वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 97
From जैनकोष
णियभावंण हि मुं चदि परभावं णेव गिण्हदे जो हु।
जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चिंतये णाणी।।97।।
ज्ञानी का स्वात्मचिंतन- मैं कौन हूं? मैं वह हूं जो सबको जानता और देखता हूं। यहां ग्रहण करना और छोड़ना कुछ भी नहीं है। ग्रहण करने और छोड़ने की बात भी यदि समझी जाए तो यह है कि मैं अपने भाव को कभी नहीं छोड़ता हूं और परभाव का कभी ग्रहण नहीं करता हूं। जो न निजभाव को छोड़ता है, न परभाव को ग्रहण करता है, केवल सबको जानता और देखता है, वह मैं हूं। इस प्रकार ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है।
निजभाव का अपरिहार और परभाव का अग्रहण- भैया ! अपना तत्त्व, अपना स्वभाव कभी छूट नहीं सकता है। यह कोई जीव भी संसारी अथवा मुक्त अपने भाव को छोड़ नहीं सकता है; किंतु अपना स्वभाव अपने आपमें तन्मय है। फिर भी जो अपने स्वभाव का ज्ञाता नहीं है, स्वभाव का उपयोग नहीं कर सकता है, उस पुरुष को अज्ञानी कहा है। उसने अपने भाव को छोड़ दिया है यह कहा जाता है। इसने अपने स्वभाव को छोड़ दिया, इसका अर्थ यह है कि यह उपयोग में अपने स्वभाव को ग्रहण नहीं करता है, जानता नहीं है; इस प्रकार कोई भी जीव परपदार्थ को ग्रहण नहीं कर सकता है। और भी अंतर में निरखो तो परपदार्थ के निमित्त से उत्पन्न हुए जो परभाव हैं, उन परभावों का भी ग्रहणकर्ता हुआ नहीं रह सकता है। यद्यपि रागद्वेषादिक परभाव आत्मा में होते हैं और उस काल में आत्मा में तन्मय रहते हैं, किंतु उन्हें तुरंत छूटना पड़ता है। कोई भी रागद्वेष पर्याय ऐसा नहीं है कि वह होकर रह गई, छूटे नहीं। छूटते ही हैं, भले ही दूसरा रागद्वेष आ जाए; परंतु जो रागद्वेष परिणमन होता है वह परिणमन टिक नहीं सकता, छूट जाता है।
वस्तुस्वरूप में स्वभाव का सत्त्व व परभाव का असत्त्व- मैं किसी भी परपदार्थ को और परभाव को ग्रहण नहीं करता हूं। यह तो वस्तु का स्वरूप है। मैं ही क्या, जगत् में जितने भी अनंत पदार्थ हैं, कोई भी पदार्थ अपने स्वरूप को छोड़ता नहीं है और पर के स्वरूप को ग्रहण नहीं करता है। यदि कोई पदार्थ अपने स्वरूप को छोड़ने लगे तो वह असत् हो जाएगा या पर के स्वरूप को कोई ग्रहण करने लगे तो वह असत् हो जाएगा। ये सब पदार्थ अब भी मौजूद हैं। यही इसी बात का प्रमाण है कि अनादिकाल से प्रत्येक पदार्थ अपने ही सत् में रहा आया है। किसी परसत्त्व को ग्रहण नहीं कर सका।
परमार्थ की आंतरिक चर्चा- यह ज्ञानी पुरूष अपने आपके बहुत अंतर में प्रवेश करके यह देख रहा है कि मेरा जो शाश्वत परमपारिणामिक भावरूप ज्ञायकस्वभाव है, वह स्वभाव निजभाव है, उसको मैं कभी नहीं छोड़ सका, न छोड़ सकता हूं, न छोड़ सकूँगा। उस ज्ञायकस्वरूप के अतिरिक्त जितने भी अन्य तत्त्व हैं अथवा परभाव, औपाधिक भाव हैं, उनको यह मैं ग्रहण नहीं कर रहा हूं। मैं क्या हूं? इसका ठीक निर्णय करके इस प्रकरण को सुनना। मैं मनुष्य नहीं हूं अथवा रागद्वेषादिकमय जो परिणमन हैं वे परिणमन मैं नहीं हूं अथवा किसी प्रकार का अपूर्ण पूर्ण स्वभावपरिणमन है, उस स्वभावपरिणमन को यहां यह मैं नहीं कह रहा हूं, किंतु मैं अपने आपका ध्रुव यथार्थ जो तत्त्व है, उसकी बात कर रहा हूं। वह यह मैं निजभाव को छोड़ता नहीं हूं और किसी परभाव का ग्रहण नहीं करता हूं, केवल ज्ञाताद्रष्टा रहा करता हूं।
आत्मभाव की अभिमुखता व परभाव की विमुखता- भैया ! इस जीव ने मुफ्त ही संकट अपने आप पर लाद रक्खें हैं, यह तो केवल भाव ही बना पाता है। अमूर्त आत्मा जो न किसी को पकड़ सकता है, जिसे न कभी कोई दूसरा पकड़ सकता है, जिसका किसी परपदार्थ से स्पर्श भी नहीं होता है, देह में बंधा है, फिर भी उसका एक आश्रय-आश्रयी बंधन है, निमित्तनैमित्तिक बंधन है। आत्मा इस शरीर को छू रहा हो, जकड़ रही हो, इसमें शरीर की कहीं गांठ लग रही हो- ऐसा कुछ नहीं है। कितना विचित्र खेल है कि शरीर के प्रदेशों से बाहर अभी यह टस से मस भी नहीं हो सकता, फिर भी यह आत्मा इस शरीर को छुवे हुए नहीं है। यह किसी को छूने वाला नहीं होता है, फिर ग्रहण करने और छोड़ने का कथन कहां से हो? जो न निज शाश्वतस्वभाव को छोड़ सकता है और जो न किसी पर को अथवा परभाव को ग्रहण कर सकता है, केवल सर्वदा निरंतर जानता और देखता रहता है, ज्ञातृत्व और दृष्टित्व स्वभावरूप है, वह मैं हूं। इस प्रकार ज्ञानी पुरुष चिंतन कर रहा है। इस चिंतन में परमभाव की अभिमुखता पड़ी हुई है और समस्त परभावों से विमुखता पड़ी हुई है। दोषों का परित्याग विधिपूर्वक तब ही संभव है, जब दोषों से पूर्ण विमुखता हो और निर्दोष शाश्वतस्वरूप की अभिमुखता हो। वह समस्त प्रकार का कार्य धर्म है, जिसमें आत्मभाव की तो अभिमुखता हो और परभावों की विमुखता हो। धर्म किसका नाम है? अपने स्वभाव के निकट आये और परभावों से विमुखता आये, उसका नाम है धर्म। धर्म के साधक जितने उपाय हैं, वे सब कुछ इस धर्म के लिए हैं, इसी में प्रत्याख्यान भी है।
