वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 84
From जैनकोष
आराहणाए वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिक्कभणमओ हवे जम्हा।।84।।
प्रतिक्रमणपात्र- जो पुरुष सर्वप्रकार से विराधना को छोड़कर आराधना में लगते हैं वे प्रतिक्रमण कहे जाते हैं। प्रतिक्रमण एक भाव है। भाव भाववान् से जुदा नहीं होता है, इस कारण प्रतिक्रमणमय जीव ही प्रतिक्रमण कहा जाता है। विराधना कहते हैं अपराध को, विगत हो गयी है राध जिस परिणाम से उसे विराधना कहते हैं। अपनी आत्मसिद्धि जिस परिणाम में नहीं है उस परिणाम को विराधना कहते हैं और जहां चारों ओर से संसिद्धि बनी होती है उसे आराधना कहते हैं। परपदार्थों की ओर उन्मुख होना, रागद्वेष परिणाम करना ये सब विराधना है और सहज आत्मतत्त्व की ओर दृष्टि होना जो विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप है ऐसे निज तत्त्व का आश्रय लेना यह है आराधना। जो पुरुष विराधना को तो त्याग देता है और आत्मा की आराधना में लगता है उसही महात्मा का नाम प्रतिक्रमण है क्योंकि यह जीव ही तो प्रतिक्रमणमय हुआ है।
प्रतिक्रमण व प्रतिक्रामक का अभेद- जैसे धर्मोत्मावों को छोड़कर धर्म अन्यत्र कहां मिलेगा? कोई कहे कि धर्म की पूजा करो, धर्म का प्रचार करो तो वह धर्म कहां मिलेगा अन्यत्र? उस धर्म की क्या शकल है? वह धर्म धर्मात्मा पुरूषों का जो परिणाम है वही धर्म है। धर्मात्मावों को छोड़कर धर्म अन्यत्र नहीं मिलेगा। धर्म है भाव और धर्मात्मा है भाववान्। भाव और भाववान् भिन्न-भिन्न नहीं हुआ करता है। केवल गुणगुणी भेद परिचय के लिए किया जाता है। ऐसे ही यह प्रतिक्रमण एक विशुद्ध परिणाम का नाम है। वह विशुद्ध परिणाम आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता। इसलिए उन पुरूषों का ही नाम प्रतिक्रमण है जो विराधना को तजकर आत्मा की आराधना में लगते हैं।
परमार्थ निरपराधता- जो परमतत्त्व का ज्ञानी जीव निरंतर आत्मा की ओर अभिमुख होकर ऐसे ही धारावाही परिणमन से साक्षात् स्वभावरूप आत्मा के या स्वभाव में अवस्थित आत्मतत्त्व की आराधना में रहा करता है वही पुरुष वास्तव में निरपराध है और जो निरपराध है उसके ही परमार्थप्रतिक्रमण है। आत्मा के सहज ज्ञानानंदस्वरूप को तजकर अन्य किसी परभाव में रमना सो सब अपराध हैं। कोई बड़ी न्यायनीति से धन कमाता है, किसी के साथ किसी प्रकार का असत्य व्यवहार नहीं करता है। अपना ही धन बैंक में रखना, हिसाब में रखना, संपदा की बढ़ोतरी करना, कमाई करना, आजीविका के साधनों की संभाल बनाना, सारे व्यवहार न्यायनीति से करता है, सो जो धन कमाने का उसका प्रसंग है यह भी अध्यात्मदृष्टि में अपराध है। असत्यता से, बेईमानी से धन कमाना यह तो प्रकट अपराध है ही किंतु बड़ी नीति से भी रहे, लेकिन परपदार्थों की ओर दृष्टि हो, उनकी रक्षा का यत्न हो, उनमें ममत्व हो वे सब अपराध माने गये हैं। अध्यात्मभूमि में केवल सहज ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व की उपासना को निरपराध कहा गया है, इसको छोड़कर किसी भी बाह्यतत्त्व में अभिमुख होना, उसकी ओर ममता होना, ये सब अपराध कहे जाते हैं। गृहस्थजन ऐसे अपराध करते हुए भी निरपराध कारणसमयसार की दृष्टि बनाया करते हैं, उसके प्रताप से सब अपराध माफ होते चले जाते हैं। जो अज्ञानीपुरूष अपराध की प्रवृत्ति भी करें और निरपराध आत्मस्वभाव की दृष्टि भी न करें, ऐसे पुरुष तो पूर्ण अपराधी ही हैं, अनंत संसार के पात्र हैं।
