वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 11-12
From जैनकोष
केवलमिंदियरहियं असहायं तुं सहावणाणं ति।
सण्णाणिदरवियप्पे विहावणाणं हवै दुविहं।।11।।
सण्णाणं चउभेयं मदिसुद ओही तहेव मणपज्जं।
अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेददो चेव।।12।।
स्वभावज्ञान की इन्द्रियरहितता―ज्ञान के दो भेद बताये गये थे–एक स्वभावज्ञान और एक विभावज्ञान। उस ही आधार पर उन भेदों का विस्तार इन गाथाओं में किया गया है। जो केवल है, इन्द्रियरहित है, असहाय है वह तो होता है स्वभावज्ञान। उस स्वभावज्ञान में कार्यस्वभाव ज्ञान भी आ गया और कारणस्वभावज्ञान भी आ गया। कार्यस्वभाव ज्ञान केवल है, अकेला है। उसके साथ किसी भी प्रकार की न द्रव्यात्मक उपाधि है और न भावात्मक उपाधि है। उपाधियों से रहित वह ज्ञान का स्वरूप है। इस कारण वह केवलज्ञान केवल है। यह केवलज्ञान ज्ञानावरण के अत्यन्त क्षय से उत्पन्न होता है। वहाँ आवरण कोई नहीं रहता है, ऐसा निरावरणस्वरूप होने के कारण वह ज्ञान इन्द्रिय से रहित है अर्थात् क्रम और व्यवधान से रहित है।
इन्द्रियज्ञान का एक दोष―भैया ! इन्द्रियज्ञान होता है तो उससे दो आपत्तियाँ आती है। एक तो ज्ञान का क्रम बन जाता है और दूसरे उसमें व्यवधान आ जाया करता है तो ज्ञान बंद हो जाया करता है, दूसरे प्रकार होने लगता है। ये दो आपत्तियाँ इन्द्रियजज्ञान में हैं। इन्द्रियों से जो कुछ जाना जाता है वह सब एक साथ नहीं जाना जा सकता है। रस भी चखते जायें, सुगंध भी लेते जाएँ और राग भी सुनते जायें, स्पर्श भी करते जायें और देखते भी जायें ये पाँचों बातें एक साथ नहीं होती है। एक समय में एक बात होगी।
इन्द्रियज्ञान में सर्वत्र क्रमविषयता―यहाँ आप शंका कर सकते हैं कि हम तो पाँचों ही बातें एक साथ दिखा दें तो। हाँ दिखाओ भाई। अच्छा तो तुम बेसन की कड़ी-कड़ी तेल की पपड़ियाँ बनाओ पापड़ सरीखी पूरी पपड़ियां, आप मुँह में रखें, पूरी तो मुँह में न आयेगी किन्तु उसका कोई हिस्सा ही आये। तो उस समय देख लो कि कड़ी-कड़ी पपड़ियां हैं, सो मुँह में कड़ी लग रही हैं, स्पर्श में आ ही रही है, खा रहे हैं सो स्वाद भी आ रहा है और खूब अच्छी बास देने वाले तेल की बनी है, सो खूब खुशबूआ रही है, पपड़ियों को देख भी रहे हैं, उसके खाने में कानों को आवाज भी सुनाई पड़ रही है। देखो पाँचों इन्द्रियों ने एक साथ कामकर लिया कि नहीं ? समाधान इसका यह है कि सिद्धान्त से यह मत है कि पाँचों काम एक समय में नहीं हो रहे हैं। जैसे बिजली का पंखा जब हाई स्पीड से चलता है तो क्या किसी को यह भी ज्ञात होता है कि ये पंखुड़ियां बेथा-बेथा दूर पर हैं और ये क्रम से चक्कर काट रही हैं। शीघ्र चलने के कारण उनका क्रम नहीं मालूम होता है। तो बिजली के पंखों से भी तेज गति उपयोग की है। यह उपयोग पंचेन्द्रिय के विषयों में क्रम से चलता रहता है। पर इतनी द्रुतगति से उपयोग चलता है कि स्थूलरूप में यह लगता है कि एक साथ जाना। वस्तुत: वहाँ पर भी क्रम से जाना गया है।
इन्द्रिय ज्ञानों की क्रमभाविता का एक अन्य दृष्टान्त―अथवा दस, बीस, पचास पान लो। एक के ऊपर एक पान धरा हुआ है और बड़े जोर से उस पान की गड्डी पर एक पैना तेज सूजा मारा तो वे पचासों पान एक साथ छिदे या क्रम से छिदे ? स्थूलरूप में तो यह मालूम पड़ेगा कि वाह एक बार में ही तो सभी पान छिद गए, पर वे सभी पान क्रम-क्रम से छिदे। तो जो द्रुतगति से चलता है उसका क्रम चाहे मोटे रूप में विदित न हो सके, पर वहाँ क्रम होता है।
कार्यस्वभावज्ञान में क्रमरहितता व व्यवधानरहितता―केवलज्ञान में ज्ञान का कोई क्रम नहीं रहता। जो कुछ जाना जाता है तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थ वे सब एक साथ स्पष्ट जाने जाते हैं। चूँकि वहाँ पर इन्द्रियाँ नहीं रहीं, इसलिए सब एक साथ स्पष्ट ज्ञात होता है। कोई आवरण ही नहीं रहा। तो स्वभावज्ञान कार्यस्वभाव ज्ञान क्रम के दोष से रहित हैं। साथ ही उस स्वभाव ज्ञान में व्यवधान की कभी आशंका नहीं। हम और आपके सामने कोई चीज आड़े आ जाय तो आगे का ज्ञान नहीं हो पाता। जब व्यवधान नहीं होता तब तो ज्ञान होगा और व्यवधान आ गया तो ज्ञान न हो सकेगा। पर केवलज्ञान में व्यवधान की कभी शंका ही नहीं। किसी वस्तु का व्यवधान होता ही नहीं क्योंकि निरावरण ज्ञान है, वह ज्ञान अपने आपमें रहता हुआ पूर्ण विकास में पड़ा है, सो अपनी कला से समस्त पदार्थों को बिना किसी शंका के स्पष्ट जानता है। तो यह स्वभाव कार्य ज्ञान इन्द्रियरहित है।
स्वभावज्ञान की असहायता―यह केवलज्ञान असहाय है। असहाय होना अच्छी बात है या बुरी बात है ? लोग तो यों मानेंगे कि असहाय होना बुरी बात है। वह बेचारा असहाय हो गया। यहाँ असहाय का अर्थ है कि जहाँ किसी की सहायता की आवश्यकता ही नहीं है। स्वयं समर्थ है और यह अकेला ही अपनी समस्त क्रियाएँ करने में परिपूर्ण समर्थ है। ऐसा असहाय यह केवलज्ञान है। यह प्रत्येक वस्तु में जुदा-जुदा नहीं व्यापता है, किन्तु एक साथ समस्त वस्तुओं में व्यापता है अथवा वस्तु का या अन्य स्वभाव का सहारा लेकर वस्तु-वस्तु में अपना लक्ष्य ले जाकर यह स्वभाव-कार्य-ज्ञान नहीं जानता है, किन्तु यह अपने आपके स्वरूप में ठहरता हुआ अपने स्वभाव से जो कुछ भी सत् है उस सबको जानता है। हमारा ज्ञान एक-एक वस्तु में डोलता रहता है, इसलिए अनेक सहायों की आवश्यकता रहती है। पर केवलज्ञान सहायता की अपेक्षा से रहित है।
सहायता की निन्दा गर्भता―भैया ! किसी के बहुत सहायक हों तो यह उसकी प्रशंसा है या निन्दा ? परमार्थ से वह निन्दा है अर्थात् वह स्वयं समर्थ नहीं है, स्वयं में इतनी प्रभुता नहीं है इसलिए इसके दसों सहायक हैं और तभी काम चल पाता है। यह तो लोक की बात है। यों तो असहाय सहायों से भी लोक में बुरे माने जाते हैं और उन्हें कहते हैं बेचारे। जिनका चारा नहीं है, गुजारा नहीं है, सहारा नहीं है उन्हें कहते हैं बेचारे और कभी-कभी तो दया करके साधु संतों के प्रति भी लोग कह बैठते हैं कि बेचारे बड़े सीधे हैं। तो बेचारे माने असहाय, जिनका कोई चारा नहीं। तो लौकिक दृष्टि में असहाय बुरा माना जाता है और ससहाय ऊँचा माना जाता है, पर वस्तुस्वरूप की ओर से देखा जाय तो ससहाय हल्का है और असहाय सर्वोच्च है। यह केवलज्ञान असहाय ज्ञान है। इस तरह कार्यस्वभाव ज्ञान केवल है, इन्द्रियरहित है और असहाय है।
कारणस्वभावज्ञान व कार्यस्वभावज्ञान में विशेषणों की समानता―स्वभावज्ञान के दो भेद किए गये थे–एक कार्यस्वभावज्ञान और एक कारणस्वभाव ज्ञान। कार्यस्वभाव ज्ञान तो केवल ज्ञान का नाम है और कारणस्वभाव ज्ञान इस आत्मा के उस ज्ञान प्रकाश का नाम है, जो अनादि अनन्त अहेतुक अंत:प्रकाशमान् है। उस कारणस्वभाव ज्ञान में क्या विशेषता है, जिन विशेषणों से हम उसका परिचय पायें ? ऐसा प्रश्न होने पर खास उत्तर है कि जो विशेषण कार्य में लगते हों, स्वभावज्ञान में लगते हों वे ही विशेषण कारणस्वभाव ज्ञान में लगते हैं।
कारणस्वभाव व कार्यस्वभाव में समानता का दृष्टान्त―कोई पूछे कि निर्मलजल कैसा होता है जिसके अन्दर कीच न हो, रंग न हो, मैल न हो, चम्बल नदी जैसा निर्मल पानी हो–उसे कोई पूछे कि यह निर्मल जल कैसा होता है ? तो वह सब बताएगा कि स्वच्छ है, कीचड़ रहित है, किसी रंग से रंगीला नहीं है, निर्दोष है। जो भी शब्द वह कहे–बतायेगा निर्मल जल का गुण और फिर पूछे कि जल का स्वभाव कैसा होता है, चाहे गंदे कीचड़ भरे मलिन जल को कटोरी में भरकर पूछे कि बताओ इस जल का स्वभाव कैसा है ? तो उतनी ही बातें कहेगा जितनी कि निर्मल जल को बताने में कही है। निर्मल जल गंदगी से रहित है। तो क्या जलस्वभाव गंदगी से सहित है? जलस्वभाव भी गंदगी से रहित है। निर्मल जल स्वच्छ है तो जल का स्वभाव भी स्वच्छ है। जितनी बातें निर्मल जल का स्वरूप बताने में कही गयीं उतनी ही बातें जल का स्वभाव बताने में कही जायेंगी।
कार्यस्वभावज्ञान व कारणस्वभावज्ञान में समानता का निरूपण―यहाँ कार्यस्वभाव ज्ञान केवल है तो यह ज्ञायकस्वभाव अर्थात् कारणस्वभावज्ञान भी केवल है। क्या यह दुकेला है ? इसके साथ कोई अन्य द्रव्यात्मक या भावात्मक उपाधि लगी है क्या ? किसमें ? ज्ञानस्वभाव में ? ज्ञानव्यक्ति की बात नहीं कही जा रही है किन्तु सहजज्ञानस्वभाव की बात कही जा रही है। यह कारणस्वभाव ज्ञान भी केवल है। कार्यस्वभाव ज्ञान इन्द्रिय रहित है तो कारण स्वभावज्ञान भी इन्द्रियरहित है। क्या सहज ज्ञानस्वभाव में इन्द्रियाँ हैं ? नहीं। वहाँ तो केवल ज्ञान ज्योतिमात्र है। तो यहां भी इन्द्रियरहित है। कार्यस्वभाव ज्ञान जैसा निरावरण स्वरूप है उस ही प्रकार सहजज्ञानस्वभाव भी निरावरणस्वरूप है। फिर पूछेंगे कि संसारी जीवों के ये ज्ञान आविर्भूत क्यों नहीं हैं ? तो प्रकट यह पर्यायों का कार्य है। और पर्याय कार्य के लिए इस संसारी जीव में आवरण लगा हुआ है। पर ज्ञानस्वभाव में आवरण कुछ नहीं है।
स्वभावज्ञान में सामर्थ्य―स्वभाव तो शक्ति मात्र है। प्रकट हो तो क्या, न प्रकट हो तो क्या, शक्ति तो शक्ति ही है। जैसे कार्यस्वभावज्ञान असहाय था अर्थात् स्वतंत्र था, प्रभु था, समर्थ था। इसी प्रकार कारणस्वभावज्ञान भी स्वतंत्र है, समर्थ है, शक्तिरूप है, वह किन्हीं परवस्तुओं में नहीं व्यापता है, वह तो अपने स्वरूप मात्र है। यों कारणस्वभावज्ञान भी कार्यस्वभावज्ञान की तरह एक साथ अपनी जाननवृत्ति करने में समर्थ है। कार्यस्वभावज्ञान तो तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थों को एक साथ जानने में समर्थ है और यह ऐसे समस्त पदार्थों को एक साथ जानने में सदा सामर्थ्यरूप है। निज परमात्मतत्त्व में स्थित सहज गुणोंरूप जो निज कारणसमयसार है उस स्वरूप से उस स्वभाव को स्वभावित करने में समर्थ है। इसका जानन प्रकट आकाररूप नहीं है। प्रकट आकाररूप जानन तो कार्यरूप जानन बन जायेगा। यही है स्वभावकारणज्ञान। इस तरह स्वभाव ज्ञान का स्वरूप कहा गया है।
आत्मचर्चा―वह ज्ञान कार्यरूप भी है और कारणज्ञानरूप भी है। यह चर्चा चल रही है अपने आपके स्वरूप की। यह दूसरे की चर्चा नहीं है। जो मन को बाहर दौड़ाये या इन्द्रियों को बाहर चलाये उससे समझ में आ जाय ऐसी बात नहीं है। ध्यान देने से ये सब बातें धीरे-धीरे समझ में आ ही जाती है और ध्यान न दिया जाय, रोज ही ध्यन न दिया जाय तो कभी समझ में नहीं आ सकता है। फिर तो एक आदत का शात्र सुनना रह गया।