मन से प्रत्याख्यान- यह ज्ञानी पुरुष व्यवहारप्रत्याख्यान में दक्ष हो चुका है। विधिपूर्वक दोषों का प्रत्याख्यान करके जो शुद्ध हृदय वाला हुआ है, ऐसा पुरुष निश्चयप्रत्याख्यान करने का पात्र है। प्रत्याख्यान नवकोटि से किया जाता है। मन से दोषों का विचार न करना, दोषों का मन में न रखना और न ही अपनाना, दोषों में उत्साह न जगना- यह मन द्वारा प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान भविष्यकाल के दोषों का हुआ करता है और यह मानसिक प्रत्याख्यान भी तीन प्रकार से रहता है- उस दोष को न मन से करूँगा, न मन से कराऊँगा और न करते हुए को मन से अनुमोदन दूंगा। प्रतिक्रमण करने वाला पुरुष दोषों को असार जानकर अपने आपके स्वरूप को पवित्र निहारकर भविष्यकाल में सदा के लिए उसका दृढ़ संकल्प हो जाता है। यों मन से कृतकारित अनुमोदनाविषयक दोषों का प्रत्याख्यान करता है।
वचन और काय से प्रत्याख्यान- ज्ञानी पुरूष वचनों से भी कृतकारित अनुमोदना का प्रत्याख्यान करता है। मैं वचनों से न किसी अपराध को करूँगा, न वचनों से किसी अपराध को कराऊँगा और अपराध करते हुए कि वचनों से अनुमोदना भी न करूँगा। जहां कृतकारित और अनुमोदनाविषयक भी अपराध का त्याग होता है, शुद्धि वहां प्रकट होती है। ज्ञानी काय द्वारा भी भविष्यत् कृतकारित अनुमोदना के पाप का परित्याग करता है। मैं शरीर से किन्हीं अपराधों को न करूँगा, न किसी से कराऊँगा और न करते हुए की अनुमोदना करूँगा।
मन वचन काय से अनुमोदना के रूप और उनका प्रत्याख्यान- अनुमोदना भी मन से, वचन से और काय से हो जाती है। अपराध करने वाले के प्रति मन में अनुराग जगाना, मन में भला चिंतन करना, यह मनकृतअनुमोदना है। वचनों से अनुमोदना तो प्रकट जाहिर होती है। वचनों से किसी को शाबासी देना, भला कहना, यह सब वचनकृत अनुमोदना है। अपने शरीर की चेष्टा करके, हाथ की अंगुली हिलाकर, थोड़ा सिर नीचे की ओर हिलाकर, काय की चेष्टा करके बढ़ावा देना, यह कायकृत अनुमोदना है। इन सब प्रकार के अपराधों का जिसने प्रत्याख्यान किया है और केवल निज अंतस्तत्त्व के दर्शन के लिए ही तो उद्यत हुआ है, ऐसा पुरुष अपने आपमें क्या चिंतन करता है, उसकी बात कही जा रही है।
निजभाव के वियोग का त्रिकाल अभाव- यह कारणपरमात्मा, अंतरात्मा, महात्मा, मोक्षमार्गी जीव अपने आपके परमभाव को कभी नहीं छोड़ता है। जो मुझसे छूट जाय, वह मेरी चीज नहीं है। जो मुझसे कभी न छूटे वह मेरी चीज है। मेरी चीज मुझसे छूट जाये यह त्रिकाल नहीं हो सकता। जो छूट गये हैं अथवा जो छुट सकते हैं, उन्हें अपना मानना यह तो अज्ञान है, मिथ्यात्व है। मिथ्यावासना में शांति कभी आ ही नहीं सकती है, बल्कि मिथ्यावासना में रहकर जितनी बाहर उपयोग की दौड़ लगा ली जाए, उतना ही उसे लौटना पड़ेगा और तब यथा स्थिति पर आएगा, जहां से आत्महित का काम प्रारंभ हो सकेगा। यह कारणपरमात्मा ज्ञानी पुरूष कभी भी अपने भाव को नहीं छोड़ता है। इस भाव को तो कोई भी जीव नहीं छोड़ता है, किंतु जिसका निजभाव पर उपयोग नहीं, उसे छोड़ने वाला कहा गया है।
त्रिकाल निरावरण निरंजन भाव- आत्मा का भाव त्रिकाल निरावरण है। स्वभाव का आवरण नहीं होता। स्वभाव के विकास का आवरण हो सकता है। स्वभाव शक्तिरूप है और वह शाश्वत् अंत:प्रकाशवान् है, वह तो सत्तासिद्ध स्वरूप है। त्रिकाल निरावरण यह अंतस्तत्त्व सदा निरंजन है। इसमें किसी परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव का स्पर्श नहीं होता, स्वभावरूप ही रहता है यह। कैसा है वह आंतरिक तत्त्व कि जिसमें परउपाधि का निमित्त पाकर कितना ही विपरीत परिणमन भी हो जाए, फिर भी स्वभाव स्वभाव ही रहता है, उसमें अंतर नहीं आता? यह जीव रागद्वेषमय, आकुलतामय हो रहा है। कितने विरुद्ध परिणमन में चल रहा है? इतने विपरीत परिणमन के बावजूद भी इस आत्मस्वभाव में अणुमात्र भी अंतर नहीं आया। स्वभाव का विकास तिरोहित हो गया है, अल्प विकसित है, फिर भी स्वभाव में अणुमात्र भी परिवर्तन नहीं है। यह शक्तिरूप है और द्रव्य का प्राणभूत है- ऐसा त्रिकाल निरावरण निरंजन जो निज परमभाव है, परमपारिणामिकभाव है, जिसका परिणमन ही प्रयोजन है, किंतु वह शक्तिरूप शाश्वत वही का वही है- ऐसे इस परमभाव को जो कभी नहीं छोड़ता है, वह मैं अंतस्तत्त्व हूं।
