वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 10
From जैनकोष
जीवो उवओगमओ उवओगो णाणदंसणो होई। णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणं त्ति।।10।। जीव का स्वरूप―यहाँ जीव का वर्णन जीव के असाधारण गुणरूप उपयोग की अपेक्षा से किया जा रहा है। जीव उपयोगमय है। उपयोग किसे कहते हैं ? आत्मा के चैतन्यगुण के अनुकूल वर्तने वाला जो परिणाम है उसे उपयोग कहते हैं। यही उपयोग जीव का धर्म है। वस्तु एक अखण्ड रूप है फिर भी वस्तु की पहिचान के लिए उसमें धर्म धर्मी का भेदकिया जाता है। जीव तो धर्मी है और उपयोग धर्म है। यह उपयोग ज्ञान दर्शन स्वरूप है। ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्य का अनुविधान करने वाला परिणमन उपयोग है। उपयोग और आत्मा में धर्मधर्मीभाव का भेदीकरण―उपयोग और आत्मा का सम्बन्ध धर्मधर्मीरूप से बताया गया है। जैसे प्रदीप और प्रकाश। प्रकाश प्रदीप से कहीं अन्यत्र नहीं है और प्रकाश को छोड़कर प्रदीप कहीं अन्यत्र रहता नहीं, फिर भी प्रकाश धर्म है और प्रदीप धर्मी है। जैसे प्रकाशात्मक प्रदीप में धर्म धर्मी का भेद किया जाता है इस ही प्रकार चैतन्यात्मक आत्मा में चैतन्य और आत्मा में धर्म धर्मी के रूप से भेद किया गया है। उपयोग के मूल में भेद―यह उपयोग ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेद से 2 प्रकार का है, जिसमें ज्ञानोपयोग का तो अर्थ है पदार्थ का ग्रहण जानन विकल्प और दर्शनोपयोग का अर्थ है सामान्य प्रतिभास। उसमें स ज्ञानोपयोग 2 प्रकार का है–स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। जीव उपयोगात्मक है। उपयोग के 2 भेद हैं–ज्ञान और दर्शन। ज्ञान के दो भेद हैं–स्वभावज्ञान और विभावज्ञान अर्थात् ज्ञान के स्वभावरूप ज्ञान और विभाव रूप ज्ञान ऐसे दो भेद हैं। स्वभाव का ज्ञान और विभाव का ज्ञान ऐसा अर्थ नहीं लगाना किन्तु कर्मधारय रूप अर्थ है स्वभावरूप ज्ञान और विभावरूप ज्ञान। शब्द के उपयोगी समास को छोड़कर अन्य प्रकार का समास लगाया तो अर्थ से अर्थांतर हो जायेगा। जैसे–शुद्धोपयोग। शुद्धोपयोग के दो अर्थ हैं–शुद्धउपयोग और शुद्ध का उपयोग। इन दोनों अर्थों में कितना अन्तर हो गया ? शुद्ध का उपयोग पहिले हो जाता है और शुद्धउपयोग बाद में होता है। शुद्ध तत्त्व का ज्ञान करना सो शुद्ध का उपयोग है और उपयोग के अतिरिक्त अन्य भावों से रहित उपयोग का बन जाना इसका नाम है शुद्धोपयोग। स्वभाव शब्द का अर्थ है स्वभावरूप ज्ञान और विभाव ज्ञान का अर्थ है विभावरूप ज्ञान। समासों में इष्टानिष्टता―कुछ पुरानी घटना है कि बनारस में एक छोटी उम्र का बालक था, किन्तु था बहुत विद्वान् । बड़े-बड़े विद्वानों को अपनी विद्या से छका देता था। एक बार विद्वानों का बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ। उस सभा के अध्यक्ष बनाए गए गंगाधर गुरु और वह छोटी उम्र का विद्वान उस सम्मेलन में न आ पाया। इसके लिए टिकटों की व्यवस्था की गई। जिस विद्वान के पास टिकट होगा वही इसमें आ सकेगा और उसको टिकट न दिया गया जो छोटी उम्र का विद्वान् था व कुमार अवस्था का नटखटी विद्वान था जो सबको अपनी विद्या से छका देता था। उसने सोच लिया कि सम्मेलन में मैं पहुचूँगा जरूर, किसी भी तरह पहुचूँ। उसने एक पालकी मँगवाई, चार कहार आ गए और एक आदमी चमर ढोने वाला, दो आदमी छत्र लिए हुए अगल बगल में खड़े हुए। वह पालकी पर