वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 16-17
From जैनकोष
माणुस्सा दुवियप्पा कम्ममहीभोभूमिसंजादा।
सत्तविहा णेरइया णादव्वा पुढविभेदणे।।16।।
चउदहभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउब्भेदा।
एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं।।17।।
मनुष्यशब्द का व्युत्पत्त्यर्थ व मानव के प्रकार―चारों गतियों का स्वरूप कहो या व्यंजनपर्याय का स्वरूप कहो, एक बात है। मनुष्य दो प्रकार के होते हैं, वैसे तो मनुष्य तीन प्रकार के हैं, पर लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य को यहाँ अभी नहीं लिया गया है। मनुष्य शब्द की व्याख्या है–जो मनु की संतान हों, उन्हें मनुष्य कहते हैं। अन्य जगह भी यह बात प्रसिद्ध है कि सब मनुष्य मनु की संतान है और जैनसिद्धान्त में यह बताया है कि भोगभूमि मिटने के बाद कुछ मनु हुआ करते हैं, जो कि कर्मभूमि की एक नयी व्यवस्था बनाते हैं अथवा कुलकरों के जो संतान है, उन्हें मनुष्य कहते हैं। मनुष्य कहो या कुलकर कहो, एक बात है। पश्चात् यह मनुष्य शब्द कुछ रूढ़िरूप हो गया। विदेहक्षेत्र में तो कभी कुलकर नहीं होते, क्योंकि वहाँ स्थायीरूप से कर्मभूमि हैं। कुलकर तो वहाँ होते हैं, जहाँ पहिले भोगभूमि हों और भोगभूमि मिटकर कर्मभूमि बने तो यद्यपि विदेहक्षेत्र में स्थायी कर्मभूमि होने के कारण कुलकर नहीं होते हैं, फिर भी मनुष्य शब्द रूढ़ि से वहाँ के लिये भी पुकारा जाता है। ये मनुष्य दो प्रकार के होते हैं–कर्मभूमिज मनुष्य और भोगभूमिज मनुष्य। जो कर्मभूमि में पैदा हुए हों, वे कर्मभूमि के मनुष्य हैं और जो भोगभूमि में पैदा हों, वे भोगभूमि के मनुष्य हैं।
भोगभूमिज मनुष्यों की परिस्थितियाँ―कर्मभूमि में कार्य करना पड़ता है, तब गुजारा होता है। लिखने का काम, खेती का काम, व्यापार का काम, सेवा का काम, अन्य कला का काम या हथियार का काम आदि कुछ भी काम करें, तब वहाँ उसका गुजारा है, पर भोगभूमि में आजीविका का कोई कार्य नहीं करना पड़ता है–ऐसा सुनकर कई लोग सोचें कि यार हम वही होवें तो अच्छा है, पर भोगभूमि के जीव कर्मभूमि से कुछ विशेष नहीं माने जाते हैं। वे भोग में मस्त रहते हैं, जो मन में इच्छा हुई, वहाँ भोग उनके सामने आ जाते हैं। इसी प्रकार के वहाँ कल्पवृक्ष की रचना है। जीवनभर वे अपने भोगों में रत रहा करते हैं। एक सम्यग्दर्शन उनके हो, इतनी बात तक तो वहाँ है, पर देशव्रत या साधुव्रतरूपपर्याय की प्रकृति कर पायें–ऐसी वहाँ प्रकृति नहीं है। भोगभूमि में विकार का भी दु:ख नहीं होता है। पुरुष व त्री एक साथ मरते हैं और जब बच्चे हों तो लड़का और लड़की एक साथ पैदा हों और उनके पैदा होते ही माँ बाप गुजर जायें तो न लड़के को हीड़ना रहे और न माँ बाप को हीड़ना रहे। ऐसे बड़े सुख प्रसंग में ये भोगभूमि के मनुष्य रहते हैं। ये पाप भी अधिक नहीं कर पाते और पुण्य भी अधिक नहीं कर पाते। इसी कारण ये मरकर दूसरे स्वर्ग तक में जन्म लेते हैं। इससे और ऊपर इनका जन्म नहीं है और देवगति के सिवाय अन्यपर्यायों में भी इनका जन्म नहीं होता है।
कर्मभूमिज मनुष्यों की परिस्थितियाँ―किन्तु कर्मभूमियाँ मनुष्य, कैसे हैं अपन ? वाह रे हम जहाँ चाहे पैदा हो सकते हैं। भले ही इस कलिकाल के कारण ऊपर के स्वर्गों में व मुक्ति में नहीं जा सकते लेकिन मनुष्य ही तो जाया करते हैं। अपन तो मनुष्य के नाते बोल रहे हैं। कर्मभूमि के मनुष्य मोक्ष चले जायें, वैकुण्ठ चले जायें, स्वर्ग चल जायें, ऊर्ध्व लोक में सर्वत्र उनका जन्म हो सकता है और मोक्ष भी हो सकता है। वैकुण्ठ किसे कहते हैं कि लोक के नक्शे में कंठ के जगह में जो रचना बनी हुई है–ग्रेवयक है, अनुदिश है, सर्वार्थसिद्धि है, ये सब वैकुण्ठ कहलाते हैं। इनमें से चिलबिलाहट से भरे हुए वैकुण्ठ तो ग्रेवयक हैं, जहाँ तक मिथ्यादृष्टि का भी जन्म है और ऊपर के जन्म हैं उनमें चिलबिलाहट नहीं पायी जाती है। इस ग्रेवयक बैकुण्ठ में सागरों पर्यन्त ये जीव रहते हैं। फिर इतना बड़ा कालावधि व्यतीत होने पर फिर उन्हें यहाँ जन्म लेना पड़ता है। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि जीव ज्यादा से ज्याद बैकुण्ठ में चला जाय तो वहाँ से बहुत दिनों के बाद में धक्के देकर गिरा दिया जाता है, उसे फिर संसार में आना पड़ता है, ऐसा प्रसिद्ध है कहीं कहीं। वह यही बैकुण्ठ है। तो ऊर्ध्वलोक में जहाँ चाहे ये कर्मभूमियाँ पैदा हो लें।
