वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 186
From जैनकोष
तेसिं वयणं सोच्चाऽभत्तिं मा कुणह जिणमग्गे।।186।।
कितने ही अनेक पुरुष ईर्ष्या भाव करके ऐसे सुंदर जैनमार्ग की आत्मसिद्धि के मार्ग की निंदा करते हैं। हे भव्य जीवो ! उनके उन अश्रद्धापूर्ण वचनों को सुनकर तुम जैनशासन से अप्रीति मत करो।
अज्ञानी जनों की दशा—जो मंद बुद्धि हैं, जिनका होनहार अथवा संसार बहुत विकट पड़ा हुआ है—ऐसे पुरुष मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र में लीन रहा करते हैं। जीव का स्वरूप ज्ञानदर्शन स्वरूप, अमूर्तिक, सबसे न्यारा है, लेकिन मोह में यह प्राणी अपने आपको देहमय मानता है और सब पदार्थों में रलामिला हुआ समझता है। शरीर उत्पन्न होता है तो मान लेता है कि मैं उत्पन्न हुआ। शरीर मरण करता है तो मान लेता है कि मैं मरा। जो रागद्वेषादिक भाव, विषय-कषाय इस जीव को दु:ख देने वाले हैं उन्हें सुखमयी मानता है। किसी पर रोष आ जाय तो रोष करने में चैन मानता है, रोष को समाप्त नहीं कर पाता है। घमंड का परिणाम आ जाय तो मान कषाय के बनाने में यह अपना हित समझता है, मायाचार, छल, कपट के परिणाम में यह अपना हित और बड़प्पन मानता है, तृष्णा लोभ के वशीभूत होकर यह चैन समझता है, ऐसी मिथ्या जिसे बुद्धि हो गयी वह पुरुष ज्ञान और वैराग्य से प्रीति कहाँ से करेगा? आत्मा को आनंद देने वाला परिणाम ज्ञान और वैराग्य है। उससे तो इसकी विमुखता है और विषय कषायों की ओर यह झुकता हैं। मोही जगत की रुचि—यह सारा जगत् पुण्यपाप का फल है। यहाँ यह मोही जीव पुण्य का फल वैभव-समागम पाकर अपनी जीत समझता है। मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ, विजयी हूँ और पाप के फल जो दरिद्रता, रोग, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग या तिर्यंच आदिक के जन्म लेना आदि हैं, इनको पाकर यह जीव दु:खी होता है और पाप के फल में अपनी हार समझता है। इच्छा भी इन समस्त क्लेशों की जनक है। लोग इच्छा करके अपने को मौज में समझते हैं। उन इच्छावों की पूर्ति के लिए भारी श्रम भी करते रहते हैं, इन्हें आत्मीय आनंद की कुछ खबर नहीं है। यह मैं आत्मा स्वभावत: जिस स्वरूप में हूँ तैसा इसका व्यक्तरूप भी प्रकट हो सकता है, इसकी ओर इसकी दृष्टि नहीं है और यह आकुलतामय संसार में ही रमने की इच्छा रखता है। यों मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान से पीड़ित यह संसारी प्राणी विषयभोगों में ही रमण कर रहा है। ऐसे कुबुद्धिजन संसार बढ़ाने वाले दुराचार की ही तो प्रशंसा करेंगे और संसार के संकटों से छुटाने वाले जैनमार्ग की निंदा करेंगे। उनको सदाचार से ईर्ष्या होती है और व्यसनों से, पापों से प्रीत जगती है। अज्ञानियों का बुद्धिव्यामोह—जैसे कोई शिकारी पुरुष मार्ग में किसी साधु के दर्शन कर ले तो वह साधु से ईर्ष्या करता है, आज मेरा शकुन बिगड़ गया, मुझे