अपरिणामी पारिणामिक भाव- भैया !यहआत्महित का प्रकरण है। इसमें आत्मा के शुद्ध शाश्वतस्वरूप की चर्चा की जा रही है। इस स्वरूप को ही पूर्णरूप मानकर अनेक सिद्धांतों में इस ब्रह्मतत्त्व को सर्वव्यापक और अपरिणामी बताया है। ठीक है एक दृष्टि से और इस दृष्टि में कल्याण निहीत है, किंतु वस्तु की पूर्णता इतने में नहीं है। इसी कारण इस ब्रह्मस्वरूप से भिन्न जीव पदार्थ और मन पदार्थ की कल्पना करनी पड़ती है, किंतु वास्तव में यह ही ब्रह्मतत्त्व जो स्वभावत: अपरिणामी है, परिणमता नहीं हैं, परिवर्तित नहीं होता, अन्यरूप नहीं बनता, फिर भी चूंकि परिणमन बिना कोई भी पदार्थ अपना अस्तित्व ही नहीं रख सकता; अत: इसका जो परिणमन है, वह सब है अन्य सिद्धांतों के द्वारा कल्पित जीव। चीज एक है, जिसका परिणमन है उसे तो ब्रह्म कह लो और जो परिणमन है उसे जीव कह लो। परिणमन और परिणामी कोई भिन्न नहीं हुआ करते हैं।
अंत: परमब्रह्म दर्शन का निर्देशन- अहा, अंत:स्वरूप में समाया हुआ यह परमब्रह्म अज्ञानियों को अप्रकट और ज्ञानियों को विशदरूप से प्रकट दिखता है। इस कारण प्रभु की जो उपासना करता है, वह ही पुरूष कार्यप्रभु होता है। ईश्वर के नाम पर, ईश्वर की भक्ति के नाम पर आज यह विवेकी जगत् यत्नशील हो रहा है, किंतु बाहर कहीं ईश्वर को ढूँढ़ने जायें और बाहर में किसी व्यक्ति में ईश्वर की कल्पना करके भक्ति किया करें तो वहां संतोष न मिल सकेगा। संतोष मिल जाता तो फिर देखने खोजने की व्यग्रता न रहती। क्यों नहीं मिल पाया उन्हें संतोष? इसका कारण यह है कि जहां ईश्वर है वहां देखता नहीं, जो ईश्वरस्वरूप है उसे देखता नहीं, इस कारण व्यग्रता है।
भक्तिदृष्टांतपूर्वक अंत:प्रभुदर्शन का समर्थन- ईश्वरस्वरूप अपने आपके अंतरंग में है। जैसे मंदिर में मूर्ति के आगे हाथ जोड़कर भी यदि चित्त में यह कल्पना न जगे कि ऐसे वीतराग सर्वज्ञ अरहंतदेव आकाश में ऊपर विराजमान् रहा करते हैं, उनको मेरा नमस्कार हो, उनकी भक्ति के प्रसाद से मेरे में परम निर्मलता हो, उस अरहंत प्रभु को यहां अरहंत प्रभु की स्थापनारूप मूर्ति के समक्ष अपने निर्दोषता के प्रकट होने की भावना करते हुए नमस्कार करता हूं, यह दृष्टि न जगे; किंतु केवल सामने जो कुछ मूर्ति दिख रही है, यही भगवान है, यही मेरे समस्त कार्यों की सिद्धि करेगा, उसको मेरा नमस्कार हो। इतनी ही मात्र जिसकी दृष्टि हो, वहां प्रभुभक्ति नहीं कही जा सकती है। ऐसे ही अपने आपमें शाश्वत अंत:प्रकाशमान् जो चैतन्यस्वरूप है, परमऐश्वर्य है, शुद्ध ज्ञानविकास है, सहजभाव है, उसका उपयोग न करे और व्यग्र होकर बाहर ही बाहर ऊपर नीचे कहीं ईश्वर को खोजा करे तो उसे ईश्वर का मिलन नहीं हो सकता है। ईश्वर हमें जब मिलेगा, तब हमारा बनकर मिलेगा, वह हमसे अलग होता हुआ नहीं मिल सकता है; वह तत्त्व इस कारणसमयसार में है।
अधसमूह के विलयन में कारणप्रभु की समर्थता- यह कारणप्रभु चैतन्यस्वरूप समस्त पापों की वृत्ति को जीतने में समर्थ है। आत्मक्षेत्र को छोड़कर अन्य पदार्थों में अपना बड़प्पन देखने की वासना करना, यही है पापसमूह। विषयों में प्रवृत्ति करके अपने को सुखी मान लेने की वासना होना, यही है पापसमूह। इन पापबैरियों ने अपनी विजयपताका इस जगत् में स्वच्छंद होकर; उद्दंड होकर फहरा दी है और ये समस्त बराक जीव अपनी पताकाओं के नीचे रहकर अपने को सशरण माने हुए हैं। ऐसे उद्दंड पापबैरियों की इस पताका को लूट लेने में समर्थ, निर्मल नष्ट करने में समर्थ यह कारणपरमात्मपदार्थ है। निर्दोष निर्लेप स्वतंत्र आत्मतत्त्व की भावना जगे, वहां एक भी क्लेश, एक भी पाप ठहर नहीं सकता है।
निजभावमयता और परभावविविक्तता- इस त्रिकाल निरावरण निरंजन परमपारिणामिक भावरूप शुद्ध जीवत्वस्वरूप निजभाव को यह जीव कभी नहीं छोड़ता है। जो निजभाव को कभी नहीं छोड़ता है, वह मैं हूं। यह मैं निजभाव को छोड़ता नहीं हूं और परभाव को त्रिकाल कभी भी ग्रहण करता नहीं हूं। यहां ‘मैं’ शब्द कहकर उस सहज शुद्ध ‘‘मैं’’ पर दृष्टि डालना, अन्यथा मैं अमुकचंद, अमुकप्रसाद यह मैं हूं- ऐसी दृष्टि रहेगी तो वहां यह तत्त्व कुछ नजर न आएगा। वहां तो केवल संसार के क्लेश ही अनुभूत होंगे। मैं यह कौन हूं? इसको उपयोग द्वारा पकड़िये। इस नोकर्म, द्रव्यकर्म और भावकर्म को पार करके तथा स्वभावपर्याय से भी परे भीतर चलकर शाश्वत विराजमान् परमब्रह्म स्वभाव को लक्ष्य में लेकर कहिये कि यह मैं हूं। यह मैं परभाव को त्रिकाल भी नहीं ग्रहण करता हूं।
