वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 18
From जैनकोष
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो।
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता हु णिच्छयदो।।18।।
कर्म के कर्तृत्व व भोक्तृत्व में अपेक्षा―मालूम ऐसा होता है कि आत्मा पुद्गलकर्मों का करने वाला है और यह आत्मा उन कर्मों के उदय के फलभूत दु:खों को भोगने वाला है, इस सम्बन्ध में आचार्य कहते हैं कि यह आत्मा पुद्गलकर्मों का कर्ता और भोक्ता है, यह तो व्यवहारनय का दर्शन है और आत्मा कर्मजनित विभावपरिणामों का कर्ता और भोक्ता है यह निश्चयनय से है। यहाँ निश्चयनय से मतलब है अशुद्धनय से। आत्मा का परपदार्थों के साथ परिणमन में निमित्तपना भी अधिक निकटता से है तो कर्मों के साथ है। इस कारण इन द्रव्यकर्मों का यह आत्मा कर्ता है निकटप्राप्त अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से।
कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व में अनुपचरित असद्भूतव्यवहारता―पुद्गलकर्म भिन्न पदार्थ है, इसलिये पुद्गलकर्म में आत्मा का कर्तृत्व बताना असद्भूत है, किन्तु यहाँ प्राकृतिक नैमित्तिकता है, इस कारण यह अनुपचरित है। जैसे हम अन्य मकान, दुकान, मेल-मिलाप, विरोध, विनाश इनके करने वाले कहा करते हैं, किन्तु इनमें निकटता नहीं है, इसलिये ये अनुपचरित नहीं है। आत्मा का जैसा विभावपरिणमनों से उस द्रव्यकर्म का सम्बन्ध है इसी प्रकार विषयभूत बाह्यविषयों का भी सम्बन्ध है, किन्तु यह विषयभूत बाह्यपदार्थों का नियात्मक सम्बन्ध नहीं है। इसी कारण यह बात सामने आती है कि किसी को मन्दिर प्रतिमा के दर्शन भी हों तो भी उसके भाव नहीं सुधरते। यह जीव समवशरण में भी अनेक बार गया तो भी नहीं सुधरा। सब निमित्त फेल हो गये हैं, कोई नियामक नहीं रहा। अरे भाई ! निमित्त ही नहीं है। निमित्त तो कर्मों का उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम है, वे तो बाह्यपदार्थ हैं, उनके साथ तुम्हारा अन्वयव्यतिरेक कुछ नहीं है। जैसे कि विभावपरिणामों का और द्रव्यकर्म का परस्पर में निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, उस प्रकार का यहाँ नहीं पाया जाता है। अत: द्रव्यकर्म का कर्ता यह जीव आसन्नगत अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से है और उनका फल भी सुख-दु:ख को भोगने का कथनव्यवहार से है।
अशुद्धनिश्चयनय से जीव के विभाव का कर्तृत्व व भोक्तृत्व―निश्चयनय अर्थात् अशुद्धनय से यह जीव मोह, राग, द्वेष आदि भावकर्मों का कर्ता है और उनका भोक्ता है अथवा असद्भूतव्यवहार से यह कर्म शरीरादिक का कर्ता है। इन सबमें निमित्तनैमित्तिकता है, क्योंकि मैं घड़ा बना लेता हूँ, कपड़ा बुन लेता हूँ, मकान बना देता हूँ–ऐसा कहना यह उपचरित असद्भूतव्यवहार से है। इस तरह पहिले जो वर्णन चला था, उस वर्णन में समझाये गये उन पर्यायों के साथ, उपयोग के साथ, कर्मों के साथ आत्मा का सम्बन्ध नहीं है–ऐसा बताने