वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 180
From जैनकोष
ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाणं।।180।।
परम तत्त्व—समस्त संकटों के कारण व उपकारणों के बुझ जाने का नाम निर्वाण है। इस जीव के परमोत्कृष्ट अवस्था मोक्ष की है। जहाँ शरीर, कर्म और रागादिक भाव सभी प्रकार के कलंक समाप्त हो जाते हैं और केवल शुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप यह परमात्मतत्त्व रहता है उस स्थिति को निर्वाण कहते हैं। यह दृश्यमान् जगजाल मायारूप है, यहाँ परमार्थभूत तत्त्व कुछ नहीं है। जैसे नाना पुद्गल स्कंधों के मेल से ये सब कुछ जो स्थूल दिख रहे हैं, ये स्थूल परम पदार्थ नहीं हैं, इनमें जो अतिसूक्ष्म कारण अणु हैं ये अणु परमार्थ चीज हैं, ऐसे ही हम आपके आत्मा में जो राग, विकार, विचार, वितर्क, विषय-कषाय, इच्छा ये तरंगें उठती हैं ये परमार्थभूत नहीं हैं। ये माया हैं, इंद्रजाल हैं, असार हैं, इनमें न अटक कर इन्हें असार जानकर इनकी उपेक्षा करके अपने आपमें अंत:ज्ञानानंदस्वरूप हूँ, ऐसी प्रतीति होना सो ही वास्तव में कल्याणकारी पग है। जिनसे मिलाप होता है ये कोई सहाय न होंगे। यह तो चंद दिनों का झमेला है। अपना पूरा पड़ेगा तो अपने सहज स्वरूप के दर्शन से, आलंबन से, वहाँ ही निवास करने से पूरा पड़ेगा। इस गाथा में परम निर्वाण के योग्य कौनसा परम तत्त्व है, किस तत्त्व का सहारा लें कि शांति ही शांति रहे उसका इसमें वर्णन है और उसको जो प्राप्त कर चुके हैं, वे परमशुद्ध अवस्था में हैं ऐसे सिद्ध भगवंतों का इसमें वर्णन है। सिद्धों की अनिंद्रियता व संसारियों की इंद्रियरूपता—सिद्ध भगवान में किसी भी इंद्रिय का व्यापार नहीं रहा। वे अखंड स्वरूप हैं, अखंड ही प्रदेशों में निवास है, उनके देह ही नहीं है, इंद्रियाँ कहाँ से रहें? इंद्रियाँ 5 होती हैं जिनसे संसारी जीवों की पहिचान होती है। संसार में जीवों की पहिचान का इंद्रिय ही एक तरीका है। पहिली इंद्रिय है स्पर्शन। आत्मा से प्रतिपक्ष कोई पुद्गल स्कंध, कोई भौतिक पदार्थ विलक्षण आत्मा के साथ जुड़ गया वही देह है और यह सारा दृश्यमान देह स्पर्शनइंद्रिय है। स्पर्शनइंद्रिय उसे कहते हैं जिसके द्वारा स्पर्श जाना जाय, यह ठंडा है, यह गर्म है, यह रूखा है, यह चिकना है, यह कड़ा है, नरम है, हल्का है, भारी है—ये बातें जिस इंद्रिय से जानी जायें उसका नाम स्पर्शनइंद्रिय है। संसार का प्रत्येक जीव स्पर्शन इंद्रिय से तो जानता है ही, पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा पेड़ ये भी स्पर्शन इंद्रियसहित हैं, इनका जो शरीर है वह समस्त स्पर्शन इंद्रिय है। दोइंद्रिय जीव का विकास—रसना इंद्रिय जिह्वा का नाम है, जीव की निष्कृष्ट स्थिति एक इंद्रियपने की है। जब उन जीवों का कुछ विकास होता है तब उन्हें