कर्मभूमिज मनुष्यों के सर्वत्र जन्म की संभवता―वाह रे हम मनुष्य नरकों में सब जगह पैदा हो लें, औरों को तो कैद है। देव नरकों में उत्पन्न नहीं हो सकते। चौ इन्द्रिय तक के जीव नरक में उत्पन्न नहीं हो सकते और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तो पहिले ही नरक में जा सकते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और कर्मभूमि की त्री छठी नरक तक जा सकती है, पर मनुष्य सब नरकों में जा सकता है। एकेन्द्रिय में भी पैदा हो ले, सब जगह इसका द्वार खुला है। अब जहाँ चाहे पैदा हो ले। तो वे दो प्रकार के मनुष्य हैं जिसमें अब कर्मभूमिया की बात कही जा रही है।
कर्मभूमिज मनुष्यों के प्रकार―ये कर्मभूमियाँ आर्य म्लेच्छ इस तरह दो प्रकार के हैं। आर्य जीव तो वे कहलाते हैं जो पुण्य क्षेत्र में उत्पन्न होते हैं, और म्लेच्छ जीव वे कहलाते हैं जो पापक्षेत्र में उत्पन्न होते है। इस व्याख्या से जो पुण्य क्षेत्र है वहाँ जितने मनुष्य हैं वे सब आर्य हुए और जो पापक्षेत्र है जैसे कि लोग कहा करते हैं ऐसा स्थान है जहाँ अन्न का दाना नहीं मिलता बर्फीली जगह, समुद्री जगह तो वह पाप क्षेत्र हैं। ऐसे पापक्षेत्र में रहने वाले म्लेच्छ मनुष्य कहलाते हैं, और भी इनके सम्बन्ध में विशेष वर्णन शात्रों में किया गया है, ये सब कर्मभूमिया मनुष्य हैं। अब भोगभूमिया मनुष्य की बात कही जायेगी।
भोगभूमि के स्थान―जीव के स्वरूप का वर्णन पहिले तो अर्थपर्याय से बताया गया और स्वभाव से बताया गया, इसके पश्चात् मोटे रूप में लोगों को शीघ्र विदित हो सके, इस दृष्टि से व्यंजनपर्यायों का वर्णन चल रहा है। जिसमें मनुष्य व्यंजन पर्याय की बात इस प्रकरण में है। मनुष्य दो प्रकार के हैं–एक कर्मभूमिज और एक भोगभूमिज। भोगभूमिज जीव आर्य कहलाते हैं और कुछ भोगभूमियां निकृष्ट भोगभूमियां भी होती हैं। यह जो जम्बूद्वीप है, उस जम्बूद्वीप में भरत व ऐरावत क्षेत्र में आर्यखण्ड में अस्थिर भोगभूमि होती है। भरतक्षेत्र के बाद जघन्य भोगभूमि शुरू होगी जिसका नाम है हैमवत क्षेत्र, हरिक्षेत्र। इसके आगे उत्तम भोगभूमि मिलेगी जिसका नाम है देवकुरु, फिर उत्तरकुरु नाम उत्तम भोगभूमि मिलेगी, फिर इसके आगे है रम्यकक्षेत्र भोगभूमि, इसके बाद है हैरण्यवत।
जघन्यभोग भूमिजों की आयु―जघन्य भोगभूमि में 1 पल्य की आयु वाले मनुष्य होते हैं। पल्य कितना बड़ा होता है ? उसके प्रमाण समझना हो तो गिनती से नहीं समझ सकते हैं। वह उपमा प्रमाण से जाना जायेगा। मान लो दो हजार कोस लम्बा चौड़ा गहरा गड्ढा है, उस गड्ढे में बाल के छोटे-छोटे टुकड़े जिनका दूसरा हिस्सा न हो सके ऐसे रोम खूब कटकर भरे हुए हों, उपमा ही तो है। इतने बड़े विस्तार की बात गिनती द्वारा नहीं बतायी जा सकती है। उसका उपाय उपमा है और कल्पना में मान लो उस गड्ढे पर हाथी फिरा दो, अब समझलो कि उस गड्ढे में कितने बाल भरे हो सकते हैं ? और बाल भी कैसे लो–अपने जो बाल होते हैं ना। ये जितने मोटे होते हैं उनसे 8वां हिस्सा बारीक, जघन्य भोगभूमि के बाल जो होते हैं उनसे भी 8वां हिस्सा कम पतले, मध्यम भोगभूमि में उससे भी 8वां हिस्सा कम पतले उत्कृष्ट भोगभूमि में होते हैं। ऐसे उत्कृष्ट भोगभूमि के कोई 5-7 वर्ष के बालक के बाल ले लो या तो महीन बालों में मेढ़ा प्रसिद्ध होता है सो उसके पतले बाल हों और जिनका दूसरा अंश न हो सके उस गड्ढे में भरे गए। 100-100 वर्ष में 1-1 बाल निकाला जाय, यों सब बाल जितने वर्ष लगें उतने का नाम है व्यवहार पल्य और उससे असंख्यातगुणा काल होता है उद्धार पल्य का और उससे अनगिनतेगुणा काल होता है अद्धापल्य का ऐसे एक-एक पल्य की आयु वाले जघन्य भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यंच होते हैं।
भोगभूमिज जीवों की जीवनी―इतनी पल्यवाली आयु केवल त्री पुरुष के वार्तालाप में ही इस मनुष्य ने व्यतीत की। ये जीव पुण्य के उदय वाले हैं, अपने-अपने आराम से इन्हें प्रयोजन है, विवाद झगड़ा वहाँ होते नहीं है ऐसा वहाँ का वातावरण है। एक तरह से इसे असली मायने में साम्यवाद कह लो। ऐसा साम्यवाद वहाँ है। यहाँ हम आप क्या साम्यवाद कर सकते हैं। कोई क्या करेगा ? विचित्र उदय है कर्मभूमि के मनुष्यों का। जहाँ साम्यवाद भी हो वहाँ एक चीज का साम्य कदाचित् कर लेवे किसी के पास पैसा न रहे, सब राष्ट्रीय सम्पत्ति हो, लोग तो कमायें और सरकारी जगहों में खायें–ऐसा कदाचित् बना भी लो, प्रथम तो यह बहुत मुश्किल है, फिर भी किसी की स्थिति छोटी है किसी की बड़ी है कोई चौकीदार का काम करता है कोई बड़े मिनिस्टर मंत्री बने हुए हैं, तो उनके चित्त में क्या रंज नहीं होता होगा कि हाय हम हुक्म मान-मानकर मरे जा रहे हैं। कहाँ समता ला सकते हैं ? पहिनावे में, भोजन पान में, इज्जत में, उनकी सवारियों में इन सब बातों में कौन समानता ला सकता है ? तो भोगभूमि मायने साम्यवाद का क्षेत्र। जघन्य भोग भूमि में जितने भी मनुष्य तिर्यंच हैं सबका एक-सा काम है।
