग्रस्त है ऐसे परिजन,वैभव इनकी ओरयह मोही जीव अपनी दृष्टि बना रहा है।
वर्तमान श्रमण परमेष्ठियों का प्रतिबोध―हे मुनि ! यद्यपि तू उत्कृष्ट परमजैनेंद्र आगम की भक्ति में इतना लीन है जैसे कि कोई भंवरा मल के पराग का तीव्र अनुरागी रहता है ऐसे ही तू भगवान के स्वाध्याय का, शास्त्रमनन का विशिष्ट अनुरागी है। तेरे में सब गुण उत्कृष्ट प्रकट हैं। सहज तुझे वैराग्य भी है। तुझे कोई सांसारिक सुख की कामना भी नहीं है, परद्रव्यों से तेरा उपयोग निवृत्त है, अपने आत्मद्रव्य में अपना उपयोग ही तू लगाये है लेकिन खेद की बात है कि यह शरीर संहननहीन है, यह काल अयोग्यकाल है, कमजोर काल है, इस काल में अब और कुछ विशेष कार्य न हो सकेगा याने निर्वाण लाभ न हो सकेगा तो इस निज परमात्मतत्त्व का श्रद्धान ही दृढ़ बनाये रहो। इस प्रकार खेद पूर्वक आचार्यदेव परमभक्त श्रमणजनों को प्रतिबोधन कर रहे हैं कि श्रद्धा से तुम च्युत मत होओ। कितनी भी विकट प्रतिकूल परिस्थितियां आएँ तब भी तू अपने आपको यों ही निरख कि यह मैं शुद्ध ज्ञायकस्वरूप परम तत्त्व ही अपने लिए शरणभूत हूँ। यह शुद्ध ज्ञान और आनंद के स्वभाव वाला है। ऐसे इस निश्चय परमात्मतत्त्व का तो श्रद्धान करना ही चाहिए।
भवभयविनाशिनी श्रद्धान―यह संसार असार है। यहाँ किसी भी पदार्थ में प्रेम करने से कुछ भी सार तत्त्व हाथ नहीं आता है। जितना पर की ओर उल्झोगे उतना ही अपने को रीता करके चले जावोगे। इस असार संसार में पापों से भरपूर कलिकाल का नाच हो रहा है। जहाँ जाते हैं वहाँ ही विषय-कषायों के प्रेमियों का झुंड नजर आता है। मोह,राग,द्वेष,छल,कपट,ईर्ष्या सभी अवगुण इस कलिकाल में नृत्य कर रहे हैं, ऐसे इस समय में निर्दोष जैनेंद्रमार्ग में मुक्ति नहीं बतायी गई है, लेकिन खेद मत करो, अपने आपके आत्मा की ओर दृष्टि है तो तू मोक्षमार्ग में ही लगा हुआ है। विषाद की बात तो तब होती है जब तू अपने श्रद्धान से भी विचलित होता। इस काल में उत्कृष्ट अध्यात्म ध्यान नहीं बन सकता है, जिस ध्यान के प्रताप से अष्टकर्मों का नाश होकर सिद्ध पद अभी मिल जाय, लेकिन हे श्रमण ! तू अपनी बुद्धि को निर्मल बना। देख ! यह निज परमात्मतत्त्व की श्रद्धा भवभय का नाश करने वाली है। अब तेरे स्वरूप में भव ही नहीं है, तू भय किसका करता है? शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप अपने अंतस्तत्त्व में अपनी श्रद्धा बना, फिर डर किस बात का है? अब भव का नाश करने वाले निज परमात्मतत्त्व की श्रद्धा कर।
अंतस्तत्त्व के श्रद्धान का प्रभाव―उक्त प्रकार से इस गाथा में कर्तव्य की बात तो एक आत्मध्यान ही है ऐसा बताया है। धर्म के लिए बाहर में तन, मन, वचन, काय की चेष्टाएँ इस देहदेवालय में रहने वाले इस परमात्मप्रभु की निर्मलता का अनुमान कराने वाली है क्योंकि ज्ञानी आत्मा से अधिष्ठित देह की क्रियायें जो होंगी ये शुभ ही होती हैं। करने योग्य कार्य तो अपने को शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप अनुभवने का है, ध्यान करो, भावना करो तो इस प्रकार की―मैं केवल ज्ञानप्रकाशमात्र हूँ,भावना अनेक बार की जाती है। ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपकी भावना निरंतर बनायें तो जैसी भावना होगी तैसा अनुभव हो जायेगा। शुद्ध ज्ञान के अनुभव का यही उपाय है कि अपने को शुद्ध ज्ञानस्वरूप में ही अनुभव करते रहें, इस भावना के प्रमाद से इस ज्ञानतत्त्व का अनुभव भी होगा, जिस अनुभव के साथ सहजशुद्ध आनंद प्रकट होगा और ये समस्त संसार के संकट दूर हो जायेंगे।