जिह्वा वाला देह मिलता है। अब यह जीव दो इंद्रियों से जानने लगा। स्पर्शन इंद्रियों से तो स्पर्श की बात जानता है और रसना इंद्रिय से रस भी पहिचानता है, स्वाद आता है अब यह मुख से खाने लगा। पहिले यह स्थावर जीव समस्त शरीरों से भरम लेता था। पेड़ है वह जड़ों से आहार ग्रहण करता है और जड़ों से ही नहीं, शरीर के प्रत्येक अंग से वह रस का ग्रहण करता रहता है। सूक्ष्म स्कंध वायु मंडल में प्राप्त जो भी इन पेड़ वगैरह के पास आता है उस योग्य सबको आहरण करता है। अब दो इंद्रिय होने पर यह जीव मुख से भी खाने लगा। लट, जोक, केचुवा, शंख का कीड़ा, सीप का कीड़ा आदि ये सब दो इंद्रिय जीव हैं। इनके शरीर है और मुख है। तीन इंद्रिय जीव का विकास—स्पर्शन, रसना व घ्राण, इन तीन इंद्रियों द्वारा जान लेना यह जीव का अगली श्रेणी का विकास है। जब इस जीव में ज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेष बढ़ता है अर्थात् कुछ ज्ञानविशेष जगता है तब इसके बाद का विकास होता है तीनइंद्रिय जीव का। अभी यह जीव स्पर्शन और रसना, इन दो इंद्रियों से ही जानता था, भोगता था; तीन इंद्रियाँ होने पर अब घ्राण से भी ज्ञान करने लगा। चींटा-चींटी में घ्राण का बहुत तेज विषय होता है। कहीं मिठाई रक्खी हो तो तमाम चींटा-चींटी सूँघ—सूँघ कर इकट्ठे हो जाते हैं। चार इंद्रिय जीव का विकास—कुछ और ज्ञान बढ़ा, कुछ और विकास हुआ तो इस जीव ने आँखों वाला देह पाया। मक्खी, मच्छर, टिड्डी, ततैया ये सब चारइंद्रिय जीव हैं। आँखों से भी जान सकते हैं। यहाँ तक सब जीव मनरहित होते हैं। ये केवल आहार, भय, मैथुन, परिग्रह—चार संज्ञावों से पीड़ित रहते हैं, उनके हित-अहित का विवेक नहीं जगता। कोई शांति का साधन नहीं बन सकता। उनका जीवन-मरण सब एक समान है। जीकर भी क्या किया, मर कर भी क्या किया? पंचेंद्रिय का विकास—अब इस विकास के बाद का विकास है कर्ण इंद्रिय का। अब यह जीव कानों से भी जानने लगा। पंचेंद्रिय में कुछ होते है मनरहित, कुछ होते है मनसहित। मनरहित तो बिरले ही होंगे। प्राय: जिनके कर्ण हैं उनके मन हुआ करता है। पशुपक्षी ये भी पंचेंद्रिय हैं, इनके मन है। मनुष्य सम्यक्त्व में जितना भला कर सकते हैं करीब-करीब उतना भला करने की पात्रता उन पशुपक्षियों में है। जिस उत्कृष्ट बात को ध्यान में लाकर यह मनुष्य बड़ा कहला सकता है, जिस ब्रह्मज्योति का अनुभव करके यह मनुष्य सम्यग्दृष्टि कहलाता है उस ब्रह्मज्योति के अनुभव करने की पात्रता इन गाय, बैल आदि जानवरों में भी है। हालाँकि ऐसा दिखता है कि यह जानवर क्या शुद्ध ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे, यों ही तो मनुष्यों में भी दिखता है, कौनसा मनुष्य शुद्ध ज्ञानमार्ग का आलंबन कर पाता है, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय, मोह, राग, द्वेष ये