शिकार न मिलेगा। वह साधु से ईर्ष्या करने लगता हैं। पर साधु जो संसार, शरीर और भोगों से विरक्त है, जिसकी केवल आत्मकल्याण की ही धुन है क्या ईर्ष्या का पात्र है? लेकिन शिकारीजन, पापीजन साधुवों से भी ईर्ष्या करते हैं। यों ही यह सारा जगत जो मायाजाल से बेड़ा हुआ है वह जैनमार्ग की निंदा कर ही रहा है। यह सब मिथ्यात्व कर्म के उदय का प्रताप है। उन मुग्ध जीवों को आत्मा के शुद्ध रत्नत्रय धर्म की खबर नहीं है। खुद में ही क्या प्रताप पड़ा है, खुद ही में क्या रत्न भरे हुए हैं, इसकी सुध इन ज्ञानीजनों को नहीं है। इसी में शुद्ध आत्मधर्म की ये निंदा करते हैं। आत्मा का विकल्पमय स्वरूप—यह मैं आत्मा त्रिकाल निरावरण हूँ, अर्थात् अपने सत्त्व के कारण जैसा स्वभाव रखता हूँ उस चैतन्यस्वभावमय हूँ। इस स्वभाव का परिवर्तन नहीं हुआ करता है। यह मैं आत्मा नित्य आनंदस्वरूप हूँ। मुझमें क्लेशों का नाम भी नहीं है स्वभावत:। क्लेश तो बना-बनाकर किए जाते हैं। स्वरसत: मैं आनंदघन हूँ। यह मैं आत्मतत्त्व निर्विकल्प हूँ, रागद्वेष, संकल्प-विकल्प का इस आत्मतत्त्व में अभाव है। ये विकल्प मायारूप बनकर प्रकट हो रहे हैं। मैं तो निरुपाधि हूँ, यह मैं कारण परमात्मतत्त्व समस्त शुद्ध विकास के प्रकट करने में एक धातु स्वरूप हूँ। ऐसे इस शुद्ध परमात्मतत्त्व का जब सम्यक् श्रद्धान हो, यथार्थ परिज्ञान हो और ऐसा ही ज्ञाताद्रष्टारूप रहने का पुरुषार्थ जगे तो वह रत्नत्रय सत्य आनंद को प्रकट करने वाला है। अज्ञानियों के निंदित वचनों से हितमार्ग में अभक्ति न करने का संदेश—मिथ्यादृष्टि जीव को शिवस्वरूप शुद्ध रत्नत्रय की सुध नहीं है सो सहज स्वरूप की दृष्टि न होने से यह जीव मिथ्यात्व कर्म के उदय के कारण ईर्ष्याभाव से इस जैनमार्ग की निंदा किया करता है। ओह ! इस मार्ग में कष्ट ही कष्ट है, क्यों वर्तमान सुख को छोड़कर तप करें, संयम करें, कष्ट दें। अरे ! मौज से जब चाहें खायें पियें। ये सब इसीलिए तो हुए हैं। ऐसी मन की स्वच्छंदता बनाकर जैनमार्ग की, संयम धर्म की विषयासक्त जन निंदा करते हैं। लेकिन हे भव्य पुरुषो ! उनके इन वचनों को सुनकर तुम जैनमार्ग में अभक्ति मत करो। यह मार्ग पाप कार्यों का परिहार कराने वाला है। जैनमार्ग का मूल अनुशासन—जैनमार्ग का मूल भाव यह है कि हे भव्य जीवो ! अपने स्वरूप को संभालो और समस्त पाप क्रियावों का परिहार करो। देखो जो तुम्हारे स्वभाव की बात है वह तो धर्म है और स्वभाव से विरुद्ध जो भी क्रिया चलती है जिसमें शुद्ध चैतन्य का चमत्कार नहीं बसा है किंतु तरंगे उठती हैं वे सब अधर्मभाव हैं। सर्वज्ञ वीतराग का मार्ग यह ज्ञानमार्ग है, निर्दोषमार्ग है। कषायों का त्याग और शुद्ध ज्ञानप्रकाश का परिणमन इस ही की शिक्षा यह जैनधर्म देता है। यह धर्म परमार्थ से तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण रूप है, पर इसकी प्राप्ति के लिए जो 7 तत्त्वों का