वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 96
From जैनकोष
केवलणाणसहावो केवलदंसण्रसहाव सुहमइओ।
केवलसत्तिसहावो सोहं इदि चिंतये णाणी।।96।।
ज्ञानी का चिंतन- ज्ञानी पुरुष इस प्रकार विचार कर रहा है कि मैं केवल ज्ञानस्वभाव हूं, केवल दर्शनस्वभाव हूं, सहजानंदस्वरूप हूं, केवल शक्तिस्वभाव हूं। इस चिंतन में ज्ञानी ने अपने को सहज अनंत चतुष्टयरूप निरखा है और व्यक्त अनंत चतुष्टयरूप होने की इसमें स्पष्ट योग्यता है, इस प्रकार निरखा है। अपने आत्मा का इस रूप में ध्यान करना इस रूप के विकास का कारण है। जो अपने आपको जिस रूप में ध्यान करता है, वह अपने आपमें उस ही तत्त्व का विकास करता है। जो मनुष्य अपने को कुटुंब वाला, इज्जत वाला आदिक रूप में विभावरूप अनुभव करता है, विभावरूप को देखता है; उसके विभाव परंपरा चलती रहती है और जो समस्त परभावों से रहित केवल ज्ञाताद्रष्टा, सहज ज्ञानदर्शनस्वरूप अपने को निरखता है; उसके केवल ज्ञान, केवल दर्शन प्रकट होता है।
भावना के अनुसार प्रवृत्ति के कुछ लोकदृष्टांत– भैया ! थोड़ा बहुत यहां भी दिख जाता है कि जो बालक अपने को ऐसा विश्वास किए हुए है कि हम तो बेवकूफ लड़कों में से हैं, मुझे पाठ नहीं याद होगा; उसकी ऐसी ही कुबुद्धि चलती है, बनती है कि वह सफल नहीं हो पाता है। जिसमें इतना साहस है कि यह काम तो मैं कर सकता हूं, मनुष्य ही तो कहते हैं कि अपने में सामर्थ्य का अनुभव है, इस कार्य को मैं कर सकूँगा; अत: वह उस कार्य में सफल हो सकता है। मंत्र-ध्यान में और बात विशेष है क्या? जो सर्प का विष उतारने वाले हैं, जो किसी प्रकार के मंत्र द्वारा किसी सर्प के काटे हुए का विष उतारते हैं, वे अपने आपमें ऐसा ही उपयोग बनाते हैं कि यह विष तो यों दूर हो गया, यों दूर हुआ, यह हटा, यह विष अब यहां आ गया है; इस प्रकार की अपने आपमें भावना बनायी, मंत्र उच्चारणरूप उत्साह जगाया, विश्वास बनाया। क्या विचित्र बात हो जाती है कि प्राय: यदि वहां भी उपादान निर्विष होने को है तो उसका निमित्त पाकर वह विष उतर जाता है।
ध्यान का प्रभाव- पहिले समय में जब गजरथ चला करते थे।(आजकल भी बुंदेलखंड में प्रथा है पंचकल्याण के बाद हाथी का रथ चलाना।) उन रथों के अवसर पर कुछ मंत्रवादी लोग इसके लिए तैयार हो जाते थे कि मैं इसके रथ को तोड़ दूँगा? उस समय समारोह कराने वाले पुरुष भी ऐसे मंत्रवादियों को संतुष्ट करते थे। यदि वे संतुष्ट न हो पायें तो अपने मंत्रप्रयोग द्वारा कुछ बाधा डालते थे। उनकी क्या प्रणाली थी? वे खेल जैसा गजरथ बनाते थे। कोमल ठठेरों से या ज्वार के पेड़ों से या मक्का वगैरह के पेड़ों को छीलकर उनके गूदे व पंचों से गोल रथाकार बना लेते थे। फिर मंत्र करके, ध्यान करके, रौद्र परिणाम करके उस रथ के कुछ अंगोपांग तोड़ते थे। ऐसी करीब-करीब प्राय: होने की बात सुनी जाती है कि असली रथ में भी प्राय: ऐसा विघ्न हो जाता था। कैसा निमित्तनैमित्तिक योग है? हम उस विषय को ज्यादा नहीं समझते हैं, पर यहां भी तारीफ की बात थी एक अपने आपके ध्यान की।
भावना पर बालकों का प्रभाव- जब बच्चे ऊधम मचाते हैं, तब उनको यह कहा जाता है कि अरे ! तू तो राजाभैया हैं, राजा कहीं ऐसा ऊधम मचाते हैं? वे तो बहुत शांत रहते हैं। वे लड़के तब अपने आपमें कुछ ऐसा अनुभव बनाते हैं कि ओह, मैं तो राजाभैया हूं, राजाभैया को इस तरह ऊधम नहीं मचाना चाहिए। अत: वे शांत हो जाते हैं। बच्चे कभी-कभी घुटना टेककर घोड़ा-घोड़ा खेल इस प्रकार से खेलते हैं- वहां से घोड़ा बना एक बालक आया, यहां से भी एक बालक घोड़ा बनकर चला, फिर वे रास्ते में मिले, मुंह से मुंह मिलाकर हिनहिनाये और हाथापाई की। वहां बच्चे थोड़ी देर के लिए अपने बच्चेपन को भूल जाते हैं। हम तो घोड़े हैं- ऐसा कुछ देर के लिए अपना अनुभव बना लेते हैं। मैं घोड़ा हूं- ऐसी तीव्र वासना बना लेने के कारण उन बच्चों में मार-पिटाई हो जाती है और फिर रो-धोकर ही वह खेल खत्म होता है।
ध्यान का असर- कोई पुरुष किसी कमरे में बैठा हो और ध्यान कर रहा हो कि मैं महिषासुर हूं, मैं एक भैंसा हूं, भैंसे की शक्ल मेरी है और उस ही रूप अपने प्रयोग में ढांचा बना ले और बहुत विशालरूप अपने आपको सोच ले कि मैं बहुत विशालकाय रूप वाला भैंसा हूं और मेरे ये सींग तीन तीन हाथ लंबे लगे हुए हैं- ऐसा भैंसे का रूप सोचे और उस ही चिंतन के तुरंत बाद कमरे के दरवाजे पर ध्यान जाए कि यह तो ढाई फुट का ही चौड़ा दरवाजा है तो थोड़ी देर को यह व्यग्रता मानता है कि मैं इस दरवाजे से कैसे निकलूँगा? अरे तू तो मनुष्य है, दुबला-पतला आदमी है, चिंता की क्या बात थी, पर अपने आपको जैसा सोचा तैसा ही उपयोग बना डाला।
सुख-दु:ख की ध्यानानुसारिता- भैया ! ध्यान में ऐसी शक्ति है कि अभी अपने आपको किसी दु:ख से दु:खी सोचने लगे तो वह दु:ख पहाड़ जैसा बन जाएगा। मैं बड़ा दु:खी हूं, इस मुहल्ले में मेरी कुछ इज्जत ही नहीं है, कोई मुझे ज्यादा पूछता ही नहीं है और धन कुछ भी नहीं है, यह देखो पड़ोसी कैसा लखपति है, मौज मार रहा है, हम बड़े हीन है, बड़े गरीब हैं; इस प्रकार कुछ से कुछ सोच लें दु:खभरी बात तो दु:ख पहाड़सा बन जाता है। यदि अपने में सुखभरी बात सोचने लगें कि कितना सुंदर अवसर मिला है, श्रेष्ठ मनुष्य जीवन और कितना समर्थ मन मिला है, इन कीड़े-मकौड़ों की जिंदगी तो व्यर्थ है; हम सोच सकते हैं कि जो कल्याणमार्ग है, आत्मतत्त्व का स्वरूप है वह भी हम सुनते हैं, गुनते हैं; यह मैं आनंदस्वरूप हूं, हमें तो कहीं दु:ख है ही नहीं, हममें तो कहीं दु:खों का नाम ही नहीं है, ऐसा मैं समर्थ सुखसंपन्न हूं, कौनसे सुख में कमी है, भूख प्यास की वेदना भी बड़े आराम से मिटाई जा रही है, अनेक पुरुषों से बहुत ज्यादा सुविधाएँ हैं और सत्य धर्म का मिलना यह तो सबसे बड़ा वैभव है, मैं सुखी हूं- ऐसी अपनी भावनाएँ बनायें तो इससे सुख ही सुख है। जैसा यह ध्यान करता है, तैसी ही बात इस पर गुजरती है।