सबके सब सता रहे हैं मनुष्यों को भी, उस ब्रह्मज्योति का दर्शन जैसे बिरले मनुष्य को होता है ऐसे ही उस ब्रह्मज्योति का दर्शन बिरले पशु और पक्षियों को भी हो जाता है। पंचेंद्रिय अवस्था तक 5 इंद्रियों का विकास हुआ। निर्वाण में इंद्रियों का अभाव—ये संसारी जीव इन 5 इंद्रियों का व्यापार करके, इनका उपयोग करके जानते हैं और अपनी कल्पनावों के अनुसार मौज मानते हैं, लेकिन प्रभु सिद्ध भगवंत इंद्रिय के व्यापार से रहित हैं। ज्ञानमय होकर भी जब तक इन इंद्रियों के सहारे जानने और मौज मानने का प्रयत्न बनाता है यह प्राणी तब तक एक न एक संकट इसके सिर पर मंडराते रहते हैं। भगवान के इंद्रियाँ नहीं हैं, इंद्रियों का व्यापार नहीं है। वे तो ज्ञान और आनंद के पिंड हैं। प्रभु का ध्यान करके हम भव्यजीव इसी कारण शांति पाते हैं कि प्रभु शांत है, आनंदघन है, शुद्धज्ञानमय हैं, ऐसा उपयोग बनाने से हमें भी आनंदसिंधु आत्मतत्त्व की याद आती है और शांति प्रकट होने लगती है। निर्वाण में उपसर्ग का अभाव—सिद्ध भगवंतों के किसी भी प्रकार का उपसर्ग नहीं है। मोक्ष अवस्था में कोई सता नहीं सकता। संसार में जीव चार गतियों में बँटे हुए हैं, कोई नारकी, कोई तिर्यंच, कोई मनुष्य और कोई देव है। नारकी जीव का तो इस मध्यलोक में कभी आना होता ही नहीं है। देवता लोग इस मध्यलोक में आ सकते हैं कदाचित् कभी, या तो किसी विशिष्ट पुरुष से स्नेह हो, भक्ति हो तो आते हैं, अथवा कोई खोटे देव किसी से बैर रखते हों तो आते हैं। यहाँ तो मनुष्य और तिर्यंच ही विशेष करके रहा करते हैं। तीन गति के जीव यहाँ हो सकते हैं देव, मनुष्य और तिर्यंच। किसी-किसी को देव भी बाधा देते हैं, मनुष्य और तिर्यंच तो विशेष बाधक हैं ही। सिद्धों को कोई बाधा नहीं दे सकता। संसार की दु:खरूपता—संसार दु:खों से भरा हुआ है, भले ही पुण्य के उदय में कुछ दिन कोई बाधा न आये, उपसर्ग न आये, लेकिन इसका विश्वास क्या? एक माह भी क्या, एक दिन भी पूरा ऐसा किसी का नहीं गुजरता जिसमें कोई चिंता न आये, कोई विपदा अनुभव न करे, कुछ अपने में व्यग्रता न आने दे। ऐसा एक दिन भी नहीं कटता किसी का। सब अपनी-अपनी बात जान सकते हैं, कोई कितनी ही ऊँची स्थिति में हो लौकिक दृष्टि से, पर इस रोग में तो सब एक समान हैं। गरीब हो, रईस हो, अशिक्षित हो, शिक्षित हो सब पर दु:ख, चिंता, शोक, शल्य, हर्ष, विशाद, ये सब दौड़ते हुए सब पर मंडरा रहे हैं। और ऐसी स्थिति में हम किसी भी दूसरे जीव की कोई हरकत देखकर हम उपसर्ग समझने लगते हैं। इसने तो मुझ पर बड़ा सितम ढाया है। अपनी कल्पना बनाकर हम अपने में उपसर्ग अनुभव करते हैं और कभी-कभी उपसर्ग जैसी घटना भी आ जाती है, लेकिन भगवान के किसी भी प्रकार का उपसर्ग नहीं है। न उन्हें देव उपसर्ग कर सकें, न मनुष्य उपसर्ग कर सकें और न पशुपक्षी। प्रभु