लापरवाह श्रोताओं की योग्यता―किसी ब्रह्मचारी जी ने कहीं पूछा किसी ऐसे श्रोतागण से जो सुनने तो खूब आता हो, किन्तु ज्ञान न हो, अत्यन्त अपरिचित पुरुष की बात कह रहे हैं। क्यों भैया ! जानते हो ना इन्द्रियाँ 5 होती हैं। हां हां जानते हैं। अच्छा बताओ पंचेन्द्रिय जीव कौन है ? तो एक श्रोता ने कहा कि पंचेन्द्रिय जीव तो हाथी है जिसके चार-चार पैर हैं और एक सूंढ़ है। बहुत ठीक और चारइन्द्रिय कौन है चार इन्द्रिय, अच्छा जरा सोच लें फिर बताएंगे। अच्छा सोच लो। सोच लिया चार इन्द्रिय तो घोड़ा है क्योंकि चार पैर हैं और सूंढ़ नदारत है। ठीक है और तीन इन्द्रिय क्या है ? श्रोता कहते हैं कि तीन इन्द्रिय है तिपाई। जिसमें तीन पाये लगते हैं, लालटेन धनरे के काम आती है। तीन पाये का स्टूल अथवा खलिहान में जिस पर चढ़कर भुस भरकर बिखेरते हैं तो भुस अलग हो जाता है और अनाज अलग हो जाता है। ठीक है, अच्छा बताओ दो इन्द्रिय जीव कौन है ? श्रोता बोला दो इन्द्रिय तो हम हैं, कैसे कि हम हैं और हमारी घरवाली है। दो जनें हैं हम। ठीक है और एकेन्द्रिय जीव कौन है ? तो श्रोता बोले कि महाराज तुम हो। तुम अकेले ही तो हो। यह तो बात एक आप लोगों की नींद हटाने के लिए कही है। इतने अपरिचित आप होंगे ऐसी आशा नहीं है, पर कठिन से कठिन बात हो और जो किसी न किसी रूप में रोज-रोज कही जा रही हो, ध्यान से सुनने पर कभी तो समझ में आयेगी ही ना।
ज्ञानभेदविस्तार―यहाँ अभी यह बताया है कि ज्ञान दो प्रकार के हैं। वे हैं स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। ऐसे दो प्रकार के ज्ञान हैं। उनमें से स्वभावज्ञान दो प्रकार का है। एक कार्यरूप स्वभावज्ञान, जो भगवान् के हुआ करता है और एक कारणरूप स्वभावज्ञान जो सभी जीवों के अपने आपके स्वरूप में सनातन प्रकाशमान् रहता है। प्रभु में भी है, संसारी जीवों में भी है। ऐसे उस शुद्ध ज्ञान की चर्चा करके अब विभावज्ञान की बात कही जा रही है। उन विभावज्ञानों में से कुछ ज्ञान तो सम्यक् विभाव है और कुछ ज्ञान मिथ्याविभाव है। सम्यग्ज्ञानरूप विभावज्ञान और मिथ्याज्ञानरूप विभावज्ञान, या यों कह लो, शुद्धाशुद्ध विभावज्ञान और केवल अशुद्ध विभावज्ञान।
केवल शब्द का विशेषण विशेष्य शब्द के साथ भावदर्शिता―‘‘केवल अशुद्ध’’ कहने से कहीं यह खुशी नहीं मनाना है, केवल शब्द लग गया जो केवल भगवान् के भी लगता है वह केवल शब्द लगा दिया। केवल अशुद्ध विभावज्ञान कुमति, कुश्रुत और कुअवधि हैं। जैसे दूसरे गुणस्थान का नाम क्या है ? सासादनसम्यक्त्व तो सुनकर लोग खुश होते कि चलो यहाँ सम्यक्त्व तो है कुछ। सासादन ही सही, पर सम्यक्त्व तो वहाँ है ही नहीं। सम्यक्त्व नष्ट होने पर ही सासादनसम्यक्त्व होता है। फिर सासादन के साथ सम्यक्त्व शब्द क्यों लगाया ? निर्धन शब्द के साथ धन शब्द जुड़ा है तो उससे कोई धन की बात आयी क्या ? उसके साथ निर तो लगा है। निर्धन का अर्थ धनरहित है। तो सासादन का अर्थ–विनाश सहित। आसादन मायने विनाश नष्ट हो गया है सम्यक्त्व जिसका उसे कहते हैं सासादन सम्यक्त्व। तो इस प्रकार केवल विभावज्ञान की बात है। अर्थात् जहाँ सिर्फ अशुद्धता ही अशुद्धता है शुद्धता का नाम भी नहीं है, उसे कहते हैं केवल अशुद्ध विभावज्ञान।
विभावज्ञान के प्रकार―विभाव ज्ञान 7 होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान, कुअवधिज्ञान। इनमें शुरू के चार शुद्धाशुद्ध विभावज्ञान हैं अथवा सम्यग्ज्ञान रूप विभावज्ञान हैं और अंत के जो 3 मिथ्या विभावज्ञान हैं वे केवल अशुद्ध विभावज्ञान हैं। अब इनका वर्णन क्रम से आयेगा।
विभावज्ञान―ज्ञान के भेद में से विभावज्ञानों का वर्णन चल रहा है। विभावज्ञान, सम्यक्विभाव और मिथ्याविभाव इस तरह दो रूपों में है। सम्यक्विभाव ज्ञान चार हैं–मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान। उनमें से जो मतिज्ञान है और श्रुतज्ञान है ये दो ज्ञान प्रत्येक संसारी जीव के होते हैं। किसी के सम्यक्रूप हैं, किसी के मिथ्यारूप है। जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्येक संसारी जीव के रहा करता है। उनमें से मतिज्ञान अनेक भेदरूप है। मतिज्ञान इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होता है। सो यह लब्धिरूप और उपयोगरूप दो प्रकार से होता है। लब्धिरूप मतिज्ञान का अर्थ यह है कि उसका क्षयोपशम हुआ, योग्यता हुई और उपयोगरूप मतिज्ञान का अर्थ यह है कि उसके जानन में लग गए। जैसे किसी मनुष्य को 5 भाषाएँ आती हैं, हिन्दी भाषा का वह पत्र पढ़ रहा है तो हिन्दी भाषा तो उपयोगरूप हो रही है और चार भाषाएँ उसकी लब्धिरूप हैं।
मतिज्ञान के भेद―अब मतिज्ञान के भेद देखो, मूल में इसके चार भेद हैं–अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। विषय अर्थात् ज्ञेयपदार्थ और विषयी अर्थात् इन्द्रिय–इन दोनों का योग्य सम्यग्ज्ञान होने पर, ऐसे वातावरण में आने पर कि जहाँ विषयों का ग्रहण हो सकता है, उस समय जो सर्वप्रथम ज्ञान होता है उसे अवग्रह ज्ञान कहते हैं। और अवग्रह से जानते हुए ही पदार्थ का कुछ विशेषरूप से जानन होना किन्तु निश्चय नहीं है, है जानन सच्चा उस ही पदार्थरूप जो संदेह की कोटि से ऊपर उठ गया है ऐसे ज्ञान को ईहा ज्ञान कहते हैं। और उसका निश्चय हो जाये सो अवायज्ञान है, फिर उस ज्ञान को भुला न देना धारणा ज्ञान है।
दृष्टान्तपूर्वक मतिज्ञान के भेदों का विवरण―अमूमन ये चार ज्ञान जीवों के क्रम से प्राय: होते हैं। पहिले किसी प्रकार से जाना तो सामान्यरूप से जान पाया, थोड़ा रूपसा, थोड़ा आकार सा कुछ समझ में आया। उसके बाद में कुछ विशेष बात समझ में आती है। फिर उसका निश्चय होता है। इतनी पक्की धारणारूप ज्ञान बने कि उसे फिर कभी भूलें नहीं। जैसे कहीं घूमने चले जा रहे हो, सुबह का टाइम हो, कुछ अंधेरा और कुछ उजेला हो। बहुत दूर पर कोई सफेद झंडी फहरा रही हो वह देखने में आयी सो पहिले यह ज्ञान हुआ कि यह सफेद इस जगह इस प्रकरण की कोई चीज है। थोड़ा और चले तो ज्ञान हुआ कि अरे यह पताका है। फिर थोड़ी देर बाद निर्णय हुआ कि यह पाताका ही है। फिर उसे नहीं भूलता। इस प्रकार चार कोटियों में ज्ञान हुआ।
मतिज्ञान के भेदों की उत्पत्ति का क्रम―भैया ! किसी के कभी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इस क्रम से होता है अवग्रह, अवाय, धारणा इस तरह, किसी के अवग्रह और धारणा इस तरह हो जाते हैं। जो चीज अपने परिचय में नहीं आयी उसके बारे में तो अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारें क्रम से होते हैं, किन्तु जिस चीज को हम रोज-रोज देखते हैं, हमारे परिचय में आती है ऐसी चीज उस अवग्रह के होते ही निश्चित हो जाती है और धारणा होती है, वहाँ ईहा नहीं आती, ईहा ज्ञान कुछ अपरिचित सी चीज के ज्ञान के समय होती है। जैसे रोज मंदिर आते हैं और मंदिर में जितनी चीजें हैं, वेदी है, प्रतिमा है उनको आप रोज देखते हैं वहाँ ईहा की क्या जरूरत है ? देखा और निश्चय किया यह अमुक है तो कहीं अवग्रह, अवाय और धारणा इस तरह तीन ज्ञान होते हैं और किसी चीज में अत्यन्त निर्णीत है, उस चीज के ज्ञान के प्रति सम्मुख हुए कि तुरन्त धारणा हो जाती है। तो इस मतिज्ञान के ये चार भेद हैं–अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा।
मतिज्ञान के प्रभेद―ये चारों प्रकार के ज्ञान 12 प्रकार के पदार्थों के होते हैं। बहुत चीजों का जानना एक चीज का जानना, बहुत प्रकार की चीजों का जानना, एक प्रकार की चीजों का जानना, शीघ्र जानना, देर से जानना, न निकले हुए को जानना, निकले हुए को जानना, न कहे हुए को जानना, कहे हुए का जानना, ध्रुव को जानना और अध्रुव को जानना। यह सब अपने व्यवहार में आने वाले ज्ञान की कहानी है कि हम किस प्रकार जानते हैं ? कैसे जानते हैं ? ऐसे जानन की यह कहानी है।
मतिज्ञान के प्रभेदों का विवरण―कहीं हम बहुत-सी चीजों को एक निगाह से परख लेते हैं। गेहुओं का ढेर रखा है, उनको देखकर जो जानन हुआ वह बहुत प्रकार का ज्ञान कहलाता है। होता है ना आप हम सबका ज्ञान कि बहुत-सी चीजें हैं और हम एकदम जान गए। और एक का भी ज्ञान होता है। एक ही चीज है, हम उसे जान गए। बहुत प्रकार की चीजें हैं और हम जान जाते हैं। चना, जौं, गेहूँ का कितना ही मिला हुआ ढेर हो, जिस आप बिर्रा कहते हैं तो वह अनेक प्रकार का है, उसे जान गए, यह हुआ बहुविध ज्ञान और एक प्रकार का ज्ञान। जैसे एक से गेहुंओं की राशि लगी है, तो जान गए हम बहुत को किन्तु वे सब एक प्रकार के हैं। तो यह भी एक ज्ञान होता है। शीघ्र जाती हुई चीज को हम जान लेते हैं, धीरे जाती हुई चीज को हम जान लेते हैं और कभी किसी बात को हम शीघ्र जान लेते हैं, कभी किसी के जानने में विलम्ब लगता है, तो इस तरह भी इस प्रकार से ज्ञान होता है। देखा होगा कभी एकदम प्रकट हुई चीज को जानते हैं, कोई प्रकट नहीं है। कुछ एक देश ही प्रकट हैं उसे जान लेते हैं उससे सबको जान लेते हैं। जैसे पानी में हाथी डूबा है और उसकी सिर्फ सूढ़ ऊपर है, हाथी ही एक ऐसा जानवर है कि सारा शरीर पानी में डूब जाय फिर सुंढ़ की नोक जरा-सी बाहर रहे तो उसका कोई नुकसान नहीं है। सांस लेने की जो नाक है वह पानी से ऊपर रहे। केवल उसकी सूंढ़ को देखकर यह जान जायें कि यह हाथी है ऐसा भी तो ज्ञान होता है। और कभी एकदम प्रकट पूरा निकले हुए का ज्ञान होता है उसे जानन वह भी ज्ञान होता है। कभी बात नहीं कही गयी, कहने को था ही कि बड़ी भारी बात जान गए, ऐसा भी ज्ञान होता है। कभी पूरा कहा जाय तब जाने, ऐसा भी ज्ञान होता है। इसे कहते हैं अनुक्त और उक्त ज्ञान।
अनुक्त और उक्त अर्थ के ज्ञान का विशेष रहस्य―अनुक्त और उक्त का दूसरा अर्थ यह भी है कि जिस इन्द्रिय द्वारा जो बात जानी जाती है उस इन्द्रिय द्वारा उतनी बात को जानकर फिर दूसरी बात भी जान जाय इसे कहते हैं अनुक्त ज्ञान और जिस इन्द्रिय से जो बात जानी जाती है केवल वही जानी जाय इसे कहते हैं उक्त ज्ञान। जैसे आँख से निंबू देखा। आँख से देखते ही निम्बू की खटास का भी ज्ञान हो गया। अभी खाया नहीं पर हो गया ज्ञान। ऐसा भी ज्ञान हुआ करता है। कोई आँख मींच ले और आँख मींचने में ही कहे कि लो यह चीज खाओ। वह मुख से खा रहा है, आँखों से नहीं देख रहा है। फिर भी उसके स्वाद के कारण यह ज्ञान हो गया कि यह खीर है, चावल की है, सफेद है, इसमें बूरा पड़ा है, दूध पड़ा है अथवा अंधेरे में आम चूसते हुए में आम का पूरा ज्ञान रहता है। यह सब अनुक्त ज्ञान कहलाता है। और जितनी बात सामने प्रकट हुई है उतना ही जानें यह उक्त ज्ञान है।