मध्यम और उत्तम भोगभूमिजों की परिस्थितियाँ―जघन्य भोगभूमि से मध्यमभोगभूमि में उनकी डबल बात है। यहाँ एक पल्य की आयु है तो वहाँ दो पल्य की आयु है। उत्कृष्ट भोगभूमि में तीन पल्य की आयु वाले जीव हैं। तो ऐसे भोगभूमि के जीव मनुष्य व्यंजनपर्याय में हैं।
लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य―एक जीव है लब्ध्य पर्याप्त मनुष्य। ये लब्ध्य पर्याप्त मनुष्य महिलाओं के शरीर से यों ही जहाँ चाहे जगह से उत्पन्न होते रहते हैं और दिखते नहीं है। उनका नाम लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य हैं। एक श्वांस में 18 बार जो जन्ममरण निगोद का बताता है ऐसा ही जन्म मरण वहाँ है। कोई अन्तर नहीं है, चाहे निगोद जीव हो और चाहे लब्ध्यपर्याप्त हो। हाँ, क्षयोपशम का अन्तर है। इनके पंचेन्द्रियवरण का क्षयोपशम है, और मन भी वहाँ बताया जाता है। वे असंज्ञी नहीं होते हैं। तो ऐसे विचित्र-विचित्र मनुष्यपर्याय के जीव हैं।
नारकियों की आवासभूमियां―नारकियों को देखो। यह जो जमीन है, जिस पर हम और आप चलते और डोलते हैं, यह जमीन बहुत मोटी है। इस मोटी जमीन के अन्दर के 3 हिस्से कर लो। पहिले के दो भागों में भवनवासी और व्यन्तरजाति के देवों के मकान हैं और नीचे का जो तीसरा भाग है, उसमें नारकी जीव रहते हैं, वहाँ बहुत नारकी हैं और उनसे नीचे बहुत-सा आकाश छोड़कर दूसरी पृथ्वी है, उसमें दूसरे नरक की रचना है। फिर कुछ आकाश छोड़कर तीसरी पृथ्वी है, उसमें तीसरा नरक है। फिर नीचे कुछ आकाश छोड़कर चौथी पृथ्वी है, वहाँ चौथा नरक है। फिर नीचे कुछ आकाश छोड़कर पांचवी पृथ्वी हे, वहाँ पांचवी नरक है। इसी तरह से छठी पृथ्वी में छठा और सातवीं पृथ्वी में सातवां नरक है। इनमें रहने वाले जीव सदा क्रोधी बने रहते हैं, वे एक दूसरे को कुत्ते की तरह देख कर लड़ते मरते हैं। उनमें ऐसा पाप का उदय है कि उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएं तो भी पारे की तरह मिलकर फिर उनका पूर्ण शरीर बन जाता है।
नरकभूमियों के बिल―उन नरकों में बड़े-बड़े बिल हैं। कितने बड़े बिल हैं ? कोई 10 हजार कोस का समझो, कोई 50 हजार कोस का समझो, इतने ही नहीं, बल्कि इनसे भी बड़े। ये तो कुछ भी बड़े नहीं हैं और बड़े-बड़े हजारों योजनों के लम्बे-चौड़े बिल हैं। उनका नाम बिल क्यों रखा गया ? इतनी बड़ी लम्बी-चौड़ी जगह का नाम बिल यों है कि वहाँ उजाला भी नहीं है। उन बिलों में किसी ओर मुख नहीं है। जैसे एक हाथभर का लम्बा चौड़ा और उतना ही मोटा पाटिया हो और उस पाटिये के बीच बीच में ऐसे छिद्र हों कि आपको पता ही न पड़े कि इस पाटिया में छिद्र हैं। आप कभी सागवन का सिली पर लेने जाते हैं या कोई मोटा टुकड़ा लेने जाते हैं तो उसमें आपको कहीं बिल नहीं दिखता है, पर जब उसे कटाने लगते हैं तो उसमें कहीं न कहीं बिल निकल आता है। इसी तरह इस पृथ्वी में किसी ओर से मुख नहीं है उस नरक में जाने के लिये और बीच ही बीच में इतने बड़े बिल बने हुए हैं।
नरकबिलों की रचनाएँ―पहिले नरक में 13 जगह बिलों की रचना है। जैसे एक पटल होगा, उसमें पहिले बिलों की रचना है, फिर उसके नीचे दूसरा पटल आया तो उसमें दूसरे बिलों की रचना है। पृथ्वी का कुछ टुकड़ा छोड़कर तीसरा पटल आया तो वहाँ बिल है। इस तरह 13 जगह बिलों की रचना है। नीचे-नीचे नरकों में दो-दो पटल कम है, 7वें नरक में केवल एक ही पटल में बिलों की रचना है। इन नरकों में ऐसे जीव उत्पन्न होते हैं, जो तीव्र आरम्भ वाले हैं, अधिक परिग्रही हैं, जिनको आत्महित का कुछ भी ध्यान नहीं है। लोगों में धन कमाने, आरम्भ और परिग्रह के तीव्र कषाय हैं, इनमें पड़ने से लोग नरकायु का बन्ध करते हैं और उन्हें नरकों में जन्म लेना पड़ता है। एक यह उक्ति है कि लोग पाप का फल तो चाहते ही नहीं है और पाप को भी नहीं छोड़ना चाहते हैं। लोग पुण्य का फल तो चाहते हैं और पुण्य को करना नहीं चाहते हैं–ऐसी स्थिति में क्या हो ? वे ही दु:ख होते हैं।