रागादिकों की परमभावरूपता का विवरण- परभाव रागादिक हैं। परपदार्थों का निमित्त पाकर होने वाले भाव को परभाव कहते हैं। वे कैसे उत्पन्न होते हैं? इसकी मुख्यता यहां नहीं लेनी है, किंतु ये पर का निमित्त पाकर उत्पन्न हुआ करते हैं, इस कारण ये रागादिक परभाव कहलाते हैं। जैसे धूप में हाथ करने पर जमीन पर छाया पर्याय बन जाती है। वह छाया किसकी है? उपादानदृष्टि से तो यह उत्तर मिलेगा कि वह छाया उस पृथ्वी की है जितनी पृथ्वी छायारूप परिणमी हैं, परंतु छाया बनी रहे, हट जाए, इन सबकी कला का निमित्त तो हाथ है। हाथ कर दिया तो छाया हो गई, हाथ हटा लिया तो छाया हट गई। अब यह बतलावो कि उस छाया पर हुकूमत किसकी रही? हाथ की। इस कारण छाया परभाव है। यह सब निमित्तदृष्टि से, व्यवहारदृष्टि से, विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयदृष्टि से कहा जा रहा है। वह छाया पृथ्वी की चीज नहीं है। जैसे प्रकाश होना पृथ्वी की चीज नहीं है, इस पृथ्वी की वह पर्याय है। अँधेरा होना पृथ्वी की चीज नहीं हैं, वरन पृथ्वी ही की पर्याय है; पर प्रकाश और अंधेरापृथ्वी का निजी भाव हो तो पृथ्वी में सदा रहने चाहियें। जैसे अंधेरा हो तो भी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण उसमें बना रहता है, और उजाला हो तो भी बना रहता है, वह नहीं छूटता है। जो स्वाधीन है कभी न छूटे ऐसा स्वरूपरूप है, वह निजभाव है।
रागादिकों की परभावरूपता के कारण का समर्थन- ये रागादिक परभाव हैं, क्योंकि विभावरूप पुद्गलद्रव्य के संयोग से उत्पन्न होते हैं। दोष किसके निमित्त से प्रकट होगा? उसी के निमित्त से प्रकट होगा जो स्वयं दोषी हो। आत्मा में रागादिक विभाव प्रकट होते हैं तो उन रागादिक भाव के होने में निमित्तभूत जो परपुद्गल हैं, वे शुद्ध पुद्गल नहीं हो सकते; वे विभावपुद्गल ही होंगे। अत: विभावपुद्गलरूप परउपाधि के संयोग में ये रागादिक भाव उत्पन्न होते हैं।
संसरण का कारण- ये रागादिक समस्त विभाव द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भावसंसार और भवसंसार पांचों प्रकार के संसरणों की वृद्धि का कारण है। कितना समय गुजर गया हम आपको इस दुनिया में रहते हुए, पर क्या कोई दिन नियत कर सकते हो कि मैं उस दिन से पहिले संसार में नहीं घूम रहा था? अच्छा, यदि नहीं घूम रहे थे तो बतावो किस स्थिति में थे यह तो नहीं हो सकता कि आप सत् ही न थे। जो सत् नहीं है उसका किसी भी रूप में प्रादुर्भाव नहीं होता है। मैं सत् हूं। कबसे सत् हूं? इसका भी समय नियत नहीं किया जा सकता। यदि सत्त्व का भी समय नियत हो जाए तो क्या कुछ कल्पना में ऐसा आ सकता है कि मैं अमुक समय से सत् हूं और पहिले न था? न था तो यह मैं उपादान आ कैसे गया? मैं अनादि से सत् हूं और अनादि से इस संसार में रहता हूं। सो अनादि से पाँच प्रकार के संसरण में चल रहा हूं व न चेता तो चलूँगा।
अनादिसंसरण और विविक्तरूपता- अनादि से यदि मैं संसार में न होता, कभी पहिले संसाररहित होता अर्थात् शुद्ध, केवल, ज्ञाताद्रष्टास्वरूप, निर्दोष, निर्लेप, निरंजन सर्वथा होता तो फिर उसका कारण बतलावो वैज्ञानिक की कौनसी विधि फिर ऐसी बन गयी कि इस जीव को रागादिक में पड़ना पड़ा और संसार की गतियों में भ्रमण करना पड़ा? ऐसा कोई कारण नहीं हो सकता है। ये रागादिक भाव जो पाँच प्रकार से संसार की वृद्धि का कारण हैं, विभावरूप कर्मोदय का निमित्त पाकर जो उत्पन्न होते हैं, इन परभावों को यह मैं ग्रहण नहीं करता हूं। उन्हें न मैंने कभी ग्रहण किया, न मैं कुछ भी ग्रहण कर रहा हूं और न भविष्य में कभी ग्रहण कर सकूँगा।
निजस्वरूप का चिंतन- यहां जिस ‘‘मैं’’ की बात कही जा रही है, उस ‘‘मैं’’ की दृष्टि को थोड़ी देर को भी ओझल न करना तो इसका स्वरूप विदित होगा और यह कथन सत्य लगेगा। अहो, वह यह मैं हूं जो निज भाव को कभी छोड़ता नहीं है और परभाव को कभी ग्रहण करता नहीं हूं, वह मैं क्या हूं? अनादि अनंत अहेतुक असाधारण ज्ञायकस्वरूप हूं। यह मैं सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजसुख, सहज शक्तिरूप हूं। यह अभेद का अभेद की सीमा पर भेद में अभेद रखा जा रहा है। ज्ञानी पुरुष अपने आपमें ऐसी भावना कर रहा है कि कार्यरूप प्रभु अनंतचतुष्टयस्वरूप है तो यह मैं कारणस्वरूप सहज अनंत चतुष्टयरूप हूं। इस भावना में सर्वदोषों का प्रत्याख्यान हो रहा है। इसी से इस प्रत्याख्यान का भाजन आनंदस्वरूप का चिंतन कर रहा है।