प्रथम प्रभेदों का योग―यह सब हम और आप जिस रीति से जान रहे हैं उसकी यब सब कहानी है। हम किस-किस ढंग से जाना करते हैं ? हम जानते हैं और जानने के ढंगों का ही पता नहीं रहता। आचार्यदेव ने हमारे और आपके जानने के ढंगों को बताया है। एक ध्रुव पदार्थ का ज्ञान होता है और एक अध्रुव पदार्थ का ज्ञान होता है। जो स्थिर है उसका भी ज्ञान हो रहा है, जो स्थिर नहीं है बिजली चमकी, तुरन्त खत्म हो गई उसका भी ज्ञान होता है। तो इस तरह 12 प्रकार के पदार्थों का हमें अवग्रह होता है, ईहा होता है, अवाय और धारणा ज्ञान होता है। इस तरह मतिज्ञान के भेद हुए 12×4=48।
मतिज्ञान के प्रभेदों के भेदों की प्रस्तावना―यह हमारे और आपके उस ज्ञान की बात कही जा रही है जो इन्द्रियों के द्वारा और मन के द्वारा सीधा जो कुछ जानता है। इसको 48 भेदों में से जो अवग्रह के 12 भाग हैं सो अवग्रह कई तो अधबीच में टूटे से हो जाते हैं और कई अवग्रह पूरे होते हैं। जैसे रास्ते में चले जा रहे हैं, कोई चिड़िया की आवाज आयी या किसी अन्य चीज की आवाज है तो थोड़ा ज्ञान में आया, पर उसके बारे में और कुछ ज्यादा ऐसा न जान सके कि जिसके ऊपर हम कुछ निश्चय भी कर सकें। ऐसे टूटे अवग्रह को व्यंजनाव्यग्रह कहते हैं और जो इतना सा समर्थ अवग्रह होता है कि जिसके बाद हम पदार्थ के निर्णय करने के पात्र बनते हैं उसे अर्थाविग्रह कहते हैं। ऐसा होता है ना हम आपका ज्ञान।
अब 5 श्रेणियों में मतिज्ञान को रखो। व्यञ्जनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–ये पाँचों ज्ञान 12 प्रकार के पदार्थों में होते हैं।
मतिज्ञान की उत्पत्ति के साधन―यह ज्ञान इन्द्रियों द्वारा और मन द्वारा होता है। 5 तो हैं ये इन्द्रियाँ–स्पर्शन जिससे ठंडा गरम आदिक स्पर्श किया जाता है। रसना–जिसके द्वारा खट्टा मीठा आदिक रस जाने जाते हैं। घ्राण–जिससे गंध जाना जाता है। नेत्र–जिससे रूप जाना जाता है। कर्ण–जिससे शब्द जाना जाता है और मन जो अनेक विकल्प किया करता है। यह मतिज्ञान इन 6 साधनों से उत्पन्न होता है–5 इन्द्रियाँ और मन।
व्यञ्जनावग्रहादिक भेद―इनमें से व्यञ्जनावग्रह तो 4 साधनों से होता है। नेत्र से और मन से व्यञ्जनावग्रह उत्पन्न नहीं होता है। इसका कारण यह है व्यञ्जना है अधटूटा अवग्रह। चक्षु से हम जो जानेंगे वह पूरा जान जायेंगे, उसमें अधूरी बात नहीं रहती। इसी तरह मन से जो जाना वह भी अधूरा नहीं रहता और शेष जो स्पर्शन, रसना, घ्राण, कर्ण इन चार इन्द्रियों से जो जानेगा वह अस्पष्ट भी जान सकता है और स्पष्ट भी जान सकता है पर आँखों से जो जाना जायेगा वह तो तुरन्त ही स्पष्ट हो जायेगा और मन से जो जाना जायेगा वह भी स्पष्ट हो जाता है। तभी तो लोग आँखों से देखी हुई चीज का ज्यादा भरोसा रखते हैं। कान से सुनी हुई चीज का पक्का भरोसा नहीं रखते हैं। कारण यह है कि आँखों से जो ज्ञान होता है वह स्पष्ट ज्ञान होता है। तो व्यञ्जनावग्रह जो 12 प्रकार का है वह चार साधनों का हुआ, इसलिए व्यञ्जना के 12×4=48 भेद हो गए। अर्थावग्रह 6 ही साधनों से हुआ करते हैं। 5 इन्द्रियाँ और 1 मन से अर्थवग्रह के 72 भेद हुए, र्इहा के 72, अवाय के 72 और धारणा के 72। इस तरह सब मिलाकर मतिज्ञान के 336 भेद हो जाते हैं।
ज्ञानों के ज्ञान का प्रयोजन―इन सब ज्ञानों के बताने का प्रयोजन यह है कि हम ज्ञान को ढंग से पहिचानें और यह परिणमन किस स्वभाव से, किस गुण से उत्पन्न होता है उस शक्ति पर दृष्टिपात करें और उस शक्तिमात्र अपने आपका विश्वास करें जिससे यह सुविदित हो जाय कि मेरे आत्मा का अन्य समस्त परपदार्थों से रंच सम्बन्ध नहीं है। मैं हूँ और अपने कारण अपने आपमें सदा परिणमता रहता हूँ। इस श्रद्धा का कारण बने ऐसे ज्ञान की यह चर्चा की जा रही है। जो बात जिस विधि से ज्ञात हो सकती है उसको उस विधि से जानना सो सम्यग्ज्ञान का सम्यक् उपाय है।
आप्रायोजनिक विधि से विडम्बना―एक अंधा आदमी था। उससे एक बालक ने कहा कि बब्बा आज तुम खीर खाओगे ? बब्बा तो जन्म के अंध थे उन्हें क्या पता था कि खीर कैसी होती है ? सो बब्बा बोले कि बेटा खीर कैसी होती है ? तो लड़का बोला की बब्बा खीर सफेद होती है सफेद। अब बब्बा ने सफेद कभी देखा हो तो जानें। उन्हें क्या पता कि सफेद कैसा होता है ? सो पूछा कि सफेद कैसा ? लड़का बोला बगले जैसा सफेद होती है। बगुला कैसा होता है ? लड़के ने बब्बा के सामने बगुला जैसा टेढ़ा हाथ करके कहा कि देखो बगुला ऐसा होता है। बब्बा ने हाथ से टटोलकर देखा तो कहा कि अरे हम ऐसी टेढ़ी खीर नहीं खायेंगे यह तो हमारे पेट में गड़ेगी। एक कहावत भी बन गयी है कि यह तो टेढ़ी खीर है याने बात कुछ समझ में नहीं आती, बुद्धू आदमी है उसके लिए तो टेढ़ी खीर है। तो खीर के समझाने का यह कोई ढंग था क्या ? अरे खीर का रस उसे बताना चाहिए था, किन्तु धीरे-धीरे बढ़-बढ़कर आकार सामने धर दिया तो उसको खीर का ज्ञान कैसे हो सकता है ?
निर्मोहता के प्रयोजक ज्ञान की दृष्टि―इसी तरह निर्मोहता की तो बात सीखनी चाहते हैं और जैसे निर्मोहता आए उस प्रकार का हम ज्ञान करना नहीं चाहते। निर्मोहता से प्राप्त होने वाला चारित्र और चारित्र के फल के बजाय आकांक्षा की कोशिश करने पर निर्मोहता के उपाय को नहीं करना चाहते तो निर्मोहता कैसे प्राप्त हो सकती है ? स्वयं कैसे है, कितने हैं यह अपने आपकी झलक आए बिना निर्मोहता प्रकट हो ही नहीं सकती है। सो जिन ज्ञानों को हम करके हम आप व्यवहारों में फंसते हैं उन ज्ञानों की जड़ क्या है ? इस बात को बताने के लिए इस प्रकरण में यह ज्ञान का वर्णन चल रहा है।
द्वितीय सम्यक् विभाव ज्ञान―सम्यक् विभाव ज्ञानों में द्वितीय ज्ञान है श्रुतज्ञान। मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ में उससे सम्बन्धित अन्य बातों को समझना सो श्रुतज्ञान है। यह श्रुतज्ञान लब्धिरूप और उपयोगरूप होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान प्रत्येक संसारी जीव के है, किन्तु जिस समय मतिज्ञान का उपयोग है उस समय श्रुतज्ञान का विकल्प नहीं है और जब श्रुतज्ञान का विकल्प है तब मतिज्ञान का उपयोग नहीं है, किन्तु लब्धि सदा बनी रहती है। श्रुतज्ञान एकइन्द्रिय जीव के भी है, संज्ञी पंचेन्द्रिय के भी है और बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज के भी है। मोक्षमार्ग के प्रकरण में श्रुतज्ञान का वर्णन द्वादशांग रूप श्रुतज्ञान से होता है। यों खाने-पीने, खेलने-कूदने, रागद्वेष–इन प्रकरणों में जो श्रुतज्ञान चलता है उस श्रुतज्ञान से क्या हित है ?
मोक्षमार्ग का प्रयोजक श्रुतज्ञान―मोक्षमार्ग का प्रयोजनभूत हितरूप श्रुतज्ञान द्वादशांग रूप है और उस ही श्रुतज्ञान की मुख्यता करके तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ श्रुतज्ञान का लक्षण कहा गया है, बताया है, ‘‘श्रुतंमतिपूर्वंद्वयनेकद्वादशभेदम्।’’ श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। और वह दो भेदवाला है। अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट। अंगप्रविष्ट के 12 भेद हैं, जिन्हें द्वादशांग बोलते हैं और अंगबाह्य के अनेक भेद हैं। सबसे छोटा श्रुतज्ञान अक्षरश्रुतज्ञान है और अक्षर मात्र भी नहीं, किन्तु अक्षर के अनन्तवें भाग श्रुतज्ञान है। अक्षर के अनन्तवें भाग श्रुतज्ञान निगोद जीव के होता है। ऐसा समझलो मोटेरूप में कि एक अक्षर में जितनी समझ आती है उस समझ का भी अनन्तवें भाग समझ निगोदिया जीव में है। फिर बढ़ते-बढ़ते अक्षर-अक्षर समास, पद, पद समास–इस तरह अनेक भेद होते हैं। यों बढ़ते-बढ़ते फिर आचारांग सूत्र कृतांग आदिक 12 अंग हो जाते हैं।
वेद, श्रुति, स्मृति, पुराण―भैया ! प्रसिद्ध है लोक में कि 4 वेद होते हैं और 6 अंग होते हैं। 4 वेद हैं प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। जिनसे ज्ञान हो उन्हें वेद कहते हैं। उन ज्ञानों का नाम वेद है और 12 अंग हुआ करते हैं। एक और प्रसिद्धि है कि वेद से श्रुति निकली, श्रुति से स्मृति निकली और स्मृति से पुराण निकले। इस तरह वेद, श्रुति, स्मृति और पुराण चार भागों में ज्ञान का विस्तार है। इस प्रसंग में वेद नाम है सम्पूर्ण वेद का। परिपूर्ण ज्ञान आ जाय, तीन लोक, तीन काल के समस्त द्रव्य, गुण, पर्यायों को एक साथ जानता हो उस ज्ञान का नाम है वेद। सकल प्रत्यक्ष, केवलज्ञान और इस केवलज्ञानी के विशिष्ट परमात्मा के श्रुति प्रकट होती है। जो सुनने में आए उसे श्रुति बोलते हैं, दिव्यध्वनि बोलते हैं। वेद से श्रुति निकली है, केवलज्ञान से दिव्यध्वनि चली है। उस श्रुति को सुनकर बड़े-बड़े आचार्यों ने, गणधर देवों ने इनका स्मरण किया। स्मृति हुई। सो यह स्मृति द्वादशांगरूप है। फिर स्मृति के बाद जो उनका वक्तव्य हुआ या लिखित रूप में उनके ग्रन्थ आये वे समस्त ग्रन्थ पुराण हैं। पुराण पुरुषों के द्वारा जो रचित हुए वे पुराण हैं। इस तरह इन पुराणों का मूल त्रोत वेद हैं। इसी कारण ये समस्त पुराण प्रमाणभूत हैं। इन स्मृतियों का और पुराणों का सम्बन्ध श्रुतज्ञान से है। यह तो मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत श्रुतज्ञान की बात है, पर साधारणतया श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है।
श्रुतज्ञान की मतिपूर्वता―भैया ! यों समझिये कि जैसे आँख खोलकर देखा तो जो ज्ञान में आया तुरन्त, वह तो मतिज्ञान और उसके बारे में फिर अमुक चीज है, अमुक जगह की बनी है, ऐसी विशेषता वाली है, यह ज्ञान हुआ वह कहलाता है श्रुतज्ञान। जैसे मिठाई खाये तो खाते ही जो रस का बोध हुआ वह तो हुआ मतिज्ञान। फिर यह मीठा है, अमुक रस का है, इस तरह बना है, अनेक विकल्प उठे वह सब श्रुतज्ञान है। यह श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टि के तो सम्यकरूप होता है और मिथ्या दृष्टि के कुश्रुत होता है, मिथ्यारूप होता है। तो सम्यक् विभावज्ञानों में यह द्वितीय श्रुतज्ञान है।
तृतीय सम्यक् विभावज्ञान―तीसरा ज्ञान है सम्यक विभाव अवधिज्ञान। देशावधि, परमावधि व सर्वावधि के भेद से ज्ञान 3 प्रकार के होते हैं। जो थोड़ा जाने वह देशावधि है, जो बहुत विशाल जाने वह परमावधि है और जो सम्पूर्ण जान जाय जितना कि अवधिज्ञान का विषय है तो वह सर्वावधि ज्ञान है। देशावधि ज्ञान तो नारकियों के, देवों के, मनुष्यों के भी होता है और संज्ञी तिर्यंचों के भी होता है, किन्तु परमावधि और सर्वावधि ज्ञान मुनियों के ही होता है और वह भी मोक्षगामी मुनियों के ही होता है।