जीवों के परिणाम के माप का उदाहरण―एक किम्वदन्ती है कि एक बार नारद घूमते-घूमते पहिले नरक गए थे। नरक में देखा था कि इतने जीव भरे पड़े थे कि कहीं खड़े होने की जगह ही न मिली और जब बैकुण्ठ पहुँचे तो यह देखा कि खाली विष्णु भगवान् पड़े हैं। नारद विष्णु से बोले कि हे भगवन् ! आप बड़ा पक्षपात करते हो, नरक में तो इतने जीव भर दिये कि वहाँ खड़े होने तक की जगह नहीं मिली और यहाँ आप अकेले पड़े हुए आराम कर रहे हैं। विष्णु बोले कि हम क्या करे, कोई यहाँ तो आना ही नहीं चाहता। नारद ने कहा कि महाराज ! हमें इजाजत दो, हम बहुत से लोगों को यहाँ ले आएँ। सो विष्णु ने एक पासपोर्ट लिख दिया कि तुम ले आओ यहाँ जिसको चाहो।
वृद्ध पुरुषों का व्यामोह―अब नारद खुश होकर बड़ी जल्दी से इस लोक में आए। सो सबसे पहिले लगभग 60 साल के एक बाबा मिले। उनसे कहा कि बाबा बैकुण्ठ चलोगे ? चलो हम तुम्हें बैकुण्ठ ले चलेंगे। बैकुण्ठ कोई मरे बिना तो जा नहीं सकता, सो बाबा बोले कि हम ही तुमको मिले हैं ? इसी तरह कई बूढ़ों के पास गए, पर कोई बूढ़ा जाने को तैयार न हुआ।
युवकों का व्यामोह―जब किसी भी वृद्ध से दाल नहीं गली तो नारद ने सोचा कि अब जवानों के पास चलें, क्योंकि वृद्ध तो जाने को तैयार ही नहीं हैं। अब वे एक लगभग 25 साल के जवान के पास गये और बोले कि चलो, हम तुम्हें स्वर्ग ले चलेंगे, किन्तु वह युवक भी जाने को तैयार नहीं हुआ। उसने कहा कि अभी एक लड़का है, उसको पढ़ाना है, लिखाना है, शादी करनी है, अभी हमें जाने की फुरसत नहीं है। इसी तरह से कई युवकों के पास नारद जी गये, लेकिन कोई भी जाने के लिये तैयार नहीं हुआ।
अल्पवयस्कों का व्यामोह―फिर नारद कुछ लड़कों के पास गये। सबसे पहिले एक लड़का लगभग 18 वर्ष का एक मन्दिर के चबूतरे पर माथे पर तिलक लगाये हुए माला फेरता हुआ दिख गया। नारद ने सोचा कि यह लड़का जरूर हमारे संग में चलेगा। सो नारद ने उस लड़के से कहा, चलो बेटा हम तुम्हें स्वर्ग ले चलें ? लड़का साथ में जाने को तैयार हो गया। जब थोड़ा चला तो बोला कि महाराज अभी कुछ दिन हुए सगाई हुई थी, अभी तीन दिन शादी के हैं, सब बराती तो आ गए हैं, सो शादी हो जाने दो, ऐसे समय पर जाना अच्छा नहीं लगता है, सो कृपा करके आप तीन वर्ष के बाद में आना तब हम चलेंगे। नारद ने कहा अच्छी बात। तीन साल के बाद में नारद फिर आए, बाले कि चलो बेटा स्वर्ग। तो वह लड़का बोला कि महाराज अब तो त्री के गर्भ रह गया है, बच्चा हो जाय, सभी लोग बच्चे को तरसते हैं कि बच्चे का मुँह देख लें सो आप 10 वर्ष गम खाओ फिर चलेंगे। 10 वर्ष के बाद में नारद फिर आए, कहा चलो बेटा स्वर्ग। तो वह बोला कि अब यह बच्चा हो गया है, इसे अनाथ कहाँ छोड़े, इसे ऐसा बना दें कि यह गृहस्थी संभालने लायक हो जाय, सो आप 20 वर्ष के बाद आना तब चलेंगे। नारद 20 वर्ष के बाद में फिर आए, बोले कि अब तो चलो। तो वह बोला कि बेटा तो कुपूत निकल गया। धन बहुत जोड़कर रखा है। अगर हम चलते हैं तो यह लाखों का धन 7 दिन में बरबाद हो जायेगा, सो अभी तो नहीं चलेंगे पर कृपा करके आप दूसरे भव में जरूर आना। तब हम जरूर चलेंगे। नारद चले गए।
भवान्तर में भी व्यामोह―वह बुड्ढा होकर मरकर सांप बन गया और उसी स्थान पर रहने लगा जहाँ धन गड़ा था। नारद वहाँ भी पहुँचे। वहाँ कहा कि चलो अब तो स्वर्ग चलो। तो वह फन हिलाकर वहाँ से भी जाने के लिए मना करता है। अब नारद ने सोचा कि विष्णु भगवान् सही कहते थे कि यहाँ कोई आना ही नहीं चाहता है। इसलिए खाली है। सो लोग फल तो पुण्य का चाहते हैं पर पुण्य नहीं करना चाहते और लोग पापों से डरते हैं, पर पापों से मुख नहीं मोड़ते।
संसारी जीवों की दयनीय स्थिति―भैया ! संसारी जीवों की ऐसी दयनीय परिस्थिति है कि उनका कोई सहारा नहीं है। कुटुम्ब के लोगों को अपना हितू समझकर उनके लिए कमायी करते हैं। बहुत-बहुत परिग्रह इकट्ठा करते हैं। पर जब मरण होगा तो ये सब बिछुड़ जायेंगे। कोई भी कुटुम्ब के लोग मरण के समय साथी न होंगे। यहाँ पर सभी अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। एक मिनट में ही सारा फैसला हो जाता है, कोई भी पूछने वाला नहीं रहता है। इस जगत् में हम और आपका कोई दूसरा जिम्मेूदार नहीं है। यह धन वैभव तो पुण्य का उदय है सो मिलता है। इस धन वैभव से इस आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है।