कारणसमयसार की भावना का अधिकारी- मैं कारणसमयसारस्वरूपरूप हूं- इस प्रकार की भावना कौन आत्मा कर सकती है? इस भावना को वही निकटभव्य कर सकता है, जिसने निज निरावरण सहज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप का यथार्थ बोध किया है। इस ज्ञायकस्वरूप के बोध के द्वारा जो अपने आपके सदामुक्त कारणपरमात्मा को जानता है और ऐसे ही सहज अवलोकन के द्वारा देखता है, वही पुरुष यह मैं कारणसमयसार हूं- ऐसी भावना करता है। आत्मस्वभाव को सदामुक्त कहा गया है। भगवान अरहंत सिद्ध कर्मनिर्मुक्त है, किसी दिन से मुक्त है और उनमें उनके गुणविकासों का स्रोत जो शुद्ध ज्ञायकस्वभाव है, वह सदामुक्त है। हम आपमें यह स्वरूप सदामुक्त है, किंतु द्रव्य की अपेक्षा से, वर्तमान परिणमन की दृष्टि से हम सब कर्मनिर्मुक्त नहीं हुए हैं। वस्तु का स्वरूप सदा अन्य समस्त पदार्थों से विविक्त रहा करता है, अन्यथा सत्त्व ही नहीं ठहर सकता। मैं अपने आपके सत्त्व के कारण किस भावरूप हूं? मेरा क्या स्वभाव है? जो कुछ भी हो वह मेरे सत्त्व के कारण स्वयं स्वत: सहज सिद्ध है, उसमें में ही मात्र हूं, इसमें किसी अन्य पदार्थ का प्रवेश नहीं है। ऐसा परमविविक्त यह मैं कारणसमयसार हूं, ऐसी ज्ञानी भावना करता है।
सदामुक्त की कर्मनिर्मुक्तिपरता- कारणसमयसारस्वरूप यह अंतस्तत्त्वसदामुक्त है। यह सदामुक्तस्वरूप कर्मनिर्मुक्त होने के लिए ही निरंतर तैयार बना हुआ है। इसी के आश्रय कार्यपरमात्मतत्व प्रकट होता है। इसी कारण इसे कारणपरमात्मा कहते हैं। जो कार्यपरमात्मा हुए हैं, भगवान हुए हैं, वे कोई नई चीज नहीं बने हैं। जो था अनादि से, वही दोषमुक्त हो गया है अर्थात् यह ही चैतन्य उपाधियों से रहित होकर अपने असली रूप में आ गया है। भगवान होने के लिए कोई नई चीज नहीं बननी है, न कोई नई बात करनी है, किंतु भ्रमवश जो फालतू बातें लाद ली है, जो मेरे स्वभाव में नहीं है- ऐसी फालतू बातों का अभावभर करना है। चीज तो जो है सो ही प्रकट हो जायेगी।
परतत्त्व की आवरणरूपता- भैया ! पत्थर में मूर्ति बनाने वाले कारीगर कुछ नई चीज नहीं बनाते हैं। जो न हो ऐसी कोई चीज जोड़ देते हो, ऐसा तो नहीं करते हैं; किंतु जिस चीज को प्रकट करनी है, वह चीज तो उस पत्थर में मौजूद है, केवल उस पर जो फालतू पत्थर पड़े हुए हैं, जो कि मूर्ति का लक्ष्य करने वाले कारीगर को विदित हैं, उन फालतू पत्थरों को अलग कर देने से चीज वही की वही व्यक्त हो जाती है। ऐसे ही ये ज्ञान दर्शन आनंद शक्तिस्वरूप सर्वद्रव्यों में सारभूत परम श्रेष्ठ आत्मा जिन राग, द्वेष, मोह भावों से ढका हुआ हैं, उन भावों को दूर करता है।
फालतू भाव- वे रागादिकभाव फालतू भाव हैं अर्थात् आत्मा के स्वरूप के ये भाव नहीं हैं। मूर्ति को आवरण करने वाले फालतू पत्थरों में और इस आत्मतत्त्व का आवरण करने वाले फालतू भावों में इतना अंतर जरूर है कि ये तो रागादिक भाव एकक्षेत्रावगाह हैं और तन्मय हैं। जिस काल में ये मलिन भाव होते हैं, उस काल सर्व आत्मप्रदेशों में तन्मय हैं, किंतु वे आवरक पत्थर व्यक्त होने वाली मूर्ति में तन्मय नहीं हैं और न क्षेत्रावगाह हैं। इतना अंतर है तो भी चूँकि आत्मा की ओर से आत्मा के निमित्त से आत्मा में ये भाव नहीं होते हैं, इस कारण परभाव हैं, फालतू हैं। फालतू उसे कहते हैं जिनके प्रति यह दृष्टि हो कि ये मुझे नहीं चाहियें। यह मेरे पास फालतू ही हैं, इनसे मुझे कुछ लाभ नहीं है, नुकसान ही है, ये मेरी चीज नहीं हैं, मेरा इनमें चित्त नहीं है, जो चाहे लूट ले जाए, जहां चाहे वहां जावें अथवा नष्ट हो जावें, इनसे मेरा कुछ भी मतलब नहीं है- इस प्रकार की वृत्ति जिन भावों के प्रति हो, उन भावों को फालतू भाव कहते हैं।
फालतू का संपर्क बरबादी का कारण- ज्ञानी जीव जानता है कि ये राग-द्वेष-मोह आदिक भाव फालतू हैं। इन भावों से मुझे लाभ नहीं है, बरबादी ही है। जगत् के सभी जीव जुदे हैं। उन सब जुदे जीव में से दो-चार जीवों को अपना मान लेना और ऐसे भ्रम में जीवन गुजारकर मर जाना, कहीं के कहीं पैदा होना ये सब बातें है। ये मूढता भरी बातें हैं। ये विडंबनाएँ फालतू चीजें अपनाने के फल हैं। ये रागादिक भाव मेरी बरबादी के लिए होते हैं। ये कैसी प्रकृति के हैं कि जैसे मीठा विष हो तो लोभी पुरुष उसे खाये बिना नहीं मानते हैं और खा लेने पर उनके प्राण चले जाते हैं। ऐसे ही ये राग, ये संपदा, ये इज्जत ये सब मीठे विष हैं। मोही जीव इन विडंबनावों में पड़े बिना चैन नहीं मानता और इन विडंबनावों में पड़ने का फल यही होता है कि ये मुग्ध प्राणी संसार में जन्म-मरण पाते रहते हैं।
मुक्तिवैभव- भैया ! संसार के जन्म-मरण से छुटकारा पा लेने के समान कुछ अन्य कल्याण की भी बात है क्या? यह सर्वोपरि बात है। एक आत्मदर्शन मिले, आत्मकल्याण जगे, इसके मुकाबले में सारी संपदा भी नष्ट हो, त्यागनी पड़े, सारा संग समागम भी छोड़ना पड़े, कितने ही तपश्चरण करने पड़े, वे सब न कुछ श्रम हैं। इन-इन फालतू भावों का जिस तत्त्व में प्रवेश नहीं है, वह मैं कारणसमयसार हूं। इसके अवलंबन से, जन्म–मरण से मुक्ति नहीं होती है।