उपसर्गरहित हैं। आत्मत्त्व की विविक्तता व निर्बाधता—अब जरा अपने आपके स्वरूप में भी निहारो। जो हम आप स्वयं स्वत: सहज अपने स्वरूप हैं उस स्वरूप को निहारो, अन्य बातें उसके साथ न देखना। देह मैं नहीं हूँ, देह की दृष्टि करके, देह का मिश्रण करके अपने आपको न देखना। इस देह-देवालय में विराजमान् यह मैं आत्मतत्त्व ऐसा शुद्ध चित्प्रकाशमात्र हूँ कि जिसमें किसी दूसरे पदार्थ का प्रवेश ही नहीं है, इस आत्मस्वभाव में भी उपसर्ग नहीं है, इसे कोई सता नहीं सकता। किसी को कोई दूसरा सताता नहीं है। खुद ही खुद को सताया करता है यह बात यथार्थ सत्य है। यह सोचना कि मुझे अमुक ने सताया है, कोरा भ्रम है, कोई सता ही नहीं सकता है। हम अपनी कल्पना बनाते हैं, हम अपनी इस पर्याय पर दृष्टि डालते हैं, हम अपने अज्ञान का नृत्य करते हैं और उस अज्ञान दशा में हम यह अनुभव करने लगते हैं कि मुझे अमुक ने सताया है, मुझे कोई दूसरा सता ही नहीं सकता। पर के द्वारा पर में बाधा का अभाव—आप कहेंगे वाह ! कोई गाली देकर सता तो सकता है, पर कोई नहीं सता सकता। यदि कोई दूसरा पुरुष हमें सता सकता है तो वह सबको सता सकेगा, किंतु कोई कल्पना करके अपना उपसर्ग अनुभव करता और कोई विशिष्ट ज्ञानी अपने में उपसर्ग नहीं अनुभव करता। जितने भी क्लेश होते हैं अपने को वे अपने अज्ञान से होते हैं, यह बात अपने उपयोग में निर्णय करके रक्खो। यह चिंतन, यह भावना सदा काम देगी। आप किसी भी स्थिति में हों, जब कभी कोई व्यग्रता आये तो इस मंत्र को सामने रख लो कि मुझे यह व्यग्रता हुई है तो उसमें मेरा अज्ञान ही अपराध है, मैं किसी दूसरी वस्तु से अपना संबंध जोड़ रहा हूँ और उसी से राग और द्वेष की स्थिति मुझमें घट रही है, इसी से व्यग्रता है। अपने अपराध का ही क्लेशानुभव—अब इस स्वतंत्रता के मंत्र का आधार लेकर अपने आपमें झुकें और अपनी गल्ती खोजें। प्रत्येक उपसर्ग में गल्ती अपनी है। यह भी बात एक प्रमाणभूत है। प्रत्येक क्लेश में अपराध हमारा ही है। हम दूसरों से कोई आशा रक्खें, सम्मान की, आय की, रोजगार की, अथवा अन्य विषय के साधनों की और उनकी पूर्ति न हो सके तो अकेले कल्पना बनाकर दु:खी हो जाते हैं। सब जीव अपने-अपने स्वरूप के राजा हैं, कोई जीव किसी दूसरे के अधीन नहीं है। जो अधीन बनता है वह भी अपनी स्वतंत्रता से परतंत्र बनता है। किसी जीव का गुण, पर्याय, शक्ति दूसरे पर आ जाय ऐसा नहीं होता है। हम भी राग के वश होकर अपने आपके अधीन बन जायें। हमारी परतंत्रता हमारी स्वतंत्रता से ही होती है, जब भी जो क्लेश हों उन सब क्लेशों में अपने अपराध को ढूँढ़िये, यह मार्ग शांति देगा। दु:खी तो हुए हम, दूसरे के अपराध ढूँढ़े, इसने यों किया, यों कष्ट पहुँचाया। अरे ! उसने तो अपनी बुद्धि के अनुसार अपना परिणमन किया, मेरे में कुछ नहीं किया, इसी को कहते हैं अद्वैत