के लिये यह उपर्युक्त गाथा कही गयी है। सद्भूतव्यवहार मतिज्ञान आदि के पर्यायों में बताया जाता है कि ये ज्ञानगुण के आंशिक विकास हैं। जो स्वभाव से नहीं उत्पन्न होते हैं, उनको असद्भूत कहा गया है–ये सब रागद्वेष मोहादिक जो कुछ भी परिणाम हैं, ये सब असद्भूत हैं। विभावपरिणाम वाले पुरुष कब इस परिणाम से हटकर और किस उपाय से चलकर यह निर्विकल्प सहजसमयसार को जानें ? इस का उपाय एक पूर्व में परमगुरु के चरणयुगल की सेवा करना है। परमगुरु अरहंत देव कहलाता है।
आत्मा का शरण―परमार्थत: हमारे लिये हमारा शरण हमारा परिणाम है। जब विषयकषाय और कल्पनाओं के संकटों से घिर जाते हैं, उन संकटों से छूटने का उपाय निर्विकल्प, निष्कषाय परमगुरु के स्वरूप का आश्रय है। बाकी समस्त उपाय नागनाथ, साँपनाथ जैसे पर्यायान्तर है। उनमें यह छटनी करने लगे कि यह उपाय हमें संकटों से बचायेगा और यह न बचाएगा–ऐसा नहीं है। एक ही ज्ञानस्वरूप का स्मरणरूप उपाय संकटों से बचा सकता है। जीवनभर यही तो करना है। कितना ही सताए हुए हों कर्मोदय के, फिर भी जब कभी सुधार होगा, आत्मप्रगति होगी तो केवल इसी आत्मज्ञान के प्रसाद से होगी। दूसरा कोई कितना ही मित्र हो, बचा नहीं सकता।
लोक में अशरणता―भैया ! पुराने समय की बात जाने दो और अपने घर की भी बात जाने दो। मान लो कि हम छोटे पुरुष हैं, पर आज भी जैसे जो बड़े मान गए हैं, उनके मरण का जब समय आता है तो सारे देश के प्रमुख भी हैरान रहते हैं कि बचा लें, पर कोई बचा नहीं पाता है। कभी सिकन्दर सम्राट था, मरण के समय क्या-क्या हिकमत नहीं की गयी होगी और आज के जमाने में गाँधी व नेहरू भी सम्राट थे, जिनकी चिंतना का आदर, विचारों का आदर आदि सब देश करते थे और उनको महत्त्व की दृष्टि से देखते थे। मरण के समय में उन्हें कोई न बचा सका। किसी से कोई आशा रखना सब व्यर्थ की बातें हैं। जिससे चित्त आपका लगा हो, जिसे आप अपना इष्ट मानते हों, उससे भी अपनी शान्ति की आशा रखना व्यर्थ की बात है, क्योंकि पर की ओर दौड़ते हुए उपयोग में वह सामर्थ्य नहीं रहती कि कुछ शांति का लाभ करा सके। जिस किसी को भी जो कि सबसे अधिक प्रिय है और इष्ट है, उसका उपयोग उतना ही बाहर दौड़ा और भूला हुआ है। वह तो शांति से अधिक ही दूर हो गया है।
पर से अलगाव―संसार में कहते हैं कि दु:ख तो है पर्वत बराबर और सुख है राई बराबर। यहाँ सुख से मतलब है इन्द्रियसुख का। वास्तव में इस संसार में कहीं सुख का नाम नहीं है, पर लगे फिर रहे हैं उस ओर ही आसक्ति बनाए रहने में। क्या करेंगे जोड़-जोड़कर ? किसी दिन सर्व कुछ छोड़कर चले ही जायेंगे। लड़का, भतीजा आदि किसी के भी तुम ठेकेदार नहीं होते, उनमें सुमति होगी, उनका अनुकूल उदय होगा तो वे अपने बूते पर सुखी रहेंगे। आपके छोड़े हुए वैभव के खातिर वे सुखी न रहेंगे और यदि कुपूत होंगे, कुबुद्धि जगेगी तो आप तो कुछ छोड़कर जायेंगे, वह सब एक हफ्ते में ही स्वाहा कर देंगे, फिर किसकी चिंतना में वैभव जोड़ने के ये सब विकल्प किये जा रहे हैं ? यह सब कुछ गम्भीरता के साथ सोचना चाहिये।