ज्ञानावरण का क्षयोपशम―भैया ! जैसे-जैसे इस जीव का उपयोग सहजस्वभाव में दृढ़ आश्रय कर जाता है वैसे-वैसे इस आश्रय में ऐसी विशुद्धि प्रकट होती है जिससे ज्ञानावरण का क्षयोपशम बढ़ता है और यह ज्ञान सब प्रकट हो जाता है। वर्तमान में भी देखते हैं कि लड़के तो सब एक ही किस्म के हैं पर विद्या किसी को विलम्ब में आती है, किसी को जल्दी आती है इसका कारण क्या है कि पूर्वभव का क्षयोपशम जिसके विशाल है उसके इस भव में थोड़े उपाय से शीघ्र आ जाती है। जिसका क्षयोपशम कम है, पूर्वभव में भी कोई विशुद्ध परिणाम नहीं किया था जिससे क्षयोपशम नहीं बढ़ सका, तो इस भव में भी देर से विद्या आती है।
मनुष्यत्व―कोई लोग प्रश्न करते हैं–क्यों भाई मनुष्य का होना तो अच्छी बात है, दुर्लभता से मनुष्यभव मिलता है। पुण्य का उदय हो तो मनुष्य बनता है। तो आज के समय में मनुष्यों की संख्या बहुत बढ़ रही है तो कोई पुण्य का ही जमाना बहुत बढ़ रहा होगा जिससे मनुष्यों की संख्या बहुत बढ़ गयी है। यदि यह कहना ठीक है कि पुण्य बढ़ रहा है तो सामने यह भी दिखता है कि बुद्धिहीन, मलिन, दरिद्र ऐसे लोग भी बहुत मौजूद हैं तो पुण्य कैसा है ? आज के समय में सब देश सुखपूर्वक नहीं रह पा रहे हैं। कल का कुछ भरोसा करके कोई नहीं सो पाते हैं। ऐसी स्थिति में पुण्य तो नहीं कहा जा सकता। और मनुष्य ऐसे बढ़ रहे हैं तो यह क्या बात है ? अब ज्यों ज्यों समय खराब आता जाता है वैसे ही सिद्धान्त के हिसाब से भी पंचम काल का समय ज्यों-ज्यों अधिक व्यतीत होता जाता है, त्यों-त्यों ये मनुष्य बढ़ रहे हैं तो एक कारण मालूम होता है कि समस्त विश्व में से जिन-जिन जीवों ने मनुष्य आयु का बंध किया वह तो पुण्य प्रताप से ही किया और उन्हें अच्छा ही मनुष्य होना चाहिए था, पर करनी पीछे उनकी बिगड़ी तो वे मनुष्य तो होंगे ही, परन्तु बिगड़ी करने वालों को छांट-छांटकर आज की इस परिचित दुनिया में मानो पैदा किये जा रहे हैं। तो ऐसे-ऐसे मनुष्य होकर भी जीवन का क्या लाभ उठा सकते हैं ? मनुष्य हुए तो इस प्रकार से जीवन व्यतीत करें कि अपनी रुचि केवल आत्महित के लिए बने। अन्य सब बातें गौण हो जायें।
ज्ञानी की अनाकुलता―जो होता हो ठीक है, यों हो गया ठीक है। यों नहीं हुआ ठीक है। जितने भी दु:ख होते हैं वे सब अपने अपराध से होते हैं। दूसरे के कारण दूसरा कोई दुखी नहीं होता है। अपने ही विचार अपनी ही कल्पनाएँ बनाई जाती हैं और उन्हीं कल्पनाओं से प्रेरित होकर क्लेश भोगना पड़ते हैं। अपना ज्ञान सावधान रखें और अहितरूप कल्पनाएँ न बनने दें फिर देखो कैसे क्लेश होता है ? तो अन्य बातें जो हमारे आत्महित की प्रयोजक नहीं हैं, चाहे बड़ा से बड़ा उपद्रव छा जाय तो भी इतना साहस सम्यग्दृष्टि पुरुष में होता है कि वह पर की परिणति से अपने चित्त में मूल में आकुलता उत्पन्न नहीं करता।
निरापदता का मूल उपेक्षा―एक किसान और किसानिन थे, तो विवाह हुए 12 वर्ष हो गए। किसान था जरा उजड्ड परन्तु किसानिन थी चतुर व शान्त। सो 12 वर्ष में एक दिन भी किसानिन को वह पीट न सका था। तो देहाती लोग तब अपने को मर्द मानते हैं तब एक दो बार पीट लें त्री को। तो उसने कई बार ऐसा उपाय किया कि किसी प्रकरण में त्री को थोड़ा गुस्सा आये या कोई गड़बड़ बात तो बोले। बिना प्रयोजन कैसे मारा जाय ? एक युक्ति उसे सूझी। अषाढ़ के दिनों में दोपहर के समय में खेत था, तो रोज रोटी लाने का उसका कार्यक्रम था। किसान ने सोचा कि आज के दिन ऐसा करें कि एकदम ऊटपटांग काम करें जिसे देखकर त्री कुछ तो बोलेगी। बस हमें पीटने का मौका मिलेगा। सो हल में जो जुवां होता है–सो उसने एक बैल का पूरब को मुँह कर दिया और एक का मुँह पश्चिम को कर दिया और गले पर जुवां धर दिया। अब हल कैसे चलेगा ? बताओ तो सोचा कि त्री ऐसा देखकर कुछ तो कहेगी ही। बच्चे कैसे पालोगे, अनाज कैसे होगा, कुछ दिमाग तो सुधारो, कुछ तो बोलेगी ही, बस ठोंकने का मौका मिल जायेगा।
त्री जब रोटी लेकर दोपहर को आई तो दूर से ही देख लिया और समझ गयी कि आज तो पीटने के लक्षण दिखते हैं क्योंकि अभी तक तो ऐसा बेवकूफी का काम कभी नहीं किया, आजभर में तो ये पागल हो नहीं गए। ऐसा ओंधा सूधा क्यों जोता, इसमें कोई रहस्य है। वह जब खेत में आ गयी तो रोटी धरकर कहती है कि चाहे औंधा जोतो, चाहे सीधा जोतो इससे तो हमें कुछ मतलब नहीं है। हमारा तो काम रोटी देने का है तो लो और खाओ, रोटी देकर वापिस चली गयी। किसान यों ही देखता रह गया। उसने तो बड़े फंद रचे थे कि वह यों कहेगी तो यों उत्तर देंगे, यों कहेगी तो यों उत्तर देंगे, मारने का मौका मिल जायेगा। तो बुद्धिमान् हो और पिटाई से बचना हो तो उसका उपाय इस किसानिन से सीख लो।
ज्ञानबल का सत्फल―भैया ! परपदार्थों के परिणमन चाहे औंधे हों, चाहे सीधे हों, जो कुछ है ठीक है, अपने में क्यों आकुलता लाना ? इतनी हिम्मत ज्ञानबल उत्पन्न कराता है और फिर परपदार्थों की परिणति आधीन किसी के नहीं होती है, वह तो जिस तरह होनी है होती है, पर अपनी कल्पना के अनुसार उनके परिणमन में बात फिट बैठ गयी तो मानते हैं कि इनका परिणमन मेरे आधीन हुआ है। इतनी गम्भीरता उत्पन्न होना ज्ञान के ऊपर निर्भर है। वस्तु स्वतंत्रता का निर्णय करके जिसने अपने आपमें यह देखा है, लो मैं यह हूँ और इस रूप बन रहा हूँ, अपने उपादान से बन रहा हूँ। हम खोटे हैं तो हम बाहर में कुछ निमित्त बनाकर कल्पनाएँ करके दु:खी होंगे। हम सही है तो बाहर में चाहे कोई पदार्थ किसी ढंग में भी परिणमता हो किन्तु वह तो उचित कल्पनाएँ बनायेगा।
अन्तर्भाव के अनुसार प्रवृत्ति―भीतर में जिसकी जैसी दृष्टि होती है, बाहर में परवस्तुविषयक वैसी कल्पना करते हैं। अभी बहुत बालक बैठे हों और किसी ने कोई चीज चुराई हो तो कहें कि देखो सावधानी से बैठना, जिसने चीज चुरायी होगी वह लड़का अभी पकड़ा जायेगा। देखो हम मंत्र पढ़ेंगे, जब स्वाहा बोलेंगे तब जिसने चोरी की होगी उसकी चोटी खड़ी हो जायेगी। वह झूठमूठ का मंत्र पढ़ने लगा, जब स्वाहा सुना तो जिस लड़के ने चोरी की वह लड़का अपनी चोटी पकड़कर देखने लगता है। स्वभावत: उसका हाथ उसके सिर पर चोटी पकड़कर देखने के लिए उठ ही जायेगा। तो भीतर में जैसी श्रद्धा होती है उसके ही अनुसार संसारवृत्ति बनती है। हमारी अगर पापभावना है तो बाहर में पाप भरी कल्पनाएँ ही बनेंगी। क्योंकि स्वयं में तो पापभावना बसी हुई है। और स्वयं में यदि शुद्ध है तो चाहे दूसरा कोई गलत भी हो तो भी बहुत समझने के बाद वह गलत मान पायेगा। सुगमतया उसको सब शुद्ध ही दिखेगा।
ज्ञानी की भावना और वृत्ति―जैसी दृष्टि होती है वैसी बाहर में प्रवृत्ति होती है। जिस ज्ञानी पुरुष ने अपने आपमें सहज स्वरूप का दर्शन करके उसकी भावना द्वारा स्थिरता उत्पन्न की है वह अपनी उस स्थिरता के अनुसार बढ़ा हुआ ज्ञान पाता है और इस ही सहजज्ञानदेव की भक्ति के प्रसाद से ऐसा ज्ञान प्रकट होता है, जिसे वेद शब्द से कहा गया हो, सकल प्रत्यय शब्द से कहा गया हो, तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थों को जानने वाला होता है।
ज्ञानी की आकांक्षा―ये तीन लोक इस जानन में आयें चाहे न आयें, हे प्रभु मुझे कोई आकांक्षा नहीं है कि मैं सारे विश्व को जान लूं, किन्तु हमारे ऐसा ज्ञान प्रकट हो कि मैं अपने आत्मा के शुद्धसहज एकत्व स्वरूप को जानता रहूं। उस यथार्थ जानन की इच्छा करता हूँ। सारे विश्व को जानने की चाह नहीं करता। मुझे केवलदर्शन मिले चाहे न मिले यह तृष्णा नहीं है कि मैं सारे विश्व का द्रष्टा बन जाऊँ, क्या प्रयोजन पड़ा है ? किन्तु इतना दर्शन मेरे अवश्य प्रकट हो कि मैं अपने आपके आत्मरूप का दर्शन किए रहूँ। मुझे अनन्त सुख मिले या न मिले, इसकी मुझे कोई चाह नहीं है। किन्तु इतनी बात तो मुझमें आए कि आकुलता उत्पन्न न हो। मुझे अनन्त आनन्द की कोई चाह नहीं है, किन्तु मुझमें आकुलता तो रहे ही नहीं। मुझमें अनन्त बल प्रकट हो चाहे न हो। क्या होगा उससे ? बलशाली हो गए तो क्या, किन्तु इतना बल तो प्रकट हो कि मैं अपने आपके ज्ञानस्वरूप में समा सकूं।
स्वरूप समावेशबल―अपने आपके स्वरूप में समाने के लिए भी बल चाहिए। जैसे अपने शरीर में जो धातु उपधातु हैं उनको संभालने के लिए बल चाहिए। जब देखो कमजोर हो जाते हैं तो मुख से राल बहने लगती है, नाक से पानी बहने लगता है, आँख से पानी झरने लगता है, मुझे ये मैल हटाने के लिए, ये बाहर न निकल जायें इसके लिए कुछ बल चाहिए ना। तो जब इस नकली बल के लिए नकली इस देह में ठीकठाक बने रहने के लिये, इसे सावधान बने रहने के लिए इस देह की चीज देह में ही समाया रहे बाहर न निकल पाये, इतनी बात के लिए भी बल की जरूरत है। तो आत्मा का गुण आत्मा का वैभव आत्मा में ही समाये रहें, अपने आपमें अपने आपको लीन कर सकें, बाहर-बाहर न भटकते फिरें सुख की तलाश में, तो ऐसी स्थिति पाने के लिए भी बल चाहिए। हे प्रभो ! मुझमें वह बल प्रकट हो और अनन्त बल मिले, न मिले उसकी आकांक्षा नहीं है।
आत्मवैभव और अनन्त वैभव―आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, आकुलता न होना अपने आपमें समाये जाने का बल–ये चारों बातें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त बल को प्रकट करने वाली होती हैं। हो जायें, पर जीव का प्रयोजन तो केवलमात्र आकुलता के न होने से है। यों इस शुद्ध ज्ञान के प्रताप से आत्मा में कैसे-कैसे ऐश्वर्य बढ़ते हैं, उसका यह प्रसंग है, यह सम्यक्विभाव ज्ञान तृतीय ज्ञान अवधिज्ञान है।
चतुर्थ सम्यक् विभावज्ञान―सम्यक् विभाव ज्ञानों में चतुर्थज्ञान है मन:पर्ययज्ञान। ऋद्धिधारी साधुजनों के ऐसा ज्ञान प्रकट हो जाता है। मन:पर्ययज्ञान जो दूसरे के मन की बात जान ले सो मन:पर्ययज्ञान है। मन:पर्यय ज्ञान से मन का विकल्प भी जान लिया जाता है और जिस पदार्थ के सम्बन्ध में विचार किया वह पदार्थ भी जान लिया जाता है। ऐसा ज्ञान ऋद्धिधारी जनों के प्रकट होता है। मन:पर्ययज्ञान सम्यक्रूप ही होता है। मिथ्यादृष्टि जीव के मन:पर्ययज्ञान नहीं होता और सम्यक दृष्टियों में भी विशिष्ट ऋद्धिधारी साधु के होता है। मन:पर्ययज्ञान दो प्रकार का है एक ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान और दूसर विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान। दूसरे के मन की सीधी सरल बात हो उसे जानें यह तो है ऋतुमति मन:पर्ययज्ञान और दूसरे के मन में कैसी ही कुटिल बात हो, मायाचारपूर्ण हो अथवा बुरा विचार हो या आगे पीछे जाने उन सबको विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान जान लेता है।
