वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 2
From जैनकोष
मग्गं मग्गफलं तिय दुविहं जिणसासणे समक्खदं।
मग्गं मोक्ख उवायो तस्स फलं होइ णिव्वाणं।।2।।
जिनशासन के दो उपदेश―मार्ग और मार्गफल, मोक्ष का मार्ग और मोक्ष के मार्ग का फल, छुटकारे का उपाय और छुटकारे के उपाय का फल, संकटों से दूर होने का उपाय और संकटों के दूर-दूर होने के उपाय का फल, शांति पाने का उपाय और शांति पाने के उपाय का फल। जिन शासन के उपदेश में दो बातों पर विशेष जोर दिया गया है, ऐसा इस ग्रन्थ में जो कुछ वर्णन होगा, जिस किसी भी पद्धति से वर्णन होगा, मार्ग-मार्गफल का वर्णन चलेगा।
मार्ग और मार्गफल―इस गाथा में मोक्षमार्ग और मोक्षमार्ग के फल का स्वरूप वर्णित किया गया है। मोक्षमार्ग क्या है? सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र। तीनों का एक स्वरूप होना, सो मोक्षमार्ग है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होता है यह भी कह सकते हैं और सम्यक्चारित्र से प्रारम्भ होता है यह भी कह सकते हैं। जहाँ परद्रव्यों से भिन्न आत्मतत्त्व का अवलोकन हुआ, कर्मों से छूटने का उपाय मिला वहाँ मोक्षमार्ग का प्रारम्भ सम्यग्दर्शन से हुआ समझिये और एक दृष्टि से सम्यग्दर्शन ने वस्तुस्वरूप दिखाया और यह मार्ग है शांति का यह दिखाया, पर उस पर चलें तो मार्ग का चलना कहलाता है। सो सम्यक्चारित्र से मोक्षमार्ग चला। जैसे सूर्य का काम है मार्ग दिखा देना। व्यवहार भाषा में कह रहे हैं–उजेला हो गया, मार्ग दिख गया, पर चलाना काम सूर्य का नहीं है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन ने मोक्षमार्ग दिखाया पर मोक्षमार्ग पर चलना सम्यक्चारित्र से हुआ।
त्रिरत्नों का प्रादुर्भाव―यह सम्यक्चारित्र शुरू हो जाता है सम्यग्दर्शन के होते ही, पर उसकी विशेषता से बढ़-बढ़कर सम्यक्चारित्र बढ़ता रहता है। सम्यग्दर्शन के साथ स्वरूपाचरण चारित्र होता है। स्वरूपाचरण ही परमार्थ चारित्र है और आगे भी ऊँचे के गुणस्थानों में स्वरूपाचरण की वृद्धि की ही महिमा में स्वरूपाचरण की कितनी वृद्धि हुई, उसकी माप है अणुव्रत, महाव्रत आदि। तो सम्यग्दर्शन के होते ही सम्यक्ज्ञान हो जाता है और सम्यक्चारित्र हो जाता है। परन्तु जैसे ज्ञान की पूर्णता बाद में हुई इसी प्रकार सम्यक्चारित्र की परिपूर्णता बाद में हुई है, पर किसी न किसी रूप में सम्यग्दर्शन के होते ही सम्यक्चारित्र हो जाता है और साक्षात् मोक्षमार्ग जिसके बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। वह है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का एक अभेदरूप हो जाना। इस गाथा में मार्ग और मार्गफल बताया जा रहा है। मार्ग तो है शुद्धरत्नत्रय, निश्चय रत्नत्रय, आत्मतत्त्व का श्रद्धान ज्ञान और आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय और मार्ग का फल है मोक्ष की प्राप्ति, अपुनर्भव अर्थात् फिर से संसार न होना।
प्रमाद की अकर्तव्यता―भैया ! निर्वाण हुआ तो निर्वाण ही है, फिर संसार नहीं होता। जब तक निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती अर्थात् क्षपक श्रेणी पर चढ़ना नहीं होता तब तक शंका ही शंका है। जब तक क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता तब तक सम्यक्त्व की भी शंका है। हो गया और फिर मिट जाय ऐसी स्थिति हो जाती है और जो कुछ थोड़ा बहुत ऊँचा भव पा लिया, ऊँचा कुल आदि प्राप्त कर लिया, इसका तो कुछ भरोसा भी नहीं है। आज उच्च कुल पाया कल के दिन क्या पायें ?