गृहस्थ का वैभव―यद्यपि गृहस्थावस्था में कुछ वैभव की आवश्यकता है। न हो कुछ वैभव तो काम नहीं चलता है, पर इतनी हिम्मत भी तो साथ में रहनी चाहिये कि इस वैभव के रहते हुए यदि कोई कार्य आ पड़े, वह कार्य करने योग्य है तो उसके लिए यह सब व्यय भी किया जा सकता है–ऐसी मन में सामर्थ्य बने तब तो समझो कि गृहस्थी के लिए आवश्यकता है, इसलिए वैभव बनाया है अन्यथा केवल मन को मोह में पागने के लिए ही ये विकल्प बनाए जा रहे हैं।
परमश्री की प्रसाधना―जो मनुष्य वीतराग निर्विकल्प सर्वज्ञ कार्यसमयसार के गुणस्मरण के प्रसाद से और उसके अनुरूप कारणसमयसार की दृष्टि की कृपा से इस सहजसमयसार को जानता है, वह अवश्य ही परमश्री का अधिकारी होता है। संसार दु:खमय है, इसे मिटाना है तो हम कौन-सा काम करें कि यह संसार टले, संकट मेरे टलें, संसार बना है द्रव्यकर्म का निमित्त पाकर। ऐसे द्रव्यकर्म के मिटाने में हमारा बल नहीं चलता है, क्योंकि पर परद्रव्य ही है। द्रव्यकर्म के मिटाने का निमित्त है भावकर्म न होना। सो हमारा बल इस पर तो चल सकेगा कि मुझमें भावकर्म न बनें, किन्तु द्रव्यकर्म का मिटाना और इस पर्याय को दूर करना, इस पर हमारा जरा-सा भी बल नहीं है और भावकर्म का भी मिटाना और रोकना यह भी तो जैसा मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, उस ही स्वरूप के आश्रय के द्वारा ही तो संभव होता है।
धर्म और धर्म का पालन―धर्म एकस्वरूप है और धर्म की विधि भी एकस्वरूप है और धर्म का फल भी एकस्वरूप है। धर्म है सहजस्वभाव का आश्रय करना। प्रथम तो जो धर्म है वह पालन करने की चीज नहीं है, व्यवहार की बात नहीं है। परिणमन और परिवर्तन से सम्बन्ध नहीं रखता, वह है आत्मा का विशुद्ध स्वभाव। वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं। वह तो सब जीवों में है। जो पालन करे उसके भी है, न पालन करे उसके भी है। उस वस्तुस्वभावरूप धर्म की दृष्टि देना यही है पालन करने का धर्म। जहाँ पालन करने की बात आए वह हो गया व्यवहार तो निश्चय धर्म है ज्ञानस्वभाव और व्यवहार धर्म है ज्ञान स्वभाव का आश्रय करना और इस ज्ञानस्वभाव के आश्रय करने के प्रोग्राम में जो स्वाध्याय गुरु संग आदिक बातें हैं, वे व्यवहार धर्म के प्रति व्यवहार धर्म है।
संसार के निरोध का मूल पुरुषार्थ―इस ज्ञानदृष्टि के पड़ने से भावकर्म का निरोध हुआ, जिसके प्रताप से द्रव्यकर्म का निरोध हुआ है और द्रव्यकर्म का निरोध होने से संसार का निरोध होता है। जैसे एक सूई से दो तरफ नहीं सिया जा सकता है कि आगे को भी सिये और पीछे को भी सिये। एक मुसाफिर पूरब को और पश्चिम को एक साथ जाय, ऐसा नहीं कर सकता है। इसी प्रकार संसार के भोग भोगना और मोक्षमार्ग में प्रगति करना–ये दो बातें एक साथ कभी नहीं हो सकती हैं। धन वैभव परिजन पोजीशन में अपने चित्त को उलझाना और उनमें ही अपना बड़प्पन मानना ये सब संसार की बातें हैं, अशांति के कारण है।