ऋजुमति व विपुलमति में अन्तर―ऋजुमति से विपुलमति का क्षयोपशम अधिक है, विशुद्धि अधिक है। ऋजुमति मन:पर्यय वाला तो केवलज्ञान होने से पहिले छूट जाए, ऐसा भी हो सकता है, पर विपुलमति मन:पर्ययज्ञान तो केवलज्ञान उत्पन्न होने पर ही छूटता है, पहिले नहीं छूटता है। विपुलमति मन:पर्ययज्ञान वाला जीव नियम से मोक्ष चला जाता है।
अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान में अन्तर―अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान में इतना स्थूल अन्तर है कि अवधिज्ञान तो रूपी पदार्थों को ही जानता है और मन:पर्ययज्ञान रूपी पदार्थों के सम्बन्ध में कोई कुछ विचार करे तो वह मन की पकड़ को भी जानता है और उसके विषय को भी जानता है। अवधिज्ञान के स्वामी त्रसलोक की दुनिया में बहुत मिलेंगे, मन:पर्यय के स्वामी बहुत कम। अवधिज्ञान नारकियों के, देवों के, संज्ञीपञ्चेन्द्रियों के और मनुष्यों के, चारों गतियों के जीवों के होता है, किन्तु मन:पर्ययज्ञान तो मनुष्य में ही होता है और उनमें भी सम्यग्दृष्टियों के, उनमें भी साधुओं के और उनमें भी संयमी साधुओं के होता है, किन्तु विशुद्धि मन:पर्ययज्ञान में बहुत होती है। अवधिज्ञान बहुत लम्बे क्षेत्र तक के जीवों में पाया जाता है। स्वर्गों में सर्वार्थसिद्धि तक अवधिज्ञान है। नारकों में, सभी में अवधिज्ञान हो सकता है और तिर्यकक्षेत्र में तो समस्त तिर्यक् लोक में जो कि एक राजू विस्तार वाला है, अवधिज्ञान हो सकता है, किन्तु मन:पर्ययज्ञान जो ढाई द्वीप के अन्दर ही संयमी जनों के होता है, उनके ही हो सकता है। अवधिज्ञान मोटी बात जानता है मन:पर्ययज्ञान की अपेक्षा। मन:पर्ययज्ञानी अवधिज्ञानी से बहुत सूक्ष्म बात जान सकते हैं। मन का विकल्प तो अवधिज्ञान के विषय से बहुत सूक्ष्म है। इस प्रकार सम्यक्विभावज्ञानों में ये चार ज्ञान बताये हैं। ये चारों ज्ञान सम्यग्दृष्टि जीव के ही होते हैं। जो आत्मा के सहज परमभाव में स्थित हो, उसके ही ये चारों ज्ञान होते हैं।
कुज्ञान में कुत्सितता―इनमें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान यदि मिथ्यादृष्टि जीव के होते हैं तो ये कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञानरूप होते हैं। कुमतिज्ञान में सब अहितरूप से ही जाना जाता है, कुश्रुतज्ञान में खोटे ही खोटे विचार हैं, वे उत्पन्न होते हैं। बड़े-बड़े बम बना लिये जाते हैं, जो एक इरादे से कहीं गिरा दिये जायेंगे तो वहाँ सैकड़ों मील क मनुष्य मरेंगे–ऐसी शक्ति वाले बमों का बनाना यह क्या कम होशियारी की बात है ? कितना दिमाग लगाते हैं ? किन्तु वह कुश्रुतज्ञान है, जो जीवों की हिंसा का ही प्रयोजक है। कुअवधिज्ञान से देखते हैं परोक्ष की बात, पर जो अहितरूप हो, वह दिखता है, हितरूप बात नहीं दिखती।
कुअवधिज्ञानी की संस्कृति का एक उदाहरण―जैसे एक कथानक में आया है कि राजा अरविन्द बुखार होने से दु:खी बैठे थे। भींत पर दो छिपकलियाँ लड़ गयीं और ऐसी तेज लड़ीं कि उनकी पूंछ टूट गयी और दो-चार खून की बूँद राजा के शरीर पर गिरीं। वे बूंदे राजा को बड़ी ठण्डी लगीं, बड़ी अच्छी लगीं। वे ठण्डी बूँदे चाहे पानी की हों, चाहे खून की हों, चाहे किसी चीज की हों, अच्छी तो लगेंगी ही। सो राजा ने सोचा कि इस से हमें बड़ी शान्ति मिली है। सो लड़कों को बुलाया और कहा कि घर में खून की एक बावड़ी भरवा दो, हम उसमें स्नान करेंगे। पिता की ऐसी आज्ञा को वे लड़के कैसे टालें ? सो पूछा कि कहाँ इतना खून मिलेगा, जो घर की बावड़ी खून से भर जाये ? वह राजा अवधिज्ञानी था, मगर खोटा अवधिज्ञानी। सो कुअवधिज्ञान से देखकर राजा बताता है कि देखो इस दिशा में अमुक जंगल में बहुत से जंगली जीव रहते हैं, वहाँ बहुत से हिरण मिलेंगे, कुछ स्थानों में खरगोश भी मिलेंगे, कुछ स्थानों में वनगाय भी मिलेंगी, सो वहाँ जाओ और उनको मारकर उनके खून से इस घर की बावड़ी को भर दो।
अब वे लड़के विवश होकर चले। उसी जंगल में एक मुनि महाराज बैठे थे। लड़कों ने प्रणाम किया। मुनि मन:पर्ययज्ञानी थे। वह साधु स्वयं बोलता है कि ऐ बच्चों ! कुबुद्धि पिता के पीछे तुम लाखों जीवों की हिंसा करने आये हो ? इस बात को सुनकर लड़कों पर बड़ा प्रभाव पड़ा। लड़कों ने पूछा कि आपने कैसे सारी बातें जान लीं कि हमारा पिता कुबुद्धि है ? वह साधु बोला कि तेरा पिता अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है। वह खराब बातें तो बता देगा, पर अच्छी बातें न बतायेगा, क्योंकि उसका खोटा अवधिज्ञान है। कहा कि महाराज ! कैसे परीक्षा करें ? कहा कि लोटकर उनके पास जाओ और पूछो कि वहाँ और कुछ भी है कि नहीं ? तो वे यह न बता पायेंगे कि कहीं-कहीं वहाँ साधु महाराज रहते हैं।
लड़के गए, उन्होंने पिता से पूछा तो राजा ने बताया कि उधर दस सिंहों की टोली है, उधर खरगोश है, वहाँ कुछ वनगाय भी हैं, वहाँ पर हिरण भी बहुत है–ये सारी बातें बता दीं, पर यह नहीं बताया कि वहाँ एक कोने में साधु महाराज बैठे हैं। लड़कों ने जाकर ऐसा ही साधु महाराज को बताया। साधु ने बताया कि देखो वह राजा सब खोटी ही खोटी बातें बताएगा। संत, धर्मात्मा, संन्यासी में उसका उपयोग नहीं जाता है। लड़कों की समझ में सब आ गया और सोचा कि पाप का फल स्वयं को ही भोगना पड़ेगा।
लड़कों का विवेक―वे लड़के वापिस चले गए और लाख का रंग लाकर उस बावड़ी को भर दिया और कहा कि पिताजी तैयार है खून से भरी बावड़ी, खूब नहाओ। राजा ने देखा तो उसमें खून का सा स्वाद न आया, सो सोचा कि यह खून नहीं है, यह लड़कों ने हमारे संग छल किया है। सो नंगी कटार लेकर वह मारने के लिए लड़कों को दौड़ा। लड़के आगे-आगे भागते चले जा रहे थे। रास्ते में राजा को ठोकर लगी, गिर गया और उसकी कटारी उसके ही पेट में लग गयी। वह राजा मरकर नरक में गया।
कुअवधिज्ञान में कुत्सितज्ञान―भैया ! कुअवधिज्ञान में सब खोटा ही खोटा दिखता है। भला नहीं दिखता है। यह अंदाज कर लो कि आप का यदि खोटा आशय है, कोई भ्रम है तो आपको अच्छी बात न दीखेगी। अच्छी भी बात होगी तो उसका अर्थ उसका यों लगायेंगे, यों घटायेंगे कि जिससे कोई क्लेश की बात उत्पन्न हो। तो जिसका आशय मलिन है ऐसे पुरुष अच्छी बातों को कहाँ देखेंगे ? तो कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ज्ञान ये केवल विभावरूप होते हैं। इन्हें मिथ्याविभाव ज्ञान कहना चाहिए।
स्वभावज्ञान का विवरण―इस प्रकरण में सबसे पहिले प्रत्यक्ष ज्ञान बताया गया था स्वभाव ज्ञान–वह स्वभाव ज्ञान दो प्रकार का कहा है। कारणस्वभाव ज्ञान और कार्यस्वभाव ज्ञान। कार्यस्वभाव ज्ञान तो केवलज्ञान का नाम है और कारणस्वभाव ज्ञान आत्मा के सहज ज्ञान का नाम है। ज्ञानस्वभाव, ज्ञानशक्ति, चैतन्यस्वभाव यही है कारणस्वभाव ज्ञान। ये आत्मा के दोनों प्रत्यक्ष ज्ञान है, किन्तु कार्यस्वभाव ज्ञान तो है सकलप्रत्यक्ष और कारणस्वभाव ज्ञान है स्वरूपप्रत्यक्ष। केवलज्ञान समस्त पदार्थों को तीन लोक, तीन कालवर्ती सकल द्रव्य, गुण, पर्यायों को एक साथ स्पष्ट जानता है, आत्मा के द्वारा जानता है, इन्द्रिय की सहायता बिना। इस कारण केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है और सहजज्ञान यह शुद्ध अंतस्तत्व में अथवा परमतत्त्व में व्यापक है। अपने ही स्वरूप में अपने ही आत्माश्रित है इस कारण इसे स्वरूपप्रत्यक्ष कहते हैं।
सम्यक् विभावज्ञानों में प्रथम विकलप्रत्यक्षज्ञान―अब सम्यक् विभाव ज्ञानों में कौन-सा ज्ञान प्रत्यक्ष है और कौन-सा ज्ञान परोक्ष है ? यह बताते हैं–प्रत्यक्ष ज्ञान उसे कहते हैं कि आत्मीय शक्ति से स्पष्ट जान लेना आर जो इन्द्रिय के निमित्त से अविशद जाने, एक देश जाने वह है परोक्षज्ञान। जैसे सामने संदूक रखा है, इन्द्रियज्ञान तो सामने का भाग ही जान सकेगा, पीछे कैसा है? अन्दर कैसा है? यह तो नहीं जाना। और अवधिज्ञान से जाना गया तो आगा पीछा भीतर सब जानने में आ जायेगा। यह अवधि ज्ञान इन्द्रिय की सहायता के बिना हुआ है, सो अवधिज्ञान है। विकल प्रत्यक्ष क्यांकि वह समस्त पदार्थों को नहीं जान पाता किन्तु रूपी पदार्थों को ही जानेगा। अवधिज्ञान मोटी चीजों को ही जानता है और एक परमाणु तक का भी ज्ञान कराता है।
उत्कृष्ट अवधिज्ञानों के द्वार से जानकारी की विशालता―भैया ! उत्कृष्ट कक्षा का अवधिज्ञान हो, परमावधि सर्वावधि ज्ञान हो, तो उस ज्ञान के द्वारा परम्परया सम्यक्त्व और चारित्र परिणमन भी जान लिया जाता है। सम्यक्त्व और चारित्र परिणमन सीधा अवधिज्ञान का विषय नहीं है क्योंकि यह अमूर्त है। अवधिज्ञान तो रूपी पदार्थों को ही जानता है किन्तु कर्म कितने हटे हैं, कर्म कितने धरे हैं यह तो अवधिज्ञानी जान सकता है ना, क्योंकि कार्माण द्रव्यरूपी पदार्थ है और जहाँ यह जान लिया आगमज्ञानी संत ने कि अमुक प्रकृति के कर्म इतने कम हैं, इतने मौजूद हैं तो उससे सम्यक्त्व और चारित्र की बात श्रुतज्ञान से जान ली जाती है। अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान विकलप्रत्यक्ष है, एक देश जाननहार है।
सांव्यावहारिक प्रत्यक्षता―मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये वास्तव में तो परोक्ष हैं इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होते हैं, पर व्यवहार से ये भी प्रत्यक्ष है। जैसे आँख से अभी देखा, जान लिया कि यह भिंडी है, लौकी है तो बताओ ऐसा ज्ञान कर लेना प्रत्यक्ष ज्ञान कहलायेगा या परोक्ष ? यह परोक्ष कहलाता है। इन्द्रिय और मन के निमित्त से जो कुछ जाना जाय वह सब परोक्ष है। लोकव्यवहार में इसे प्रत्यक्ष कहते हैं, कहते हैं ना, वाह जी वाह मुझे प्रत्यक्ष दीखा और केवल देखने को ही प्रत्यक्ष नहीं कहा गया है किन्तु पंचेन्द्रिय के ग्रहण से प्रत्यक्ष बोला करते हैं। कोई-कोई तो आँख से भी पूरा समझ में नहीं आता। चखकर या छूकर समझ में आता है। जैसे सामने मीठा फल या मिठाई रखी है तो आँखों से देखने से आपको पूरा समझ में न आयेगा। तो कैसे समझ में आयेगा ? उसे खाकर समझ में आयेगा कि यह अच्छी मिठाई है या यह अच्छा फल है।
सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष की विशदता―अग्नि के सम्बन्ध में कोई वकील मान लो युक्ति लेकर उसे ही सिद्ध करने लगे–आग ठंडी होती है क्योंकि पदार्थ है, जो-जो पदार्थ होते हैं वे सब ठंडे होते हैं–जैसे पानी पदार्थ है वह ठंडा होता है और यह अग्नि गरम होती है यह समझाने के लिए क्या करना चाहिए ? अरे चीमटे से आग उठाकर उसके हाथ में धर देना चाहिए, तुरन्त समझ में आ जाएगा। अरे...रे....रे ! यह तो आग है। कोई चीज स्पर्श से समझ में आती है, कोई चीज चखकर समझ में आती है, कोई चीज देखकर समझ में आती है–इन सबमें प्रत्यक्ष का व्यवहार होता है। वाह, हमने स्वयं प्रत्यक्ष किया, प्रत्यक्ष देखा, प्रत्यक्ष सुना–यह सब व्यवहार से प्रत्यक्ष है। आत्मा के स्वरूप की और कला की दृष्टि से सब परोक्ष हैं, क्योंकि वे इन्द्रिय और मन के निमित्त से वे उत्पन्न हुए।