मुक्ति के लिए मुक्ति के अनुरूप ध्यान- मोक्षप्राप्ति के उपकरण में मुझे क्या बनना है? यह बात जब तक चित्त में न उतरे, तब तक इसका उद्यम भी कुछ न हो सकेगा। मुझे मुक्त होना है अर्थात् केवल बनना है, प्योर बनना है; अन्य चीजों के संबंध से रहित जो कुछ मैं हूं वही मात्र असंपृक्त शुद्ध रह जाऊँ यह बनना है। ऐसा बनने के प्रोग्राम में यह भी तो ध्यान रहना चाहिए कि ऐसा मैं बन सकने योग्य हूं, क्योंकि स्वभावत: केवल ज्ञानानंदस्वरूप हूं। जो अनंतचतुष्टय, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतशक्ति, अनंत आनंद प्रकट होगा; वह सब इसकी ही निधि है। ऐसा होने का मेरा स्वभाव है; इस प्रकार सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजशक्ति, सहजआनंदरूप अपने आपका ध्यान करना ही मुक्ति होने का उपाय है। यह बात उनके ही विचार में उतरती है, जो समस्त बाह्यविषय प्रपंचों की वासना से दूर है। जिसने घर में पुत्र, मित्र, स्त्री में, इन मायामय लौकिक पुरूषों की दृष्टि में इज्जत पाने में ही अपना बड़प्पन माना है, उनको यह भक्ति की बात नहीं सुहाती है। उस अज्ञानावस्था में इस मोही पुरुष को ये विषयकषाय और विषयों के साधन हितरूप और सार विदित होते है।
हित का मूल उपाय निर्मोहता- जो भव्यात्मा सर्व विषय वासनावों के प्रपंच से दूर हैं और भली प्रकार सर्व यत्नपूर्वक अपने अंत:स्वभाव की ओर उन्मुख हैं, जिसने अपने आपमें विराजमान् शाश्वत परमतत्त्व का परिज्ञान किया है- ऐसे जीवन के लिए यह शिक्षा बतायी गई है कि अपने आपमें ऐसी भावना आवें कि मैं सहज ज्ञानस्वरूप हूं, सहज दर्शनस्वरूप हूं, सहज आनंदरूप हूं और सहज चैतन्यशक्तिरूप हूं। यह देह न रहे, यह वैभव उपयोग में न रहे, केवल शुद्धानंदनिर्भर यह ज्ञानप्रकाश ही उपयोग रहे, मैं एतावन्मात्र हूं ऐसी दृष्टि बने, वहां मोह नहीं रह सकता है। मोह न रहे यह सबसे बड़ा लाभ इससे बढ़कर वैभव कुछ नहीं हैं। मोह होना ही विपत्ति है और निर्मोह होना ही कल्याण है। जो अपने आपको सहज अनंतचतुष्टयात्मक निरख रहा है, उसके मोह कैसे रह सकता है?
शुद्ध परमाणु के दृष्टांतपूर्वक शुद्धस्वरूपभावना का कथन- यह मैं आत्मा विशुद्ध केवलज्ञानदर्शनशक्तिमय व आनंदरूप हूं। जैसे मुक्त परमाणु अर्थात् केवल परमाणु जो किसी स्कंधपर्याय में नहीं है, स्कंध से छूटा हुआ है, मात्र अणु है और उस परमाणु में कभी शुद्ध स्पर्शरसगंधवर्ण रह जाए अर्थात् जघन्यगुण वाला स्पर्शरसगंधवर्ण रह जाए, जिसके रहने पर इसमें स्कंधरूप होने की योग्यता नहीं है- ऐसा शुद्ध स्पर्शरसगंधवर्णमय, जैसे परमाणु विशुद्ध है, ऐसे ही सहज ज्ञानदर्शनशक्तिआनंदस्वरूप यह मैं विशुद्ध आत्मतत्त्व हूं- ऐसी भावना ज्ञानी पुरुष को करनी चाहिए। ज्ञानी पुरुष इस प्रकार की भावना किया करता है।
अहंप्रत्ययवेदन- भैया ! यह जीव किसी न किसी रूप में अहं का प्रत्यय बनाये ही रहता है। मैं क्या हूं? इसकी प्रतीति कुछ न कुछ प्रत्येक जीव को है। चाहे कोई जीव अपने को कीड़ा-मकोड़ा रूप की प्रतीति रखे और चाहे मनुष्य आदिक रूप से अपनी खबर रखे, किंतु प्रतीति सबको है कि मैं क्या हूं? यहां भी जितने मनुष्य है, सबको अपनी खबर है। मैं अमुक लाल हूं, अमुक चंद हूं, अमुक प्रसाद हूं, ऐसे घर वाला हूं, अमुक जगह मेरा घर है, ऐसे व्यवसाय वाला हूं, ऐसी पोजीशन का हूं- ये सब बातें भीतर में धंस-धंसकर भरी हुई हैं। कदाचित् ये धर्म की बातें भी यदि करते हैं तो उनके लिए तो कुछ नियत टाइम किया जाता है कि मैं पूजा 20 मिनट तक करूँगा अथवा प्रवचन सुनने का इतना समय नियत किया है, अध्ययन का इतना टाइम नियत किया है। प्रथम तो यह ही निर्णय नहीं है कि जो पूजन; प्रवचन, अध्ययन, ध्यान के लिए समय नियत किया है, उसके बीच में भी हम अपनी बात न रक्खें। मैं अमुक चंद हूं, अमुक लाल हूं, ऐसी पोजीशन का हूं, इस बात की दृष्टि न रखें तो यह भी नहीं बनता है और कदाचित् इतनी देर को न भी रक्खें ऐसी स्वार्थमयी दृष्टि अथवा पर्यायबुद्धि की प्रतीति का उपयोग, लेकिन नियत समय व्यतीत होने पर किसी ओर प्रकृत्या यह जीव लगता है। अपने आपको किसी न किसी दशारूप अनुभव किए हुए रहता है। अज्ञानी अपने को पर्यायरूप अनुभव किए रहता है, किंतु ज्ञानी जीव अपने आपसे विविक्त, सर्व परपदार्थों से रहित केवलज्ञानदर्शनशक्तिआनंदस्वरूप अपने आपकी प्रतीति बनाये रहता है।
अज्ञानी और ज्ञानी का संकल्पित कार्य- भैया ! अब प्रोग्राम की भी बात देखो- अज्ञानी को कई प्रोग्राम पड़े हुए हैं- अब अमुक जगह जाना है; अमुक काम करना है, अमुक दुकान जाना है। अनेक प्रोग्राम बना रहा है यह अज्ञानी, किंतु ज्ञानी जीव का केवल एक ही प्रोग्राम रहता है अंतर में, चाहे उसकी साधना के लिए व्यवहारधर्मरूप अनेक बातें हों, पर प्रधानतया एक ही काम बना रहता। वह क्या? मैं अपने आपकी यथार्थरूप से श्रद्धा करूँ और यथार्थरूप को ही जानता रहूं, यही उसके अंदर प्रोग्राम रहता है। इस दुनिया से बाहर जहां सुख गया, जहां मायामय लौकिक जीवों ने अपने को फँसाया, वहां से तो विडंबनाएँ शुरू हो जाती हैं, अपने आपमें नहीं रह पाता है, अधीर हो जाता है, विह्वलता बढ़ने लगती है। ज्ञानी जीव अपने को ज्ञायकमात्र उपयोग रखने का यत्न करता है, इससे ज्ञानी जीव के शांति बढ़ने लगती है।
निर्दोषता की प्रतीतिमहल पर निश्चयप्रत्याख्यान का श्रृंगार- ज्ञानी जीव निश्चयप्रत्याख्यान के प्रसंग में यह चिंतन कर रहा है कि मैं केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल आनंद और केवल शक्तिस्वरूप हूं। प्रत्याख्यान करना है दोषों का। जब तक यह विश्वास में न आयें कि ये दोष तो मेरे में हैं ही नहीं, ये तो जरासी दृष्टि में टल सकते हैं, मेरे घर के नहीं हैं, ये मेहमानरूप आये हुए हैं, ये तो जरासी युक्ति से दूर हो सकते हैं, जब तक अपनी श्रद्धा ये न बने और इस श्रद्धा का मूल उपाय है अपने आपको निर्दोषस्वरूपमात्र ज्ञानदर्शनात्मक तत्त्वरूप अनुभव में आना, यह भी वृत्ति जब तक न आये तब तक प्रत्याख्यान वास्तव में हो नहीं सकता है। इसी कारण आचार्यदेव ने प्रत्याख्यान के प्रकरण में यह मूलभावना कही है। समस्त पुरुषार्थप्रसार इस भावना के बाद होगा अथवा जितना भी पुरुषार्थ प्रसार है, इस भावना का ही प्रसार है।
