वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 99
From जैनकोष
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंवणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे।।99।।
ममत्वपरिवर्जन और निर्ममत्वानुष्ठान- मैं ममत्व को छोड़ता हूं और निर्ममत्व को उपस्थित होता हूं अर्थात् मैं निर्ममत्वस्वभाव में ठहरता हूं। आत्मा ही मेरा आलंबन है, अन्य समस्त पदार्थों को, परभावों को मैं छोड़ता हूं। ज्ञानी का ऐसा अंत:संकल्प है। इस अनुभूति में अनादि अनंत अहेतुक चित्स्वभावमात्र आत्मतत्त्व का शरण ग्रहण किया है और उस ध्रुवस्वभाव के अतिरिक्त अन्य जितने भाव हैं, स्वभाव हैं, उन समस्त विभावों के परित्याग की विधि प्रकट हुई है। यह मैं आत्मा ज्ञानदर्शनमात्र हूं, अकेला हूं, विविक्त हूं, मोह-राग-द्वेष आदिक जो विभाव उत्पन्न होते हैं, उनसे भी मैं रहित हूं- ऐसे निर्ममत्व आत्मतत्त्व को प्राप्त होना ममता के परिहार की विधि है और ममता का परिहार होना आत्मतत्त्व के पाने की विधि है।
निर्दोषता और गुणसिद्धि का एकमात्र उपाय- भैया ! विधि निषेधरूप से कहा जाने वाला यह एक भाव है, फिर भी करने की चीज निषेधात्मक नहीं होती, बल्कि विघ्यात्मक होती है। जैसे यहां दो कार्य हैं- ममता का परिहार और निर्ममत्व आत्मतत्त्व की प्राप्ति। इन दोनों में की जा सकने वाली विधिवत बात निर्ममत्व आत्मतत्त्व की उपलब्धि है। जैसे कहा जाए कि क्रोध का परिहार करो और क्षमा को ग्रहण करो। क्षमा नाम है क्षोभरहित शुद्ध ज्ञानमात्र आत्मविकासरूप परिणमना का, जिसमें दूसरों के विरुद्ध द्वेषभाव की कल्पना नहीं आती। इसमें क्रोध का त्याग और किस तरह होता होगा? क्रोध नाम का विभाव किस तरह फैंका जाता होगा? क्षमा नामक गुण आ जाएगा तो क्रोध का परिहार स्वयमेव हो जाता है। विघ्यात्मक चीज तो आत्मविकास है, विभाव का परिहार करने का पुरुषार्थ तो स्वभाव का आलंबन है। मेरा यह आत्मतत्त्व ऐसा समर्थ आलंबन है कि जितने गुण चाहिए शुद्ध विकासरूप, वह सब इस आत्मावलंबन के प्रसाद से सिद्ध होता है और समस्त अवगुणों का परिहार भी इस आत्मावलंबन के प्रसाद से होता है। सो यह मैं एक आत्मतत्त्व को तो ग्रहण करता हूं और शेष समस्त विभावों का परित्याग करता हूं।
स्वरूपत: ममता का अवकाश- ममता नाम है ममकार का। कंचन कामिनी आदि परपदार्थों में अर्थात् परद्रव्यों की पर्याय में ममकार करने का नाम ममता है। यह मेरा है, इस प्रकार का संकल्प होना सो ममकार है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अपना-अपना अस्तित्त्व रखता है। किसी भी द्रव्य में किसी अन्य द्रव्य का प्रवेश नहीं है। कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य का कर्ता अथवा भोक्ता नहीं होता है। इस मुझ आत्मतत्त्व में न किसी पर के साथ कर्तृत्व का संबंध है और न पर के भोक्तृत्व का संबंध है। न किसी पर को यह कराने वाला है और यहां तक भी अत्यंताभाव है कि यह पर का अनुमोदक भी नहीं हो सकता।