श्रद्धान् किया जाता है जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष—इन 7 तत्त्वों का यथार्थस्वरूप श्रद्धा में लिया जाता है और इसका यथार्थ परिज्ञान करके जो हेयतत्त्व हैं उनका त्याग किया जाता है और जो उपादेय तत्त्व हैं उनको ग्रहण किया जाता है। यही व्यवहारधर्म है, ऐसे व्यवहारधर्म और निश्चयधर्मरूप जैनमार्ग की अबुद्धिजन जिन्हें विषय कषायों में ही अपना महत्त्व नजर आता है वे अपवाद करते हैं। विशुद्ध मार्ग की भक्ति का अनुरोध—आत्मश्रद्धाहीन पुरुष स्वयं विकल हैं। उन्हें अपने स्वरूप का भान ही नहीं है। इसी कारण वे खोटे तर्क, खोटी दृष्टियाँ लगा-लगाकर कुतर्क पैदा करते हैं। उनके वचनों को सुनकर हे हितैषी जीवो ! तुम आत्महित के मार्ग में अभक्ति मत करो, जिनेश्वर की दिव्यध्वनि की परंपरा से चले आये हुए इस शुद्ध रत्नत्रय के मार्ग में भक्ति ही बनाओ। इस लोक में हमारा शरण साथी कोई नहीं है, केवल एक हमारा शुद्ध आत्मा ही शरण है। एक निर्णय बनावो अपने जीवन में। पालन हम उस निर्णय का कितना कर पाते हैं? जितना बने सो करें, पर निर्णय में कभी भी भूल न करें। मेरा निर्मल परिणाम होगा तो मुझे कहीं क्लेश नहीं है, मेरा ही स्वयं मलिन परिणाम होगा तो चाहे कोई क्लेश देने का निमित्त भी न मिले तो भी मुझे अंत में दु:ख ही रहेगा। अपने आपको आनंदमय बनाने के लिए सर्वप्रथम यह कर्तव्य है कि अपनी श्रद्धा व ज्ञान अटल बनावें। संसार महावन—यह लोक देहों के समूह रूप वृक्ष-पंक्तियों से भयंकर है। जैसे वन भयानक वही होता है जिसमें अनेक वृक्ष खड़े हुए हैं, ऐसा ही हमारा यह संसार-वन है। इस वन में ये सब जो देह नजर आ रहे हैं ये वृक्ष—पंक्तियों की तरह बड़े भयंकर हैं। इस संसाररूपी वन में दु:ख-परंपरारूपी जंगली पशु रहा करते हैं। यहाँ दु:खों का कुछ ठिकाना है क्या? दु:ख कल्पना से ही तो होते हैं और कल्पना जब चाहे जैसी उठा लो। उसी कल्पना से दु:ख उत्पन्न होने लगेगा। बचपन में ये कल्पनाएँ रहीं, हम बड़े नहीं हुए, हम हर बात को तरसते रहते हैं। ये किस ठाठ से कैसे अपने बड़प्पन में रह रहे हैं। बड़ों की बात देख-देखकर यह मन ही मन कुड़ता रहा। बड़े हुए तो बड़े के दु:ख बड़े ही जानें। कितनी गृहस्थी की चिंता, कोई अनुकूल प्रतिकूल हुए तो उनका विषाद और जैसे-जैसे घर में फँसते जाते हैं, गृह के सदस्यों की संख्या बढ़ती जाती है तो विपत्तियाँ बढ़ती जाती हैं। पहिले तो बच्चे को तरसते थे, हमारे बच्चे नहीं हैं और जब चार छ: बच्चे हो गये तो अब उनको न्यारे-न्यारे करने के समय में कितना क्लेश उठाना पड़ता है। बच्चों की मांग अटपटी रहती है, सारा वैभव मुझे मिल जाय ऐसा चाहते हैं। उनका कषाय, उनका वचनव्यवहार सुन-सुनकर, देख-देखकर इसे बड़ा दु:खी रहना पड़ता है और भी इस जीवन में अनेक कष्ट समय-समय पर होते रहते हैं। कोई कष्ट समाज की ओर से है, कोई कष्ट पंचों की ओर से है, कोई कष्ट स्त्री-पुत्र