इन्द्रजाल―जैसे किस्सों में सुनाया करते कि किसी गधे को कहीं शेर की खाल पड़ी हुई मिल गई। सो उस खाल को ओढ़कर अपने को बड़ा मान मानकर जंगली जानवरों पर हुकुमत करता है और अपने में बड़प्पन महसूस करता है, किन्तु यथार्थ जानने वाला तो उस पर हास्य करता है। कहीं लोमड़ी गिर गयी रंगरेज की रंग की हौज में सो वह नीली हो गई और कहीं से एक डंडा मिल गया और कहीं से मिल गया पुट्टा सो वह जंगली जानवरों पर सितम ढालने लगी। तुमको मालूम है कि मुझे भगवान ने इन जंगली जानवरों पर राज्य करने के लिए भेजा है। इसी तरह कुछ धन मिल जाय, परिजन मिल जायें, पुत्र त्री आदिक, हाँ में हाँ मिलाने वाले मित्र मिल जायें अथवा कोई लोग इज्जत रखें तो उन बातों को मानो लोमड़ी की तरह अपना बड़प्पन महसूस करते हैं। हम सीधे भगवान के भेजे हुए हैं। अरे क्या बड़प्पन करना ? वे सब विषाद की चीजें हैं। हर्ष मानने की चीज नहीं है। इन सब बातों को विषफल खाने की तरह बताया है ? जैसे विषफल देखने में बड़ा सुन्दर लगता है और खाने में जहरीला होता है, उसके खाने का फल मरण ही होगा। तो खुश हो हो करके मर सकें, मिट सकें, बरबाद हो सकें, ऐसी घटनाओं का ही तो नाम इन्द्रजाल है। सो खुश होकर पंचेन्द्रिय के विषयों में आनन्द मानकर गिर रहे हैं, बरबाद हो रहे हैं, खेद कर रहे हैं। यही तो अवसर का खो देना है।
गोरखधन्धा―एक कोई राजा का मित्र था, दुर्भाग्यवश गरीब हो गया तो उससे राजा को संकेत किया। तो राजा ने हुक्म दे दिया कि इनको ले जाओ, एक बजे से 3 बजे तक दो घंटे में खजाने से जितना जो कुछ ला सकें ले आवें। वह सेठ गया दूसरे दिन। तनिक दरवाजे के अन्दर घुसा तो वहाँ देखा कि बहुत सुहावना गोरखधंधा रखा हुआ है। सो जैसे छल्ला होते हैं एक में एक फंसे हुए, वैसे ही फंसे हुए थे। सो उन्हें वह निकालकर देखने लगा। जब वह सुलझने लगा तो और भी छल्ले कसते ही चले जायें। निकालने की वह कोशिश करे पर छल्ले फंसते जायें। ऐसे गोरखधंधे में वह पड़ गया। तो जो खजाञ्ची था वह बोला कि हमारा गोरखधंधा ठीक करो तब भीतर पैर रख सकते हो। तो ज्यों-ज्यों वह सुलझाए त्यों-त्यों छल्ले फंसते जाएं। इन गोरखधंधों में ही उसके दो घंटे बीत गए, कुछ भी वहाँ से ला न सका। यही हाल हम आप सबका है। रिटायर हो गए हैं, मरण के दिन निकट आ गए हैं, फिर भी अपना कल्याण करने का कुछ अवसर ही कभी नहीं आ पाता है।
भावी स्थिति पर धर्मपालन की आशा का स्वप्न―आज जैसी परिस्थिति है उस परिस्थिति में ही अपने हित की बात बनालो, और यह ध्यान करने लगें कि हमारा फलां काम बन जाय, थोड़ी-सी तो बात रह गयी है, लड़के समर्थ हो जाएं, मुन्ना का विवाह कर दें, फिर कोई चिंता न रहे, फिर अच्छी तरह से धर्म करेंगे। तो भाई इस तरह से धर्म करने का अवसर नहीं आता है। जब अच्छी स्थिति होती है तो धर्म करने का ख्याल ही नहीं आता और जब कठिन बीमारी पड़ जाय तो झट ख्याल आ जात है कि मैं आत्महित के लिए कुछ नहीं कर पाया। यदि मैं इस बार बच जाऊँगा तो केवल आत्महित का ही काम करूंगा और फिर कुछ नहीं करना है। बच जाय तो कुछ ही समय बाद मामला लेबिल पर पहिले जैसा ही पहुँच जायेगा।
