वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 82
From जैनकोष
एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं।
तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि।।82।।
प्रतिक्रमणादिक के व्याख्यान का संकल्प- इस अधिकार के पहिले 5 गाथावों में जो वास्तविकता बतायी गयी है उसका परिज्ञान होने के कारण जब इस आत्मा को भेदविज्ञान का अभ्यास हो जाता है तब यह भेदविज्ञानी जीव मध्यस्थ होता है अर्थात् न राग की ओर इसका झुकाव रहता है न द्वेष की ओर झुकाव रहता है। राग और द्वेष दोनों से परे होकर यह मात्र ज्ञाता रह जाता है। केवल ज्ञाता रह जाने की स्थिति हो जाने का नाम चारित्र है। इस ही चारित्र से संसार के समस्त संकट दूर होते हैं। अत: कल्याण के अर्थ इस चारित्र का धारण करना अत्यंत आवश्यक है। उसही चारित्र के दृढ़ करने के निमित्त अब प्रतिक्रमण आदिक को कहेंगे।
महत्त्वपूर्ण योजना की भूमिका में सर्वस्वदर्शन- जब बहुत बडी़ योजना अपनी होती है, बहुत प्रायोजनिक मार्मिक महत्त्पूर्ण प्रस्ताव रखने को होता है तो उससे पहिले ऐसी भूमिका कहनी पड़ती है कि उस प्रस्ताव का समस्त रहस्य दे दें। श्रोतावों के चित्त में उस प्रस्ताव का समर्थन हो जाना यह सब पहिले ही हो चुकता है आंतरिक आशय द्वारा, फिर प्रस्ताव को बताने में और उसको पास कराने में अधिक समय नहीं लगता है। यों ही मानो इस परमार्थप्रतिक्रमण के महान् पुरूषार्थ के विवरण में महत्त्वपूर्ण प्रतिक्रमण से पहिले जो पंचरत्नों में भूमिका मानी गयी है, परिज्ञान कराया गया है उसको ही सुनकर श्रोतावों ने इस प्रतिक्रमण का हार्दिक समर्थन कर दिया है। अब उस पंचरत्नमयी भूमिका के बाद अथवा परमार्थप्रतिक्रमण का जो प्राणभूत परिज्ञान है उस परिज्ञान के प्रतिपादन के बाद अब आचार्यदेव कह रहे हैं कि प्रतिक्रमण आदिक को कहेंगे।
प्रतिक्रमण का प्रयोजन- प्रतिक्रमण की आवश्यकता निर्दोष चारित्र की सिद्धि के लिए है। निर्दोष चारित्र की सिद्धि समस्त आकुलतावों के मिटाने के लिए है। समस्त आकुलतावों का मिट जाना इस जीव का ध्येय है, मंतव्य है, लक्ष्य है। चाहते यह हैं समस्त जीव लोक की रंच भी पीड़ा न रहे। अनाकुलता की स्थिति कैसे आये? उसके उपाय में यह चारित्रशोधक परमार्थप्रतिक्रमण का वर्णन चल रहा है।
हितमार्ग में स्वरूपावगमरूप मौलिक उपाय- चारित्र कहिए या मध्यस्थ होना कहिए, करीब-करीब एकार्थक बात है। रागद्वेष से परे होकर केवल ज्ञातादृष्टा रहने को मध्यस्थ कहते हैं। मध्यस्थ कहिए अथवा तटस्थ कहिए, यहां तक कुछ-कुछ प्राय: एकार्थक बात है। लेकिन सूक्ष्मता से देखा जाय तो पहिले कभी तटस्थ हो जाते हैं पश्चात् मध्यस्थ हो जाते हैं और कभी पहिले मध्यस्थ हो जाते हैं, पश्चात् तटस्थ हो जाते हैं, किंतु सबसे उत्कृष्ट अवस्था इस मध्यस्थ और तटस्थ होने से ऊपर की है। उस अवस्था का कारण है मध्यस्थ होना और मध्यस्थ होने का