वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 89
From जैनकोष
मोत्तणं अट्टरूद्दं झणं जो झादि धम्मसुक्कं वा।
सो पडिकमणं उन्चइ जिणवरणिद्दिटठ्सुत्तेसु।।89।।
परिहार्य ध्यानों में आर्तध्यान की व्युत्पत्ति- जो आर्तध्यान रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्याता है वह तपस्वी प्रतिक्रमण कहा जाता है ऐसा जिनेंद्र देव के द्वारा निर्दिष्ट किए गए सूत्रों में कहा गया है। ध्यान 4 प्रकार के होते हैं- आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। आर्तध्यान का अर्थ है आर्ति में होने वाला ध्यान। आर्ति मायने पीड़ा। पीड़ा में जो संकल्प विकल्प होता है जो चित्त की गति होती है उसे आर्तध्यान कहते हैं।
चतुर्विध आर्तध्यान का निर्देश- अपने देश का त्याग हो, देश छोड़कर जाना पड़े अथवा धन का नाश हो या अपने इष्ट मित्र जन विदेश चले जायें अथवा स्त्री आदि का वियोग हो जाय ऐसे अभीष्ट पदार्थ के वियोग होने पर जो पीड़ा होती है और जो उस पीड़ा में संकल्प विकल्प होता है, चित्त किसी दूसरी और एकाग्र रहता है उसको इष्ट वियोगज आर्तध्यान कहते हैं और जो अपने विषयों में बाधक है मन के प्रतिकूल है, शत्रु, खोटा मित्र विघ्नकर्ता पुरुष इनके संयोग होने पर जो उनके वियोग के लिए विनाश के लिए चिंतन बना रहता है उस समय जो पीड़ा होती है उस पीड़ा में जो ध्यान बनता है उसे कहते हैं अनिष्टसंयोगज नामक आर्तध्यान। ऐसे ही शरीर की वेदना हो जाय, रोग हो जाय, चोट लग जाय, शरीर में किसी प्रकार की पीड़ा होने पर कराहना, विह्वलता करना, ये सब वेदना प्रभव आर्तध्यान हैं। वहां तो पीड़ा स्पष्ट है। उस पीड़ा में जो चित्त की गति होती हैं, चित्त जिस ओर लग जाता है ऐसे एकाग्र चिंतन को वेदना प्रभव आर्तध्यान कहते हैं, इसी प्रकार किन्हीं विषय साधनों की इच्छा करना यह निदान है। निदान में भी बड़ी पीड़ा होती है। किसी चीज की इच्छा कर रहे हैं, प्रतीक्षा कर रहे हैं, आशा लगाए हैं, तो जब तक वह चीज नहीं मिली है तब तक तो उसके निदान चलता है। उस निदान के समय में बहुत विह्वलता होती है। उस आकुलता में जो एकाग्र चिंतन होता है उसे कहते हैं निदान नामक आर्तध्यान। इस आर्तध्यान में जो जीव बसा रहता है उसके प्रतिक्रमण कहां संभव है?
रौद्रध्यानों में हिंसानंद रौद्रध्यान- इसी प्रकार दूसरा ध्यान है रौद्रध्यान। रौद्र आशय में उत्पन्न होने वाले ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं। किसी जीव की हिंसा करना, किसी के मारने का प्रोग्राम होना, उसमें अपनी अभिरूचि रखना, कोई हिंसा करले तो उसे देखकर खुश होना, जो अपने मन के प्रतिकूल हैं ऐसे बांधवजर्नों में, परिजनों में, मित्रजनों में अथवा शत्रुजनों में उनके द्वेष के कारण उनका बध विचारना, बंधन विचारना और उसमें खुश होना, यह सब रौद्रध्यान है। रौद्रध्यान में यह जीव राग और द्वेष को करके हर्ष मानता है। आर्तध्यान में शोक मानता है। आर्तध्यान से भी भयंकर यह रौद्रध्यान है। आर्तध्यान तो छठे गुणस्थान तक संभव है। वहां निदान नामक आर्तध्यान न होगा, बाकि तीन आर्तध्यान मुनि तक के हो जाते हैं, किंतु रौद्रध्यान मुनि के रंच भी संभव नहीं है। रौद्रध्यान किसी प्रकार पंचम गुणस्थान तक ही संभव होता है। तो बंध, हिंसन पीड़न आदि में हर्ष मानना ये हिंसानंद रौद्रध्यान है।