युक्ति से व्यावहारिक विशदता की प्रबलता―एक वकील साहब घूमने जा रहे थे। आगे एक तेली का घर मिला। वहाँ कोल्हू चल रहा था। उस बैल के एक घण्टी बंधी थी। वह बैल चलता था तो उसके गले की घण्टी बजती थी। वकील साहब बोले कि क्यों तैली भैया ! इस बैल के तुमन घण्टी क्यों बाँध रखी है ? तेली बोला कि इसके घण्टी बँधी रहने से हमें इसके पीछे-पीछे नहीं चलना पड़ता, हम अपना काम करते रहते हैं। जब तक घण्टी बजती रहती है, तब तक तो समझते रहते हैं कि चल रहा है और जब घण्टी बजना बंद हो जाती है तो हम समझ जाते हैं कि अब बैल खड़ा हो गया है। सो आकर एक डण्डा बैल के जमा जाते हैं और फिर बैल चलने लगता है। बैल चलता रहता है, हम अपना काम करते रहते हैं। इसलिये यह घण्टी इस बैल के बंधी है। वकील साहब बोले कि अगर खड़े-खड़े ही यह इस घण्टी को हिलाता रहे तो क्या तुम जान पाओगे कि बैल खड़ा है ? वह तेली बोला कि अभी हमारा बैल वकील नहीं बना है, जिस दिन वकील बन जाएगा, उस दिन दूसरा उपाय सोचेंगे। युक्तिबल से कुछ भी सिद्ध किया जाए यहाँ, किन्तु सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष में तो बोध विशद और प्रत्यक्ष होता है।
ज्ञानव्यक्तियों का स्रोतभूत विशदज्ञान―इस ज्ञान में से हमें क्या देखना है और क्या शिक्षा लेनी है ? इसमं साक्षात् मोक्ष का मूलभूत केवल एक सहजज्ञान है जो एक निज परमात्मतत्त्व में निष्ठ है, रहता है। कहाँ दृष्टि देनी है ? यह ज्ञानपरिणमन जिस शक्ति से उद्भूत होता है, उस सहजस्वभाव में दृष्टि देनी है, वही उपादेय है। उस सहजज्ञान के अतिरिक्त अन्य कुछ उपादेय नहीं है, क्योंकि भव्यजीवों के वह परमस्वभावरूप है। पारिणामिक भाव-स्वभाव से सहजतत्त्व की दृष्टि के प्रताप से भव्यजीवों के भव्यत्व गुण का विपाक होता है, मुक्ति प्राप्त होती है। इस कारण एक यह सहजज्ञान उपादेय है। बड़े-बड़े योगीजन आरम्भ और परिग्रह को त्यागकर एकान्त में निवास करके किसकी धुनि बनाए रहते हैं कि उनके रात-दिन बड़े आनन्द से गुजरते हैं और कोई आकुलता नहीं होती ? वह धुनि है इस आत्मा के इसी अन्तस्तत्त्व के दर्शन की। जब उपयोग जाता है, सफलता मिलती है तो और दृढ़ता के साथ इस पुरुषार्थ में वे लगते हैं और इसके स्मरण के प्रताप से ही बहुत समय तो उनका आनन्द में व्यतीत होता है।
सहजज्ञान की ईप्सिततमता―भैया ! लोक में सब कुछ वैभव रहना सुगम है, किन्तु एक इस निज आत्मतत्त्व के, इस सहजस्वरूप के दर्शन होना कठिन है। सब कुछ मिल जाए, क्या होगा इससे ? अन्त में मारण होगा, छोड़कर जाना होगा ? यह आत्मा फिर क्या पायेगा अगले भव में ? एक इस सहजज्ञान की दृष्टि जगी हो तो इस निर्मलता के प्रताप से आगे भी यह सन्मार्ग पा सकेगा और यों ही विषयाकांक्षाओं में समय गुजरा तो ये तो कोई साथ न रहेंगे, किन्तु पाप का फल ही सामने नजर आएगा।
ज्ञानविवरण में ग्राह्यतत्त्व―ज्ञान के इस प्रकरण में ग्रहण करने योग्य बात कही गयी है कि इस संकटहारी नाथ की भावना करनी चाहिए। यह आत्मदेव नाथ है। न अथ–जिसकी आदि नहीं है। यह मुक्त लक्ष्मी का नाथ स्वभावत: समस्त संकटों से परे अपने स्वरूपमात्र है। प्रभु में व्यक्त अनन्त चतुष्टय है तो इस आत्मतत्त्व में स्वभाव अनन्त चतुष्टय है। कारणरूप ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति इस आत्मदेव के है और कार्यरूप यही चतुष्टय प्रभु परमात्मा में है। इस अत्यन्त निकट वर्तमान परम चित्स्वरूप के श्रद्धान के द्वारा अपने आत्मा की निरन्तर भावना करनी चाहिए। जिसके प्रताप से प्रभुत्वदर्शन और प्रभुत्वपरिणमन होता है। वह वृत्ति जिस वृत्ति के द्वारा अपने आत्मा की भावना होती है, वह है सहज चिद्विलासरूप। प्रभु के दर्शन बनावट, दिखावट, सजावट से नहीं हो सकते। आत्मतत्त्व का अनुभव धन के आधीन नहीं है, लोक में पोजीशन बढ़ जाए, इसके आधीन नहीं है, यह तो सहज चिद् विलासरूप वृत्ति के द्वारा दृष्ट होता है।
स्वरूपाचरण की विभुता―ज्ञानी की वृत्ति में सहज वैराग्य है। सम्यक्त्व होने पर ज्ञान और वैराग्य सम्यक होता है मूलत: फिर ज्ञान की पूर्ति वैराग्य की पूर्ति असलीरूप में पश्चात् होती है किन्तु सम्यक्त्व के होते ही ज्ञान और चारित्र प्रारम्भ हो जाता है। अविरत सम्यग्दृष्टि इसलिए कहा जाता है कि वह प्रगतिरूप में अणुव्रत और महाव्रतरूप से तैयारी करके आगे नहीं बढ़ रहा है, इसलिए उसका नाम अविरत सम्यग्दृष्टि है। फिर भी सम्यक्त्व के होने पर स्वरूप का आचरण व जानना वहाँ होता है, उस दृष्टि से उसके चारित्र भी होगा। स्वरूपाचरण चतुर्थ गुणस्थान में है और उस स्वरूपाचरण की वृद्धि के लिये अणुव्रत का पालन होता है, महाव्रत का पालन होता है और अन्त में जहाँ अणुव्रत और महाव्रत भी शांत हो जाते हैं, वहाँ स्वरूपाचरण का विशिष्ट विकास हो जाता है। स्वरूपाचरण इस सम्यग्दृष्टि का साथ नहीं छोड़ता। अणुव्रत और महाव्रत तो किसी स्थिति से चलते हैं और किसी स्थिति तक चलते हैं, किन्तु स्वरूपाचरण चतुर्थ गुणस्थान में भी उसकी पदवी के योग्य प्रकट हुआ है और यह स्वरूपाचरण अपनी-अपनी पदवी के विकास के अनुरूप ऊपर के सभी गुणस्थानों में प्रकट होता है और यह सिद्धि होने पर भी नहीं छूटता। स्वरूपाचरण वहाँ परिपूर्ण बना ही रहता है। सहज चिद्विलासरूप जो कि वीतराग आनन्दअमृत को साथ लिए हुए है, उस चिद् विलासरूप पुरुषार्थ के द्वारा इस आत्मा की भावना करनी चाहिए।
ज्ञानमात्र भावना का महत्त्व―यह आत्मतत्त्व निरावरण व्याघात से रहित परमचैतन्यशक्तिरूप से सदा अन्त:प्रकाशमान् है। त्रिकाल कभी भी वियुक्त नहीं होता है–ऐसे इस स्व्भाव अनन्त चतुष्टय करि सम्पन्न परमपारिणामिकभाव में स्थित इस आत्मतत्त्व की उपासना करनी चाहिए। सीधी सी बात यह है कि जैसे अपने-अपने नाम की सबके अन्दर भावना भरी है–मैं अमुक हूँ। जैसे उस नाम के प्रति श्रद्धा, रुचि, वृत्ति बनी हुई है, इसी प्रकार यह नाम की वृत्ति न रहकर मैं ज्ञानज्योतिमात्र हूँ–इस तरह की रुचि और भावना बने तो आत्मतत्त्व के अनुभव का अवसर मिलता है। अहो, कैसा व्यामोह है मनुष्य को कि नाम के अक्षर परिमित हैं, थोड़ा अदल-बदल कर रखे जाते हैं ? वे ही 16 स्वर और 33 व्यञ्जन उतने का कितना बड़ा विस्तार बना रखा है कि जिसने जिसका जो नाम रख दिया, अब व उस नाम में अपना आत्मसर्वस्व जानता है। किसी का नाम लेकर जरा गाली तो दे दो, फिर देखो कि वह कितनी उचक-फांद करता है ? ऐसा नाम में व्यामोह पड़ गया है। यह व्यामोह हटे और मैं तो केवल ज्ञानमात्र हूँ–ऐसी भावना जगे तो इस आत्मभावना के द्वारा संसार में संकट कट सकते हैं।
भोग की कच्ची भूख एक महान् धोका―भैया ! जैसे बीमारी में कच्ची भूख लगती है तो पक्की भूख तो यह मनुष्य सह लेता है और उस कच्ची भूख में जब न खाए, थोड़ा धैर्य रखे तो वह स्वस्थ हो जाता है। ऐसे ही संसार की जन्म-मरण की लम्बी बीमारी में भोगों की आकांक्षा की कच्ची भूख लगती है। यह यदि एक ही भव में गम खा जाए तो इसे मोक्षमार्ग मिल जाता है। अनेक भवों में तो भोग भोगा है, केवल एक भव ही ऐसा मान लो कि हम मनुष्य न होते तो हमारे लिए तो कुछ भी न था। सौभाग्य से मनुष्य हो गये तो अन्य कर्मों के लिए हम नहीं हैं, हम आत्महित के लिए हैं–ऐसा जानकर, साहस बनाकर इन भोगों से मुख मोड़कर आत्मभावना में अपना समय और उपयोग लगायें तो यही मेरे जीवन की सफलता का उपाय है।
सर्वउपदेशों का प्रयोजन शुद्ध अन्तस्तत्त्व की भावना–इस ज्ञान प्रसंग में भेदविज्ञान की बात भी गर्भित है। यह विभावज्ञान मेरा स्वभाव तो है नहीं और स्वभाव के अनुरूप शुद्ध विकास भी नहीं है, परन्तु यह केवल ज्ञानस्वभाव तो नहीं है, किन्तु स्वभाव के अनुरूप शुद्ध विकास है। फिर भी केवलज्ञानरूप क्षणिक वृत्ति पर उपयोग आ जाए तो उस उपयोग में स्थिरता, लीनता, समाधिपना नहीं आ पाता, क्योंकि मात्र ज्ञान के स्वरूप में, स्वभाव के अनुभव में उपयोग लगे तो यहाँ विषय ध्रुव और निज होने के कारण निर्विकल्पता और समाधिभाव उत्पन्न होते हैं। इस भेदविज्ञान को पाकर एक आत्मा की ही भावना भायें और समस्त सुख-दु:ख, शुभ-अशुभ अनात्मतत्त्वों का परिहार करें। इस विधि से यह जीव समग्र ध्रुव आनन्द को प्राप्त करता है।
शान्ति के ख्याल से कोरा अनर्थ का श्रम―यह जीव शान्ति के लिए कितने ही आश्रय बनाता है और जब शान्ति नहीं मिलती, तब उस पुराने आश्रय को छोड़कर किसी नवीन आश्रय की तलाश करता है। तो अब तक के निर्णय से बताओ कि इन रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द का आश्रय करके कौन-सी संतोषजनक स्थिति पायी है कि जिससे यह दीखे कि हमने अपने आनन्द के लिए इतने तो काम कर लिए हैं, अब इतना काम सिर्फ और शेष है। जैसे मकान बनाते हो तो उसमें इतना मालूम होता रहता है कि लो भींत तो उठ चुकी, अब भींत नहीं बनानी है, बल्कि छत डालनी है। इतना ही काम रह गया, छत तो अब डल चुकी है, अब तो मामूली थोड़ा-सा सीमेंट का पलस्तर करने का काम बाकी है। जैसे वहाँ पूर्तियाँ नजर आती है, ऐसे ही भोगने में ऐसा कौन-सा काम नजर आया कि हमने इतना पुष्ट काम कर लिया है, जो अब करने के लिए नहीं रह गया है ? ऐसी स्थिति भोगसुख, लौकिक आनन्द विषयों में नहीं जमती। ये तो कोरे के कोरे ऐसे जंचते हैं कि पूरे मूर्ख फिर से अ आ इ ई पढ़ते हैं। चालीसों वर्ष के सुख भोग डाले, पचास-साठ वर्ष के सुख भोग डाले फिर भी आज रीते के रीते हैं। भींत के उठने में इतना तो मालूम होता है कि अब इतना काम रह गया है, परन्तु इन सुखों के उपाय में तो कुछ भी नहीं है।
भोग में आखिर रीता का ही रीता―जैसे ‘‘अंधा जोरी बलता जाए, पीछे बछड़ा खाता जाए’’ तो उसका तो कुछ भी काम नहीं बना। धन जोड़ते हुए में इतना तो मालूम होता है कि अब चालीस हजार हो गए, अब पचास हजार हो गए, पर यहाँ सुखों के उपायों में, अन्तर में तो कुछ दिखता ही नहीं है। सुबह खाया, अब पेट ज्यों का त्यों खाली है। कल खाने की फिर आ पढ़ेगी। देखने सूँघने आदि सभी विषयों की क्षण-क्षण में अ, आ पढ़नी पढ़ती है। ऐसा नहीं लगता है कि इतना सुख भोगा तो हमारा इतना काम बन गया, अब इतना काम रह गया, कोरे के कोरे बने रहते हैं। कैसा व्यर्थ का उपाय है ? ऐसे व्यर्थ के प्रयत्नों में रहकर कितने दिन बितायेंगे ?