स्व का पर में अत्यंताभाव- यह मैं आत्मतत्त्व जो कुछ करता हूं, अपना परिणमन करता हूं और अपने ही द्वारा अपने आपको करता हूं। प्रेरणा देने वाला भी यह मैं हूं और करने वाला भी यह मैं हूं। कोई दूसरा पुरुष न मेरे परिणाम को करता है, न कोई मुझे प्रेरणा करा सकता है, खुद ही का विभाव खुद ही की गरज खुद को प्रेरणा दिया करती है। दूसरा पदार्थ मुझे किसी काम को करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता है। मैं भी किसी दूसरे जीव को किसी कार्य के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। प्रत्येक जीव अपने अपने भाव के अनुसार अपने में परिणमन किया करते हैं। इतना सो अत्यंताभाव है मेरा परपदार्थों में, फिर भी कुबुद्धिवश परपदार्थों में ममकार करता आया हूं, यह सब विभावपरिणति थी। अब मैं इस ममकार का परित्याग करता हूं, श्रद्धापूर्वक किसी भी अणुमात्र परपदार्थ में यह बुद्धि नहीं रखता हूं कि कोई भी परपदार्थ मेरे हैं, उनका मुझमें अत्यंताभाव है, वे अपने स्वरूप में हैं, मैं अपने स्वरूप में हूं।
गजब- भैया !यही तो एक विचित्र जगजाल है कि परपदार्थ से हम सब जीवों का रंचमात्र संबंध नहीं है, फिर भी परपदार्थों के उपयोग का बोझ अपने ऊपर लादे हुए हैं। इस उपयोग को स्वतंत्र निर्द्वंद्व, निरुपद्रव अपने आपके स्वरूप में आ सके, इस लायक नहीं रहने देता यह बोझ। परपदार्थ मुझे सता नहीं रहे हैं, किंतु परपदार्थों के संबंध में जो विकल्प किए जाते हैं, वे विकल्प मुझे अहर्निश सताया करते हैं। उन विकल्पों को दु:खस्वरूप जान लेना, उन विकल्पों को हटाने का उत्साह जगाना तथा निर्विकल्प आत्मतत्त्व का आलंबन लेना, सो ही सच्ची बुद्धिमानी है।
पर की ममत्व कि लिए अयोग्यता- प्रत्याख्यान के प्रसंग में यह ज्ञानी पुरुष विचार कर रहा है कि मेरा जब ‘मैं’ ही हूं तो मैं परपदार्थों में ममत्व क्यों करूँ? इस धोखेमयी संसार में मुझे किसी के प्रति कुछ न चाहिए। कोई मेरा क्या करेगा? किसकी मैं भीख माँगू? किस दूसरे में अच्छा कहलाने के लिए मैं आशा बनाऊँ? ये दृश्यमान चलते फिरते पूर्जे प्रत्येक असमानजातीय द्रव्यपर्यायें है। सभी अपनी विपदावों को सिर पर लादे हुए संसार में भटक रहे हैं। मैं यहां क्या शरण चाहूं? मेरा शरण तो मेरा आत्मतत्त्व ही है। जिस आत्मप्रभु के दर्शन बिना संसार में अब तक रुलता आया हूं, वह आत्मतत्त्व ही मेरा परमशरण है। कितनी सुविधा की बात है कि जो मेरा परमशरण है, सुख का हेतु है, वह मुझसे अलग नहीं है। यह स्वयं मैं ही तो हूं, पहिचान सकूँ तो पहिचान लूँ।
अंतस्तत्त्व के परिचय के लिए दुग्धघृत का दृष्टांत– भैया ! जैसे दूध में घी होता हैं, पर इन चमड़े की आंखों से दूध में घी नहीं दिख सकता है। सेरभर दूध रक्खा है तो किधर है घी? क्या कुछ पता पड़ता है? पर जो जानकार लोग हैं, वे जानते हैं और बता देते हैं कि इस सेरभर दूध में 1।। छटांक घी निकलेगा और किसी दूध को देखकर बताते हैं कि इसमें छटांकभर घी मुश्किल से निकलेगा। ऐसा उन्हें जो घी दिख रहा है, वह ज्ञानबल से दिख रहा है। दूध में घी न हो तो कहां से घी निकले? कभी कोई पानी को देखकर नहीं कहता है कि इसमें छटांकभर घी निकलेगा। अत: इस विषय में कुछ ज्ञान तो है ही। उस दूध में अंत:तिरोहित घी है ही। यह तिरोधान सूर्य के नीचे बादलों जैसा नहीं है अथवा किसी चीज पर कपड़ा पड़ा हो, इस तरह का नहीं है। उस दूध में घी बराबर बसा हो और ऊपर से कुछ ढका हो तो ऐसा नहीं उस दूध के अंग-अंग में घी बसा हुआ है। उस दूध को गर्म करने से, मलने से, यंत्र से बिलाने से उस घी की व्यक्ति हो जाती है।
