वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 182
From जैनकोष
केवलदिट्ठि अमुतं अत्थितं सप्पदेसत्तं।।182।।
सिद्ध के स्वाभाविक गुण—निर्वाण प्राप्त प्रभु के केवलज्ञान है, केवल सुख है, केवल वीर्य और केवल दर्शन हैं। प्रभु में ये सब गुण उत्कृष्ट विकसित हुए हैं और अमूर्तत्व, केवल अस्तित्व, सप्रदेशत्व आदि भी स्पष्ट शुद्ध विकासमान् हो चुके हैं। भगवान सिद्ध के स्वभावगुणों का स्वरूप इसमें बताया है। अनंत ज्ञान—भगवान के अनंत ज्ञान है अर्थात् वह ज्ञान के द्वारा समस्त लोकालोक को जानते हैं और तीन काल के समस्त परिणमनों को भी एक साथ जानते हैं, जबकि हम लोगों का ज्ञान केवल एक सामने की वस्तु, नियत बुद्धि और कुछ नियत काल तक का ही ज्ञान होता है। ज्ञान कला तो है। जब सत्पथ मिल जाय और उस ज्ञान के विकास का योग मिल जाय तो यही ज्ञान प्रभुवत् पूर्ण केवलज्ञान हो सकता है। जैसे कोई घोड़ा कुपथ पर चलता हो, जिसे लोग ऊधमी कहते हैं, अड़बंगा चलता है, सीधे रास्ते पर नहीं चलता है पर चलने की उसमें कला तो है, चल तो सकता है। जिसमें चलने की कला है उसकी उस कुपथ की चाल को बदलकर सुपथ की चाल लाई जा सकती है किंतु जो काठ के घोड़े है, जिससे बच्चे खेलते हैं या एक लाठी ले ली टांगों के बीच कह दिया कि यह घोड़ा है, उस घोड़ा में तो चाल ही नहीं है, उसे न सुपथ पर चलाया जा सकता है और न कुपथ पर। जिस घोड़े में चाल है वह आज कुपथ पर है तो कभी सुपथ पर हो जायेगा, ऐसे ही हम आपके आत्मा में चाल तो वही है। जानते तो हैं पर कम जानते हैं, पराधीन होकर जानते हैं, इंद्रियों के द्वारा जानते हैं, कभी हम इंद्रियों के बिना भी केवल आत्मीय शक्ति से अपने को पहिचान जायेंगे तो आत्मस्थिरता द्वारा अनंत ज्ञानी होवेंगे।
आत्माश्रित परमध्यान के प्रसाद से अनंत विकास—जब यह निकटभव्य जीव निज को निज पर को पर जानने के बल से परपदार्थों से उपेक्षा करके समस्त प्रयत्नों के साथ अपने अंतस्तत्त्व की ओर झुकता है तब वहाँ आत्मा के ही आश्रय से निश्चय धर्मध्यान प्रकट होता है। शुक्लध्यान का अर्थ है सफेदध्यान। अर्थात् जहाँ कोई दोष नहीं, कोई धब्बा नहीं, साफ-स्वच्छ केवल आत्माश्रित ध्यान है। ध्यान के होने पर ज्ञानावरणादिक 8 कर्मों का विलय हो जाता है। तब भगवान सिद्ध परमेष्ठी के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, केवल आनंद, पूर्ण अमूर्तपना अर्थात् पहिले संसारावस्था में शरीर के संबंध से औपचारिक मूर्तता थी वह भी अब नहीं रही, अब तो वे सिद्ध हो गये, समस्त स्वाभाविक गुण सिद्ध प्रभु के प्रकट हो चुके हैं। शुद्ध उपयोग का प्रताप—भैया ! किससे रागद्वेष करते हो, ये रागद्वेष खुद असहाय हैं, बहुत देर तक टिकने वाले नहीं हैं, जिस काल रागरूप परिणाम हुआ, हो गया, बाद में निकल गया। अब मलिन परिणाम है, लो मिट गया कि दुबारा राग परिणाम बना, पर सिद्ध प्रभु के तो स्थिर भाव है। वह शुद्ध ज्ञान जो सदा एक समान ही प्रकट रहेगा। बंध के छेद होने पर भगवान के यह केवलज्ञान