मृषानंद, चौर्यानंद व विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान- झूठ बोलने में आनंद मानना, चुगली कर रहे, झूठी गवाही दे रहे, किसी को छका रहे, किसी की मजाक उड़ा रहे, ऐसे असत्य बर्ताव को करके आनंद मानना सो मृषानंद रौद्रध्यान है। चोरी करने में आनंद मानना सो चौर्यानंद रौद्रध्यान है। किसी की चोरी हो जाय उसे देखकर आनंद मानना अथवा किसी को चोरी के उपाय बताने में शौक रखना, चोरी संबंधी कुछ कल्पनाएँ करे उनमें हर्ष मानना सो चौर्यानंद नामक रौद्रध्यान है। इसी प्रकार अंतिम रौद्रध्यान है विषयसंरक्षणानंद, अर्थात् पंचेंद्रिय के जो विषय हैं उन विषयों के साधनभूत जो बाह्यपदार्थ हैं उनका संचय करने में मौज मानना, उनके संबंध में संकल्प विकल्प करना, ये सब विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान हैं।
विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान के विषय- इनमें स्पर्शन इंद्रिय के विषयभूत शीतल गर्म पदार्थ अथवा कामविषयक साधन, ये स्पर्शनइंद्रिय के भोगसाधन हैं। रसनाइंद्रिय के भोगसाधन है उत्तम स्वादिष्ट सरस व्यन्जन और जिन वस्तुवों से ये व्यन्जन तैयार होते हैं उन वस्तुवों का संग्रहण और उनके भोगने में आनंद मानना, सो ये विषयसंरक्षणानंद नामक रौद्रध्यान हैं। ऐसे ही घ्राण इंद्रिय, चक्षुरिंद्रिय और कर्णेंद्रिय के जो-जो साधन हैं उनको जोड़ना, उनकी व्यवस्था बनाना, आनंद मानना सो विषसंरक्षणानंद है और इतना बड़ा जो परिग्रह संचय किया जाता है; महल, मकान, घर, आरंभ, परिग्रह, धन वैभव संपदा रकम जो संगृहीत किए जाते हैं और उनका उपाय बनाया जाता है यह है मन का विषय। क्योंकि, यह जीव चेतन अचेतन पदार्थों के संग्रहण में बड़प्पन मानता है। सोचता है कि जितना विशेष धन होगा उतनी ही हमारी इज्जत बनेगी। जितना विशेष हमारी पार्टी का समूह होगा उतना ही हमारा बड़प्पन होगा। तो इन बाह्य पदार्थों के संचय करने में यह सब मन का विषय होता है अर्थात् इस चेतन अचेतन परिग्रह को रखते हुए परिग्रह के स्वरूप में मौज मानना, सो यह विषयसंरक्षणानंद है।
धर्म्यध्यान व शुक्लध्यान में निश्चयप्रतिक्रमण- जो ऐसे रौद्रध्यान में रहता है उसके दोषों की शुद्धि कैसे संभव है? जो आर्तध्यान और रौद्रध्यान को तजता है और उन खोटे ध्यानों को तजकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में प्रवृत्त होता है उस ही तपस्वी साधुसंत के निश्चय प्रतिक्रमण होता है। उसी साधु को निश्चयप्रतिक्रमण कहते हैं क्योंकि वह साधु निश्चयप्रतिक्रमण में तन्मय हो रहा है। प्रतिक्रमण तो है भाव और प्रतिक्रमणमय है भाववान्। भाव और भाववान् में अभेद बुद्धि करके वर्णन किया गया है जैसे किसी यशस्वी पुरुष को, कीर्तिवान पुरुष को यों भी कह सकते है कि यह कीर्तिवाला पुरुष है और ऐसा भी कह सकते है कि यह कीर्तिपुंज है, यह स्वयं कीर्ति है। भाव और भाववान् में अभेद करके यह कथन किया गया है।