की ओर से है, कोई कष्ट पडौसियों की ओर से है। और मान लो सब कुछ संपन्नता हो तो यही सोचकर वह अपना कष्ट बढ़ा लेता है कि इस लोक में सर्वत्र मेरा एकक्षत्र यश नहीं फैल रहा है। दु:ख तो सर्वत्र भरे ही पड़े हैं ना? ऐसे इन दु:ख-परंपरारूपी जंगली पशुवों का जहाँ निवास है—ऐसे देहरूप वृक्ष से भयंकर यह वन है। ढाक के तीन पात—इस संसार वन में यह कालरूपी अग्नि सबका भक्षण कर रही है। होता ही क्या है यहाँ? जन्मे, तरसे, मरे। तीन ही तो यहाँ काम हैं—जन्म लें, तृष्णा कर करके विषय-कषाय करके दु:खी हों और मरण करें। फिर जन्म ले, फिर दु:खी हों, फिर मरण करें। इन तीन बातों के सिवाय और यहाँ रक्खा क्या है? इस संसारवन में बुद्धिरूपी जल सूख रहा है। ज्ञान तो ठीक-ठीक काम ही नहीं करता। अज्ञान के वश होकर विषय—कषाय, देह कर आराम, देह का सुखियापन इन सभी बातों की तृष्णा में अपने आपको दु:खी कर डाला है। इन जीवों के सम्यक श्रद्धान नहीं है, इनकी बुद्धि भ्रष्ट हुई है। कल्याणार्थी की मुख्य असुविधा—इस संसारवन में कोई कल्याण की, सत्यानंद की भी चाह करे, विषय कषायों के दु:ख से ऊबकर कुछ यह भी भावना बनाए कि मैं सब दंदफंदों को त्यागकर आत्मा का कल्याण करूँ तो आत्मकल्याण के लिए यह जब उद्यम करता है नाना धर्म, नाना बातें, नाना मार्ग सामने आते हैं। कोई शास्त्र, कोई गुरु कुछ कहते हैं और कोई शास्त्र, कोई गुरु कुछ कहते हैं, यह परेशान हो जाता है। यहाँ कुनय मार्गों का बड़ा फैलाव है। जैसे कोई भयानक जंगल में फँस गया हो और उस जंगल से निकलने का मन में भाव करता हो तो वहाँ छोटी-छोटी अनेक पगडंडियाँ हैं, वे कभी किसी पगडंडी से चलते हैं, यों घूम-घूमकर जहाँ का तहाँ ही रहा करता है। उसे उस भयानक जंगल से छुट्टी नहीं मिलती है। ऐसे ही इस संसाररूपी भयानक वन में कुछ कल्याण की यह चाह करे तो यहाँ कुनय की पगडंडियाँ अनेक पड़ी हुई हैं। कोई कभी किसी मार्ग पर चलता है, थोड़ी देर में उस पर विश्वास नहीं जमता तो दूसरे मार्ग पर चलता है। विश्वास कहीं नहीं जमता तो यों मार्गों को बदल-बदलकर अपना जीवन खो देता है। अपना शरण—महान दुर्गमतम इस संसाररूपी वन में अन्य कौन शरण है? सो बतावो। किस जीव की शरण जाय? कहीं भी जायें तो शरण नहीं मिलती है, बल्कि धोखा ही मिलता है। शांति नहीं मिल पाती है। किसकी शरण जाएँ कि आत्मा को शांति मिले? खूब सब पदार्थों की खोज तो कर लो। स्त्री की शरण जावो तो शांति की शरण मिलेगी क्या? अरे, वहाँ से भी ऊब जावोगे, वह थोड़ी देर का राग-भरा एक प्रवाह है, इसलिए उस ओर झुकाव होता है, किंतु कुछ समय उस झुकाव में रहकर खुद ही अनुभव कर लोगे कि यहाँ शांति नहीं है, ऊब हो जाएगी। कौनसा पद ऐसा है इस लोक में कि जहाँ जावो तो अपना सच्चा शरण मिल जाए? कहीं कुछ शरण नहीं है। एक मात्र रागद्वेष के जीतनहारे भगवान के द्वारा प्रणीत यह जैनदर्शन ही शरण है, जो दर्शन वस्तु की स्वतंत्रता को दर्शाता