अत्यंत विकास के साथ प्रकट हुआ है, यह सब शुद्धोपयोग का माहात्म्य है। रागद्वेष करने का यह माहात्म्य जो संसार में दिख रहा है—दु:ख, क्लेश, संक्लेश, विडंबना, विपदा। अपना उपयोग शुद्ध करने से, रागद्वेष से रहित केवलज्ञान प्रकाशमात्र अपने आपको अनुभव में लेने से प्रकट होती है यह सिद्ध पर्याय। इस शुद्धोपयोग अधिकार में शुद्धोपयोग का स्वरूप और शुद्धोपयोग का फल इन दोनों का वर्णन चल रहा है। संसारसमागम की अरम्यता—हम आप संसार अवस्था में हैं, निष्कृष्ट दशा में हैं। इस निष्कृष्ट दशा में जब तक घृणा नहीं होती है अर्थात् यह हेय है जब तक यह बुद्धि न जगे तब तक मुक्त दशा की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। जो पुरुष अपनी इन अहित दशावों में ही मस्त हैं वे उससे ऊपर कैसे उठ सकेंगे? हमें यह चाहिए कि हम जिन परिणामों में रहा करते हैं उन परिणामों में मग्न न हों। यह सब धोखा है, इससे भविष्यकाल में क्लेशजाल सहने की परंपरा रहेगी। हम अपनी इस स्थिति में संतोष न मानें और जो अंत:स्वरूप है उसके दर्शन के लिए प्रयत्नशील रहें। मोह तो रंच आना ही नहीं चाहिए गृहस्थ को भी। साधुजनों की निर्मोहता की बात तो सही है ही, मगर जो सद्गृहस्थ हैं उनके भी परिजन में मोह नहीं होता है। व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं, पर मोह उनमें नहीं होता। राग और मोह का विवेचन—भैया ! राग में और मोह में तो महान् अंतर है। मोह में जहाँ यह विश्वास रहता है कि मेरी जिंदगी इनके सहारे है, मेरा अस्तित्व इनके सहारे है, मेरा सुख, मेरा ज्ञान, मेरा बड़प्पन सब इन लोगों के कारण है, हम परिवार से भरे-पूरे हैं तो हम बड़े कहलाते हैं। इनसे ही हमारा सुखमय जीवन है। मोह में ऐसा विश्वास बनता है और इस मुग्ध विश्वास के कारण यह पुरुष पद-पद पर दु:खी होता है, क्योंकि उसने अपने को पर का अधिकारी माना। जब उसने यह देखा कि मेरे अनुकूल नहीं चलता तो कर्तृत्व बुद्धि बनाने के कारण उसे खेद होता है। अज्ञानी पुरुष तो अपनी इच्छा के प्रतिकूल परिणमन देखकर दु:खी होता है और अपनी इच्छा के अनुकूल परिणमन देखे तो वहाँ क्षोभ करता है। अंत:पुरुषार्थ बिना प्रभुदर्शन की अशक्यता—पूर्ण आनंद का धाम तो भगवान है। यदि भगवान आनंद के धाम हैं ऐसा ख्याल नहीं रखते, ये शुद्ध ज्ञान के विकास हैं, ऐसा ध्यान नहीं करते तो हमें फिर यह बतलावो कि भगवान को पूजा कहाँ? जैसे गृहस्थी में कोई बड़ा ऊँचा धनी हो या इतिहास में प्रसिद्ध कोई बड़ा कर्मठ नेता हो उनको जैसे लोग आज प्रभु के रूप में मानने लगे हैं ऐसा ही कोई प्रभु होगा जिसका कि आप ध्यान करते होंगे। प्रभु ज्ञान और आनंद का शुद्ध विकास है। उसकी उपासना हम सब ही कर सकते हैं जब हमारा लक्ष्य भी शुद्ध ज्ञान और आनंद के विकास करने का बन जाय। जब तक हमें शुद्ध ज्ञान और आनंद के विकास का प्रयोजन नहीं जगता तब तक हम प्रभु की पूजा के वास्तविक पात्र नहीं है। जब तक चित्त में कुटुंब-पोषण, धनवृद्धि, इज्जत का लाभ, लोगों