उपाय है भेदविज्ञान के उपयोग में स्थित रहना। भेदविज्ञान के उपयोग में स्थित रहने का साधन है उस भेदभावना का अभ्यास दृढ़ करना। भेदभावना के अभ्यास को दृढ़ करने का कारण है वस्तुस्वरूप का यथार्थ-यथार्थ परिज्ञान होना। जब वस्तु का स्वत:सिद्ध स्वरूपास्तित्त्वमात्र लक्षण जान लिया जाता है तो वहां भेद विशद दृष्ट हुआ करता है। वस्तुस्वरूप का यथार्थ परिचय पाने के लिए ज्ञानाभ्यास करना होगा।
प्रायोजनिक स्वरूपावगम का संकेत- हम द्रव्य गुण पर्याय के विस्तार में वस्तु को पहिले जानें तब यह भेद विज्ञात होता है। प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी पर्यायों से उत्पन्न होता हुआ अपनी-अपनी पर्यायों में ही उस काल में तन्मय रहा करता है। वह पर्याय प्रतिक्षण नवीन-नवीन हो जाती है और पुरानी-पुरानी पर्याय उस वस्तु में विलीन हो जाती है। उस समस्त पर्यायों का आधारभूत, जितने भी किस्म के पर्याय हैं उतने ही पदार्थों में गुण होते हैं। ये गुण पदार्थ की शक्तियां हैं और जैसे कि पदार्थ अनादि अनंत हैं ऐसे ही यह शक्तियां भी अनादि अनंत है। उन समस्त शक्तियों का जो पुन्ज है वह द्रव्य कहलाता है। प्रत्येक सत् अपने ही द्रव्य गुण पर्याय में तन्मय है, अन्य सबके द्रव्य गुण पर्याय से अत्यंत विविक्त है, ऐसा उन समस्त पदार्थों का सामान्यतया परिचय पाने पर और असाधारण लक्षण निरखकर, उन शक्तियों को निरखकर विशिष्ट परिचय पाने पर भेदविज्ञान होता है। भेदविज्ञान के पश्चात् उस विशिष्ट परिचय को भी समाप्त करना होता है। साधारण स्वरूप में अर्थात् मध्यस्थ होकर स्वत:सिद्ध होने वाले अपने आपके ज्ञातृत्वरूप स्व में स्थित होने को निश्चय चारित्र कहते हैं। इस कल्याण प्राप्ति के लिए हमें यथार्थ ज्ञानाभ्यास की महती आवश्यकता है।
दुर्लभ मनुष्यभव में सावधानी का अनुरोध- वर्तमान में मनुष्यभव पाया, धन संपदा भी यथायोग्य पायी जिसमें किसी भी प्रकार की चिंता भी नहीं है। यों तो चिंता करने के लिए अपनी तृष्णा बढ़ाते जावो तो चिंतावों की कभी सीमा नहीं आ सकती। पर जितने से अपने प्राण रह सकते हैं और प्राण रहने पर अपने धर्म के लिए हम समर्थ रह सकते है, इतने साधन प्राय: सबने पाये हैं और प्रतिभा ज्ञान भी सबने पाया है। जिस बुद्धि में इतनी सामर्थ्य है कि इतना बड़ा व्यापार कर ले, आय बना ले, हिसाब रख ले अथवा सामाजिक राष्ट्रीय अनेक प्रोग्राम बना सकें, विवाद हल कर सकें, क्या उस बुद्धि में यह सामर्थ्य नहीं है कि स्व पर का यथार्थ परिज्ञान प्राप्त कर ले। बुद्धि भी खूब है, इंद्रियां भी समर्थ हैं, सारी योग्यताएँ ठीक हैं, धार्मिक प्रोग्राम भी मिले हुए है इतना सब कुछ मिल जाने के बाद भी यदि विषयों की ही लिप्सा रही, इस मायामयी दुनिया में अपना नाम जाहिर करने की ही मंशा रही, अपने आपके इस पर्याय को लोक में प्रसिद्ध करने का ही आशय रहा तो समझ लीजिए कि वही गति है कि बहुत ऊँचे चढ़कर थोड़ी असावधानी से एकदम नीचे गिर जाना है।