आर्तध्यान और रौद्रध्यानों की दु:खमूलता- आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्ष दोनों सुखों के देने वाले नहीं हैं, अर्थात् आर्तत्व रौद्रध्यान में लौकिक सुख भी प्राप्त नहीं हो सकता है। प्रथम तो जो आर्तध्यान कर रहा है वह वर्तमान में भी विह्वल हो रहा है, फिर जो इस भव को छोड़कर जिस भव में जायेगा तो चूँकि रौद्रध्यान करके उसने पाप कमाया है, अत: उस पाप के उदय में दुर्गति को ही प्राप्त करेगा। ये दोनों ही खोटे ध्यान है। स्वर्ग और मोक्ष दोनों सुखों के प्रतिपक्षी है। ये संसार के क्लेशों के मूल कारण हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान यद्यपि चतुर्थ पंचम गुणस्थान में भी संभव है अथवा आर्तध्यान छठे गुणस्थान में भी संभव है, किंतु यह कुछ नई कमायी नहीं है। मिथ्यात्व अवस्था में जो संस्कार बनाये गए थे, सो मिथ्यात्व के हट जाने पर भी उन परंपराओं के लगाव के कारण अब तक भी ये खोटे ध्यान परेशान किया करते हैं। ये ही संसार के समस्त दु:खों के मूल कारण हैं।
निश्चयपरमधर्मध्यान का वैभव- भैया ! इन आर्तध्यान और रौद्रध्यानों को त्याग करके कुछ निश्चय परमधर्मध्यान की ओर आना चाहिए। निश्चय परमधर्म ध्यान क्या है? जहां किसी भी परवस्तु का संकल्प विकल्प नहीं रहा है, सहज धर्मस्वरूप अपने आत्मतत्त्व को ही जहां निरखा जा रहा है ऐसे उस परमधर्मध्यान को ध्याकर यह तपस्वी निश्चय प्रतिक्रमणरूप होता है। इस परमधर्मध्यान में ही ऐसी सामर्थ्य है कि इसके प्रताप से निस्सीम अपवर्ग सुख की प्राप्ति होती है। अपवर्ग कहते हैं जहां धर्म, अर्थ, काम ये तीनों वर्ग न रहें। जिस पद में जिस भाव में वर्ग समाप्त हो गया है, धर्म अर्थ काम विषय शुभ अशुभभाव जहां नहीं रहे हैं, केवल एक ज्ञाताद्रष्टा की स्थिति मात्र हैं उसे कहते हैं अपवर्ग। अपवर्ग में निस्सीम आनंद है। वहां विषयसाधना की कल्पनाएँ नहीं हैं इसी कारण उसमें सीमारहित आनंद है। निश्चय परमधर्मध्यान का सीधा उत्सर्ग फल है मुक्ति का आनंद, पर जब तक मुक्ति प्राप्त नहीं हुई है और धर्मध्यान बना हुआ है, साथ ही अभी राग का पूर्ण विनाश नहीं हुआ है इस कारण यह जीव स्वर्गसुख को भी प्राप्त होता है।
निज आत्माश्रय की परमशरणता- अब यहां यह दिखाना चाहते है कि ऐसे स्वर्ग और मोक्ष के सुख की प्राप्ति का मूल उपाय व अधिकारी कौन है? वह है निज आत्मा। किसी परवस्तु का सहारा लेकर अपवर्ग की प्राप्ति नहीं होती। व्यवहार धर्म भी मात्र अन्य पदार्थ का संबंध आश्रय मात्र है। कहीं अन्य पदार्थ इसके पुण्य को नहीं उत्पन्न करता है अथवा इसका भाव नहीं बनाता है, या इसके स्वर्ग और मोक्ष को नहीं दे देता। यह आत्मा अपने आपमें स्वयं ही अपने सहज सुख के लायक करनी करे तो मोक्ष का सुख प्राप्त कर सकता है और दु:ख के लायक करनी करे तो जन्म मरण के दु:ख को पाता रहता है। सो इन सब सुख दु:खों का मूल अपना आत्मा ही है। अपने आत्मा का आश्रय करने से विशुद्ध निष्कलंक निश्चय परम धर्मध्यान उत्पन्न होता है। उस ध्यान के प्रताप से यह जीव अतीत दोषों को अतीत कर देता है। इस ध्यान के प्रताप से पुन: उसकी आवृत्ति न आये और उस दोष में बांधे हुए पापकर्म का फल भी न मिले, यह सब कल्याणमय स्थिति हो जाया करती है।