निरपराधता में अनाकुलता का स्वाद- जहां आत्मा में आराधना नहीं है वे सब अपराध हैं। जहां शुद्ध ममता का, अनाकुलता का स्वाद नहीं आ रहा है वे सब अनुभवन अपराध हैं। किसी भी बाह्य प्रसंग में चाहे वे बड़ी सच्चाई के साथ भी जुट रहें हो किंतु उनसे पूछो कि क्या तुम इस समय निराकुलता में हो? तो उत्तर मिलेगा कि निराकुलता तो नहीं है। निराकुलता तो रागद्वेषरहित केवल ज्ञाता द्रष्टा रहने में ही है। जहां निराकुलता है, वास्तविक सहज परम आल्हाद है वहां ही आत्मा की आराधना है और वही जीव निरपराध कहलाता है। यह प्रकरण चल रहा है परमार्थप्रतिक्रमण का। अर्थात् लगे हुए दोष हमारे कैसे दूर हों? इसके उपाय में यह परमार्थप्रतिक्रमण कहा जा रहा है। साधुजन व्यवहार में अपने दोष आचार्य से कहते हैं और आचार्य महाराज उसको प्रायश्चित्त देवें, वह उस प्रायश्चित्त का पालन करे और विधि सहित प्रतिक्रमण पाठ करले, ये सब व्यवहारप्रतिक्रमण की बातें हैं। यह व्यवहारप्रतिक्रमण भी उसका व्यवहारप्रतिक्रमण कहलाता है जिसे निश्चयप्रतिक्रमण की सुध है। ऐसे ही पुरुष व्यवहारप्रतिक्रमण में प्रवृत्त होकर इसके ही बीचों बीच अथवा आगे पीछे जब कभी भी इस निरपराध सहज ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व की अनुभूति प्रतीति करते हैं, इसका ही आलंबन करते हैं, वहां ही उन्हें परमनिराकुलता के दर्शन होते हैं और लगे हुए दोषों का वहां प्रतिक्रमण हो जाता है।
निश्चयप्रतिक्रमण के स्पर्श बिना वास्तविक शांति का अविकास- दोषों का पुन्ज यह आत्मा उन दोषों को दूर करने के लिए किसी बाहरी क्रिया में, बाहरी प्रवृत्ति में अपना मन लगाए तो बाह्य प्रवृत्ति में बाह्य कामों में उपयोग लगाना भी तो खुद एक दोष है। उस दोष के द्वारा दोष का प्रतिक्रमण नहीं किया जा सकता। हां निर्दोष आत्मतत्त्व की सुध रखते हुए प्रवर्तमान राग में जो व्यवहारविधि से बाह्य क्रियावों में प्रवृत्ति हो रही है वह दोष होते हुए भी व्यवहार में चूंकि निश्चय का शरण मिला है ना, सो वह प्रतिक्रमण कहलाने लगता है, परंतु जिसे इस निश्चयस्वरूप की सुध भी नहीं है वह कितने भी व्रत करे, तप करे, प्रायश्चित्त करे, कुछ भी करे, किंतु मोक्षमार्ग की बात वहां नहीं आ सकती है। जैसे जीवदया करने से स्वर्ग मिल सकता है ऐसे ही व्रत तप संयम बाह्यरूप करने से स्वर्ग मिल सकता है। कोई आश्चर्य की बात नहीं है पर मोक्षमार्ग और स्वर्ग में विलक्षण अंतर है। स्वर्ग में भी शांति या आनंद निराकुलता नहीं है। मन वहां भी है और भोगों की वान्छाएँ वहां भी जगती हैं। जहां परपदार्थों को विषय बनाकर भोगों की इच्छा बने वहां निराकुलता कैसे रह सकती है, किंतु मोक्षमार्ग में अपने निराकुल आत्मस्वरूप की सुध रहने के कारण शांति रहा करती है, उसके मोक्षमार्ग चलता है।