सवार हुआ और पालकी के चारों ओर खूब श्रृङ्गार किया जिससे उसकी शक्ल न साफ-साफ दीखे। वह पालकी में बैठ गया और सबको समझा दिया कि यह कहते जाओ कि गंगाधर गुरु की जय। सो वे सब कहते जायें–गंगाधर गुरु की जय। पहरे पर जो टिकिटचेकर खड़े हुए थे, उन्होंने सोचा कि गंगाधर गुरु आ रहे हैं इन्हें टिकिट की क्या पूछना है ? कितने ही लोग साथ में हों, इन्हें जाने दो। जब सम्मेलन में वह कुमार विद्वान् पहुँचा तो उन सब विद्वानों को यह दिख गया, सो उनमें जो बूढ़े विद्वान् थे वे बोले कि तुम यहाँ कैसे आ गए ? तुम्हें तो टिकिट भी नहीं मिली थी। तो बोला वाह गंगाधर गुरु की जय कहा कि इसका मतलब। बोला कि गंगाधर गुरु की जय बोलते हुए हम पालकी में आ गये। लोग कहते हैं कि तुमने झूठ क्यों बोला ? क्या तुम्हारा गंगाधर गुरु नाम है जो लोगों से बुलवाते हो ? वह बोला कि जिसने जय बोला है वे सत्य बोलते हैं, झूठ नहीं बोलते हैं। लोग कहते हैं कि कैसे है सत्य ? बालक बोला कि देखो–गंगाधरगुरु का अर्थ क्या है–गंगाधर: गुरु:यस्य स गंगाधरगुरु:। गंगाधर गुरु है जिसका उसका नाम है गंगाधरगुरु। लोग कहते हैं वाह गंगाधर गुरु का तो सीधा अर्थ है गंगाधर गुरु। इसमें कर्मधारयसमास है। यह तो विशेष्यविशेषणभाव है, तुमने यह नया समास कहाँ से ढूँढ़ निकाला ? गंगाधरगुरु कहते हैं–गंगाधर है गुरु जिसका उसका नाम है गंगाधर गुरु। संस्कृत जानने वाले यह समझ जायेंगे कि इसका अर्थ अशुद्ध नहीं है। लोग कहते हैं कि इसमें कर्मधारय समास को छोड़कर बहुब्रीहि समास का अर्थ क्यों किया ? तो वह बालक बोला–गत्यन्तराभावात् । तुम्हारे इस सम्मेलन में मेरे आ सकने का कोई दूसरा उपाय ही न था। इसलिए इसका बहुब्रीहि समास करके डंके की चोट से आप लोगों के बीच में आ गया तो भैया ! समासों में ऐसा अद्भुत अर्थ हुआ करता है कि उनकी अपेक्षा को न जानें तो विवाद कर बैठें। स्वभावज्ञान के लक्ष्य―यहाँ बताया जा रहा है कि ज्ञान दो प्रकार के हैं–स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। स्वभावज्ञान जो होगा वह बाधारहित अतीन्द्रिय अविनाशी और दोषरहित होगा। स्वभावज्ञान कहने से दो जगह दृष्टि देनी चाहिए। एक तो केवल ज्ञान पर और दूसरे आत्मा के सहज ज्ञानस्वभाव पर। यह सहजज्ञानस्वभाव भी स्वभाव ज्ञान है और निर्दोष पवित्र अत्यन्त स्वच्छ केवल ज्ञान भी स्वभावज्ञान है। इसको स्वभाव कार्यज्ञान और स्वभाव कारणज्ञान–इस तरह से दो भेदों में रखे। स्वभावकार्यज्ञान तो निर्मल केवलज्ञान हैं जो कि सकलप्रत्यक्ष है और स्वभावकारण ज्ञान स्वभावकार्यज्ञान का कारण है। स्वभावज्ञान की निरावरणता―यह ज्ञान त्रिकाल निरुपाधि है। स्वभाव में आवरण आ जाय तो स्वभाव का ही विनाश हो। स्वभाव निरावरण है। स्वभाव स्वभावरूप ही तो है। उसमें आवरण मानने की क्या आवश्यकता है ? विभावरूप परिणमन के समय भी चूँकि स्वभाव स्वभाव ही रूप रहता है, शक्तिरूप है। अब उस शक्ति में आवरण की आवश्यकता नहीं है जिससे कि विभाव सिद्ध करने में सुविधा हो। विभाव दशा में आवरण है और वह आवरण व्यक्ति का आवरण है शक्ति का आवरण नहीं है। जैसा जीव का स्वभाव है तैसा प्रकट न होने देने में आवरण निमित्त होता है, पर शक्ति का आवरण नहीं होता है। यह सहज कारणज्ञान परमपारिणामिक भाव में स्थित है जो त्रिकाल निरुपाधि रूप है। इस सहजज्ञान का आश्रय करके ही सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति और पूर्णता होती है। इस सहजज्ञान के पोषण के प्रताप से, दर्शन और अवलम्बन के प्रताप से ज्ञान की वृत्ति ऐसी शुद्ध होती है कि उस ज्ञान–व्यक्ति के द्वारा यह चेतन तीन लोक, तीन काल के समस्त पदार्थों को एक साथ स्पष्ट ज्ञान में ले लेता है। कारणस्वभावज्ञान के अवलम्बन से कार्यस्वभावज्ञान―भैया ! जानन का परिश्रम कर करके कोई सर्वज्ञ नही बन सकता। जैसे धन का संचय करते-करते कोई धनी बन जाया करता है। इसी तरह यह ज्ञान पूर्ण करने की धुन में ज्ञान को पैदा करके ऐसे विविध ज्ञानों का संचय करके कोई सर्वज्ञ नहीं बन सकता है, किन्तु वह ज्ञान के संचय करने की बुद्धि त्यागकर मात्र सहजज्ञान जो सामान्यस्वरूप है, निर्विकल्प है उसका अवलम्बन ले तो ऐसे ज्ञान की स्फूरणा होती है कि जिसके द्वारा यह समस्त विश्व का ज्ञाता हो जाता है। ऐसा यह सहज ज्ञानस्वभाव कारण ज्ञान कहलाता है। स्वभावज्ञान को स्वभावकार्यज्ञान और स्वभावकारण ज्ञान–इन दो रूपों में बताया है, किन्तु विभावज्ञान शेष पर्यायरूप ज्ञान कहलाता है। कुज्ञानों में केवलविभावरूपता―विभावज्ञानों में से कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ज्ञान ये तो केवल विभावरूप हैं और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान विभावरूप तो है, पर इसमें स्वभाव प्रत्यय का सम्बन्ध होने से ये सब स्वभावरूप भी कहे जाते हैं और अपूर्ण व औपाधिक होने से विभावरूप भी कहे जाते हैं। चूँकि ये पूर्ण प्रकट नहीं हुए हैं और नैमित्तिक हैं। इस कारण ये भी विभावरूप ज्ञान कहे जाते हैं। इस विभावरूप ज्ञान में जो कि केवल विभावरूप बताया गया है कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान ओर कुअवधिज्ञान–इनमें विभावरूपता जो आयी है वह अन्यगुणों के विकार के कारण आयी हैं, ज्ञान के विकार के कारण नहीं आयी। इस आत्मा के जो मोह कलंक लगा हुआ है उसके सम्बन्ध से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में कुत्सितपना आया है। ज्ञान की विकृतता का अभाव―भैया ! ज्ञान आवृत तो होता है, परन्तु विकृत नहीं होता है। श्रद्धा और चारित्र गुण विकृत हुआ करते हैं ज्ञान गुण विकृत नहीं होता है। जीव का असाधारण स्वरूप है ज्ञान और दर्शन। ये ज्ञान दर्शन भी यदि विकाररूप हो जाया करते होते तब बड़ी कठिन नौबत आती, किन्तु ऐसा नहीं होता है। मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव के भी ज्ञान और दर्शन विकाररूप नहीं हुआ करते, पर उसके साथ जो मोह कलंक लगा है सो वह विकार भी कुछ अलग तो नहीं है ना, एक ही आधार में तो हैं। इस कारण ज्ञान में कुत्सितपना आ जाता है। विभावपरिणति के प्रसंग में अचेतक–अचेतकों का निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध―विभावपरिणमन में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध अचेतक अचेतक में हुआ करते हैं, चेतन-चेतन में नहीं होता है। जैसे पुद्गलद्रव्य में अग्नि का सम्बन्ध पाकर पानी उष्ण हो जाता है, सूर्य का सन्निधान पाकर पदार्थ उष्ण हो जाता है, वह अचेतक है और ये जल, पत्थर भी अचेतक है। यहाँ एकेन्द्रिय जीव से मतलब नहीं है, क्योंकि जीव में स्पर्श गुण नहीं हुआ करता है। जिस स्पर्शगुण का निमित्त पाकर दूसरे पदार्थ का स्पर्श विकृत हो गया उस स्पर्श के आरधारभूत अचेतन के नाते से ही इस दृष्टान्त में देखना। तो एक विकृत अचेतन का निमित्त पाकर दूसरा अचेतक पदार्थ विकृत हो गया, इसी प्रकार आत्मा में विकार लाने के निमित्तभूत है पुद्गल कर्म। वह पुद्गल कर्म अचेतक है, पुद्गल ही तो है आखिर और उन पुद्गलकर्मों के उदय का निमित्त पाकर श्रद्धा और चारित्रगुण विकृत हो जाते हैं। सो यह श्रद्धा और चारित्रगुण भी अचेतक हैं अर्थात् चेतने वाले नहीं हैं। प्रतिभास इनका स्वरूप नहीं है। जो चेतकगुण है प्रतिभासने का स्वरूप रखते हैं उन गुणों में विभाव नहीं आता। वे केवल आवृत होते हैं। न हो ज्यादा ज्ञान, इतना ही ज्ञानावरण कर्म का निमित्त है, पर हो जाय उल्टा ज्ञान ऐसा कोई निमित्त नहीं है। जानते हुए के साथ-साथ जो राग और मोह लगा हुआ है वह सब ही बिगड़ी हुई श्रद्धा और चारित्र का प्रताप। ज्ञान की यथार्थता का प्रभाव―भैया ! कम जानना घातक नहीं है किन्तु उलटा जानना घातक है। कितने ही शात्र और विद्याएँ पढ़कर यदि ज्ञान की मोड़ उल्टी है तो उससे जीव का अकल्याण है और कोई विद्या शात्र में अधिक निपुण नहीं है, किन्तु ज्ञान की मोड़ सीधी है तो वह कल्याण का पात्र बनता है। एक बुढ़िया के दो लड़के थे। एक को तो दिखता था थोड़ा-थोड़ा, किन्तु जैसा का तैसा और एक लड़के को दिखता था तेज बड़ी दूरी की भी चीज किन्तु दिखता था पीला-पीला। दोनों लड़कों को बुढ़िया वैद्य के यहाँ ले गयी। तो वैद्य ने दोनों को एक दवा बतायी। यह मोती भस्म ले जाओ और चाँदी के गिलास में गाय के दूध में इसे घोल करके पिला देना। कुछ दिन में इनकी ज्योति ठीक हो जायेगी। बुढ़िया दवा ले गयी। पहिले कम दीखने वाले को दवा दी। चाँदी का ही कटोरा ले गाय के ही दूध में मोतीभस्म मिलाकर दी तो लड़का उस दवा को पी गया। किन्तु, जब पीला-पीला दीखने वाले लड़के को दवा दी जाने लगी तो वह बोलता है कि माँ क्या मैं ही तुम्हारा दुश्मन हूँ जो पीतल के गिलास में गाय के मूत्र में यह डालकर दे रही हो ? उसे तो सब पीला-पीला ही दिखता था। उसने दवा नहीं पी। तो कम दीखने वाला तो औषधि सेवन करके स्वस्थ हो गया, किन्तु जो तेज देखने वाला जिसे पीला-पीला ही दिखाई देता था उसने औषधि का स्पर्श नहीं किया, फिर रोग कैसे दूर हो ? ज्ञान की विभावरूपता का कारण―तो ज्ञान के साथ जो मोह कलंक लगा रहता है उससे इसकी दशा बदल जाती है। वह मोह रागभाव इसको संभाल में नहीं आने देता। हालांकि विद्या पढ़ी है, जानकारी बढ़ी है तो भी उस मोह राग की तीव्रता के कारण यह सीधा ज्ञान नहीं करता और जिसका मोह दूर हो गया है, सम्यक्त्व जग गया है ऐसा जीव मेढक हो, बैल हो, हाथी घोड़ा सिंह हो या कम पढ़ा लिखा भी मनुष्य हो वह अपने वर्तमान विकसित ज्ञान के बल से सन्मार्ग पर चल लेगा और सन्मार्ग पर चलने के प्रताप से चूँकि यह भी बड़ी तपस्या है सो ज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेष होने लगेगा और उसका ज्ञान बढ़ जायेगा। कम ज्ञानी पुरुष के केवलज्ञान नहीं हुआ करता है किन्तु सम्यक्त्व हो जाता है। यह सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व और चारित्र के बल से जब श्रेणी में चढ़ता है तो श्रेणी में श्रुतज्ञान की पूर्णता हो जाती है और उसके बाद फिर उसके केवलज्ञान होता है। यों जानना कि कुमति, कुश्रुत, कुअवधि तो केवल विभावरूप हैं और शेष चार ज्ञानस्वभाव के उन्मुख है, किन्तु विभावरूप हैं। जीव के लक्षणभूत उपयोग के दो भेद बताये हैं–ज्ञान और दर्शन। उन भेदों में से ज्ञान के भेद का अब दो गाथाओं में वर्णन करते हैं।