है। वस्तुस्वातंत्र्य के निष्पक्ष दर्शन से मोहियों को अरुचि—प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप-किले को मजबूत बनाए हुए है। इसमें किसी भी परपदार्थ के द्रव्यगुणपर्याय का त्रिकाल भी प्रवेश नहीं हो सकता है। स्वयं स्वरक्षित समस्त पदार्थ हैं। यह मैं आत्मा भी ज्ञानदर्शनस्वरूप अपने ही प्रदेशों में शाश्वत रहने वाला स्वयं स्वरक्षित हूँ। मेरी सत्ता का कौन विघटन कर देगा? यह मैं ही अपने आपको आरक्षित मानकर परपदार्थों से मुझे सुख होता है, परपदार्थों के संपर्क से मेरे को ज्ञान बढ़ता है, ऐसी भ्रमबुद्धि करके मैं स्वयं आकुलित होता हूँ। परंतु मैं आत्मा सदैव स्वरक्षित हूँ। ऐसे वस्तुस्वातंत्र्य की सुध करने वाला यह दर्शन, परमसमाधि का सत्य उपाय बताने वाला यह दर्शन है। इस दर्शन की मोहीजन कैसे प्रशंसा कर सकेंगे? पापियों को पापियों की गोष्ठी में ही रहना सुहाता है, धार्मिकों को धार्मिकों की गोष्ठी में ही रहना सुहाता है। यह जगत मोहियों का जाल है। इस मोही जीव का शुद्ध मार्ग में प्रेम नहीं हो सकता। अपनी और पुराण पुरुषों की सुध—भैया ! अपने आपकी सुध कराने वाला यह जैनदर्शन भले ही मोहियों के द्वारा निंदित हो रहा हो, लेकिन तुम यदि आनंद चाहते हो, अपने आत्मा का उत्थान चाहते हो तो उस निंदा के वातावरण को देखकर इस जैनमार्ग में अश्रद्धा मत करो। इस मार्ग का अनुसरण करने वाले जो अपने कुलपरंपरा के पुराण-पुरुष हुए हैं उनकी भी सुध लो। इस तीर्थ परंपरा में वर्तमान अवसर्पिणीकाल के तीर्थंकरों में सर्वप्रथम श्री ऋषभदेव हुए हैं, तब से लेकर श्रीमहावीर पर्वत तीर्थंकर हुए हैं। इस परंपरा को देख लो और तीर्थंकर काल के अनेक सेठ, राजावों, महाराजावों को देख लो, जिन्होंने इस जैनदर्शन का, तपश्चरण का आदर किया था, उसके प्रताप से वे सदा के लिए निर्वाण पधारे। इन जैनश्वरों का स्तवन करने में बड़ी सामर्थ्य है। यदि इनका अभ्युदय न होता तो आज हम इन आध्यात्मिक वचनों को कहाँ सुनते, कहाँ धारण कर सकते थे? शुद्ध मार्ग के अनुसरण की शिक्षा—जैसे जगत के अन्य मनुष्य निरंतर विषय—कषायों में उन्मत्त हो रहे हैं—ऐसी उन्मत्त अवस्था तो अपनी भी थी। उससे छूटकर आज जो इतने धर्म के वातावरण में आए है, ज्ञान और वैराग्य के बल से कभी-कभी शांति पाने के पात्र होते हैं, यह सब जिनेश्वरों की अपार अनुकंपा का फल है। हम भक्तिपूर्वक प्रभु का वंदन करते रहें और अपने आत्मा में नित्य अंत:प्रकाशमान् इस शुद्ध चैतन्य—ज्योति का स्मरण करते रहें। इन छोटे विषय-भोगों में, संसारसमागम में न बँध जायें, अपने आपको सँभाल लें तो इससे अपना कल्याण है। इस नियमसार ग्रंथ के अंतिम प्रसंग में इस गाथा में शिक्षा दी गई है भव्य जीवों को कि तुम शुद्ध मार्ग का निर्णय करो और उस पर दृढ़ता के साथ चलो, फिर किसी के डिगाने पर भी मत डिगो। इस प्रकार जैनमार्ग का अनुसरण करने का शिक्षण इस गाथा में किया गया है।