मूढ़ता में हित का अदर्शन- भैया ! अपने आपकी ओर मुड़़कर जरा निरखिये तो सही, सब कुछ सिद्धि अपने आपमें हाजिर खड़ी हुई है। दु:ख तो बुलाये, बुलाये आया करते हैं और शांति पहिले से ही हाजिर खड़ी है, आपकी दृष्टि की प्रतीक्षा कर रही है, लेकिन यह व्यामोही जीव बुलाये-बुलाये से आने वाले दु:ख का स्वागत करने में अभ्यस्त है और स्वयं ही जो शांतस्वभावी स्वरूप है, सदा अपने आप जो तैयार खड़ा हुआ है उसकी ओर दृष्टि भी नहीं करता है। मोह और मूढ़ता इसको ही कहते हैं।
मूढ़चतुर का अर्थ- भैया ! लोक में चतुर कहे जाने से लाभ क्या है? महापुरूषों ने जिसे चतुर कहा हो वह तो मूढ़ों का ही चतुर कहलायेगा, वास्तविक चतुर न कहलायेगा। जैसे कोई कहे कि आप तो बदमाशों के राजा हैं और राजा नाम सुनकर वह खुश हो कि देखो इसने हमारी कितनी बढ़ाई की है कि यह तो बदमाशों का राजा है। अरे कहा क्या गया है कि यह अव्वल नंबर का बदमाश है, जितने बदमाश है उन सबका यह मुखिया है। इसको सुनकर कोई प्रशंसा की बात मान ले तो उससे बढ़कर मूर्ख क्या होगा? ऐसे ही जो मोही जीव व्यामोही मूढ़ पुरूषों में जो चतुर कहलाये वह उन मूढ़ पुरूषों में चतुर है, मूढ़ों का राजा है, मूढ़ों में श्रेष्ठ है। उसका अर्थ यह है कि यह मूढ़ है, उसे सुनकर कोई खुश हो जाय तो उसे मोही मूढ़ ही समझना चाहिए। यहां के लोगों की वाट पर यहां के मोही पुरूषों की राय पर हम चतुर कहलायें तो उस चतुराई का अर्थ मूढ़ता ही होगा। कोई वास्तविक चतुराई न कहलायेगी। सारा जहान मेरे बारे में कुछ भी सोचे, मुझे पागल सोचे, बुरा जाने किंतु यह मैं अपने आपमें अपने आपके शुद्ध ज्ञानप्रकाश में लीनता पाता हूं, उस ही उपासना में रत रहना चाहता हूं, ऐसा ही यत्न किया करता हूं। तो मैं सबका बुरा होकर भी मोक्षमार्ग के लिए भला हूं।
विकट गोरखधंधा- यह जगत गोरखधंधा है। जैसे गोरखधंधे में जरा भी हाथ लगाया और वह कड़ा छड़ा निकल जाय, फंस जाय, तब निकल जाय तो फंसा नहीं सकते, फंस जाय तो निकाल नहीं सकते, ऐसे ही यह जगत, ये मायामयी संपदाएँ, यह मायामयी संपदावों का समाज इस गोरखधंधे में किसी भी प्रकार की घुस पैठ करे तो इसका परिणाम दु:खद ही होता है। जैसे थोड़ा रिपटे किसी जगह में तो उसे पूरा रिपटकर गिरना ही पड़ता हैं। रिपटने के बीच में सावधान होकर संभल जाना अत्यंत कठिन बात है। रिपट न सके जब तक सावधानी बनाए तब तो भला है किंतु थोड़ा पैर रिपटा तो फिर सावधानी बनाना कठिन हो जाता है। संभव है कि एक पैर अच्छी तरह रखा हो और दूसरा पैर थोड़ा रिपटे तो सावधानी कुछ हो भी सकती है। पर जहां मैदान है, कीचड़ भरा हुआ है, दोनों ही पैर रिपटते हैं तो वहां बचना कठिन है। ऐसी इस मायामयी दुनिया में मोही समाज में कीचड़ भरा क्षेत्र है, इसमें बाहरी पोजीशन रखने की रिपट हो और अंतरंग में उसकी चाह की रिपट हो तो जहां दोनों ही पैर रिपट रहे हों उस जीव में सावधानी आ जाना बहुत कठिन बात है।