अंतस्तत्त्व की उपलब्धि का उपाय- ऐसे ही हमारे आपके आत्मा में यह आत्मतत्त्व छिपा है। जो सारे संसार को जाने, देखे- ऐसा यह आत्मतत्त्व तिरोहित है। वह सूर्य पर बादल छायें, इस तरह तिरोहित नहीं है या किसी चीज पर कपड़ा पड़ा हो, इस तरह तिरोहित नहीं है, बल्कि दूध में घी की भांति तिरोहित है। इस तिरोहित आत्मतत्त्व का विकास परमार्थ तपश्चरण से हुआ करता है। इस आत्मस्वरूप को मथा जाए, इस चैतन्यस्वरूप में ही उपयोग का प्रतपन किया जाए, यह उपयोग इस चैतन्यस्वरूप में तपा करे तो यह तिरोहित आत्मतत्त्व प्रकट हो सकता है। ऐसा यह आत्मतत्त्व ही मेरा परमार्थ आलंबन है, इसको छोड़कर अन्य किसी भी विभाव को मैं न पकडूँ, सबको भूल जाऊँ- ऐसी यह ज्ञानी पुरूष भावना कर रहा है।
प्रत्याख्यान की मंगलरूपता- जैसेलोकमें कोईपुरूष किसी से हैरान होकर, तंग आकर यह संकल्प करता है कि अब में उसका नाम भी न लूँगा, उसके निकट न जाऊँगा, उसको आज से छोड़ता हूं। कोई परम शरणभूत विश्राम पाया है इस लौकिक पुरूष ने, जिसमें तृप्त होकर, संतुष्ट होकर उस सताये गये वातावरण से उपेक्षा करता है? ऐसे ही यह ज्ञानी पुरूष इन रागद्वेषादि समस्त विभावों से बड़ा सताया गया है, हैरान है। कैसी मोहिनी धूल पड़ी है, पागलपन छाया है कि रंच भी तो कुछ संबंध नहीं है परपदार्थों से? लेकिन परपदार्थ ऐसे उपयोग में लदे हुए हैं किये थोड़े समय को भी, जिस समय ध्यान, सामायिक में बैठते हैं अथवा किसी प्रकार का धार्मिक कार्य कर रहे हैं, उस समय भी यह सारा प्लान उपयोग से हट नहीं पाता है। इतना यह चैतन्यप्रभु इन विकल्पों से सताया गया हे। साथ ही इस ज्ञानी ने अपने आपमें सहज परम आनंदमय आत्मतत्त्व को देखा है, जिसे देखने के प्रसाद से तृप्त होकर अब संकल्प कर रहा हैं कि मैं इन विभावों के निकट न जाऊँगा। ‘मैं’ का अर्थ यहां उपयोग से है। यह मैं उपयोग अब किन्हीं विभावों का सहारा न तकूँगा।
स्व के उपादान और अपोहन का संकल्प– भैया ! हम विभावों को इस प्रकार जान लें कि ये केवल क्लेश के मूल हैं, इससे मुझ आत्मा को कोई भला नहीं होने को है। इन्हीं के संग से अनादि से अब तक संसार में रुलता चला आया हूं। अब मैं इस चैतन्य-चिंतामणि का ही आलंबन रक्खूँगा। इस चित्स्वभाव के अवलंबन में सहज-आनंद की धारा धाराप्रवाह बह उठती है। रागादिक भाव तो स्वभाव से बहुत दूर हैं, अत्यंत दूर हैं। भले ही ये विभाव आत्मतत्त्व में झलकें, किंतु ये स्वभाव से बहुत दूर हैं। मैं चैतन्य स्वभावमात्र हूं। इस दूरवर्ती तत्त्व की रुचि में केवल मूढ़ता ही भरी हुई है, इसका फल संसार में रुलना है। मैं आत्मतत्त्व सर्वरूप निजस्वभाव को ही ग्रहण करता हूं।
परमोपेक्षागम्य तत्त्व- यह आत्मतत्त्व परम उपेक्षाभाव से ही लक्ष्य में आता है। रागद्वेष की वृत्ति जब तक होगी, तब तक उस वृत्ति से आत्मा लक्ष्य में नहीं आ सकता है। रागद्वेष की वृत्ति में कोई जड़तत्त्व ही नजर आयेगा, रागद्वेष स्वयं जड़भाव है, ये चेतकभाव नहीं हैं। जड़भावों में ही जड़ का निवास होगा, चैतन्यतत्त्व का विलास नहीं हो सकता है। जब रागद्वेष से परे रहकर परम उपेक्षाभाव में रहें तो उस यथार्थ संयम में रहते हुए यह आत्मा अपने परमार्थभूत आत्मतत्त्व को समझता है, जो आत्मतत्त्व ममकार से रहित है, यह ममता-परिणाम इस आत्मा का भाव नहीं है; जब ममता ही मेरी चीज नहीं है तो ममता के परिणाम में जो हुकुम दिया है, उस हुकुम में बह जाना, यह तो प्रकट व्यामोह है।