मार्ग का अनुसरण। हम अपने आपमें अपनी ही गल्ती देखें और उस गल्ती को दूर करें और अपने इन गुणों के उपवन में विहार करें तो अशांति दूर होगी। इस आत्मा में देव, मनुष्य, तिर्यंच किसी भी चेतन के द्वारा उपसर्ग नहीं होता। निर्वाण में विस्मयादिक दोषों का अभाव—इस आत्मा में मोह नहीं है। मोह तो बनाया जाता है। मोह करना मेरे आत्मा का स्वरूप नहीं है। यह जीव निर्मोह है। इस जीव में स्वभाव से कोई आश्चर्य की दशा नहीं है। कोई जीव बाह्य प्रपंचों में लगे तो उसे आश्चर्य होगा, पर जो बाह्य प्रपंचों से विमुख है उसके कोई आश्चर्य नहीं। प्रभु में निद्रा नहीं, उनका ज्ञान तो सदा जगा हुआ है। असाता वेदनीय का विनाश हो जाने से उनमें क्षुधा और तृषा का रोग नहीं है। यों इस परम ब्रह्मस्वरूप में निर्वाण बसा हुआ है। जो विशेषता भगवान की है वह विशेषता हम आपके अंतर में स्वभाव से पड़ी हुई है। हम उस स्वभाव का उपयोग करें तो हम सबमें प्रभु की प्रभुता प्रकट हो सकती है। भगवान में रोग, जन्म, मरण, बुढ़ापा किसी भी प्रकार की वेदना नहीं है। अब उनका आवागमन भी संसार में न होगा, वह शुद्ध ज्ञान और शुद्ध आनंद के पिंड हुए हैं। गुरुचरणकमल प्रसाद—जो निर्मल चित्त वाले पुरुष हैं, जिन्हें सम्यग्ज्ञान प्रकट हुआ है वे इस देह में रहकर भी इस तत्त्व का अनुभव कर लेते हैं। यह सब गुरुवों के चरण—कमलों की सेवा का प्रसाद है। जैसे कितनी ही बातें पुस्तकों में लिखी हैं, पर मास्टर उन्हें न बताए तो उनका विशद बोध नहीं होता है। केवल पुस्तक देखने से जो बोध होता है उससे भी अधिक बोध कोई बताए और इस आधार पर कुछ समझाये तो विशेष बोध होता है। ऐसे ही हमारी आचार्य-परंपरा के जो शास्त्र हैं उनमें सब बातें लिखी हैं फिर भी उनके मर्म का अनुभव कोई गुरु समझाये तो वहाँ विशेष अनुभव जगता है। यों यह आत्मतत्त्व का अनुभव हमें गुरुवों के चरण-कमल की सेवा के प्रसाद से प्राप्त होता है। जिस ब्रह्म में, जिस आत्मतेज में जो कि अनुपम गुणों से अलंकृत है, जहाँ ज्ञान, दर्शन, आनंद, चैतन्यप्रकाश ये समस्त चमत्कार पड़े हुए हैं, जो शुद्धरूप में विकसित हो तो समस्त विश्व को भूल जाय, ऐसा जिसका ज्ञान है, ऐसे सिद्ध भगवंतों में इंद्रिय की विषमता रंच नहीं है, यहाँ रागद्वेष का कलंक रंच नहीं है, केवल एक निर्वाण ही है, ऐसे ब्रह्मस्वरूप में मेरी बुद्धि निरंतर बसो। ज्ञानमय उपयोग का निवास्य धाम—भैया ! हम अपना चित्त कहाँ स्थापित करें कि हमको परम शांति का अनुभव हो, उसकी बात यहाँ कही जा रही है। एक तो परमात्मा में अर्थात् शुद्ध ज्ञानानंद के पिंड में अपना चित्त बसावो और एक अपने इस अंत:स्वरूप में जो स्वभाव से प्रतिभासमात्र है वहाँ अपना चित्त बसावो। आत्मा और परमात्मा—इन दोनों के स्वरूप में चित्त रहेगा तो अशांति, उपसर्ग, संकट, विह्वलता, ये सब समाप्त होंगे।