निरपराध की संकटमुक्तता- जो मनुष्य बाहरी पोजीशन बाहरी वृत्तियों में न उलझते हों और आत्मा की आराधना की ओर उन्मुख हो तो उन पुरूषों के परमार्थप्रतिक्रमण होता है, क्योंकि वह जीव स्वयं परमार्थप्रतिक्रमण है। राधा का अर्थ सिद्धि है। राधा शब्द में राधृ संसिद्धौ धातु है उससे निष्पन्न राधा, राध की राधन शब्द है जिसका अर्थ सिद्धि होता है। आत्मसिद्धि, आत्मराधा ये शब्द एकार्थक शब्द हैं। जहां राधा नहीं रहती है उस भाव का नाम अपराध है। जहां राधा बनाये रहते हैं उस परिणाम का नाम निरपराध है, प्रतिक्रमण है, समृद्धि है। राधा का अर्थ है आत्मशुद्धि, आत्मदृष्टि, आत्मसमृद्धि अनाकुलता की अनुभूति। जो जीव इस सिद्धि से च्युत है वही अपराधी है। जो अपराधी है सो शंका, भय, शोक, चिंता सभी दंडों का अधिकारी है। जो निरपराध है वह समस्त दंडों से दूर है।
बाहर विपदा का अभाव- भैया ! कहां है दु:ख? जहां अपने आपको देह से भी न्यारा ज्ञानानंदस्वरूप मात्र निहारा वहां एक भी तो संकट नहीं रहता है। जहां इस परमार्थ वास्तविक आत्मस्वरूप से चिगकर बाह्यपदार्थों की ओर लगा बस वहां सारे संकट आ जाते हैं। इस उपयोग में अनात्मतत्त्व का कुछ भी चिंतन करना, कुछ भी कल्पना बनाना, वह सारा संकट है। आत्मा का संकट बाहर कहीं नहीं है। कोई मकान की मंजिल गिर गयी गिर जाने दो, वह मकान अलग सत् है, मायामय है, पुद्गल का ढेर है, यह आत्मा आकाशवत् निर्लेप अमूर्त ज्ञानानंदमय श्रेष्ठ तत्त्व है। क्या हो गया यहां? किंतु जहां इसने ममत्व परिणाम किया, परपदार्थ में यह ममत्व नहीं कर सकता, किंतु परपदार्थों को विषय बनाकर अपने आपके श्रद्धाचारित्र गुणों में उपयोग बनाया, बस लो यह विकार विपदा बन गयी। मकान गिरना विपदा नहीं है, धन की कमी हो जाना विपदा नहीं है। किसी पुरुष के द्वारा गालीगलौज की चेष्टा हो जाना विपदा नहीं है, बाहर में रंच भी विपदा नहीं है, अपने आत्मप्रदेश से बाहर एक प्रदेश भी आगे कहीं विपदा नहीं है। विपदा तो अपने परिणाम में उद्दंडजन जो कुछ किया करते हैं, अहंकार और ममकार का जो परिणाम बनाया गया है वह विपदा है, वह संकट है।
विपदाविनाशिनी दृष्टि- भैया ! इस विपदा को कौनसा परपदार्थ मिटा सकता है? जब किसी परपदार्थ से मुझमें विपदा ही नहीं आती तो किसी परपदार्थ का यह भी अधिकार कैसे हो सकता है कि मेरी विपदा को दूर कर दे। अरे मैं ही व्यर्थ के विकल्प बनाकर विपदा बना रहा हूं ना। यह मैं भ्रम त्यागकर निरपराध चित्प्रकाशमय, चित् विलासात्मक आत्मतत्त्व को निहारूँ तो ये सर्व संकट मुक्त है। आत्मा का कार्य केवल जानन देखन और आनंदमय रहने का है, इसके आगे कहीं कुछ दौलत ही नहीं है। परमाणु मात्र भी इसका कहीं कुछ नहीं है। ऐसी जहां दृष्टि जगी अपने आपकी, ऐसे शुद्ध प्रकाश का दर्शन हुआ कि सारे संकट एक साथ तुरंत बुझ जाते हैं।
निरपराधदर्शन में परमार्थप्रतिक्रमण- ऐसे ज्ञानानंदस्वरूप मात्र अपने आत्मतत्त्व की दृष्टि में जो जगता है, वह निरपराध है, उसका बंधन नहीं होता किंतु जो अपने आपको असत्यरूप मान रहा है वह अपराधी है। वह निरंतर अनंत कर्मों को बांधता रहता है। एक शुद्ध सहज स्वरूपमात्र आत्मतत्त्व की दृष्टि प्रतीति उपासना करने वाले पुरुष निरपराध हैं और वे सर्व प्रकार के बंधनों से मुक्त होते हैं। जो ऐसे कारण परमात्मतत्त्व का ध्यान करता है वही निरपराध पुरुष कर्मों के परित्याग में समर्थ होता है। निष्कर्म, ज्ञानमात्र अपने आपको निहारने में परमार्थप्रतिक्रमण होता है।