परम शुक्ल ध्यान- सर्वोत्कृष्ट ध्यान कहलाता है शुक्लध्यान, जो परम शुक्लध्यान है अभेद शुक्लध्यान है उसमें ध्यान और ध्येय का विकल्प भी नहीं रहता है। यह मैं आत्मा अमुक पदार्थ को ध्या रहा हूं, ऐसा विकल्प अथवा ऐसी स्थिति यह मैं अमुक को ध्या रहा हूं, ऐसी पद्धति की परिणति नहीं रहती है किंतु यह ध्याता पुरुष स्वयं में विशुद्ध ज्ञाताद्रष्टा रहने रूप शुक्लध्यानमय हो जाया करता है। ध्यान और ध्येय के विकल्प से रहित यह निश्चय परमशुक्लध्यान है। जहां अंतर्मुखाकार वृत्ति रहती है, बहिर्मुखता जहां नहीं है, किन्हीं भी बाह्य पदार्थों की ओर दृष्टि, उनका चिंतन उनको विषयभूत बनाकर, भावना बनाना, ध्यान बनाना यह भी भेद जहां पर नहीं है, केवल अंतर्मुखाकार परिणमन है वहां निश्चय परमशुक्लध्यान होता है। जहां समस्त इंद्रिय समूह के विषय नहीं रहते हैं, निर्विषय शुद्ध सामान्यस्वरूप का ज्ञाताद्रष्टा मात्र है, ऐसा शुद्ध ज्ञान कलाकरि युक्त यह निश्चय परमशुक्लध्यान है।
महाशील और परमकल्याण- इस शुक्लध्यान को ध्याकर एक अंतस्तत्त्व, परमभाव, पारिणामिक भाव में परिणत होकर जो श्रेष्ठभव्य निकटभव्य अपने आपके अभेदस्वरूप शुद्ध आनंद में मग्न रहता है वह निश्चयप्रतिक्रमण कहलाता है। कितने दोष इस जीव के साथ लगे होते हैं, जिनकी गणना नहीं हैं, असंख्यात दोष हैं। जिनको संक्षेप में कहा जाय तो रागद्वेष मोह हैं। इन तीनों का विस्तार इतना अधिक होता है कि उनके पद्धतिभेद में, विषयभेद में असंख्यात प्रकार होते हैं। उन असंख्यात प्रकार के दोषों को दूर करने की सामर्थ्य एक विशुद्ध सहज परमात्मस्वभाव के आलंबन में है। सो जो ऐसे परमपावन पारिणामिक भावमय सहज ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्त्व का ध्यान करता है वह निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप है, यह ही महाशील है, यह ही परमकल्याण है- ऐसा शास्त्रों में भी बताया गया है।
श्रुत का निश्चयव्यवहार गुंफितपना- ये शास्त्र आचार्यदेव द्वारा रचित हैं, आचार्यदेव ने अपनी बुद्धि से, अपने मन से यों ही नहीं रचे हैं किंतु जो पूर्वपरिपाटी रही आयी है, अपने प्रधान आचार्य की, जो परंपरा रही आयी है उस परंपरा से चला आया हुआ यह समस्त ज्ञान है। उन समस्त आचार्यों की मूल परंपरा के मुख्य प्रणायक आचार्य होते हैं गणधर देव, गणेश। गणेशों ने जो भी वस्तुस्वरूप बताया है वह सब वस्तुस्वरूप निश्चय और व्यवहारनय से गुंफित है। निश्चय का विषय है अभेद और व्यवहार का विषय है भेद।
निश्चयव्यवहारात्मकता की अलंकारात्मकता- भैया ! आजकल जो गणेश की मूर्ति बनाते हैं वह सब इस व्यवहारनिश्चयनयात्मकता का प्रतीक है। जैसे गणेश का शरीर तो रहता है मनुष्य का और मुख रहता है हाथी का। उस मनुष्य शरीर में हाथी का मुख जैसे ऐसा फिट हो गया है ऐसा अभेद हो गया है कि वहां दो बातें अब रही नहीं, भेद कुछ नहीं रहा कि इतना तो यह मनुष्य है और इतना हाथी है अथवा यह जुड़ा हुआ है ऐसा कुछ नहीं मालूम होता है। एक अभेद बन गया है, इस प्रकार निश्चय दृष्टि में ऐसा अभेद बन जाता है कि दो पदार्थों में भेद नहीं प्रतीत होता है और गणेश की सवारी है- चूहा, जैसे चूहा कपड़े को, कागज को कतर-कतर कर इतना छिन्न भिन्न कर देता है कि जितना छिन्न भिन्न हम आप फाड़-फाड़कर भी नहीं कर सकते। कपड़े को अथवा कागज को हम आप फाड़कर उतना छिन्न-भिन्न नहीं कर सकते जितना कि चूहा उनको काटकर छिन्न-भिन्न कर देता हैं। जैसे मूषक ने इतना भेद कर डाला वस्तु का छिन्न–भिन्न करके, ऐसे ही व्यवहारनय ने भी इतना भेद कर डालता है, वस्तु का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से और इस भेद के प्रभेद के विस्तारों से, वह व्यवहारनय का प्रतीक है। ऐसे ही निश्चय और व्यवहारनय का जहां सामन्जस्य है उसे अलंकाररूप में लोगों ने यों गणेश की मूर्ति बनायी है।