शुद्धात्मशरणता―आत्मा का स्वरूप जो ज्ञानस्वभाव है उसकी दृष्टि होने पर ऐसा अलौकिक आनन्द शुद्ध स्वच्छता प्रकट होती है कि जिसके प्रताप से भव-भव के पाये हुए पापकर्म निर्जरा को प्राप्त होते हैं। एक ही शरण है हम आप लोगों का कि हम अपने सहजस्वरूप रूप अपने को मान ले, मैं तो इतना ही मात्र हूँ, इससे अधिक और मैं कुछ नहीं हूँ। अपने स्वरूपमात्र अपने को मानना भर इतना कठिन लग रहा है इस व्यवहारी जीव को कि इस ओर दृष्टि ही नहीं जाती है और जो चीज पर है, भिन्न है, जिसका सम्बन्ध नहीं है ऐसी चीजों में लगने की बड़ी सुध है।
सुगमता और दुर्गमता―एक हवेली बनवानी है, अर्जी यह तो अपने बायें हाथ का काम है, 50 हजार रुपये का बजट बना लिया, लो 6 महीने में हवेली खड़ी कर दी। उसमें आत्मा कुछ नहीं कर रहा है, केवल विकल्प ही कर रहा है, पर भूल में कुछ अभ्युदय वाले आत्मा के ऐसे विकल्प हुए कि उनका निमित्त पाकर ऐसा तांता बन गया कि सारा काम सिलसिले से होकर 6 महीने में मकान खड़ा हो गया। यह जानता है कि मैंने मकान बनाया सो पर के विकल्पों में पड़ना इसे बड़ा आसान लग रहा है। किन्तु अपने में सहजस्वरूप की दृष्टि जो प्रभु है विभु है, अपने आपकी सब दृष्टियों का कारण है उस स्वरूप पर दृष्टि के लिए बड़ा साहस बनाना पड़ता है।
आत्मरमण बिना क्लेश का अभाव―यह प्राणी जब अपने आपको भूला है तो इसकी दृष्टि पर की ओर जाना स्वाभाविक ही है। जैसे जिस बालक को अपना खिलौना नहीं मिल रहा है वह बालक दूसरे के खिलौने को देखकर रोता है, उसका रोना प्राकृतिक है। अब कई लड़के ऊधम कर रहे हों तो बड़े लोग उसे डांटते हैं–अरे बड़ा लड़कपन करता है और कदाचित् वह लड़का कह दे कि तुम भी जब हमारी उम्र के थे तो तुम भी लड़कपन करते थे। तो लड़कपन में लड़कपन जैसी बात आती है मगर इतनी बात चाहिए कि ऊधम तो करे, पर ऐसा ऊधम करे कि जो सुहावना लगे, दूसरों की विराधना न करे और दूसरों को क्लेश न पहुँचे। वह लड़का दूसरे के खिलौने को देखकर रोने लगा। उसे कोई मना करे कि रोना बंद कर दो तो क्या उससे रोना बंद होगा ? रोना तो तब बंद होगा जब उसका खिलौना उसे मिल जाय।
आत्मदर्शन ही संकटमुक्ति का साधन―इसी तरह अपने स्वरूप के अपरिचयी इस अज्ञानी बालक को अपना खिलौना जो सहज चैतन्यस्वरूप है, वह तो मिला हुआ नहीं है, गुम गया है, तो यह जो रूप, रस, गंध, स्पर्श वे बाहरी खिलौनों को देखकर रोता है। अब इसको कोई दंड देकर या कोई धौंस देकर चाहे कि रोना यह बंद करा दे तो कैसे बंद कर सकता है ? इसे तो अपने सहजस्वरूप को अनादिकाल से देखने की लगन ही नहीं है। इसको तो अपना अंतस्तत्त्व, शुद्ध जीवास्तिकाय प्राप्त हो जाय तो इस का रोना बंद हो सकता है। अर्थात् विषयों के लोभी पुरुष इन विषयों को छोड़ नहीं सकते हैं, तो उनके क्लेश भी नहीं समाप्त हो सकते हैं। है वह सारी व्यर्थ की आकुलता क्योंकि अंत में रह जायेगा यह अकेला का ही अकेला। कुछ साथी न होगा। तो अपने आपकी दृष्टि करके अपने इस सहज अंतस्तत्त्व में रंग जाय तो इससे ही इसकी आपत्तियाँ दूर हो सकती है।
नारकियों की आयु―केवल अशुभ कर्म से नरकगति में जन्म होता है। उन नारकी जीवों में जो प्रथम नरक के जीव हैं उनकी आयु अधिक से अधिक 1 सागर प्रमाण होती है। आयु के संबंध में कल पल्य का प्रमाण बताया था, ऐसे-ऐसे एक करोड़ पल्य में एक करोड़ पल्य का गुणा किया जाय, जो लब्ध हो उसको एक कोड़ाकोड़ी पल्य कहते हैं। ऐसे-ऐसे दस कोड़ाकोड़ी पल्य में एक सागर होता है। दूसरे नरक के नारकियों की आयु तीन सागर प्रमाण तक होती है, तीसरे नरक के नारकियों की आयु 7 सागर प्रमाण तक होती है, चौथे नरक के गतियों की आयु 10 सागर प्रमाण होती है, 5वें नरक के नारकियों की आयु 17 सागर प्रमाण तक होती है, छठवें नरक के नारकियों की आयु 22 सागर प्रमाण तक होती है और 7 वें नरक के नारकियों की आयु 33 सागर प्रमाण तक होती है।
तिर्यञ्चों की व्यञ्जनपर्यायें―तिर्यञ्च वयञ्जनपर्याय की बात सुनिये–तिर्यञ्च जीव 14 जीव समासों में विभक्त जानिये। इन 14 प्रकारों में सब तिर्यञ्च आ जाते हैं। जल्दी जानने के लिए जहाँ तक ऊँचे से नीचे के क्रम के अनुसार सुनिये। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कोई पर्याप्त है कोई अपर्याप्त है। इस पर्याप्त में लब्ध्यपर्याप्त और निवृत्य पर्याप्त दोनों को ग्रहण करना। निवृत्यपर्याप्त उसे कहते हैं कि कोई जीव मरकर मानो बैल बन गया तो जिस समय वह गर्भ में आया तब से लेकर कोई एक दो सेकण्ड तक ऐसी हालत होती है कि जिस पिण्ड के शरीररूप से बन गया उस पिण्ड में स्वयं भी वृद्धि की योग्यता नहीं हो पाती। ज्यों का त्यों रहता है, उसमें बड़वारी नहीं होती है। जब तक उस शरीर के बढ़ने की, बनने की योग्यता नहीं आ पाती है तब तक उसे निवृत्यपर्याप्त कहते हैं। निवृत्यपर्याप्त और लब्ध्यपर्याप्त में फर्क इतना है कि लब्ध्यपर्याप्त तो पर्याप्त नहीं बनेगा और नियम से मरण करेगा। लब्धिपर्याप्त का अपर्याप्त में मरण हो ही जायेगा। निवृत्त्यपर्याप्त पर्याप्त होगा ही, उसका तो पहिले मरण होता ही नहीं है–ऐसे संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त–ये दो प्रकार के तिर्यञ्च हैं।