भावना का अधिकार- भैया ! जीव भावना के सिवाय और कुछ नहीं करता है। सांसारिक काम भी जहां हो रहे हैं, वहां पर भी यह जीवमात्र भावना बनाता है कि परवस्तु में परवस्तु का कर्तृत्व नहीं होता है। यह जीव न शरीर बना सकता है, न घर- दुकान बना सकता है, यह केवल अपनी भावना बनाता है, वासना बनाता है जो भावात्मक है। अब उसका ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि वासना बनाने के साथ अपने आपमें योगपरिस्पंद हुआ और खलबली मची। अब उसका संबंध शरीर से है, इस समय तो शरीर के अंगों में भी स्फुरणा हुई है, उसके बाद ये अंगोपांग चले। इन सब क्रियावों के प्रसंग में भी इस जीव ने केवल भावना बनायी, किया कुछ नहीं। भावना से ही यह संसार चला। जिन भावनावों से यह संसार बनता है, चतुर्गति भ्रमण होता है, विपत्तियां आती हैं; उनके विरुद्ध अथवा यों कहो कि सहजस्वभाव के अनुरूप अपनी भावना बने तो यह विपत्ति दूर हो जाती है। इसी भावना का यहां वर्णन किया है। ज्ञानी पुरुष ऐसा चिंतन कर रहा है कि मैं केवल ज्ञान, दर्शन, सुख, आनंदस्वरूप हूं, इस भावना को दृढ़ कर रहा है, जिसके फल में निश्चयप्रत्याख्यान प्रकट होता है।
वास्तविक अभिरामता- ज्ञानी पुरुष केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख और केवल शक्ति के स्रोतभूत सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजसुख और सहजशक्तिस्वरूप का चिंतन कर रहा है। पदार्थ में सुंदरता पदार्थ के एकत्व में है। अन्य पदार्थों के संबंध से निरुपाधि स्वत:सिद्ध जो निजस्वभाव है, उस स्वभाव के उपयोग में ही सुंदरता है।
श्रुतपूर्व और अश्रुतपूर्व- जगत् के जीवों ने आज तक विसम्वाद करने वाली भोगों की कथाएँ तो सुनी हैं। जिन वचनों से विषयों में आसक्ति होते, जिन वचनों से विषयभोग में उत्साह जगे- ऐसे वचनों के श्रवण में तो इस जीव ने चित्त दिया, परंतु इस तत्त्व की कहानी में जो स्वयं सुखरूप है, उसमें चित्त न लगाया, यह तो रुचता ही नहीं है। कैसा व्यामोहजाल इस जगत् पर पड़ा हुआ है? अभी कोई खेल तमाशा ही होने लगे, राग-रागिनी रागभरी होने लगे तो सुनने की उत्सुकता अनेकों को जग जाएगी, किंतु अपने आपकी अंत:स्वरूप की, अंत:प्रभु की कहानी जिसके प्रसाद से संसार के समस्त संकट मिटते हैं, उसके सुनने की रुचि नहीं जगती है। इस जीव ने विषयों की कहानी तो बार-बार सुनी, परंतु केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवलसुखस्वभावरूप जो अपना अद्भूत परम तेज है, उसकी चर्चा नहीं सुनी, जगत् में सब जगह की बातें सुनते जावो, पर सुनने से तृप्ति नहीं होती है, सुनने का काम पूरा नहीं होता है। कितनी ही गप्पें कीजिए, पर गप्पों का काम पूरा नहीं होता है। कदाचित् रात्रि व्यतीत ज्यादा हो जाए और निद्रा आने पर सो जायेंगे; किंतु जागने पर फिर वही गप्पें प्रारंभ हो जायेंगी। कितनी ही गप्पें सुनते जावो, पर सुनने का काम पूरा नहीं होता। यह अंतस्तत्त्व की चर्चा इतनी विशुद्ध चर्चा है कि इसके सुनने पर तृप्ति हो जाती है, सब कुछ सुना हुआ हो जाता है।