निश्चय ज्ञान की उत्कृष्टता- जहां निश्चय और व्यवहार का प्रतिपादन है, सामन्जस्य है और जैसे चूहे पर गणेश विराजे हैं ऐसे ही व्यवहार पर निश्चय विराजा है। ऊपर तो निश्चय ही है, व्यवहार उसका आश्रय है, साधन है, ऐसे ही निश्चयव्यवहारात्मक श्रुतज्ञान के महाप्रणेता हैं गणधरदेव। गणधर का ही नाम गणेश है। चूँकि समस्त ज्ञान का मूल गणेश जी अर्थात् गणधर हुए हैं, इसी कारण आज लोक परंपरा में शुभ कामों के लिए गणेश को नमस्कार किया जाता है और उनको ज्ञान देने वाले के रूप में निरखा जाता है।
द्रव्यश्रुत का मूल स्रोत महादेवाधिदेव जिनेंद्र- इन गणधरों ने, इन गणेशों ने जो मूल सूत्रश्रुत पाया है वह जिनेंद्र महादेव के मुख से जो दिव्यध्वनि खिरी है उससे प्राप्त किया है। लोक में ऐसी प्रसिद्धि है कि महादेव ने डमरू बजाया और उस डमरू से प्रथम 14 सूत्र निकले, जो लघु सिद्धांत कौमदी में बताये गये हैं। तो यह भी एक अलंकार है। जितने भी सूत्र निकले हैं, जो ज्ञान का मूल स्रोत है वह है दिव्यध्वनि। डमरू में जो आवाज निकलती है वह किसी एक रूप नहीं है, इसी प्रकार जो भगवान की दिव्यध्वनि निकली है वह भी किसी एक अक्षररूप नहीं है, नियतभाषारूप नहीं है, वह अनुभय वचन है और वे निकलते हैं चार घातिया कर्मों का विनाश करने वाले रागद्वेष का पूर्णत: क्षय करने वाले जिनेंद्रमहादेव के शरीर से। ऐसी जिनेंद्रदेव की दिव्यध्वनि की परंपरा से चले आये हुए, आचार्य परंपरा से चले आये हुए द्रव्य श्रुत में यह परमार्थप्रतिक्रमण का स्वरूप कहा गया है।
परमध्यानमय परमार्थप्रतिक्रमण के परमार्थ पुरूषार्थ का निर्देश- यहां यह बताया गया है कि इन चार ध्यानों में जो आर्तध्यान रौद्रध्यान का परित्याग करके धर्मध्यान को ग्रहण करता है और इस धर्मध्यान के प्रसाद से सर्वदा उपादेय जो निश्चय परमशुक्लध्यान है उसको जो ध्याता है वह पुरुष साक्षात् प्रतिक्रमणस्वरूप है क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है। इस प्रकार प्रतिक्रमण के स्वरूप के वर्णन करने के इस प्रकरण में चूँकि परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार है ना, अत: परमार्थस्वरूप जो शाश्वत आत्मा का चैतन्यस्वभाव है उस स्वभाव के आलंबन की प्रमुखता में यह सब प्रतिक्रमण स्वरूप कहा गया है जो इस प्रकार प्रतिक्रमण स्वरूप होता है वह नियम से निकट काल में परमविर्वाण को प्राप्त होता है। हम अपने दोषों की निवृत्ति के लिए इस परमार्थस्वरूप अंतस्तत्त्व का ही आश्रय करें। यही परमशरण है, यही परममंगलमूर्ति है।
ध्यानों के निर्देशन- आत्मपद्धति से शुक्लध्यान का स्वरूप कहा जा रहा है। ध्यान तो चित्त की ओर एकाग्रता लाने को कहते हैं। कौन चित्त किस विषय की ओर एकाग्र होता है, इसके भेद से ध्यान में भेद होता है। यदि चित्त पीड़ा के विषय में लगता है तो वह आर्तध्यान है। यदि चित्त खोटे कार्यों के करने में हर्ष मानने में लगता है तो वह रौद्रध्यान है। चित्त विशुद्ध स्वरूप में और उस विशुद्ध स्वरूप के साधक साधनों में लगता है तो वह धर्मध्यान है और शुक्लध्यान वह है जहां किसी प्रकार मन, वचन, काय की क्रियाएं नहीं हैं अर्थात् गुप्ति की पूर्ण साधना है। जहां इंद्रिय के विषयों का कार्य नहीं है, विषयों से अतीत है, इंद्रिय से परे है, जहां ध्यान और ध्येय का भी भेद नहीं है, एक आत्मतत्त्व है और उसका रागद्वेष रहित शुद्ध ज्ञाता द्रष्टारूप परिणमन है, जहां अंतस्तत्त्व की ओर उपयोग बना रहता है ऐसे ध्यान को शुक्लध्यान कहा करते हैं।