तिर्यञ्चों में असंज्ञी जीवों की पर्यायें―इनसे और हल्के देखो–असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त व असंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त। जो तिर्यञ्च कान सहित है, पर मन नहीं है, उन्हें असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यंच बोलते हैं। उनमें भी पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों होते हैं। इनमें और हल्के जीव देखो तो चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त। देखो जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र–ये चार इन्द्रिय हैं और जो पर्याप्त भी हो चुके, वे चतुरिन्द्रिय पर्याप्त हैं और जो इनमें पर्याप्त नहीं हुए, चाहे निवृत्त्य पर्याप्त हों या लब्ध्यपर्याप्त हों, वे अपर्याप्त कहलाते हैं। इनसे और भी निम्नश्रेणी के तिर्यंच देखो तो तीनइन्द्रिय पर्याप्त और तीनइन्द्रिय अपर्याप्त–बिच्छु, चींटी, कीड़ी आदि ये तीन इन्द्रिय जीव है, पर्याप्त भी है। अपर्याप्त तो जन्म लेने के समय ही कुछ समय के लिए होता है, तो यह अपर्याप्त भी है। दोइन्द्रिय जीव उनसे जघन्यश्रेणी के है। जैसे लट, सीपी, जोंक, कीड़ी दोइन्द्रिय जीव हैं। पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों तरह के होते हैं ये।
एकेन्द्रिय तिर्यंचों की पर्यायें―त्रस से भी निकृष्ट हैं एकेन्द्रिय जीव। एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के पाये जाते हैं–कोई सूक्ष्मएकेन्द्रिय और कोई बादरेकेन्द्रिय। जो अत्यन्त सूक्ष्मशरीर वाले है, दिखने का तो काम ही नहीं है उनका और न भिड़ने का ही काम है। आग जल रही हो तो आग से वे न मरेंगे, वे बहुत जल्दी-जल्दी अपनी मौत से मरते रहते हैं। इतना सूक्ष्म शरीर होता है कि वायु, पत्थर, आग, पानी किसी से भी उनका आघात नहीं होता है। इससे उन्हें कुछ भला न समझो, वे अपनी मौत से तुरन्त जल्दी-जल्दी मरते रहते है। बादरएकेन्द्रिय जीव वे हैं, जिनके शरीर का आघात हो सकता है, लड़-भिड़ सकते हैं, ये हैं बादरएकेन्द्रिय। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति–ये 5 प्रकार के स्थावर होते हैं। इनमें ये चारों जीव समास घटित कर लो, बादरएकेन्द्रिय पर्याप्तभूत और अपर्याप्त तो ये हैं और सूक्ष्मएकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त हैं। इस तरह से तिर्यंच जीव चौदह प्रकार के जानने चाहिए। तिर्यंचों का तो यह रूप सामने दिख ही रहा है। ये निगोद भी तिर्यंच कहलाते हैं। ये वनस्पतिकाय के भेद में हैं।
इन्द्रियजाति के प्रति संसारी जीवों की मोटी पहिचान―इन जीवों में जरा जल्दी पहिचान करना हो कि यह कितनी इन्द्रिय का जीव है तो मोटी पहिचान बताते हैं। सम्भव है कि यह पहिचान पूरी नियमरूप न हो लेकिन इससे अदांजा बहुत हो जाता है। जिसके कान हों वह पंचेन्द्रिय है ही। चिड़िया है, पशु है, बैल हैं ये सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हैं ही और चौइन्द्रिय तिर्यञ्च छोटे और उड़ने वाले जीव होते हैं। जैसे मक्खी, मच्छर, टिड्डी, ततैया ये चौइन्द्रिय जीव कहलाते हैं और तीनइन्द्रिय जीव वे हैं जो जमीन पर चलते हैं और बहुत से पैर होते हैं, कीड़ी, बिच्छू, कानखजूरा, पटार, गोभी, तिरूला, खटमल, गिजाई ये सब तीनइन्द्रिय जीव हैं। जिनके पैर नहीं होते सरकते हुए रहते हैं, लट, केचुवा, जोक और सीप, कोड़ी, शंख में जो कीड़ा रहता है वह ये सब दो इन्द्रिय जीव हैं। सीप के भीतर कीड़ा है। कौड़ी के भीतर कीड़ा है, ये दो इन्द्रिय जीव हैं। एकेन्द्रिय तो वे हैं जिनके जीभ होती ही नहीं है–पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति।