में सम्मान, इन मौजों का ही प्रयोजन रहता है तब तक न प्रभु को हम पहिचान पाये हैं और न प्रभु की पूजा करने के पात्र हैं। जब तक संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति नहीं जगती है तब तक हम धर्म के कहाँ पात्र हैं। आनंद की साधना—अच्छा अब चलो अपने मन की बात सुनो, देखो धर्म सुख के लिए होता है, शांति के लिए होता है। यदि विषय-समागम, वैभव-समागम ये सुख के लिए हों तो यही धर्म है, निर्णय कर लो। यदि विषयसाधनों का समागम शांति करने वाला है तो शास्त्रों के पन्ने खूब रंग डालो कि विषय-साधन ही धर्म हैं, कोई हर्ज नहीं। किंतु निर्णय तो करो कि विषय-साधन शांति के लिए हो भी पाते हैं क्या? प्रथम तो जिस काल में विषय-साधन किए जा रहे हों उस काल में ही महान् क्षोभ है, आकुलता है और थोड़ी ही देर बाद तो वह एक बड़ा दु:ख का रूप रख लेता है और फिर भावी काल में कर्म-बंध होने से विशेष ही वह दुर्गति में और संक्लेश में पड़ेगा। ये विषय-समागम, वैभव के समागम यह सब अधर्म हैं, ये सब अपने आपको बरबाद करने के साधन हैं। गृहस्थ तो इतने साहसी होते हैं कि वे अपने प्रोग्राम प्रत्येक परिस्थिति में ठीक बना लेते हैं, वे परिस्थिति के दास नहीं हैं, किंतु समस्त परिस्थिति में अपनी सुविधा बना लेते हैं। कोई पुरुष तो अपनी जरूरतें बहुत बड़ी बनाकर उसकी पूर्ति के लिए चिंता करते हैं, किंतु ज्ञानी गृहस्थ जो भी साधन मिले हैं उनके ही अंदर व्यवस्था बनाकर अपनी जीवन चलाते हैं और धर्म में अपने जीवन को लगाते हैं। यथार्थ ज्ञान व निष्परिग्रहता का महत्त्व—प्रभु भगवान तो अकिंचन हैं, उनके पास कुछ भी नहीं है, अरे ! तुम यदि परिग्रह के कारण अपने को बड़ा मानते हो तो इसका अर्थ है कि तुम भगवान से भी बड़ा बनना चाहते हो, भगवान के तो कुछ भी परिग्रह नहीं है, केवल आत्मा ही आत्मा रह गया। शरीर भी नहीं, धन वैभव भी नहीं, कुछ भी अन्य वस्तु समीप में नहीं है, तुम उनसे भी बड़े बनना चाहते हो। और भी देखो—भगवान जानते हैं पर भगवान वही जानते हैं जो चीज है, जो चीज थी, जो चीज होगी, पर ये मोहीजन जो चीज नहीं है, जो बात न होगी उसकी भी कल्पना करते हैं। तो यह क्या है? जैसे कहते हैं कि बड़े के मुँह लगना। यह तो इससे भी और आगे बढ़ गया, बड़े से होड़ करता, प्रभु सत् पदार्थ को ही जानते हैं, यह मोही असत् को भी जानकर संभव करना चाहता है। मकान मेरा नहीं है, पर हम जानते हैं कि यह मकान मेरा है, प्रभु भी नहीं जानते कि यह मकान इस चंद का है, लेकिन अमुक ऐसा ही सोचते है कि यह मकान मेरा है। प्रभु तो आनंद में मग्न हैं, वे नहीं जानते कि यह मकान अमुक का है। प्रभु तो जो है सो ही जानते हैं, तो अज्ञानी पुरुष कल्पनावों में प्रभु से भी आगे बढ़ना चाहते हैं और इस होड़ का ही यह फल है कि संसार में रुल रहे हैं। बड़े से होड़ करना कोई भली बात नहीं है। प्रभु विशुद्ध ज्ञान, दर्शन, वीर्य और आनंद के धाम हैं, उनका स्तवन उनका स्मरण करने से अपने आपमें शुद्धविकास प्रकट होता है।