निश्चय शुक्लध्यान में परमार्थप्रतिक्रमण- परमार्थप्रतिक्रमण ऐसे ही परम शुक्लध्यान से होता है। जिस समय यह आत्मा ही ध्यान करने वाला है और यह आत्मा ध्यान में आ रहा है और अभेद पद्धति से आ रहा है, उस ध्यान करते हुए ये इतना भी संकल्प अथवा विकल्प न हो रहा हो, ऐसे विशुद्ध अभेद ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं। यह शुक्लध्यान हमारी समझ में कैसे आए, इसका क्या स्वरूप है, इसकी जानकारी कैसे बने? इसके लिए शुद्धनय का आश्रय लेना होता है। मूल के नय के भेद है शुद्धनय और अशुद्धनय। शुद्धनय तो वस्तु की सही निरपेक्ष स्वत:सिद्धस्वरूप को निरखता है और अशुद्धनय वस्तु के सहजस्वरूप को न देखकर अन्य भावों को निरखता है। शुद्धनय का जब हम आलंबन करें तो वहां यह ध्यानावली, यह ध्यानपरंपरा भी दृष्टिगत नहीं रहती है। अपने आपका जो सहज ज्ञायक स्वरूप है उस ही तत्त्व में वह प्रकट रहता है।
ज्ञान का शुद्ध रूप- इस आत्मा का ध्यान है, यह आत्मा ध्यान करता है, इसका ध्यान बराबर चल रहा है, यह मैं अमुक का ध्यान करता हूं ऐसी ध्यानविषयक चर्चायें व्यवहारनय में ही दृष्टिगोचर होती हैं। शुक्लध्यान में जहां कि परमार्थप्रतिक्रमण का अंतिम रूप बनता है, सर्वदोषों की जहां निवृत्ति हो जाती है वह शुक्लध्यान सम्यग्ज्ञान का आभूषण है। वास्तव में ज्ञान वह कहलाता है जो ज्ञान-ज्ञान को जाने। ज्ञान का उत्कृष्ट श्रृंगार, ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति वह है जहां जानने वाला यह ज्ञान इस जानने वाले स्वरूप को ही जानने लगे और इस परम प्रगति की दृष्टि में इस ज्ञान का जाननहार ज्ञान के अतिरिक्त जो भी अन्यविषयक ज्ञान होते हैं उन सब ज्ञानों को अज्ञान में कहा गया है, जहां इस सम्यग्ज्ञान का प्रवेश है वहां परविषयक ज्ञान को भी सम्यग्ज्ञान कहा गया है। यह परमात्मतत्त्व जो कि परमशुक्लध्यान का विषय है अथवा परमार्थप्रतिक्रमण का परम आश्रयभूत है वह सम्यग्ज्ञान आभूषण स्वरूप है। सर्व ओर से सर्वथा विकल्पजाल से रहित है यह परमात्मतत्त्व। अपने आपके आत्मा में आत्मा के ही सत्त्व के कारण आत्मा का जो सहजस्वरूप है वह स्वरूप परमशांति परम आनंदमय पूर्ण निराकुलता से परिपूर्ण ज्ञान के असीम विकास से शोभायमान् वह परमात्मतत्त्व है। इस परमात्मतत्त्व में जिसे कि शुक्लध्यान ज्ञान में ला रहा, जिसके आश्रय से उत्तम परमार्थप्रतिक्रमण होता है, जो निकटकाल में ही परमनिर्वाण को प्रकट करने वाला है वह समस्त नयजालों के प्रपंचों से रहित है।
शुद्धनय से आत्मतत्त्व का दर्शन- यह परमात्मतत्त्व शुद्धनय से देखा जा रहा है। यह हम आप लोगों की चर्चा है, ज्ञानीपुरुष शुद्धनय के आश्रय से उस कारणपरमात्मत्त्व को निरखता है, किंतु उस कारणपरमात्मतत्त्व में न तो शुद्धनय बसा है और न अशुद्धनय बसा है। वह तो सर्व नयजालों के प्रपंचों से रहित है। ऐसा है यह परमात्मतत्त्व, आपका सहजस्वरूप। अब बतलावों इस निज कारणसमयसार में ये ध्यान की संततिया कैसे प्रकट हो गयी हैं? जैसे किसी सज्जन पुरुष के एकाएक थोड़े ही समय में खोटी