विषमता का अन्तर―देखो भैया ! ज्ञानानंद स्वरूप प्रभु की कैसी-कैसी अवस्थाएँ हैं ? एक अपने स्वरूप को न पहिचानने के कारण कितना अन्तर हो गया है कि एक आत्मा तो देखो वीतराग सर्वज्ञ तीन लोक, तीन काल की बातें जानने वाला है और उस ही बिरादरी का एक यह आत्मा देखो जो पेड़ खड़े हैं, कुछ कर ही नहीं सकते, हिल रहे हैं। ऊंट ऊपर मुँह करके पत्ती खा जाता है, लोग जैसा चाहे काट डालते हैं, मानो उनमें जीव ही न हो। इस तरह का उन पर व्यवहार है। कितना अन्तर हो गया, और उन पेड़ों में और सिद्ध में क्या अन्तर देखना, अपने में और सिद्ध में ही अन्तर देख लो। कहाँ ये हम आप लोग लटोरे खचोरे बन रहे हैं, विषयों के पीछे, पोजीशन के पीछे लग रहे हैं। रहना कुछ नहीं है। काहे की पोजीशन करें ? इस पोजीशन में धरा क्या है ? यहाँ की बातों में धरा क्या है, पर लोगों को कैसा विश्वास हो रहा है इन बातों पर। किसी को अपने स्वरूप की सूझ ही नहीं होती। यह दशा है मोह और रागद्वेष के कारण।
देवों का परिचय व भवनवासी व व्यन्तरों की परिस्थितियाँ―अब देवगति के व्यञ्जनपर्याय की बातें सुनिये। देव चार जातियों में बँटे हुए हैं–भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी और वैमानिक। भवनवासी देव इस पृथ्वी के नीचे जो ऊपरी खण्ड है और नीचे का भी दूसरा खण्ड है इन दो खण्डों में रहते हैं और व्यंतर भी इन दोनों खण्डों में रहते हैं और उनके अलावा व्यंतर टूटे फूटे घरों में पेड़ों में रहते हैं। उनके भी भूख प्यास की पीड़ा नहीं लगती, बहुत दिनों में लगती है तो कंठ से अमृत झड़ जाता है। इस तथ्य को न जानकर उन देवताओं के नाम पर लोग जीवहिंसा भी कर देते हैं। अरे उनका तो अमृत भोजन है, जब उनको भूख लगती है तो कंठ से अमृत झड़ जाता है। निकृष्ट से निकृष्ट देवों के भी यही बात है। हाँ वे कौतुहलप्रिय हैं। अपने को तुच्छ अनुभव करने वाले हैं, उनकी छोटी वृत्ति है। जैसे कि ये नीच आचरण कुल अथवा संस्कार में पले हुए लोगों की वृत्ति ओछी होती है इसी प्रकार उन देवों की वृत्ति ओछी होती है। जब कि देखो भवनवासियों के भेदों में दो-दो इन्द्र हैं और दो-दो प्रतीन्द्र हैं और ऐसे ही व्यंतरों के हैं, यह ओछेपन की ही तो निशानी है। अगर ढंग अच्छा होता तो दो-दो इन्द्र काहे को होते ? विकल्प और आकुलताओं से ये भरे हुए हैं।
ज्योतिष देव―ज्योतिष देव सूर्य, चन्द्र, तारा, नक्षत्र, ग्रह इनमें रहने वाले होते हैं। जो आँखों से सूर्य दिखता है यह स्वयं देव नहीं है। यह तो पृथ्वीकाय का रचा हुआ विमान है। इनमें बसने वाला अधिष्टाता सूर्य है और इसी तरह चन्द्रमा की बात है। इनमें चन्द्र तो इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र है और जो कभी गुच्छा सा दिखता है ऐसा लगता है कि बिलकुल घड़े पड़े हैं जैसे थाली में बूंदी फैला देने पर मालूम होता है। इन ताराओं के एक दूसरे के बीच में करीब-करीब एक-एक, दो-दो, तीन-तीन योजन का अन्तर है। ये भिड़ नहीं जाते। इसी प्रकार प्रत्येक तरैयों में देवों का निवास है।
वैमानिक देव―चौथी जाति के देव है वैमानिक। ये उत्कृष्ट जाति के हैं, इनके दो भेद हैं–कल्पवासी और कल्पातीत। कल्पवासीदेव जहाँ रहते हैं उसका नाम है स्वर्ग और उससे ऊपर कल्पातीत देव होता है। इन 16 स्वर्गों में ये जातियाँ हैं। कोई इन्द्र है, कोई सामानिक हैं। इनमें से कोई सलाहकार है, कोई सदस्य है, कोई बाडीगार्ड है, कोई इन्द्र का कोतवाल जैसा है। कुछ सेना है, कुछ प्रजाजन है। कोई वाहन का काम करते हैं। उनमें से कोई हुकुम देने वाला है। किसी हुकुम देने वाले को कहीं जाना है तो उसने हुकुम दिया कि झट घोड़ा सज गया, उनमें से कोई अच्छी वृत्ति वाले हैं, कोई ओछीवृत्ति वाले हैं। यह भेद स्वर्गों से ऊपर नहीं है।
संसारी भवों में उपादेयता का अभाव―देवगति में बड़ी ऋद्धि है, बड़ा वैभव है। अपने शरीर को छोटा बना लें, बड़ा बना लें, हलका बना लें, वजनदार बना लें। बड़े विशाल विस्तार का देह होकर भी बिलकुल हलका बना लें, अनेक सेना बना लें, अनेक मनुष्य बन जायें और अपनी अवगाहना से कहो पहाड़ जैसे बन जायें। बड़ी विचित्र इनकी ऋद्धियाँ हैं। यहाँ तो लोग चिड़ियों की तरह फुर्र से उड़ने को तरसते होंगे कि हम न भये चिड़िया, मंदिर से उड़कर शीघ्र घर पहुँच जाते। कल्पातीत देवों में यह इन्द्रादिक का भेद नहीं होता। प्रत्येक देव वहाँ पूर्ण समर्थ इन्द्र है। इस तरह इन चारजातियों में बँटे हुए ये व्यञ्जनपर्यायें चारों गतियों के जीवों का वर्णन अन्य ग्रन्थों में करणानुयोग में बड़े विस्तार पूर्वक लिखा है। जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड इन सबमें देख लो विशेष जानना हो तो।