दु:ख सुख में प्रभु के स्मरण व विस्मरण की आदत―एक आदमी नारियल के पेड़ पर चढ़ गया। चढ़ने को तो चढ़ गया पर उतरते समय ज्यों ही उसने नीचे को देखा तो भयभीत हुआ। सोचा कि अब मेरे बचने की उम्मीद नहीं है। सो उसने सोचा कि यदि मैं सही सलामत उतर जाऊँ तो 100 पुरुषों को भोजन कराऊँगा। उसने हिम्मत बाँधी और तुरन्त कुछ नीचे उतर आया। सोचा कि 100 तो नहीं पर 25 को जरूर भोजन कराऊंगा और नीचे उतरा तो सोचा कि 5 को जरूर भोजन कराऊंगा, और जब बिलकुल नीचे उतर आया तो सोचा कि वाह उतरे तो हम हैं, किसी को काहे भोजन करायें ? तो जैसे-जैसे दु:ख कम हो जाते हैं वैसे ही वैसे फिर वही पहिले जैसी हालत हो जाती है।
सिद्धान्त और मन्तव्य के ओर छोर―यह जीव सम्यग्ज्ञान के भाव से रहित होकर भ्रांत होता है, शुभ अशुभ नानाप्रकार के कर्मों को करता है और वह मोक्षमार्ग में नहीं लग पाता है। मोक्षमार्ग में लगने का उसे कोई अवसर ही नहीं है। जैसे सिद्धान्त में सर्व जीवों को एकस्वरूप देखने का उपदेश है उस सिद्धान्त के मानने की तो हम दुहाई देते हैं और हम धर्म के नाम पर धर्म के ही नाते सर्व धर्मीजनों को हम एक समभाव की दृष्टि से नहीं निहार सकते। तो बतलाओ कहाँ धर्म के निकट आए ? मंदिर का प्रसंग हो, जलूस का उत्सव हो, तो उन आयोजनों में भी अपने माने हुए मंत्व्यों की दीवाल अड़ जाती है। यह हमारा मन्दिर है यह उनका है, यह हमारा आयोजन है यह उनका है, यह मेरा जलूस है और यह दूसरे का है–ऐसी बात लोगों के घर कर जाती है। तो अब और आगे कैसे गाड़ी चले ? बहुत पीछे हटे हुए हैं धर्ममार्ग से। अब धर्म में बढ़ना है तो चुपचाप अपने आपमें अपनी सफाई करके बढ़ो। इसी से ही कुछ तत्त्व मिलेगा, बाकी तो सब चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात।
धर्मयोग―जो जीव इन्द्रियजन्य सुख का त्याग करके अथवा कर्म सम्बन्धी सुख का त्याग करके कर्मरहित सुखसमूहरूप अमृत जल के समूह में अर्थात् आत्मतत्त्व में मग्न होते हुए होते हैं, ऐसे भव्य आत्मा इस चैतन्यमय एक अद्वितीय आत्मभाव को प्राप्त हों। धर्म की समस्या सुलझना बहुत सरल है और बड़ी विद्याओं व धर्मज्ञान की बड़ी बातें समझने में कुछ संदेह भी किया जा सकता है, विशद बोध नहीं भी हो पाता है पर धर्म की समस्या सुलझाना कुछ कठिन नहीं है।
धर्म की समस्या की प्रयोगात्मक सुलझन―पुराणों में कथन है स्वर्ग अथवा नरक की रचना है अथवा तीन लोक, तीन काल की रचना है यह सब श्रद्धा के द्वार से माना जाता है। कोई तो उनमें श्रद्धाबल से बहुत निश्चय रखते हैं। मान लो कोई न भी रख सके तो धर्म की समस्या सुलझाने में कहाँ विवाद यह तो प्रयोग वाली बात है। जैसे व्यवहार की बात प्रयोग करके हम ठीक ज्ञान कर लेते हैं। जैसे कि सबने देखा होगा कि अग्नि से रोटी पकती हैं, बड़ा दृढ़ विश्वास है, खाने-पीने से खूब सुख शांति होती है अथवा अमुक प्रकार से व्यापार करने में लाभ होता है। कितनी बातें प्रयोग करके देख लेते हैं या किसी को गाली देने से चांटे रसीद होते हैं, प्रयोग करके देख लो ना। किसी से भले शब्द बोल दो, प्रेम से मीठी वाणी कह दो तो उसके एवज में भली बात सुनने को मिलती है। जैसे प्रयोग से अनेक बातें निर्णय में आती है, इसी तरह धर्म और अधर्म के प्रयोग से सब बातें निर्णय में आ जाती है।