विपरीत प्रयोजनों में कल्पित धर्म का श्रम―भैया ! कभी कुछ थोड़ी-सी सुधि आती है फिर थोड़ी देर के बाद ज्यों के त्यों हो जाते हैं। थोड़ा-सा साहस बँधता है कि ये क्षण निर्विकल्प होकर सहज आत्मस्वभाव की दृष्टि में गुजरें, पर बाद में फिर वह ही बोझ सामने आ जाता है। कोई खोद विनोद न करे, ये सब कहने सुनने की बातें हैं, ऐसी स्थिति बन जाती है।
एक पांडेजी थे बिलकुल थोड़े पढ़े अनपढ़े से थे। सो भांवर पढ़ने के लिए एक धुनिया के यहाँ विवाह में गए। सो मंत्र पढ़े ‘‘ॐ विस्नुं विस्नुं स्वाहा धरो टका।’’ वहाँ टके तो थे ही नहीं। सो वह गरीब धुनिया बोला कि हमारे पास टके तो है नहीं। तो तुम्हारे पास क्या है? हमारे पास तो महाराज सिर्फ रूई है। फिर अपना मंत्र पढ़ा–‘‘ॐ विस्नुं विस्नुं स्वाहा धर रूई।’’ धर दिया रूई। फिर पढ़ा मंत्र ‘‘ॐ विस्नुं विस्नुं स्वाहा धर रूई।’’ फिर रूई धर दिया। इस तरह से उसके चारों ओर रूई ही रूई इकट्ठा हो गई। सो इतने में एक पढ़े लिखे पांडे जी आ गए। तो पांडेजी ने कहा कि ऐसा मंत्र कबहुं नहीं देखा आसमपास कपासा, तो वह बोला कि खोद विनाद करो मत पांडे अद्धम अद्धं स्वाहा। अरे पांडे जी खोद विनोद मत करो, आधी कपास हमारी और आधी तुम्हारी है। तो इस धर्मपालन में भी किसी का कुछ प्रयाजन है, किसी का कुछ प्रयोजन है।
ज्ञानस्वरूप अहं की प्रतीति का बल―भैया ! इतना प्रयोजन इस प्रसंग में क्यों नहीं आ जाता कि मेरा किसी भी अन्य वस्तु से प्रयोजन नहीं है। मैं तो अपने इस अंतस्तत्त्व को ही देखने और जानने में रहना चाहता हूँ, ऐसा किसी भी क्षण अपने आपमें साहस नहीं जगता। करना वही पड़ेगा। अपने को संकटों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए यही कार्य करना पड़ेगा। जब तक नहीं करते तब तक संसार के क्लेशों का तांता ही बनता जाता है। सर्वपरिग्रह का आग्रह तजकर, चेतन और अचेतन संगों से हटकर, यहाँ तक कि इस एकक्षेत्रावगाह देह में भी उपेक्षा करके एक अनाकुल चैतन्यमात्र सहज ज्योतिस्वरूप अपने आत्मतत्त्व की भावना करनी चाहिए। सीधी सी बात और सुगम बात इतनी–सी तो है कि हम अपने को बार-बार इस रूप में निरखें कि शरीर तक से भी परे विविक्त केवल ज्ञानस्वरूप हूँ। मैं ज्ञानमात्र हूँ–ऐसी भावना रुचिपूर्वक भाये कि यह भान ही न रहे कि शरीर भी मुझसे चिपका है। ऐसे अपने ज्ञानस्वरूप की भावना यों भाता रहे कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, इस ही प्रकार निरखते रहे तो इस भावना से सब मार्ग खुल जाता है।
एक धर्म व एक पालनपद्धति―करने का काम यदि एक ही सोचो तो बड़ा आराम मालूम होता है। घर गृहस्थी में दुकान में, प्रपंचों में एक काम किसी एक के जिम्में सौंपा जाय तो अच्छी व्यवस्था बने। अब एक को दसों काम करने पड़े तो बेचारा व्यग्र हो जायेगा। वह अकेला क्या-क्या करे ? एक काम ही रहे, अन्य चिंताएँ न हों तो कुछ उन्नति की बात बतायी जा सकती है। इसी प्रकार कोई कहे कि धर्म करने के लिए भी एक बात बता दो तो एक काम तो हम रुचि से निभा ले जायेंगे। अब यहाँ तो पचासों काम धरे हैं धर्म को, अब पूजा है, अब सामायिक है, अब स्वाध्याय है, अब यह उत्सव आ रहा है, अब वह उत्सव आ रहा है, अब अष्टाह्निका लग गयी, कहाँ तक करें ये पचासों काम ? हमें तो एक काम बताओ जिस को चित्त में रखकर अच्छी तरह निभायें। तो आचार्यदेव कहते हैं कि धर्म के लिए एक ही काम करना है, पचासों काम नहीं करने हैं। पचासों काम तो तुमसे तब करवाते हैं जब तुम इस एक काम को मना करते हो या इसमें ढील डालते हो।
वास्तविकता में न रहने पर व्यवहारधर्मक्रियाओं की विवशता―भैया ! एक काम करना है धर्म के लिए। मैं ज्ञानमात्र हूँ, इस तरह खूब सोचें और इस तरह से अपने को निरख डालें। इसके सिवाय और कुछ काम नहीं देते हैं तुम्हें, किन्तु इन कामों में जब हम नहीं लग पाते तब तुम्हें ये दसों काम करने पड़ते हैं, मंदिर जाओ, पूजन करो, स्वाध्याय करो, सुनो प्रवचन, बोलो प्रवचन। सीधा-सा काम सौंपा है और उसे न करें तो फिर मालिक तो दसों काम ऐसे कठिन बताएगा कि जिनके बाद वह कहे कि अब न हम से दसों काम करवाओ। हम वह ही काम करेंगे जो पहिले बताया। सो धर्म के लिये एक ही काम बताया है आचार्य देव ने। जब तुम नहीं करते हो तो दसों काम बताये जाते हैं। तो फिर हम खुद ही दसों कामों से शिक्षा लेकर अथवा ऊबकर अब कहाँ जायेंगे ? सो ब्रह्मदेव के स्मरण और अनुभवन की रुचि जगेगी। जब तुम्हें ये काम सुहायेंगे नहीं, तो तुम ऊबकर अपने आप इस ठिकाने आ जाओगे कि मुझे अब और कुछ नहीं करना है। मात्र एक ज्ञानस्वरूप मैं हूँ–ऐसा अनुभवन करके ऐसा चैतन्यमात्र है विग्रह जिसका, ऐसे इस शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करनी चाहिए।
ब्रह्मोपदेश―यहाँ इस ज्ञानवंश का विस्तारपूर्वक वर्णन करके यह उपदेश किया गया है। जिस उपदेश का नाम है ब्रह्मोपदेश, जिसमें ब्रह्मस्वरूप के निहारने का उपदेश किया गया हो कि एक चित्त से एक इस आत्मा की भावना करनी चाहिए जब तक कि रागद्वेष से सर्वथा मुक्ति न हो जाय। जब तक यह ज्ञान इस ज्ञान में प्रतिष्ठित न हो जाय तब तक एक ही ज्ञान है, अपने को इस प्रकार भावें कि मैं मात्र ज्ञानस्वरूप हूँ, अमूर्त हूँ। शरीर तक का भान नहीं रहना चाहिए। उपयोग यदि इस ज्ञानतत्त्व को निरखता है कि इस शरीर में यह मैं आत्मा रह रहा हूँ, इस शरीर से मैं भिन्न वस्तु हूँ–ऐसी दृष्टि होने से शरीर का भी भान नहीं रहता। ऐसे एकाग्र मन से निज आत्मतत्त्व की भावना करने वाले ज्ञानी संत सुख, दु:ख, पुण्य, पाप, शुभ, अशुभ आदि तत्त्वों से छुटकारा पाकर निकट काल में ही सदा काल के लिए आनन्द के पात्र होते हैं।
कारणसमयसार―कारणस्वभाव ज्ञान जो कि अनादि अनन्त अहेतुक है, जिसका आश्रय करने से मोक्षमार्ग चलता है। इस कारण समयसार के सम्बन्ध में यह कैसे प्रकट होता है ? इसके उपाय में यह जानना चाहिए कि शुभ राग और अशुभराग सर्वप्रकार के रागों का विलय हो जाने से और मोह का मूल से विच्छेद हो जाने से और साथ ही द्वेष के जल से भरे हुए मानस घट के फूट जाने से अर्थात् मोह का तो मूल से छेद हो, राग और द्वेष का विलय हो तो इस उपाय से यह पवित्र सर्वोत्कृष्ट ज्ञानज्योति प्रकट होती है जो कि उपाधि रहित है, नित्य उदित है, भेदविज्ञान का वास्तविक फल है, ऐसा यह मंगलस्वरूप शरणभूत लोकोत्तम यह कारणसमयसार वंदनीय है। इस कारणसमयसार की भक्ति, रुचि, दृष्टिरूप हमारा भाव नमस्कार हो।
प्रभु में कारणसमयसार व कार्यसमयसार का योगपथ―यह सहजज्ञान, कारणसमयसार, परमपारिणामिक भाव प्रत्येक जीव के अंत:प्रकाशमान रहता है और सम्यग्दृष्टि जीव के किसी की दृष्टिरूप, प्रतीतिरूप, आलम्बनरूप और किसी के स्वभाव परिणमनरूप व्यक्त रहता है। यह सिद्ध प्रभु में भी है और अविरत सम्यग्दृष्टि में भी है। कार्य ज्ञान हो जाने पर कारणज्ञान समाप्त नहीं हो जाता। कार्यसमयसार और कारण समयसार इन दोनों का एक साथ सद्भाव है, पर्यायरूप ज्ञान जिस स्वभाव से प्रकट हुआ है वह स्वभाव कहीं खत्म नहीं होता। सिद्धभगवान के भी इस कारणसमयसार में से निरन्तर कार्यसमयसार प्रवाहित हो रहा है। हाँ जो पर्यायरूप कारणसमयसार है वह बारहवें गुणस्थान तक रहता है, इससे ऊपर नहीं चलता, पर शक्तिरूप स्वभावरूप जो कारणसमयसार है वह सिद्ध में भी है और वहीं कार्यसमयसार भी है। यदि कारणसमयसार न हो तो कार्यसमयसार कहाँ से प्रकट हो ?