स्वाभिमुखता से समृद्धिविस्तार- यह कारणपरमात्मतत्त्वमानो सदा इस प्रतीक्षा में रहता है कि यह जीव जरा तो उपयोग मेरी ओर करे, फिर मैं इसका भला ही भला कर दूँगा। जीव जरा भी उपयोग इस कारणसमयसार निज प्रभु की ओर नहीं देता तो यह तिरोहित रहता है और विवश रहता है। एक बार सर्वविकल्प छोड़कर किसी भी प्रकार निर्विकल्प समाधि भाव द्वारा अपने इस अंत:स्वरूप के दर्शन तो कर लें, फिर तो यह कारणपरमात्मा वेग से प्रकट होकर कार्यपरमात्मा का रूप रख लेगा; तब सारे काल के लिए सारे झंझट छूट जायेंगे।
परसमागम की असारता- भैया ! घर बसाया, चीजें जोड़ी, धन जोड़ा, ये सब क्या काम आयेंगे इन जीवों के? कुछ तो ध्यान में लायें। अरे, इसका तो काम था एक धर्म करने का, आत्मस्वरूप को निहारकर इस ही आत्मस्वरूप में सदा तृप्त रहने का। इसी के लिए मनुष्य जीवन पाया है। समस्त वैभवों को तृण के समान असार जान लेना है। जब तक इन पौद्गलिक ढेरों की कीमत मानते रहेंगे, जब तक इस जीव को वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकेगा। ये समस्त लौकिक सुख, ठाठबाट अत्यंत हेय हैं। इनकी ओर कुछ भी उपयोग नहीं फँसाना चाहिए। किसी परिस्थितिवश उनमें लगना पड़ता है तो लगते हुए खेद तो मानते रहो। मौज तो न मानो। जैसे कोई जितना ऊपर से गिरे, उसको उतनी ही चोट लगती। ऐसे ही इन बाह्यपदार्थों में जो जितनी मौज माने, वह उतनी ही विकट दुर्गति प्राप्त करता है।
स्वरूपदर्शन का अनुरोध- भैया ! रंच तो निहारो इस कारणपरमात्मतत्त्व की ओर, फिर तो यह बड़े वेगपूर्वक अपना विकास करेगा, फिर सदा के लिए संसार के समस्त संकटों से मुक्त हो जाएगा। ऐसे ही सहजमुक्ति की ओर तत्पर रहने वाले इस कारणपरमात्मतत्त्व को जो अंतर ज्ञानी सहज परमबोध के द्वारा जानता है और ऐसे ही सहज अवलोकन से देखता है, वह ही यह मैं कारणसमयसार हूं- ऐसी भावना करता है। इस निज शुद्ध सहजस्वरूप की भावना में सर्वसमृद्धि भरी हुई है। कहीं बाहर दृष्टि फँसाई तो आकुलता ही है। अत: इस प्रकार के कारणसमयसार की ज्ञानी पुरुष को सदा भावना करनी चाहिए।
योगियों का ध्येय परमार्थ तत्त्व- योगियों का ध्येयभूत यह आत्मा सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजशीलस्वरूप हैं। इसमें यह बताना असंभव है कि आत्मा तो यह है और उसमें ये-ये धर्म रहा करते हैं। वह तो धर्म-धर्मी के आधार-आधेय के विकल्प से रहित है। ज्ञानादि गुणों को छोड़कर अन्य कुछ आत्मा नहीं है। जो कुछ चैतन्य चमत्कार है, तन्मात्र यह आत्मा है, इसी कारण इसे चैतन्य चमत्कार मात्र कहा जाता है। यह अनादि हैं, अनंत है, अचल हैं, जिस स्वरूप को लिए हुए है, उस स्वरूप से त्रिकाल भी चलित नहीं होता है। यह चैतन्य चमत्कार मात्र आत्मा स्वयं ही बड़ी श्रेष्ठता से चकचकायमान् होता है, प्रकाशमय रहता है। इस आत्मतत्त्व में आधार-आधेय का विकल्प नहीं है। जो भी महापुरुष हुए हैं, योगिपूजित हुए हैं, वे सब इस चैतन्य चमत्कार मात्र के उपासक ही तो हैं। वहां भी उपासक-उपासना और चैतन्य चमत्कार में कुछ भिन्न नहीं हैं, किंतु जो बर्त रहा है, उसको बताने का एक तरीका है।
निर्दोषता का उपाय- अमिततेजोमय चैतन्यचमत्कारमात्र कारणपरमात्मतत्त्व को जो अभेदरूप होकर प्रतिभासता रहता है, वह करणसमयसार मैं हूं- ऐसी निरंतर भावना करनी चाहिए। इस ही भावना के प्रसाद से भव-भव के बद्ध कर्म क्षणमात्र में खिर जाते हैं। ये कर्म अन्य किसी अन्य प्रकार से नहीं खिरते हैं, किंतु रागद्वेष भावों की गिलाई के कारण ये कर्म आये और बंधे हैं। सो राग-द्वेष-मोह की गिलाईपन मिट जाए तो ये कर्म अपने आप झड़ जायेंगे। जैसे कि गीली धोती नीचे गिर जाए और उसमें धूल, मिट्टी चिपक जाए तो उस धोती को झाड़ने-फटकारने से वह धूल न निकलेगी, किंतु उसको ऐसे ही सूखने डाल दिया जाए। उस धूल को चिपकाने वाली तो गिलाई थी, वह गीलापन सूख जाएगा तो बहुत थोड़े झिटके से वह धूल खिर जाएगी। ऐसे ही कर्मजाल राग-द्वेष-मोह भाव के कारण लगा हुआ है। यह राग-द्वेष-मोह भाव सूख जाए तो कर्म वहां टिक नहीं सकते हैं। राग-द्वेष-मोह के सूखने का उपाय निर्दोष निरावरण निरंजन सहज ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की भावना ही है।