ये रागादिक भाव खुद अशरण हैं। जिस समय ये होते हैं, कुछ क्षण के बाद नियम से नष्ट हो जाते हैं। राग भाव के बाद दूसरा राग भाव आ जाता है, यह तो परेशानी है; पर जो राग भाव आया है, वह रागपरिणाम दूसरे क्षण ठहर नहीं सकता, इनका स्वरूप ही इस प्रकार का है। अत: जो रागादिक भाव स्वयं अशरण हैं, होकर मिटने वाले हैं, खुद प्रतिष्ठा नहीं पाते हैं; उन रागादिक भावों में रहकर अपने को शरणभूत समझना और ये रागादिक भाव जो हुकुम करें उसके वश होना, जिस पदार्थ का निशाना बनाया उस पदार्थ को अपना सर्वस्व समझना प्रकट व्यामोह है।
ज्ञानी की उत्सुकता- ज्ञानी की उत्सुकता है कि ममकाररहित अपने आत्मा में स्थित होकर अपने आत्मा का आलंबन लूँ। जैसे भूला-भटका बालक कितनी ही जगह जाता है, पर उसे कहीं शरण नहीं मिलती। जब वह ढूंढ़ता हुआ अपनी बिछुड़ी हुई मां को देख लेता है तो उसकी गोद में जाकर संतोषभरी सांस लेता है। ऐसे ही समझिए कि यह जीव मोह की प्रेरणा से इस संसार में चारों ओर भटकता हुआ दूसरों को शरण मान-मानकर दूसरों की ठोकरें खाता फिरा। कभी अपने आपमें स्वभावरूप बसे हुए सहज आनंद का दर्शन करता है, अपने आपके परम शरणभूत अपने स्वभाव को निरखता है तो उसकी गोद में ही विराजकर यह उपयोगमात्र आत्मा परम संतोष प्राप्त करता है। इस संतोष के मिलने के बाद अब वह यहां से हटकर अन्यत्र कहीं भी नहीं जाना चाहता है। ज्ञानी पुरूष ऐसा ही महासंकल्प लिए हुए चिंतन कर रहा है कि मैं इस समस्त कमनीय कांचन, धन-संपदा, परिजन- इन इंद्रजालों में, मायाजालों में, विभावपर्यायों में, परपदार्थों में ममता को छोड़ता हूं।
बीती ताहि विसार दे, आगे की सुध लेहु- इस जीव ने पूरा पुरुषार्थ करके एक बार भी परपदार्थ में ममत्व को नहीं त्यागा है। कभी धर्म की भी धुन लगी, धर्म का भी कोई कार्य किया तो उन कार्यों के करते हुए में भी किसी न किसी पदार्थ में यह ममकार का संस्कार बनाये रहा। अपने आपको विशुद्ध निजस्वरूपमात्र नहीं अनुभव सका, शुद्ध चैतन्यस्वभाव के अनुभव का सहज आनंद न पा सका, इसी कारण यह दर-दर भटककर वस्तुवों से आशा कर-करके उनके लिए ही अपने तन, मन, वचन न्यौछावर करता रहा है और प्राणों की तरह माने गये इस धन को भी उन ही पर न्यौछावर करके यह अपने को कृतकृत्य समझता रहा है; पर हुआ वहां उल्टा ही काम। यह संसार भ्रमण को बढ़ाता रहा है। अब भाग्यवश उत्तम पर्याय मिली है, श्रेष्ठ मन मिला है, श्रुतज्ञान की प्रमुखता यहां हो सकती है तो अब यह कर्तव्य है कि ज्ञान विवेक का आलंबन लेकर जो वास्तविक करने योग्य कार्य है, उसको कर लीजिए।
विशुद्ध आलंबन- यह मेरा आत्मा ही परमार्थभूत यथार्थ आलंबन के योग्य है। इस आत्मतत्त्व का मैं आलंबन कर लूँ और समस्त विभाव-परिणतियों को जो संसार के अनेक संकटों को भुगताने में प्रवीण हैं, उन सब विभाव-परिणतियों का भी त्याग करता हूं। उन विभाव परिणतियों में कुछ तो सुख का रूपक रखकर सताने को आती हैं और कुछ जीव को दु:ख का रूपक रखकर सताने को आती हैं। जैसे वैषयिक रूप में सुख हो तो वहां भी आकुलता से ही भेंट होती है और चाहे दु:ख की स्थिति हो, वहां भी आकुलता ये भेंट होती हैं। इस प्रकार समस्त आकुलताओं का कारणभूत इन विभाव-परिणतियों का मैं परित्याग करता हूं। इस तरह प्रत्याख्यान का अधिकारी यह ज्ञानी पुरुष विशुद्ध चित्स्वभाव का आलंबन ले रहा है।