अधर्म से शान्ति का प्रयोगात्मक निर्णय―किसी से राग करो, मोह बढ़ाओ तो उस काल में भले ही सुहावना लगता है, पर उत्तरकाल में कितनी चिंताओं में पड़ जाता है और अन्त में मिलता भी कुछ नहीं है। वह ही विरुद्ध हो जाए तो संक्लेश किए जाते हैं अथवा अनुकूल बने रहें तो राग कर करके बरबाद हो जाते हैं। जैसे लोक में हुक्म देने वाले भी दुखी है और हुक्म मानने वाले भी दुखी है। दोनों के दु:ख अपनी-अपनी जगह है। हुक्म मानने वाला तो जानता है कि यह हुक्म देने वाला बड़ा है, सुखी है, जो मन में आया हुक्म दे डाला, किन्तु हुक्म देने वाले को कितनी विपत्तियाँ सताती है, कितनी जिम्मेदारी उस पर है, उसको हुक्म मानने वाला नहीं पहिचान सकता। इसी तरह द्वेष में तो दु:ख है, विरोध में, लड़ाई में दु:ख है, यह सब जानते हैं, किन्तु राग करने में जो क्लेश हैं, इसे पहिचानने वाला ज्ञानी ही हो सकता है।
धर्म और अधर्म से हित अहित के निर्णय की प्रयोगसाध्यता―भैया ! रागद्वेष करने से हम आकुलता में पड़ते हैं और रागद्वेष न हो, किसी परवस्तु का लगाव न हो तो प्रयोग करके देख लो कि आकुलताएँ शांत होती हैं या नहीं। प्रयोग करके देखा कि निर्णय हो जाता है कि रागद्वेष मोह करना तो अधर्म है और रागद्वेषमोह से विमुख होकर एक जाननहार बने रहना धर्म है। अरे भैया ! हम जाननहार भी नहीं बनना चाहते, पर क्या करें, यह तो हमारा गुण है। विवश होकर जानन तो हुआ ही करेगा, सो हो, मात्र जानन से कोई क्लेश नहीं है। यह निर्णय कर लेना कठिन बात नहीं है, पर कोई मानना ही नहीं चाहते, इस ओर अपनी बुद्धि लगाना ही नहीं चाहते तो उसका क्या इलाज ?
असत्याग्रह की अकर्तव्यता―भैया ! हठ करना अच्छी बात नहीं होती है। अनुकूल उदय है, इष्ट सामग्री मिल गयी, जिसे जो इष्ट हुआ तो अब वैसा गर्विष्ट बनकर मनमाना व्यवहार बनाना आदि ऐसी हठ का फल बुरा है। इस हठ के फल में बाद में ऐसी घटनाएँ आ जाती हैं कि खुद को ही मात खाना पड़ता है। उदय कब तक अनुकूल चलेगा ? सुख और दु:ख चक्र के आरों की तरह इस लोक में घूम रहे हैं। हाँ सुख दु:ख का विनाश हो और आत्मीय आनन्द प्रकट हों तो वह बात अहित की नहीं है। यह तो संसार से परे जो शुद्ध आत्मा है उनकी कला की बात है।