दृष्टांत और अदृष्टपूर्व- इसी प्रकार लोक में कहीं भी कुछ भी रूप देखा, देखते जावो; पर देखने से तृप्ति नहीं होती है, परंतु एक केवल ज्ञानदर्शनसुखस्वभावरूप निज अंतस्तत्त्व का अवलोकन हो जाए तो वहां परमतृप्ति होती है और उसके देखने पर सब कुछ देख लिया समझ लीजिए। एक अपने आपके अंत:स्वरूप का मर्म न देख पाया तो बाहर में सब जगह देखने-देखने की कमी रहती है। एक आत्मस्वभाव के देख लेने पर सब कुछ देख लिया गया।
परिचितपूर्व और अपरिचितपूर्व- जगत् में किसी भी पदार्थ को जानने की उत्सुकता बनायें। बच्चों को भी बहुत सी बातें जानने की उत्सुकता रहती है, बड़े और वृद्ध लोगों को भी जानने की उत्सुकता होती है; किंतु जानने की पूर्ति नहीं हो पाती है यत्नपूर्वक जानने का यत्न करते रहने पर। निष्कषाय निष्चेष्ट स्वतंत्र स्वयंसिद्धि चैतन्य तेज के जान लेने पर फिर कुछ जानने को शेष नहीं रहता है। यों यह ज्ञानी पुरुष अपने आपके स्वभाव का चिंतन कर रहा है।
निर्दोष भाव के उपयोग में प्रत्याख्यान की पूर्णता- यह है प्रत्याख्यान का अधिकार। भविष्यकाल के समस्त कर्मों का त्याग करना, उनसे निवृत्त होना, यह है प्रत्याख्यान। यह जीव मोहावस्था में गई गुजरी बातों का भी मोह रखता है, वर्तमान में मिले का भी मोह रखता है और भविष्यकाल में जिसके मिलने की आशा की हो, उससे भी मोह रखता है। यह तीनों प्रकार का मोह एक साथ खत्म होता है एक इस निर्मोह आत्मस्वभाव के जानने पर। ऐसी सुसिद्ध स्थिति में प्रतिक्रमण आलोचना और प्रत्याख्यान की पूर्णता होती है। जब तक दोषों से रहित शुद्ध ज्ञानप्रतिभासमात्र निष्तरंग नीरंग आत्मस्वभाव का अवलोकन नहीं होता, तब तक प्रत्याख्यान सही मायने में नहीं बन सकता।
सहज स्वभाव के आश्रय बिना प्रत्याख्यान का अभाव- कोई पुरुष अपने धर्मपालन की धुन में बड़ा धर्म करता हो, धर्म करने से स्वर्ग मोक्ष मिलता है इसलिए धर्म की धुन बनाए है और उस धर्म की धुन में बड़े बड़े त्याग भी कर ले तो भी मैं धर्म कर रहा हूं, मैं धर्मात्मा हूं, इस प्रकार की जो एक कल्पना लगी है तो उसके प्रत्याख्यान कहां से हो? परमार्थ से प्रत्याख्यान तब तक नहीं हो सकता, जब तक अपने आपमें स्वत:सिद्ध निर्विकल्प सहजस्वभाव का अवलोकन नहीं होता है।
कारणसमयसार की उपासना के प्रसाद से कार्यसमयसारपना- इस कारणसमयसार की उपासना के प्रसाद से अरहंत और सिद्ध अवस्था प्रकट होती है। कैसा है सर्वज्ञपरमात्मा का विलास? हम आप सबकी भांति अमूर्त चैतन्यमय पदार्थ है, किंतु निर्दोष निरावरण होने से इसका विकास हो गया है कि समस्त लोक और अलोक उसके ज्ञान में एक साथ प्रतिभास हो गया है और जितने भी कुछ परिणमन थे वे होंगे, वे अनंतरूप से प्रतिभात हुए हैं, ऐसा केवलज्ञान की मूर्तिरूप सर्वज्ञदेव जयवंत हो।