सर्वकर्मप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानमय ज्ञानी पुरुष संकल्प कर रहा है कि मैं समस्त परद्रव्यविषयक ममता को छोड़ता हूं और निर्ममत्व आत्मतत्त्व के निकट रहता हूं। मेरा यह आत्मा ही सब कुछ है। मैं शेष समस्त विभावों को छोड़ता हूं। इस भावना में ज्ञानी ने समस्त विभावों का परित्याग किया है। समस्त विभावों का अर्थ एक ज्ञानविलास केअतिरिक्त अन्य समस्त परिणाम हैं, जो औपाधिक हैं। शुभ भाव, अशुभ भाव, पुण्यपरिणाम, पापपरिणाम- सभी परिणामों का यहां त्याग किया गया है। श्रद्धालु पुरुष चाहे शुभ भाव का परित्याग न कर सके, अशुभ भाव के परित्याग के बाद शुभ भावों का आलंबन रखे, फिर भी यथार्थ तत्त्व समझता है कि मैं सर्वविभावों से मुक्त केवल चैतन्यस्वरूपमात्र हूं। इस प्रकार यह ज्ञानी समस्त पुण्य-पाप कर्मों का परित्याग करता है। पौद्गलिक जो पुण्य-पाप कर्म हैं, उनकी यह चर्चा नहीं है। जो अंतस्तत्त्व का अत्यंत अधिक प्रेमी है, वह भिन्न पदार्थों के संबंध में ग्रहण और त्याग का विकल्प करे। यह तो होगा ही क्या? यहां तो अपने आपके परिणमन में जो शुभ और अशुभ भाव हैं, उनके विवेक की बात चल रही है।
नैष्यकर्म्यविषयक एक जिज्ञासा- इस ज्ञानी ने शाश्वत सहज चित्स्वभाव का आलंबन करके समस्त शुभ-अशुभ भावों का परिहार किया है। अपने उपयोग को शुभ-अशुभ भावों में न अटकाकर इनसे परे चलकर परम लक्ष्यभूत शुद्ध ज्ञानप्रकाश आलंबन लिया है। ऐसी चर्चा सुनकर किन्हीं अज्ञानी जनों को यह जिज्ञासा हो सकती है और किन्हीं दूसरों के कल्पित ऐसे कष्ट में सहानुभूति हो सकती है कि अहो ! ये साधुजन जिन्होंने पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों का त्याग किया है, जिन्होंने घर-बार बाह्य समस्त परिग्रह छोड़ दिया है, किन्हीं बाह्य वस्तुवों में रागबुद्धि नहीं रखते हैं, किन्हीं को भी नहीं अपनाते हैं- ऐसे अकेलेपन में विराजे हुए साधु अशरण हैं। उनके लिए अब वहां क्या शरण है? यहां तो हम आप लोगों को बहुत शरण हैं, परिवार है, मित्रजन हैं, गुरूजन हैं या अन्य शिष्य हैं, बहुत से लोग शरण है। जंगल में विराजे हुए अकेले और जो किसी से प्रेम नहीं रखते हैं- ऐसे साधुजन तो अशरण हैं।
नैष्कर्म्य में परमशरण का विवेचन- आचार्यदेव कहते हैं किनिर्जन प्रदेश में रहनेवालेसाधुजन भी रंच भी अशरण नहीं हैं। उनका जो अमोघ शरण है,वह यही है कि उनका ज्ञान उनके ज्ञान में प्रतिष्ठित हो रहा है। भैया ! सुख-दु:ख, शांति-अशांति- ये सब ज्ञान की कला पर निर्भर हैं। जो बाह्यपदार्थों के संबंध में विकल्प किया करते हैं, वे सदा आकुलित रहा करते हैं; क्योंकि उन्होंने अपने आनंदमयी स्थान को त्याग दिया है और वे बाह्यपदार्थों की ओर अपनी दृष्टि बनाये हुए हैं। सर्व बाह्यपदार्थ भिन्न हैं और वे अपने आपमें ही अपना परिणमन करते हैं। उनसे इस आत्मा को कुछ प्राप्त नहीं होता है। उनके प्रति इस मोही ने इष्ट बुद्धि की है, यह उनका निरंतर संयोग चाहता है; किंतु वे तो पर ही हैं। जब तक संयोग है तो रहते हैं, नहीं है तो नहीं रहते हैं और वियोग तो अवश्य होगा ही। ऐसी परिस्थिति में यह विह्वल हो जाता है और