कृपाकारी पर अन्याय के फल पर एक दृष्टांत- एक साधु महाराज थे। उनके पास एक चूहा बैठा था, उस पर बिल्ली झपटने को हुई तो दयावश साधु ने उस चूहे को आशीर्वाद दिया कि तू भी बिलाव बन जा। वह बिलाव बन गया। अब उसे बिलाव का डर नहीं रहा। लो उस पर थोड़ी देर में कुत्ता झपटा तो आशीर्वाद दिया कि तू भी कुत्ता हो जा। कुत्ता बन गया। अब उस पर झपटा नाहर, तेंदुवा, तो उसने फिर आशीर्वाद दिया कि तू भी नाहर बन जा। बन गया नाहर। इसके बाद उस पर झपटा सिंह। साधु ने कहा कि तू भी शेर बन जा। बन गया सिंह। देखो चूहा से शेर बन गया। अब इस सिंह को लगी भूख, सिंह उस साधु पर झपटने की सोच चुका, इतने में साधु ने आशीर्वाद दिया कि तू फिर से चूहा बन जा। इतना बड़ा सिंह बन जाने के बाद एकदम चूहा बनना पड़ा और जो क्लेश था, जो बात थी वह सब आ गयी।
आत्मदेव पर अन्याय करने का फल- इसी प्रकार हम आप जरा व्यापक दृष्टि डालें। कभी निगोद अवस्था में थे, एक श्वास में 18 बार जन्म मरण लेना पड़ता था, बड़ी कठिनाई उस जीवन में रही। इस आत्मदेव का कुछ प्रसाद मिला, कुछ निर्मलता हुई, कुछ विशुद्धि बनी कि निगोद अवस्था से निकला और अन्य स्थावरों में आया और विशुद्धि हुई तो त्रस पर्याय में आया। उसमें भी संज्ञीपंचेंद्रिय और उसमें भी मनुष्य हो गये। इंद्रिय, मन, बुद्धिबल सब कुछ विशिष्ट हो गया। एक निगोद अवस्था से निकलकर ऐसे बलिष्ट मनुष्यभव को प्राप्त कर लिया, अब मनुष्य होकर यह अपनी विद्या का, बल का उपयोग करने लगा कषाय साधनों में, लड़ाई झगड़ों में। इंद्रिय के विषय का कितना बड़ा विस्तार हो गया और मन के विषय का तो और भी अधिक विस्तार हो गया। अब विषयसाधन करके इसने अपने आत्मदेव पर हमला किया है। जिस आत्मदेव के प्रसाद से यह निगोद अवस्था से निकलकर आज मनुष्यपर्याय की उत्कृष्ट स्थिति में आया है। अब यह उस ही आत्मदेव पर आक्रमण कर रहा है। विषयों में भ्रमण कर अपने आपको भूल रहा है। ऐसे आक्रमण के समय में म्लान हुआ यह आत्मदेव भीतर से यह आशीर्वाद दे रहा है कि तू फिर से निगोद बन जा लो अब जिस गर्त से उठे थे उसी गर्त में फिर गिर गये।
मोहपरित्याग में ही कल्याण- भैया ! ऐसी उत्कृष्ट स्थिति पाने पर अब तो कुछ विवेक उपयोग में लाना चाहिए। सबसे विविक्त केवलज्ञानानंद स्वरूपमात्र अपने आपके प्रभु को तो निरखिये, झूठे मोह में क्या रक्खा है और वह मोह भी आखिर छोड़ना पड़ेगा। मोह तो न छूटेगा पर मोह में जो विषय बनाया है उसे छोड़ना पड़ेगा। मोह तो ज्ञानबल से ही छूटेगा। थोड़े दिनों का जो समागम मिला है, जो कुछ असार पदार्थों की परिस्थिति मिली है उसमें मुग्ध हो जाना, इससे बढ़कर मूढ़ता और क्या हो सकती है? ये मोही लोग किसी प्रकार धन को जोड़ लेने में अपनी चतुराई समझते हैं या किसी प्रकार देश में, गोष्ठी में अपनी कुछ पैठ बना लेने में अपनी चतुराई समझते हैं, किंतु वह क्या चतुराई है जिसके बाद फिर क्लेश का सामना करना पड़ेगा, वह कौनसी भली परिस्थिति है? बुद्धिमानी तो यह है कि इस भव से निकल जाने से ही पहिले हम भविष्य का सब कुछ भला निर्णय बना लें। यह सब कुछ होगा मोह छोड़ने के कारण।