प्रतिक्षण शुद्धपरिणमन―भैया ! सिद्ध भगवान् में प्रतिक्षण नया-नया कार्य हो रहा है, नया-नया ज्ञान हो रहा है, फिर भी वे सब ज्ञान पूर्ण समान होते हैं। पहिले समय में सर्व जाना और दूसरे समय में भी सर्व जाना तो पहिले समय में पहिले समय की शक्ति के प्रयोग द्वारा सर्व जाना और दूसरे समय में दूसरे समय की शक्ति के प्रयोग से सर्व जाना। एक समान ज्ञान चलते रहते हुए भी ज्ञानपरिणमन प्रति समय में भिन्न-भिन्न है। जैसे बिजली का लट्टू आधा घण्टे तक बराबर जले, 8 बजे से लेकर 8:30 बजे तक जले तो देखने में तो ऐसा आएगा कि यह बिजली का लट्टू वैसा ही काम कर रहा है, जैसा कि आध घण्टे पहिले करता था, पर ऐसी बात नहीं है। वह प्रतिक्षण अपना नया-नया परिणमन कर रहा है। जो कार्य 8 बजे किया, वह कार्य अगले क्षण में समाप्त हुआ, उसके अगले क्षण में ही उसका नया परिणमन हो गया। प्रतिक्षण पूर्व-पूर्व परिणमन विलीन होता है और नया-नया परिणमन चलता है। प्रभु व परमात्मा में समान-समान ज्ञान होता रहता है। प्रतिक्षण नवीन समय के ज्ञान का उत्पाद है और पूर्वसमय के ज्ञानपरिणमन का विलय है।
बंधन व अबन्धन की परिस्थितियाँ―शुद्धात्मा में तो इतनी जल्दी ज्ञान बदलता है कि इस संसारी जीव का ज्ञान एक दृष्टि से अन्तर्मुहूर्त तक वही रहता है। अन्तर्मुहूर्त के बाद फिर दर्शन होकर फिर दूसरा ज्ञान हुआ। पर प्रभु के एक-एक समय में नया-नया ज्ञान हो जाता है, वह समान ज्ञान है। जो शुद्ध वस्तु होती है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से, एकत्व को लिए हुए होती है। जो विकृत परिणमन होता है, वह द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से अनेकत्व को लिए हुए होता है। द्रव्य से अशुद्ध अवस्था में यह आत्मा केवल एक ही हो तो बंधन नहीं हो सकता। बंधन की अवस्था में दो द्रव्यस्वरूप होने चाहिए, बन्धन की अवस्था में दो क्षेत्र होने चाहिए, तब बन्धन है। बन्धन की अवस्था के परिणमन दो समयों तक चलने चाहिए तो तब बन्धन है। बन्धन के समय के भाव भी अनेकता को लिए हुए ही होना चाहिए।
बद्ध में अबद्ध स्वरूप―यद्यपि बन्धन की अवस्था में भी निश्चयदृष्टि से देखा जाए तो वहाँ भी प्रत्येक द्रव्य एक है, उसका क्षेत्र एक है और पदार्थ का प्रत्येक समय में एक ही परिणमन है और भाव भी अपने स्वलक्षणरूप है, लेकिन इस दृष्टि में बन्धन कहाँ है ? बन्धन की दृष्टि जब रखी जाएगी तो दो द्रव्य जाने बिना, देखे बिना, सम्बन्ध पाए बिना बन्धन काहे का ? इस प्रकार दो क्षेत्रों की अवगाह बिना, संयोग बिना, सम्पर्क बिना बन्धन काहे का ? वर्तमान में जीव और कर्म में अनेक द्रव्य हैं, इनका बन्धन है और इनका क्षेत्र है, अनेक निज क्षेत्र उनका बन्धन है, एक क्षेत्रावगाह है और बन्धन के समय की जो परिणति है, वह एक समय तक ही रहकर अपना विपाक बना ले, ऐसा नहीं होता। अनेक समयों तक की कल्पनाएँ राग का समूह विपाक कहलाता है। एक समय का रागपरिणमन अनुभव में नहीं आ सकता। वह देखो तो उसके विकल्प बने बिना ऐसी स्थिति नहीं हो सकती है। समय बहुत छोटे काल का नाम है। किसी विकल्प को करते हुए में अनगिनत समय बनते हैं, तब विकल्पों की शक्ल आ पाती है। इसी तरह वह भाव भी अनाकुलता और विषमता को लिए हुए होगा, तब वह बन्धन होता है।
शुद्धावस्था में सर्वथा एकत्व―शुद्ध अवस्था में जैसे कि सिद्ध भगवान् हैं, वहाँ द्रव्य का एकत्वस्वरूप है, दूसरी उपाधि का संबन्ध नहीं है, क्षेत्र का एकत्वस्वरूप है, वहाँ निमित्तनैमित्तिकरूप क्षेत्रावगाह नहीं है। यद्यपि एक सिद्ध के स्थान में अनेक सिद्ध विराजमान् हैं तो भी वे बिलकुल अलग हैं। जैसे एक घर में रहने वाले 10 परिजन हैं और उनका किसी से परस्पर में मन नहीं मिलता है, तो कहते हैं कि एक घर में रहते हुए भी वे सब न्यारे-न्यारे हैं। इसी तरह एक क्षेत्र में अनन्त सिद्ध बस रहे हैं, फिर उनका परिणमन जुदा-जुदा है, निमित्तनैमित्तिक संबन्ध रंच भी नहीं है, अत: वे जुदा-जुदा हैं। उनका काल परिणमन भी एक-एक समय में पूर्ण-पूर्ण होता है और एक समय के परिणमन के साथ दूसरे समय के परिणमन का संबन्ध बिलकुल नहीं है, जिससे कि विकल्प और अनुभव की शक्ल न बन सके।
छद्मास्थावस्था में सामायिक परिणमनों का उपयोगद्वार से संबन्ध―प्रश्न यहाँ हो सकता है कि पहिले समय का रागपरिणमन विलीन हो गया। दूसरे समय का रागपरिणमन अन्य पर्यायरूप है, फिर निज जो एक समय के रागपरिणमन का दूसरे समय के रागपरिणमन से सम्बन्ध कैसे बनेगा ? उत्तर यह है कि उन परिणमनों का साक्षात् सम्बन्ध तो नहीं है किन्तु इस उपयोग के द्वार के लिए न होते हुए भी सम्बन्ध बना है, अन्यथा विकल्प की शक्ल बन नहीं सकती। केवल दो अवसरों को छोड़कर किसी भी अवसर में संसारी जीवों के ऐसा नहीं होता है कि एक समय क्रोध भाव हो तो दूसरे समय मानभाव आ जाय, दूसरे समय अन्य भाव आ जाय–ऐसा नहीं होगा। क्रोधभाव आयेगा तो अनगिनत समयों तक क्रोध ही क्रोध परिणमन चलेगा। मानपरिणमन आयेगा तो अनगिनत समयों तक याने अन्तर्मुहूर्त तक मान मान का ही परिणमन चलेगा। इसी तरह प्रत्येक विभावपरिणाम की यही बात है और इसी कारण उपयोग द्वार से उनका अनुभव होता है, विकल्प होता है और प्रवृत्ति बनती है। केवल दो अवसरों में ऐसा होता है कि जहाँ कोई एक कषाय एक समय को ही रहे। किन्तु उन परिस्थितयों में होने वाली कषाय का अनुभवन नहीं हो पाता, विकल्प नहीं बन पाता।
एक समयमात्र विशिष्ट कषाय रहने का प्रथम अवसर―वे दो अवसर कौन हैं ? जिनमें किसी एक कषाय का एक समय अवस्थान है। एक तो है व्याघात का अवसर और एक है मरण का अवसर। कोई जीव यानी कषाय में आया है, एक समय को आ पाया था कि इतने में कोई लट्ठ बरस जाय, बिजली तड़क जाय, कोई व्याघात हो जाय जिससे यह क्षुब्ध जाय तो वहाँ क्रोध कषाय आ गया। मान कषाय एक समय को ही रह पाया। वहाँ मानकषाय का विकल्प नहीं बन पाता, किसी के एक समय को मानकषाय आया और व्याघात हो गया तो उसके उसका भी बाद में क्रोध ही कषाय आयेगा। व्याघात के समय में क्रोध एक समय रहे सो नहीं होता। मान, माया और लोभकषाय–ये तीन कषाय व्याघात के समय में रह सकते हैं, बाद में नहीं रहते। व्याघात के काल में क्रोध कषाय ही चलता है दूसरा कषाय नहीं आता।
एक समयमात्र कषाय रहने का द्वितीय अवसर―दूसरी परिस्थिति है मरण की। किसी जीव को नरकगति में जाना है। मरण के एक समय पहिले उस जीव के मानकषाय आया था कि एकदम मरण हो गया। जब मरण के समय उसके क्रोधकषाय आ गया क्योंकि नरक में जा रहा है। जो जीव नरक में जायेगा, मरण समय में क्रोध कषाय आयेगी। जो जीव तिर्यंच गति में जायेगा मरण समय में माया कषाय आयेगी। देवगति में जन्म लेने वाले को मरण समय में लोभकषाय आयेगी और मनुष्यगति में जन्म लेने वाले को मरण समय में मानकषाय आयेगी। सो कदाचित् मरण समय में ऐसी स्थिति बन सकती है लेकिन उस एक-एक समय के कषाय परिणमनों से कोई हित नहीं होता है कि लो एक ही समय रहा फिर नहीं रहा तो ठीक रहा। कुछ ठीक नहीं रहा। उसके बाद अनुभाव्य अन्य कषाय जग गयी। तो यह छद्मस्थ अवस्था में जीव के विकल्प निर्माण में ऐसी स्थितियाँ बनती है।
सिद्ध प्रभु की अभिरामता―सिद्ध भगवान् के एक समय की बात का दूसरे समय के परिणमन के साथ ऐसा सम्बन्ध नहीं बनता। अगर सम्बन्ध हो तो केवल ज्ञान काम नहीं कर सकता। प्रत्येक समय में स्वतंत्रता से परिपूर्ण केवलज्ञान चलता रहता है। वह केवल-ज्ञानरूप कार्यसमयसार प्रति समय कारणसमयसार से उठकर चल रहा है, वह सहजज्ञान आनन्द से तन्मय है अर्थात् आनन्दमय है। व्यग्रता को लिए हुए नहीं है, बाधारहित है। जिसकी यह सहज अवस्था सदा अन्त:प्रकाशमान् है, जो अपने में सहज विलास करता हुआ चैतन्य चमत्कार मात्र में लीन है, स्वयं प्रकाशरूप है, नित्य अभिराम है–ऐसा सहज ज्ञान सदा जयवन्त हो।
सुन्दर, मनोहर, अभिराम की उत्तरोत्तर बुद्धि―देखो भैया ! भली बात बताने के लिए तीन शब्द आया करते हैं–सुन्दर, मनोहर और अभिराम। इसमें सुन्दर शब्द तो बड़ा ओछा शब्द है, उससे बढ़कर तो मनोहर शब्द है और उससे बढ़कर अभिराम शब्द है। सुन्दर ने क्या किया ? भली प्रकार से तड़फाकर क्लेश पैदा किया। यह शब्द में आये हुए अर्थ की बात कह रहे हैं। सु उन्द अर, जो भली प्रकार से क्लेश करे उसे सुन्दर कहते हैं। सो देख लो जगत् की हालत। जिसको जो सुन्दर लगता है उस ही से वह आफत में पड़ता है। सुन्दर से अच्छा तो मनोहर है, जो मन को हरे। इस शब्द में तड़फाने की बात नहीं भरी हुई है। अगर वह तड़फता है तो उसमें सुन्दरता का सम्बन्ध है, किन्तु मनोहर शब्द के अर्थ में भी थोड़ा बिगाड़ है, मन को हर लिया। जैसे कोई किसी के धन को हर ले तो उसमें पाप लगता है ना ? इन सबसे अच्छा शब्द है अभिराम। हैं तीनों एकार्थक शब्द, पर अभिराम मायने जो अपनी आत्मा में सर्वप्रकार से ऋद्धि और सम्पन्नता वर्ते उस परिणति का नाम है अभिराम।
कारणसमयसार की अभिरामता―यह कारणसमयसार सुन्दर नहीं है, मनोहर नहीं है किन्तु अभिराम है। ऐसा नित्य अभिराम जो अन्धकार से परे ज्योतिस्वरूप है ऐसा कारणसमयसार सदा जयवन्त प्रवर्तो, जिसके प्रकाश के कारण भव-भव के बन्धे हुए कर्म कट जाते हैं, अनन्तकाल के संकट टल जाते हैं–ऐसा यह सहजज्ञान कारणसमयसार सदा जयवंत प्रवर्तो। हो गया सब। जैसा प्रस्ताव किया जाता है, बात बतायी जाती है तो चार छ: आदमी जब बता चुकते हैं तो उसके बाद जो कोई कहेगा वह यही कहेगा कि अब बताने का समय नहीं है, अब तो यह कार्य करने का समय है। कारणसमयसार के सम्बन्ध में बहुत समय से वर्णन चल रहा था। अब वर्णन चलते-चलते धैर्य नहीं रहा कि इसको सुनते ही रहें। सो ज्ञानी के अब यह भावना जगती है कि ऐसा शुद्ध चैतन्यमात्र यह कारणसमयसार जिसमें सहजज्ञान का साम्राज्य भरा हुआ है। अरे यह मैं ही तो हूँ। अब यह मैं निर्विकल्प होकर इस कारणसमयसार स्वरूपरूप उपयोगी होता हूँ।
उपयोग के मूल स्वलक्षण―इस प्रकार जीव के स्वरूप के वर्णन करने के प्रसंग में पहिले कहा गया था कि यह उपयोगमय है। उपयोगमय की व्याख्या ही यह सब चल रही है। उपयोग दो प्रकार का है–ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग दो प्रकार का है–स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। स्वभाव ज्ञान दो प्रकार का है–कारणरूप स्वभावज्ञान और कार्यरूप स्वभावज्ञान। विभावज्ञान दो प्रकार का है–संज्ञानरूप विभावज्ञान, कुज्ञानरूप विभावज्ञान। इस प्रकार ज्ञान के विस्तार में मूल उपदेश इस बात का बताया है कि इस सर्वपर्यायरूप ज्ञानों के स्रोतभूत जो ज्ञानस्वभाव है, सहजज्ञान है, ध्रुवज्ञान शक्ति है तद्रूप अपने आपको स्वीकार करें।
ध्रुवरूप होने की आकांक्षा―जैसे आपको कुछ दिन के लिए राजा बना दिया जाय या अरबपति बना दिया जाय और यह कह दिया जाय कि कुछ दिन के बाद जो तुम्हारे पास है उसे भी छुड़ाकर साधारण कपड़े पहिनाकर हटा दिया जायेगा तो क्या आप ऐसा राज्य लेना पसंद करेंगे ? मैं कुछ दिन के लिए राजा बन जाऊँ? आप तो यही पसंद करेंगे कि जो सदा निभ सके, मेरी तो यह 500 रूपल्ली की दुकान ही भली है, कुछ दिन को राजा बनना या अरबपति बनना आप पसंद न करेंगे। तब आप अपने बारे में वैसा क्यों नहीं सोचते जो आप सदा रहते हैं। इन पर्यायोंरूप अपने को क्यों विचारते हो जो कुछ समय को होती है और फिर खत्म हो जाती हैं। पर को ध्रुवरूप मानने की आदत तो है भीतर में, किन्तु उसका प्रयोग और उपयोग नहीं करना चाहते। कौन चाहता है कि मैं वह होऊँ जो मिट जाऊँ? तो फिर ऐसा ही प्रयोग करो कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञानस्वभाव मात्र हूँ, चित्प्रकाशमात्र हूँ, अन्यरूप नहीं हूँ, ऐसे ध्रुवस्वभाव रूप अपने आपकी प्रतीति करो। यही हैं अपने प्रभु के दर्शन और प्रभु की प्रभुताई पाने का उपाय। अब इसके बाद दर्शनोपयोग के सम्बन्ध में कुछ वर्णन चलेगा।