बातें आ जायें, व्यसनों की ओर लग जाये अथवा दुष्टों का संग लग जाये तो लोग आश्चर्य करते हैं- ओह कितना सज्जन पुरुष था, कितना उदार था, साधु संगति का बड़ा रूचिया था, अब कैसे क्या हो गये ये सब अनुचित व्यवहार? ऐसे ही यह ज्ञानी आत्मा के सहजस्वरूप को निरखकर और इस सहजभाव की उत्कृष्टता समझकर यह तो स्वभावत: परमशुद्ध शांत परम आनंदमय सर्वसंकटों से परे ज्ञान से परिपूर्ण प्रभु है। इसमें ये नाना जाल विषय, कर्तृत्व, वितर्क विचार ये सारे रंग कैसे लग गये, इस पर ज्ञानी को आश्चर्य हो रहा है। लगे हैं ये अनादि से और वर्तमान में भी उनके कुछ न कुछ संस्कार या कुछ बर्ताव हो रहा है, किंतु ज्ञानी को यहां यह आश्चर्य हो रहा है कि ये सारे नटखट कैसे हो गये ऐसे विशुद्ध परमात्मतत्त्व को निरखने वाले साधुवों को निश्चयप्रतिक्रमण प्राप्त होता है।
परमतपश्चरण- वह कौनसा परम तपश्चरण है? जिसके प्रसाद से अनादिकाल से भव-भव के बांधे हुए कर्म क्षणमात्र में खिर जाते हैं। कर्म जब खिरा करते हैं तो शीघ्र खिरते हैं, धीरे-धीरे नहीं खिरते हैं कि अब खिरने लगे हैं तो हजारों वर्ष लग जायेंगे। अरे कूड़ा तो जरूर बहुत अधिक पड़ा हुआ है, अब से अनगिनते वर्ष पहिले भी जो कर्म बंधे थे उनका भी सत्त्व मौजूद है। लाखों, करोड़ों, अरबों, शंख महाशंखों वर्षों की कितनी ही गणना लगाते जावो, जीव में बहुत दिनों के कर्म मौजूद हैं, मगर यह कूड़ा कचरा ढोकर न निकाला जायेगा, किंतु आत्मध्यान की अग्नि कणिका लग गयी तो क्षण भर में ही सब कूड़ा कचरा ध्वस्त हो जाता हैं। वह अग्नि कणिका कौनसी है? वह है सहज परमात्मतत्त्व का दर्शन।
व्यामोहियों के संतोष के स्थल- मोही लोग व्यामोहभाव में आकर कैसे-कैसे संतोष मान रहे हैं- कोई स्त्री पुत्रों से संतोष करते हैं, कोई किसी से अपना संतोष करते हैं पर वहां संतोष को क्या कुछ अवकाश भी है? रंच भी अवकाश नहीं है। अरे- जैसे जगत् के सभी जीव अत्यंत भिन्न हैं ऐसे ही कुटुंब के ये लोग भी अत्यंत भिन्न हैं। जैसे जगत् के जीव अपने-अपने ही कषायों के अनुकूल बर्ताव किया करते हैं ऐसे ही यह परिजन और मित्र गोष्ठी के लोग भी अपने-अपने कषायों के अनुकूल बर्ताव किया करते हैं। जैसे जगत् के सभी जीव अपने आपको ही चाहते हैं, इस ही प्रकार ये परिजन भी अपने ही आपको, अपने ही सुख को चाहते हैं। कौनसी विशेषता है इन परिजनों में जिससे कि संतोष कर लें, पर मोह का ऐसा अजब नृत्य है कि जो अनहोनी बात है उसे भी यह होनी में शुमार करने की कोशिश करता है। यह त्रिकाल नहीं हो सकता है कि हम किसी परजीव को संतुष्ट कर दें या कोई परजीव मुझे संतुष्ट कर दे किंतु यह मोही सुभट त्रिकाल अनहोनी बात को भी होनी बनाना चाहता है और दु:ख है किस बात का? अनहोनी बात को होनी बनाने का यह जीव प्रयत्न करता है।
अमीरी और गरीबी- भैया ! जो धन वैभव संपदा इनमें संतोष किया करते हैं ऐसे व्यामोही पुरुष इस अमूर्त ज्ञानमात्र सबसे विविक्त आत्मतत्त्व को नहीं जान सकते हैं। परपदार्थों के उपयोग से आत्मतत्त्व की कौनसी बड़वाई हो जाती है? ऐसे अज्ञान की ओर जिनका उपयोग लगा हैं उन पुरूषों से बढ़कर किसे गरीब कहा जाय? लोग तो बाहरी दशा को देखकर ही अमीर गरीब की परख कर रहे हैं, पर अमीरी वास्तविक वह है जहां शांति मिले और गरीबी वह है जहां अशांति रहे। धन संपदा के कारण अमीरी और गरीबी का निर्णय करना केवल एक मोह नींद का स्वप्न है। यह परमात्मत्त्व यह सहजस्वभाव जिसकी दृष्टि में आया है वह ही वास्तविक अमीर है और ऐसा ही अमीर भव्य पुरुष परमार्थप्रतिक्रमण के बल से समस्त दोषों को दूर करके शुद्ध आनंद को प्राप्त करता है।