कार्यसमयसार की अनंतचतुष्टयात्मकता- इस सर्वज्ञ परमात्मा का आत्मदर्शन भी अलौकिक है। केवलज्ञान के साथ ही साथ निरंतर केवलदर्शन भी वर्तता रहता है। कैसी निर्विकल्पावस्था है? जहां निर्विकल्प प्रतिभास और सविकल्प प्रतिभास दोनों प्रकार के ज्ञान दर्शन एक साथ बर्त रहे हों, उसके चमत्कारों को कौन कह सकता है? यह प्रभु सर्वज्ञदेव शाश्वत आनंदस्वरूप है। आनंद नाम है अपने समस्त गुणों से समृद्ध हो जाने का। वह प्रभु समस्त विश्व को जानता है, फिर भी निज आनंदरस में लीन रहता है। सच्चिदानंदस्वरूप आत्मा को कहा गया है। सत्, चित् और आनंद तीनों गुणों का उसमें पूर्ण विकास है। यहां सत् मायने शक्ति के हैं और चित् नाम ज्ञान दर्शन का है और आनंद नाम आनंद का है। सच्चिदानंद शब्द में अनंतचतुष्टय की ध्वनि भरी हुई है। सत् मायने सद्भूत है। क्या वह है कुछ? चित् मायने ज्ञानदर्शनात्मक और आनंद समस्त गुणों के शुद्ध विकास से समृद्ध होने का है। सच्चिदानंदस्वरूप शाश्वत अनंतवीर्यात्मक परमात्मा मेरे उपयोग में विराजमान् रहे, जिस स्वरूप का बड़े-बड़े पुरूष भी अपने चित्त में ध्यान कर रहे हैं।
शांतिप्रद ध्येय- भैया !लोक मेंध्यान करनेयोग्य क्या पापी मलिन जीव है? उनका ध्यान करने में कौनसी सिद्धि है? व्यवहार लोक का है, यह ठीक है; व्यवहार के वचन बोले जायें, यह ठीक है; किंतु ध्येयरुप तो मलिन पुरुष नहीं है, बल्कि भगवान है और उसमें भी भगवान का जो शुद्ध विकास है, वह जिसके ध्यान के प्रताप से होता है; ऐसा जो कारणभगवान है, वह हम आप सबके घट घट में विराजमान् परम ध्येय है। उस स्वभाव के ध्यान करने में ये समस्त प्रत्याख्यान हो जाते हैं। यह स्वभाव समस्त मुनियों के ध्यान करने के योग्य है। कितनी महान् दृष्टि भरी है अपने आपके एकत्वस्वभाव के दर्शन में? वे चक्रवर्ती जिनकी सेवा में 32 हजार मुकुटबद्ध राजा लगा करते थे, उन्हें भी वहां उस समागम के बीच आनंद नहीं आया। जब सबका संन्यास करके निर्जन वन में आत्मध्यान करते हुए विराजे, जिनको बात करने के लिए स्वयं की आत्मा थी; यही पूजक, यही पूज्य, यही भावक, यही भाव्य, यही ध्याता, यही ध्येय- ऐसी उत्कृष्ट स्थिति में उन्हें आनंद मिला; किंतु इतना बड़ा समागम 6 खंड का राज्य जिसके अधिकार में समझो- ऐसे उच्च पुरुष को वहां शांति नहीं मिली। पर के संबंध से शांति हो ही नहीं सकती। शांति वहां होती है जहां शांतस्वभाव का उपयोग रहता है। इस प्रकार इस निश्चयप्रत्याख्यान के प्रसंग में ज्ञानी पुरुष केवल ज्ञान, केवल दर्शन, केवल सुख और केवल शक्तिस्वरूप आत्मतत्त्व का चिंतन कर रहा है।
प्रत्याख्यान प्रकाश- प्रत्याख्यान चारित्र का ही एकरूप है। सम्यक्त्व होने पर भी प्राक् पदवी में कितने ही दोष लगते रहते हैं। सम्यक्त्व में केवल एक ज्ञानप्रकाश ही तो हुआ। जो पदार्थ जैसा है उस पदार्थ का सही परिज्ञान और विश्वास होता है; किंतु पूर्वकालीन जो वासना और संस्कार चला आ रहा है, उसकी वजह से जो कुछ शेष रागवासना है, उसके कारण अपराध हो रहे हैं। उन अपराधों का प्रत्याख्यान होना मोक्षमार्ग की प्रगति में अत्यंत आवश्यक है। मैं आगे स्वरूपविरूद्ध कार्य न करूँगा, ऐसी दृढ़ता बिना दोषों की शुद्धि नहीं होती है। प्रत्याख्यानस्वरूप अंतस्तत्त्व समस्त मुनिजनों का ध्येय है। अब ज्ञानी पुरुष प्रत्याख्यान के प्रसंग में और क्या चिंतन कर रहा है, इसका वर्णन कर रहे हैं।