जब तक संयोग है, तद्विषयक कल्पनाएँ कर-करके यह अपने को हैरान बनाये रहता है। शरण तो वास्तविक ज्ञान में ज्ञान का आचरित होना ही है। यही परम अमृत है। ज्ञान का ही नाम अमृत है। जो न मरे, उसे अमृत कहते हैं। मेरा मेरे लिए ऐसा कौनसा तत्त्व है, जो कभी मरता नहीं है, नष्ट न होता हो? वह तत्त्व है ज्ञानस्वभाव। यह नष्ट नहीं होता है, इसलिए अमृत है और यह ज्ञानतत्त्व मरा हुआ भी नहीं है, किंतु गतिशील, निरंतर जाननहार, जागता हुआ, सावधान और सचेत है, इसलिए भी अमृत है। ऐसे ज्ञानरूप आत्मतत्त्व को ये साधुजन वहां स्वयं ही भोगते रहते हैं।
अनाथपना- एक बार कोई राजा सैर करने के लिए या क्रूर परिणामी हो तो शिकार करने के लिए जंगल में गया। जंगल में एक मुनिराज को देखा। वे मुनि बड़े कांतियुक्त युवावस्थासंपन्न प्रसन्न-मुद्रा में ध्यान कर रहे थे। राजा पर मुनि का बड़ा प्रभाव पड़ा। वह वहां बैठ गया। थोड़ी देर बाद जब मुनिराज ने आंखें खोली तो राजा कहता है कि महाराज ! तुम यहां ऐसे भयानक विकट जंगल में अकेले बैठे हो, कोई शरण नहीं है, आप बड़ा कष्ट पा रहे हैं। आप कौन हैं? मुनि बोले कि मैं अनाथी मुनि हूं। राजा का दिल भर आया और बोला कि महाराज ! अब आज से आप अपने को अनाथी न कहिए। मैं आपका नाथ बन गया हूं। आप मेरे साथ घर चलो, बहुत बढ़िया महल में रहिए और जितना चाहे आराम कीजिए, भोग भोगिए। मुनि कहता है के मेरे हिताकांक्षी ! तुम कौन हो? राजा ने कहा कि महाराज मैं बहुत बड़ा राजा हूं। हजारों गांव मेरे राज्य में हैं, आप धोखा न समझें, मैं आपको बहुत अच्छी तरह से रक्खूँगा। इतनी बड़ी सेना है, इतने कार्यकर्ता लोग हैं, इतने मंत्री हैं, इस प्रकार राजा ने अपना सारा वैभव बताया। उत्तर में मुनि कहते हैं कि राजन् ! ऐसा तो मैं भी था। इतनी बात सुनकर राजा का दिमाग चकरा गया। बोला कि महाराज ! यह क्या कह रहे हैं? ऐसा है तो आप फिर अपने को अनाथी क्यों कह रहे हैं? मुनि बोले कि सुनो राजन् ! मेरे सिर में बहुत जोर का दर्द हुआ, जब मैं राज्य कर रहा था। अत: बहुत से डाक्टर आए, मित्रजन आए, बहुत से लोग सेवा करने आए, बहुत से लोग सुंदर वाणी बोलकर सेवा कर रहे थे; किंतु मेरे दर्द को कोई तिलभर भी न बांट सका। उस समय मेरे चित्त में आया कि मैं अनाथ हूं। उसी समय मेरे वैराग्य जगा और घर छोड़कर यहां चला आया और अपनी साधु-साधना कर रहा हूं। तब राजा मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि महाराज ! मैं तो आपके चरणों की धूल हूं।
पर से अनाथपना- लोग अपने को स्त्री से, पुत्र से, घर से, इज्जत से, पोजीशन से सशरण समझते हैं। उन्हें शरण मिला क्या? लोग दूसरों की सेवा कर-करके, दूसरे का दिल रखकर, दूसरों को दु:ख न हो, इन्हें बहुत सुख रहे- ऐसा विकल्प बनाकर और अपना जीवन व्यर्थ खोकर समय यों ही निकालकर अपनी बरबादी कर रहे हैं। शरण है कौन? ये साधुजन जो वन में अकेले विराजे हैं, जो अपना उपयोग केवल अपने आपके अंत:प्रकाशमान् इस शुद्ध चित्स्वभाव में लगाए हैं और बहुत उत्कृष्ट सहज परम आनंद भोग रहे हैं, परमार्थ आनंद से तृप्त भी हैं और अधा भी नहीं रहे हैं, निरंतर उसी ही आनंद को भोगते चले जा रहे हैं- ऐसे साधुजन स्वयं सशरण हैं। ऐसी वृत्ति उनकी तब ही बन सकी, जब उन्होंने आत्मा के शुद्ध तत्त्व को जाना और शुभ-अशुभ भावों में वे अटके नहीं। जिनके लिए यह काम अत्यंत सुगम हो गया है, निरंतर अपने आपमें स्थित रहकर अपने ज्ञानप्रकाश में ही प्रकाश पाते रहे, ऐसा जिनका केंद्रित उपयोग हो गया है, वे साधुजन भी खुद के लिए शरण हैं और ऐसे साधुसंतों की सेवा-संगति में, भक्ति में जो जन रहा करते हैं, वे भी कृतार्थ हैं। ऐसी प्रत्याख्यानमयी मुद्रा को धारण करने वाले साधुजन जयवंत हों। ऐसी साधुता तभी प्रकट हो सकती है, जब मन, वचन, काय संबंधी सभी इच्छावों का परिहार कर दें, इंद्रिय-विषय संबंधी सभी इच्छावों का परित्याग कर दें, जो जगत् में बाह्यपदार्थों से अपने लिए कुछ नहीं चाहते।
लोकेषणा की विपदा- भैया ! मायामयी कुछ मलिन जीवों ने, मनुष्यों ने कुछ अच्छा कह दिया, कुछ प्रशंसा कर दी तो प्रथम तो उन्होंने हमारी प्रशंसा नहीं की। यह निर्णय रखो कि उनके अंदर कषाय है, स्वार्थ है, जिनकी उन्हें पूर्ति करनी है। सो हमारे निमित्त से उनकी कषाय की गिजा मिली है, अत: वे खुशी में ऐसा कह रहे हैं, वे हमारी प्रशंसा नहीं कर रहे हैं। व्यवहार में मान लो कि वे प्रशंसा भी कर रहे हैं तो उससे पूरा क्या पड़ेगा? कर्मों के प्रेरे भव-भव के भटकते हुए आज मनुष्यभव में आए तो यह कितने दिनों की जिंदगी है? यहां से जाना पड़ेगा। आगे की कैसी यात्रा होगी? जो मनुष्य अपने परिणामों को न संभाल सके, उनकी यात्रा खोटी होगी। जहां से निकलकर मनुष्य हुए हैं, उसी कुयोनियों में फिर जन्म–मरण होगा।
स्वाधीन साधना- भैया ! आत्मकल्याण के लिए प्रथम आवश्यक है कि हम समस्त इंद्रिय-विषय संबंधी इच्छावों का परिहार करें, नियंत्रण करें, इसके पश्चात् अपने आपमें सहज स्वयं दृष्ट हुए उस आनंद पिंड को ग्रहण करते रहें। जो सर्व प्रकार की वान्छावों का परित्याग करेगा, उसके ही निश्चय प्रत्याख्यान होता है यह ज्ञानी पुरुष उत्साहपूर्वक चूँकि सुगम हो गया है ना विभावों का परित्याग करना और स्वभाव का ग्रहण करना, उसने निकटपूर्व में बहुत अभ्यास किया है इस ज्ञान की उपासना का, ऐसे सुगम अभ्यस्त पुरुष को विभावों का त्यागना और स्वभाव का ग्रहण करना अत्यंत सुगम होता है। जैसे यात्रा करने वाले लोग अपने साथ खाने पीने का तैयार सामान बहुत सा ले जायें तो जब भी उन्हें भूख लगती है तो तुरंत अपना डिब्बा निकालते हैं और खा लेते हैं, उनको पेट का भरना अत्यंत सुगम रहता है। ऐसे ही ज्ञान का भोजन जो यात्री अपने साथ लिए जा रहा है उसको जब भी अशांति हुई सो तुरंत ही उस विभाव से विमुख होकर इस ज्ञानमय भोजन का भोग कर लेता है।
परमपुरूषार्थ का परमोत्साह- जिसे अशांति का त्यागना औरशांति का ग्रहण करना अत्यंत सुगम हो जाता है, ऐसा सुगम अभ्यस्त यह योगी दृढ़ संकल्प कर रहा है कि मैं समस्त शक्ति लगाकर इस प्रबलतर विशुद्ध ध्यान को करूँगा जिस ध्यान के प्रताप से यह शक्ति और प्रबल होती है। उस समस्त शक्ति के द्वारा सब प्रकार की वान्छावों का त्याग हो जाता हैं। जैसे जाड़े के दिनों में नहाने के प्रोग्राम से कुछ बालक तालाब के किनारे पहुंच तो गए पर तालाब के पास बनी हुई भींत पर बैठे हुए झुक रहे हैं, ठंड लग रही है, तालाब में कैसे प्रवेश किया जाय? कोई बालक एक कड़ा दिल करके उत्साह बनाकर तालाब में कूदता है तो भींत छोड़ने के बाद अब उसे भींत तो शरण रहती नहीं, वह तो तालाब में ही गिर