प्रतिक्रमण शरण- हम आपका शरण अब वर्तमान में एक प्रतिक्रमण ही है, अर्थात् प्रथम तो हम भगवद्भक्ति करके, ज्ञानाभ्यास करके मात्र अपने आपको विषयकषायों से बचाएँ और अपने गुणों के स्वभाव की महनीयता निरखकर वर्तमान या भूतकाल में जो दोष बन गए हैं उनको भी एक नजरे अंदाज करके एक महान् पश्चात्ताप करना चाहिए। मौज मानने से कुछ काम न सरेगा। इतना अपराध है, इतनी त्रुटि है, इतना बाह्य की ओर रम रहे हैं कि अब इसके ही पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त, रंज शोक विशाद करने को अभी बहुत काम पड़ा हुआ है, उससे भी कुछ अपने आप पर दया आयेगी और प्रभु के शुद्धस्वरूप में भक्ति जगेगी और अपने आपके स्वभाव के विकास के लिए उत्साह जगेगा। इन सब भावों के समन्वय में आत्मा में ऐसी क्रांति उत्पन्न होगी जिससे यह अपूर्व आत्मा के दर्शन करेगा और उसे समस्त त्रुटियों दंद फंद से निवृत्ति होगी।
अभेदध्यान में प्रतिक्रमण की पूर्णता- प्रतिक्रमण के भावों के फल में जो कि आत्मधर्मस्वरूप है, अब कुछ आगे चलकर इस ही साधना की प्रगति में बढ़कर ऐसा रागद्वेषरहित ध्यानी होगा, समाधिभाव को जगाता हुआ ध्यानी बनेगा कि जिससे फिर आत्मा का अभेद ध्यान बन जायेगा, शुक्लध्यान हो जायेगा। इस ही शुक्लध्यान की पूर्णता में परमार्थप्रतिक्रमण की पूर्णता होती है। इसी कारण परमार्थप्रतिक्रमण के अधिकार में अनेक पद्धतियों से इसका स्वरूप बताते चले आ रहे थे। अब परमार्थप्रतिक्रमण के एक पद्धति से बताये जा रहे स्वरूप के उपसंहार में आखिरी गाथा कही गयी है। इसमें परमशुक्लध्यान की बात कह कर परमार्थप्रतिक्रमण के स्वरूप को कहने की समाप्ति की जा रही है क्योंकि परमार्थप्रतिक्रमण की पूर्णता निश्चयपरमशुक्लध्यान में ही होगी।
करणानुयोग में शुक्लध्यान के विकास- यह शुक्लध्यान करणानुयोग की विधि में 8 वें गुणस्थान से प्रारंभ होता है। इस अपूर्वकरणवर्ती आत्मा में बसे हुए शुक्लध्यान से अपूर्व 6 बातें प्रकट होती है। प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि का होना, पहिले बांधे हुए कर्मों की स्थिति का कम होना, नवीन जो कर्म बँध रहे हैं उनकी कम स्थिति का होना, जो कर्मों का अनुभाग रस पड़ा हुआ है वह अनुभाग भी कम हो जाना, जो पाप प्रकृतियां पहिले की बँधी पड़ी हैं उनका पुण्यरूप हो जाना, असंख्यात गुणे कर्मों की निर्जरा होना, ये 6 अपूर्व बातें हैं। यह शुक्लध्यान और अभेदरूप बनता है, परम होता है तो फिर 36 प्रकृतियों का क्षय हो जाया करता है और भी आगे प्रगतिशील होता है शुक्लध्यान। वहां सूक्ष्म लोभ का भी विनाश हो जाता है, फिर परम यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है। वहां भी शेष बचे हुए घातिया कर्मों को विनष्ट कर देता है तब सकल परमार्थ अवस्था प्रकट होती है और उस समय इसने परमार्थप्रतिक्रमण का लाभ पाया समझिये। चतुर्थगुणस्थान से लेकर 12 वें गुणस्थान तक यह प्रतिक्रमण उत्तरोत्तर प्रगतिशील होता है। इसके प्रताप से संसार के समस्त संकट टल जाया करते हैं।