कार्यसफलता की योग्य विधि पर एक दृष्टांत–भैया ! धर्मपालन जिस पद्धति से, जिस मूल उपाय से होता है उसही मूल उपाय को किया जाय तो होगा अन्यथा न होगा। एक रानी का बाग था, उसका सारा प्रबंध रखना उसके ही हाथ था। वह एक बार बीमार हो गयी तो अपने लड़के से कहती है रानी कि देखो उस बगीचे की खूब सेवा करना, उस बगीचे को खूब सींचना, बग़ीचा खूब हरा भरा साफ रहे। उस लड़के ने बाग़ की खूब सेवा की। सेवा तो बहुत की, लेकिन कुछ ही दिनों में वह बाग सूख गया। रानी स्वस्थ हो गयी और बाग देखने गयी तो देखा कि सारा बाग सूख गया। रानी को बड़ा विषाद हुआ। लड़के को बुलाया और पूछा कि बेटा यह बाग कैसे सूख गया? क्या तुमने इसकी सेवा नहीं की? लड़का बोला मां ! मैंने तो अथक परिश्रम किया। कोई पत्ता धूल भरा भी नहीं रह सका। खूब सींचा, डाली-डाली सींची, पत्ते-पत्ते में पानी डाला। तो बेटा तुमने जड़ों में पानी डाला कि नहीं? मां ! यह तो नहीं कर पाया। तो पत्तियों के धोने से, डाली-डाली सींचने से तो बाग सूख जायेगा ही। उन पत्तियों को साफ न करे, उन डालियों में पानी न डाले और बराबर जड़ों को ही पानी देता रहे तो वह बाग़ हरा भरा बना रहेगा, सूखेगा नहीं।
आत्मविकास की मूल विधि- ऐसे ही जानो भैया ! कि यह आत्मा के गुणों का बाग़ हरा भरा कैसे रह सकता है? इसका उपाय तो दोष रहित शुद्धज्ञानप्रकाशमात्र स्वतत्त्व को निरखना, यही है इस बाग की मूल को सींचना। इस परमार्थ परमपारिणामिकभावरूप पंचमगति का कारणभूत सहजस्वभाव का अवलोकन, आलंबन, आश्रयरूप चिंतन, मन, वचन, काय की क्रियाएँ, विकल्प, हाथ पैर पीटना, शरीर को बड़ा धोना, साफ करना, छुवाछूत का भारी पालन करना, बहुत-बहुत भी ऐसे बाह्य काम कर लिए जायें तो ये सब मूल सिंचन के बिना पत्तियों और डालियों को धोने की तरह हैं। ऐसे बाह्य क्रियाकांड करके भी इस आत्मा के गुणों का विकास नहीं हो सकता है, यह आत्मउपवन हराभरा नहीं रह सकता। यहां परमार्थप्रतिक्रमण के प्रसंग में ऐसा ही उपाय कराया जा रहा है जिस उपाय के प्रसाद से यह आत्मबाग सर्वदोषों से रहित होकर शुद्ध विकासरूप बन जाय, हराभरा बन जाय अर्थात् आनंद ही आनंद बरस जाय। ऐसे उपाय में सर्वप्रथम यह बतला रहे हैं कि हे कल्याणार्थी पुरूषों ! प्रत्येक वस्तु का जैसा यथार्थस्वरूप है तैसा पहिले जानो और परिज्ञान से स्वपर में भेदविज्ञान बनावो, भेदाभ्यास करो, फिर विकारों को छोड़कर निज तत्त्व के ही दर्शन करो तो आत्मा का शुद्ध विकास हो सकता है।