कारणसमयसार की इंद्रियगोचरता- यह मैं कारणसमयसार किसी भी इंद्रिय के उपाय से नहीं जाना जा सकता। इन कानों को बहुत ही सावधानी से लगा दें इस आत्मा की बात सुनने के लिए तो कहीं आत्मा का ज्ञान न हो जाएगा, न यहां आत्मा की बात सुनने को मिलेगी। भले ही सुनने से आत्मा की कुछ बाहरी चर्चा सुन ली जाएगी, किंतु आत्मा कैसा है, इसका साक्षात् मिलन तो इन कानों के द्वारा नहीं किया जा सकता। ये नेत्र तो कान की अपेक्षा भी अधिक बहिर्मुख बनाने वाले हैं। आंखों को फाड़कर भी इसआत्मा को निरखा जाए तो मात्र यह ऊपर का चाम ही तो दृष्ट हो सकता है। इन नेत्रों से तो चाम के भीतर का भी मल दृष्ट नहीं हो सकता है, फिर तो अंत: बसा हुआ यह अमूर्त भावात्मक आत्मतत्त्व नेत्रों से चिरकाल भी ज्ञात हो ही नहीं सकता है। घ्राण से क्या यह आत्मा जान लिया जा सकता है? आत्मा गंधरहित है। नाक का उसके जानने में क्या काम है? रसना से क्या आत्मा का स्वाद लिया जा सकता है? आत्मा रसरहित परमज्ञानानंदस्वरूप है। स्पर्श से भी यह आत्मा नहीं जाना जा सकता है।
अंतस्तत्त्व की मन से अगम्यता- भैया ! इंद्रिय की तो कहानी ही छोड़ो। इस मन के द्वारा भी आत्मतत्त्व से भेंट नहीं हो सकती है। यह मन आत्मा के दरबार में बाह्य सभा तक तो ले जा सकता है, आत्मा के स्वरूप के संबंध में भावात्मक भेदरूप से जो कुछ वर्णन है, उस वर्णन तक तो मन की गति हो सकती है; किंतु जो भाव आत्मस्वरूप है, सहज परमपारिणामिक चैतन्यचमत्कारमात्र है, उसका ज्ञान केवल आत्मउपयोग के द्वारा ही होता है। वहां मन रूद्ध हो जाता हैं।
आत्मनिर्णय- यहमैं आत्मतत्त्व वह हूं, जो अपने द्वारा अपने में अपने लिए अपनेसे जाना जाता है, जो किसी भी ग्रहण में न आने योग्य को ग्रहण नहीं करता और ग्रहण किए हुए को कभी छोड़ता नहीं, केवल सर्वप्रकार सबको जानता भर रहता है, वह स्वसम्वेद्य मैं आत्मा हूं। इस आत्मतत्त्व में जो गृहीत धर्म है, स्वरूपरूप शाश्वत चैतन्यस्वरूप है, उसको यह कभी छोड़ नहीं सकता है, वह तो इसका स्वरूप ही है। जो चीज अग्राह्य है, उसे आत्मा अपने स्वभावरूप में स्वीकार नहीं करता हैं, ऐसे सर्वपरभावों का यह कभी ग्रहण नहीं कर सकता है। यह तो अपने आपमें अपने ही गुणों से समृद्ध एक स्वरूपमात्र आत्मतत्त्व को जानता है अथवा जैसे कोई प्रकाशमय तत्त्व प्रकाशित होता हैं, ऐसे ही यह ज्ञानमय तत्त्वमात्र अपने स्वरूप में प्रतिभात होता रहता है।
परमार्थ स्वभाव के अपरिचय में लोकविडंबना- यह अपने आपमें बसा हुआ यह अपना प्रभु परमोत्कृष्ट तत्त्व है। इसको जाने बिना संसार की ऐसी घटनाएं चल रही हैं। कहां तो यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप सर्व विश्व का ज्ञाताद्रष्टा रहता और सदा निरंतर आनंदमय रहता और कहां आज की यह परिस्थिति कि नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव- इन गतियों में नाना प्रकार के शरीरों में फंसता है और नाना क्लेश भोगता है, बाह्यपदार्थों की ओर अपना कुछ निहार-निहार कर सुख की आशा किए भिखारी बनकर जीवन गँवाता है। कितनी विरूद्ध परिस्थिति है इस जीव की? यह सब अपने प्रभु की उपासना न करने का फल है। यह आत्मतत्त्व तो जीवत्वस्वरूप है। इसने अपने सहज चैतन्यस्वभाव को छोड़ा ही नहीं है और जो अन्य पौद्गालिक विकार है, इनको कभी ग्रहण किया ही नहीं है। यह तो शाश्वत निरावरण निरंजन है। इसे जाने बिना यह संसरण हो रहा है।
मोक्षमार्ग का प्रयोजक आत्मतत्त्व- यहां किस ‘मैं’ को देखा जा रहा है?जो ‘मैं’ इस रागद्वेषभाव को कभी ग्रहण नहीं कर सकता, उस ‘‘मैं’’ की बात चल रही है। यह ‘मैं’ इस वर्तमान पर्यायरूप में न मिलेगा, किंतु पर्याय का स्रोत होकर भी पर्यायस्वरूप से विलक्षण शाश्वत ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि में मिलेगा। क्या स्वभाव रागद्वेष को ग्रहण करता है? स्वभाव तो स्वभावरूप ही रहता है। शुद्ध भावात्मकरूप से देखने की कला पर इस ‘मैं’ का ज्ञान निर्भर है। आत्महित के प्रयोजन में इस पद्धति से ही उस ‘मैं’ को ग्रहण करना चाहिए। जैसे यह एक चौकी है। इस चौकी का स्वरूप आप कितने ही स्वरूपों में बता सकते हैं- यह गोल है, लंबी है, चौडी है, पुरानी है, ऐसे रूप की है, यह ठोस मजबूत है। चौकी पर बैठने का प्रयोजन हो तो यह प्रयोजक पुरुष उसकी मजबूती पर दृष्टि देता है, रंग पर नहीं; क्योंकि रंग उसके बोझ को न संभाल सकेगा। उसका आकार, प्रकार, रूप उसे न संभाल सकेगा। प्रयोजक पुरुष पदार्थ को अपने प्रयोजन के माफिक निरखा करता है। यहां मोक्षमार्ग का प्रयोजक ज्ञानी पुरुष आत्मतत्त्व को आत्महित के प्रयोजन से निरख रहा है। यद्यपि यह आत्मा वर्तमान में मनुष्यपर्यायरूप हो रहा है, इसमें रागद्वेष चल रहे हैं, विचार उठ रहे हैं; लेकिन इसके निरखने से मोक्ष का मार्ग नहीं मिलता है। यह सब अभी है, पर साथ ही यह भी तो बतावो कि इन सब परिणमनों का स्रोतस्वरूप कोई एक स्वभाव भी इसमें है या नहीं? उस स्वभाव का दर्शन मोक्षमार्ग का प्रयोजक है। उस ही स्वभावरूप आत्मतत्त्व की यहां बात कही जा रही है।