गया। तालाब में गिरने के बाद उसे अब ठंड नहीं लगती। जब तक तालाब में न कूदा था तब तक ठंड का डर था, अब वह बहुत देर तक जितना चित्त चाहता है उस तालाब में स्नान कर रहा है, ऐसे ही कुछ पढ़ लिखकर अभ्यास करके साधना बनाकर कोई ज्ञानाभ्यासी इस ज्ञानानुभव के तालाब के निकट तो पहुंच गया है पर वहां झुक रहा है, वह जगह नहीं छोड़ी जा रही है जिस जगह यह बैठा हुआ है। कोई कड़ा दिल करके हिम्मत बनाकर, साहस करके केवल भावमय साहस बनाता है, अपने ग्रहण किए हुए बाह्यपदार्थविषयक वासना की भूमि को त्यागकर इस ज्ञानसागर में, तालाब में कूदा तो फिर उसे पूर्व की चीजें शरण तो नहीं रही। वह ज्ञान की ओर आया। वहां ज्ञान में ज्ञान पहुंचने पर सारी अशांति दूर हो जाती है और अद्भूत स्वाभाविक आनंद भी अनुभूत होने लगता है। अब इस आनंद से तृप्त होकर पहिले छोड़ी हुई भूमिका को भूल जाता है और अपने ज्ञान माफिक, बल माफिक उस ज्ञानसागर में अवगाहन करके समस्त संतापों को दूर कर लेता है।
ध्येयविवेक की प्रथमावश्यकता- अहो,कैसा मोह का नाच है कि यह जीव कुछ ही समय को विभावों का परित्याग नहीं कर सकता है। रातदिन भीतर में परिजन और संपदाविषयक वासना बनाये रहता है। कभी कुछ भाव भी जाय धर्म की ओर तो भी वह वासना भीतर छुपी हुई काम कर रही है। वह वासना थोड़ी ही देर बाद इस साधक पर आक्रमण कर देती है और भी थोड़ा बहुत धर्मध्यान का जो प्रोग्राम है उसको खत्म कर देती है। जिस जीव ने ध्येय ही संपदा का बनाया हो उस ध्येय वाले मनुष्य को समझा बुझाकर या किसी कारण स्वयं ही इच्छा करके वह कुछ धर्मध्यान की ओर आये तो भीतर जो ध्येय का विष अपने अंतर में लिए हुए हैं जब तक उसे नहीं त्याग सकते हैं तब तक इस ज्ञानभाव का स्वाद कैसे आ सकता है?
ध्येयविशुद्धि में ही शुद्ध स्वरस का अनुभव- फूलों पर रहने वाला कोई भँवरा सैर करता हुआ खेतों में पहुंचा तो वहां विष्टावों पर भी घूमने वाले भँवरे मिले। उनसे कहा कि तुम यहां दुर्गंधित पदार्थ खाया करते हो, हमारे साथ चलो वहां तुम्हें सुगंधित फूलों का मकरंद खाने को मिलेगा। बहुत समझाया बुझाया, बहुत देर बाद उसके अनुरोध से उनमें से एक मल का भँवरा चला तो सही, किंतु इस शंका में था कि कहीं वहां उपवास ही न करना पड़े, सो अपनी चोंच में मल का कोई टुकड़ा दबाकर चला। जब सुगंधित फूलों पर पहुंच गया, तो वह भँवरा पूछता है कि कहो भाई कुछ स्वाद तुम्हें आया? तो मल का भँवरा बोलता है कि मुझे तो कुछ भी स्वाद नहीं आया। फिर थोडी़ थोडी़ देर बाद कई बार पूछा, उत्तर वही का वही। फिर कहा कि तुम अपने मुँह में कुछ लिए तो नहीं हो? मल का भँवरा बोला- हम एक दिन का कलेवा लेकर आये हैं। अरे अपने मुँह से तू उसे निकाल दे और फिर देख कि तुझे स्वाद आता है कि नहीं? उसने अपने मुख से उस विष्टा के टुकड़े को निकाल दिया और फिर स्वाद लिया तो उसे अब फूलों के मकरंद में बड़ा स्वाद आया। तब उस भँवरे ने कहा- ओह इन सुगंधित फूलों के मकरंद का स्वाद तुम कब से ले रहे हो? यों ही समझिये कि इस मायामयी लोक में कोई अपने बड़प्पन की चाह बनाए हुए हो तो फिर उसे शुद्ध ज्ञान के आनंद का अनुभव कैसे हो सकता है? इसलिए अपना ध्येय विशुद्ध बनाने का सर्वाधिक प्रयत्न करना चाहिए। ऐसा यह शुद्ध ध्येय वाला पुरूष ही सर्वप्रकार के विभावों को छोड़ सकता है।