प्रतिक्रमणव्याख्यान का संकल्प- इस शुद्धविकास की मूल प्रक्रिया स्वरूपाचरण है और यही निष्क्रिय आत्मस्थितिरूप प्रक्रिया प्रगतिशील होकर यथाख्यात व पूर्णपरमचारित्र हो जाता है जिसमें अनंत सहज परम आनंद का निरंतर अनुभवन रहता है। उस चारित्र की प्राप्ति व अविचल स्थिति के हेतु अब प्रतिक्रमणादि की निश्चय क्रिया बतायी जा रही है। प्रतिक्रमण का अर्थ है अतीत दोषों के परिहार के अर्थ प्रायश्चित्त करना अतीत दोषों का संस्कार न रह सके व अतीत दोषों के कारण उस काल में बद्ध हुए कर्म विफल हो जावें, वे पुन: दोषों के उत्पादनिमित्त न हो सकें ऐसे अंत:पुरूषार्थ करने को प्रतिक्रमण कहते हैं।
पावन प्रबल प्रणेता की वचनरचना की महिमा- इस गाथा में यह कहा गया है कि प्रतिक्रमणादिक को कहूंगा। इस आदि शब्द से प्रत्याख्यान आदि का ग्रहण करना चाहिये। यहां तक जिज्ञासा यह हो सकती है कि यह तो प्रतिक्रमण अधिकार है इसमें तो प्रतिक्रमण के ही कहने का संकल्प बताना चाहिये था और जब प्रत्याख्यान अधिकार का प्रारंभ करते तब प्रत्याख्यान के कहने का संकल्प बताना चाहिये था, ऐसा न करके इसी स्थल में प्रतिक्रमणादिक को कहूंगा, ऐसा क्यों कहा गया है? इसका समाधान यह है कि परमहित नियम का प्रतिपादन करने वाले आचार्य श्री कुंदकुंद देव इस ग्रंथ में उपयोगी तत्त्ववर्णन करते गये थे। उनका यह तत्त्ववर्णन स्थलानुसार क्रमिक, अध्यात्मदिग्दर्शक धाराप्रवाह चलता गया था। यह अधिक संभव है कि इस ग्रंथ के प्रणेता पूज्यपाद आचार्य कुंदकुंददेव ने पहिले से यह छटनी न की होगी हमें इतने अधिकार इस-इस क्रम से इतनी-इतनी गाथावों में बनाने हैं, उन्होंने तो हित भाव से परमदेशना की है। महापुरूषों की वाणी क्रम अधिकार आदि न सोचे जाने पर भी ऐसी संतुलित, परिमित, उपयोगी क्रमिक हो जाती है कि उनकी रचना के व्याख्याकारों की अधिकारों की छटनी में श्रम नहीं होता। इस तत्त्ववर्णन के स्थल में प्रसंगवश इसी कारण ‘‘प्रतिक्रमणादिक कहूंगा’’ इसमें आदि शब्द दिया गया है। इस आदि शब्द से यह प्रकट होता है कि आगे कहे जाने वाले निश्चय प्रत्याख्यान परम आलोचना, शुद्धनयप्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति और निश्चयपरमावश्यक का दोषनिवृत्ति से विशिष्ट संबंध है।
परमार्थप्रतिक्रमण का प्रसाद- परमार्थप्रतिक्रमण में प्रमुख आधार सहज चिद्विलासात्मक आत्मतत्त्व के आलंबन का है और उसमें उपमुख आधार स्वपरभेदविज्ञान का है। भेदविज्ञान की अपार महिमा है- जितने भी आत्मा परमात्मा हुए हैं वे सब भेदविज्ञान के प्रसाद से सिद्ध हुए हैं तथा जितने भी जीव अब तक बद्ध हैं व सब भेदविज्ञान के अभाव से ही बद्ध हैं, परतंत्र हैं, जन्ममरणादिक के क्लेश सह रहे हैं। अहो, भेदविज्ञान के प्रकट होने पर सहजानंदधाम चिद्विलासात्मक सात्मतत्त्व संदृष्ट हो जाता है और तब यह आत्मा भेदाभ्यास से प्राप्त अभेदस्वरूप अंतस्तत्त्व के आश्रय से पापकलंक से मुक्त होकर पावन हो जाता है। यह सब परमार्थप्रतिक्रमण का परमप्रसाद है। अब इस ही परमार्थप्रतिक्रमण के पात्र का वर्णन है।