व्यञ्जन पर्यायों के प्रति ज्ञानी की भावना―यह ग्रन्थ आध्यात्मिक है। इसलिए प्रयोजनवश थोड़ा सा लोकरचना का वर्णन किया गया है। इनका वर्णन करने का प्रयोजन भी यह है कि अपने को जानकारी हो जाय कि जीव का ऐसा-ऐसा परिणमन संसार में है। और यह भावना बने कि मैं इनमें किसी जगह पैदा न होऊँ। स्वर्गों का वर्णन सुना, बड़ी ऋद्धियाँ हैं। हजारों वर्षों में भूख लगे तो कंठ से अमृत झड़ जाय। कई पखवारे में सांस ले, इतने वे समर्थ हैं, फिर भी मेरी उत्पत्ति वहाँ न हो ऐसी भावना ज्ञानी जीव के होती है। अज्ञानी जीव तो चाहता है कि हे भगवन् ! हमें खूब पुण्य मिले, स्वर्गों में जाकर देव हों, पर ज्ञानी जिसने ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव रस चखा है उसके कोई आकांक्षाएँ नहीं होती। एक ही दृष्टि है अपने सहजस्वरूप की।
मानवीय वैभवों में भी ज्ञानी की अनाकांक्षा―भैया ! मनुष्यलोक में भी कैसे-कैसे प्रतापी लोग होते हैं ? नेता, मिनिष्टर, राजा, ऊँचे-ऊँचे लोग जिनकी लोग आगवानी करते हैं। बड़ा प्रबंध किया जाता, स्वागत सम्मान होता। ज्ञानी जीव की दृष्टि में यह आता है कि मैं ऐसा भी नहीं उत्पन्न होना चाहता। मेरा तो जन्ममरण ही न हो। कह दिया लाख और करोड़ आदमियों ने वाह-वाह तो प्रथम तो सब आदमियों ने ही नहीं कहा और कदाचित् सब आदमी वाह-वाह कह देवें तो ये घोड़ा-बैल तो हमारी वाह-वाह नहीं करते। क्या इनमें जीव नहीं है ? क्यों इन्हें छोड़ते हो ? ऐसा वैभव बढ़ाओ कि ये गधे कुत्ते भी वाह-वाह करें। पर यहाँ तो सभी लोग भी वाह-वाह नहीं करते हैं, और फिर और भी देख लो अनन्ते जीवों में से लाखों हजारों जीव क्या गिनती रखते हैं ? उन्होंने वाह-वाह कर दिया तो क्या हुआ ? भैया ! वाह-वाह क्या है ? वाह का उलटा पढ़ो, क्या हुआ ? हवा। जैसे हवा बहती है वैसे ही वाह-वाह की बात है। वाह-वाह कह दिया किसी ने तो उससे मिलता जुलता कुछ नहीं, कोरी उल्टी हवा चल गयी है।
विद्याधर व देवों की ऋद्धि की अनाकांक्षा―विद्याधरों में देख लो, आविष्यकारकर्ता भी बहुत बड़े-बड़े कला-कौशल दिखाते हैं, जिससे अचम्भा भी किया जाता है, इनमें भी ज्ञानी जीव उत्पन्न होने की भावना नहीं होती है। देवलोक है, बड़े-बड़े भवनवासियों के ठाठ के महल हैं, और उनके रत्नमय महलों में भी बड़े-बड़े मन्दिर हैं व छोटे से छोटे मन्दिर भी है, यहाँ के बड़े-बड़े राजाओं से भी ऊँचा सुख-वैभव है–ऐसे देवों में भी और ऊँचे वैमानिक देवों में भी ज्ञानी जीव के जन्म की वाञ्छा नहीं रहती और नरकों के निवासियों में ज्ञानी जीव के तो क्या, किसी की इच्छा नहीं रहती। किन्हीं भी संसारी जीवों में इस ज्ञानी जीव के जन्म की इच्छा नहीं रहती है। ज्ञानी के वाञ्छा रहती है तो एक यही कि हे नाथ ! कारणपरमात्मतत्त्व और कार्यपरमात्मतत्त्व के वैभव के स्मरण में ही मेरी भक्ति बार-बार हो।
तृष्णा न करने का उपदेश―हे आत्मन् ! राजा इन्द्र बड़े-बड़े महात्माओं के वैभव को सुनकर अथवा देखकर हे जड़वैभव वाले पुरुष ! तू व्यर्थ में क्लेश को प्राप्त होता है। अपनी रूखी-सूखी खा रहा था, बड़ी मौज में था, दूसरों की चुपड़ी देख ली, इसी से बीमार हो गए। हाय ! मुझे ऐसा न हुआ, थोड़ी-सी पूंजी थी, खर्च चलता था, आराम था और जहाँ शहर का मुख देखा कि बस हो गये बीमार। अब वह बीमारी ऐसी लग गयी है टी꠶बी꠶ की तरह की कि मरे तब ही छूटे। तो कहते हैं कि हे जड़बुद्धि वाले पुरुष ! तू दूसरे के वैभव को देखकर क्यों क्लेश को प्राप्त होता है ?
ज्ञानी की हितबुद्धि―भैया ! यह वैभव यद्यपि पुण्य से प्राप्त होता है, परन्तु आप यह बतलाओ कि भेद कैसे आ गये–कोई दरिद्र, कोई श्रीमान् । पूर्वकृत जो पुण्यकर्म हैं, उनके उदय का फल है। उसमें ऐसा नहीं है कि किसी के पुण्योदय है तो प्राप्त ही होना चाहिए। परिणाम खोटे हों और उन खोटे परिणामों के कारण जो विशेष अभ्युदय हुआ था, सो रुक गया। ज्ञानी पुरुष कहता है कि हे प्रभो ! मुझे वैभव को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु हे जिननाथ ! आपके चरणकमलों में, पूजा में, स्मृति में मेरी भक्ति जगे। वह ज्ञानी पुरुष करेगा ऐसे शुभ काम, पर उसका चित्त विरक्ति में रहता है, विरक्ति से ही वह अपना हित मानता है। व्यंजनपर्यायों का वर्णन करके जिसमें कि द्रव्यव्यंजनपर्याय भी आते हैं और विपरीत गुणपरिणाम भी, चूँकि व्यंजन है, व्यक्त है, वह भी गर्भित है। उन पर्यायों के साथ इस आत्मा का और उन पर्यायों के कारणभूत कर्मों के साथ आत्मा का और उनके फलभूत सुख-दु:ख आदिक के साथ आत्मा का क्या सम्बन्ध है अथवा सम्बन्ध नहीं है ? इस विषय को स्पष्ट करने के लिए कुन्दकुन्दाचार्यदेव यह कहते हैं–