ज्ञानी की लगन- यह आत्मतत्त्व समस्त परपदार्थों से और रागादिक समस्त विकार भावों से पृथक् है और पृथक् ही क्या, वरन् यह मैं आत्मा रागादिक भावों को त्रिकाल भी ग्रहण नहीं करता हूं। जो मुझमें ग्रहण किए हुए है, उसकी बात नहीं कही जा रही है; किंतु जो इसका शाश्वत चैतन्यस्वभाव है, वह कभी विकारों को ग्रहण करता ही नहीं है अर्थात् कभी यह आत्मा विकारस्वभावी नहीं होता है। उस अविकारस्वभावी आत्मा की कथनी की जा रही है। यह किसी भी परभाव का ग्रहण भी नहीं करता है। ओह, इस ज्ञानी को यह बात ऐसी तेज लग बैठी कि यह निरंतर देखा करता है कि इस चिन्मात्र आत्मतत्त्व में कोई ग्रह-विग्रह है ही नहीं। ये ग्रहविग्रह विसम्वाद जब अन्य पदार्थों में कुछ आग्रह करे, तब ही उत्पन्न होते हैं। इन सभी परभावों को छोड़कर एक इस निज चैतन्यस्वभाव में ही लगूँ- ऐसी उसकी भावना रहती है। ज्ञानी को अन्यत्र कहीं रुचि हीनहीं हैं।
परम आनंद के अनुभवी के हेयसुख में अवांछा- जिस भव्य पुरुष ने विशुद्ध परिपूर्ण सहज ज्ञानात्मक परिणति का अनुभव किया है, वह परतत्त्वों में लगेगा ही क्यों? जैसे कि देवगति के जीवों के उनके कंठ से ही अमृत झर जाता है और वे उससे ही तृप्त हो जाते हैं तो उन्हें दाल-भात आदि आहारों के ग्रहण करने की जरूरत ही क्या है? जैसे देवों को बाहरी भोजन करने की चाह नहीं उत्पन्न होती है, वे अपने कंठ से झरे हुए अमृत का ही पान करके तृप्त रहते हैं- ऐसे ही यह अंतर्यामी ज्ञानी पुरुष अपने आपके अंतस्तत्त्व में आत्मा के उपयोग द्वारा निरंतर शुद्ध आनंद का अनुभव कर रहा है, उसी से तृप्त रहता है। उसे किसी भी बाह्यतत्त्व में उपयोग देने की क्या जरूरत है?
आत्मतत्त्व में दंदफंद का अभाव- यह आत्मतत्त्व निर्द्वंद्व है। लोग दंदफंद से बहुत घबड़ाते है। दंदफंद मायने क्या हैं? दंद किसे कहते हैं और फंद किसे कहते हैं? अलग-अलग कुछ बतावो तो। अरे दंदफंद का अर्थ है दंद का संद। फंद मायने है बंधन, विपत्ति, विडंबना और दंद मायने है दो चीजें। द्वंद्व का अपभ्रंश दंद है। हम दो के फंद में पड़ गये हैं। हम अकेले होते तो कोई फंद न था, पर दुसरी चीज में उपयोग दिया, स्नेह किया, उसे अपनाया- यही है दंद का फंद। यह आत्मा दंदरहित, निर्द्वंद्व है, इसी कारण निरुपद्रव है। उपद्रव का नाम ही फंद है। निर्द्वंद्व होने के कारण ही उपद्रवरहित है ऐसा ही यह आत्मतत्त्व है।
निरुपम शुद्ध आनंद- निर्द्वंद्व, निरुपद्रव ही यह आत्मीय आनंद है। आनंद और आत्मा कोई जुदे-जुदे तत्त्व नहीं हैं। यह आनंद निरुपम है, नित्य है, स्थायी है, अपने आपके आत्मा से ही प्रकट होता है। यह अन्य द्रव्यों के विकल्पों से उत्पन्न नहीं होता है।ऐसा यह शुद्ध ज्ञानस्वरूप का अनुभवरूप आनंद है। इस आनंद को पाकर इस जीव को पुण्योदय से प्राप्त हुए ये धन, संपदा, इज्जत, मान्यता, विषयों के सुख- ये सबके सब उसे उपद्रव लग रहे हैं। इस कारण यह शुद्ध ज्ञानानंदामृत से तृप्त हुआ यह भव्य पुरुष इन विषय-सुखों की ओर दृष्टि भी नहीं करता है। यह खाता हुआ भी नहीं खाता है, क्योंकि दृष्टि तो आत्मीय स्वरूप में लगी हुई है। जैसे जिसको किसी बड़ी संपदा के प्राप्त होने से अत्यंत अधिक खुशी होती है। उसकी दृष्टि उस संपदा की ओर लगी रहने से उसे खाने का भी कुछ ख्याल नहीं रहता। खाता हुआ भी वह नहीं खाता है अथवा जिसको इष्ट पुरुष का वियोग हो गया है, उसका तीव्र दु:ख है, ऐसा दु:खी पुरुष खाता तो है, पर वह खाता हुआ भी नहीं खाता है। ऐसे आत्मीय आनंद का अनुभव करने वाला पुरुष इस पुण्य के ठाठ को भी छोड़ देता है और अद्वैत तुलनारहित चैतन्यमात्र इस चिंतामणि तत्त्वरत्न को उपयोग द्वारा प्राप्त किए रहता है।
परमार्थ चिंतामणि का परम प्रसाद- चिंतामणि इस जगत् में अन्यत्र कहीं नहीं हैं। लोग कहते हैं कि चिंतामणि वह रत्न है कि जिसके रहने पर जो विचारो, सो तुरंत काम हो जाता है। वह चिंतामणिरत्न इस चैतन्यस्वरूप का अवलोकन है। जो चाहो, सो सब सिद्ध हो जाएगा। अच्छा, तब तो हम इस चैतन्य को जरूर जानकर रहेंगे। जान लो सब सिद्ध हो जायेगा। कैसे सिद्ध हो जायेगा कि चैतन्यस्वरूप को जानकर कुछ चाह ही नहीं रहेगी। चाही हुई चीज की सिद्धि चाह न करने से हुआ करती है। इस प्रकार के इस चैतन्यमात्र तत्त्व को जान करके फिर कौनसा विवेकी यह कहेगा कि कोई परद्रव्य मेरा है? देखो इस अंतरंग में- कैसा प्रकाशमय तत्त्व दिख रहा है इस ज्ञानी को यह सब ज्ञानी गुरूवों के चरणों का प्रसाद है। ऐसा यह जीव गुरु-चरणों का प्रसाद पाकर अपने स्वरूप की भावना भाकर निश्चयप्रत्याख्यान कर रहा है।