ज्ञानात्मक आत्मा के ज्ञान की सहजसाध्यता―अपने ज्ञान की थाह पा लेना, मर्म जान लेना यह भी कठिन नहीं है, इसके लिए भी कोई बड़ी विद्याएँ हम जानते हों, बहुत शात्रों के विद्वान हों तब हम अपने आत्मा के मर्म की बात जान सकेंगे ऐसा नहीं है, वह तो जानन का अधिकारी है ही, किन्तु जो अल्पज्ञ हैं वे भी एक बात मन में आ जाय कि इस लोक में समस्त समागम जंजाल असार हैं, भिन्न हैं मेरे लिए ठीक नहीं है इस ज्ञान के बल पर अपने उपयोग को ऐसा बनाएं कि किसी भी बाह्यपदार्थ का खयाल न करें तो स्वयमेव अपने आप उस ज्ञानज्योति का अनुभव हो जायेगा। तो ये सब बातें बड़े प्रेम की है। जगत के जीवों में किसी भी प्रकार का भेद और विरोध न रखकर अपने आपकी प्रीति रीति बढ़ाकर अपने में मग्न होने का यत्न करें तो बात बन सकती है। यह बहुत बड़ा वैभव है कि हम अपनी पोजीशन को महत्त्व न देकर अपने को श्रद्धान ज्ञान और आचार विचार से भरपूर अनुभव करें।
तत्त्वज्ञपुरुष की उत्कृष्ट आसीनता―भैया ! आत्महितयोगी के प्रति यही हो सकता है कि कोई प्रशंसा न करेगा, पर उस प्रशंसा की भी परवाह नहीं है उस तत्त्वज्ञानी पुरुष को। जो जीव कर्मज सुख को छोड़कर निष्कर्म सुख में रुचि करता है वह एक अद्वैत ज्ञायकस्वरूप को प्राप्त कर लेता है। वैभव होता है, रागद्वेष चलते हैं, इसकी कोई अधिक चिंता नहीं है। चिंता तो इसकी होनी चाहिए कि मेरा जो अपने आपका स्वरूप है वह जानन में क्यों नहीं आता ? कुछ भी स्थिति हो। अपने उपयोग में अपना सहज आत्मस्वरूप जो सर्व कर्म और विभावों से रहित है, शुद्ध आत्मा का जो केवल स्वरूप है वह अनुभव में आए क्योंकि इस ज्ञानानुभव के बिना अन्य प्रकार से इस जीव की मुक्ति नहीं है। संसारी जीव में सांसारिकता के ढंग से गुण प्रकट होता है और सिद्ध जीवों में उनका आनन्द परमगुण प्रकट हुआ है यह व्यवहार नय का विषय है।
आत्मस्वरूप की झलक―निश्चय से तो भैया ! एक निशाना भर मिलता है वह न मुक्त है, न संसारी है किन्तु एक लक्ष्यभूत चिह्न विदित हो जाता है। किसी पुरुष के बारे में पूछें कि यह कौन है ? तो कोई कहेगा कि यह बालक है, पर यह भी कोई स्थायी उत्तर नहीं है। जवान है, धनी है, अमुक का पिता है, अमुका का लड़का है। ये कुछ चिह्न इस मनुष्य में नहीं पाये जाते हैं। इस मनुष्य का तो सही वर्णन बताओ कि यह स्वयं क्या है ? तो कहना होगा कि सब प्रकार की बातें कह चुकने के बाद भी अब निष्कर्ष में सबसे रहित है और यह मनुष्य है सो समझ जायेगा। यह आत्मा न कषाय सहित है और न कषाय रहित है, किन्तु एक सहजज्ञायकस्वरूप है अंगुली को अंगुली से जकड़ दिया जाय उस स्थिति में पूछा जाय कि अंगुली का स्वरूप कैसा है ? तो यह अंगुली जकड़ी हुई है, बंधी हुई है, यह स्वरूप है। यही तो अंगुली का स्वरूप है। अरे यह तो एक परिस्थिति बतायी है। अंगुली में जो कुछ है वही अंगुली का स्वरूप है। गाय कैसी है ? अरे बंधी है। वह न बंधी है और न छूटी है। अंगुली का बंधा भी स्वरूप नहीं है और छूटा भी स्वरूप नहीं है। गाय में जो कुछ पाया जाता है वह गाय का स्वरूप है। सो संसारी जीवों में विभावपरिणमन है और मुक्त जीवों में स्वभावपरिणमन है। यह सब व्यवहारनय का वर्णन है। निश्चय से तो यह आत्मा न मुक्त है और न संसारी है। यह ज्ञानवंतों का निर्णय है। इस ही प्रकरण से उठकर कुन्दकुन्दाचार्यदेव नयविभागपूर्वक इसका निर्णय करते हैं।