कृतघ्नता का एक दृष्टान्त और कुफल―एक साधु महाराज बैठै थे तो उनके सामने एक चूहा निकला। वह चूहा साधु महाराज के निकट में ही रहता था। सो चूहे के आने पर एक बिलाव भी आ गया। बिलाव को देखकर चूहा डर गया, सो साधु महाराज ने दयाभाव करके चूहे को आशीर्वाद दिया कि बिडालो भव, तू बिलाव हो जा। वह बिलाव हो गया। अब बिलाव से बिलाव क्या डरे ? अब आया कुत्ता सो उस बिलाव को आशीर्वाद दिया कि श्वानभव। तू कुत्ता हो जा। सो वह कुत्ता हो गया। फिर निकला व्याघ्र, सो साधु ने उस कुत्ते को आशीर्वाद दिया कि व्याघ्रो भव। व्याघ्र हो गया, तेंदुआ हो गया। उस पर झपटा सिंह तो आशीर्वाद दिया कि सिंहो भव। अब सिंह सिंह से क्यों डरे ? उसे लगी भूख। सो सोचा कि अब क्या खायें, यही महाराज तो अच्छे पवित्र बैठे हैं, इनसे बढ़कर अच्छा मांस और कहाँ मिलेगा ? सो सिंह के मन में आया कि इन साधु महाराज को खा जाऊँ। ज्यों ही झपटा साधु ने कहा कि पुन: मूषको भव, तू फिर चूहा बन जा। वह फिर चूहा बन गया।
आत्मदेव की अकृतज्ञता का फल―इसी तरह यह जीव कुछ आत्मदेव के प्रसाद को पाकर निगोद से निकला, विकलत्रय हुआ, पंचइन्द्रिय हुआ, मनुष्य हुआ, पुण्यवान् हुआ, समर्थ हुआ। अब इतना समर्थ होकर यह मनुष्य इस ही आत्मदेव पर हमला कर रहा है। खोटा परिणाम किया, विषय-कषाय किया, कुबुद्धि जगी, रागद्वेष मोह किया, किसी को अपना माना, किसी को पराया मान लिया, यह सब इस आत्मदेव पर हमला किया जा रहा है। सो आत्मदेव को जरा ही तो आशीर्वाद देना है कि पुनर्निगोदो भव। फिर निगोद हो जाओ। इतने ऊँचे उठकर फिर निगोद में चला गया, तो अब क्या हाल होगा ? किसी चीज का भरोसा नहीं है। पूरा भरोसा तो अपने आत्मदेव की एक बार झलक हो जाय उसका भी नहीं है। बार-बार उसकी भावना हो, उसके ही भीतर रुचि हो, उसका ही पुरुषार्थ हो, तब जाकर सिद्धि होती है।
मार्गफल निर्वाण―मार्ग का फल है अपुनर्भव। फिर से भव न मिलना, इसका नाम है अपुनर्भव। इस अपुनर्भव का ही नाम निर्वाण है, अर्थात् वह सब ऊधम शांत हो जाना जो संसार में तरंग उठाकर हो जाया करते थे। इसी का नाम अपुनर्भव है। धर्म, अर्थ, काम ये तीन वर्ग जहाँ अपगत हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं उसका नाम है अपवर्ग। इस ही मार्ग फल का नाम है मुक्ति, छूट जाना। संसार के संकट और संकट नामकरण में जो द्रव्यकर्म और भावकर्म हैं उनका छूट जाना, इसका नाम है मुक्ति अथवा मोक्ष। तो यह है मार्ग का फल। ये दो प्रकार के मार्ग और मार्गफल हैं। ये परमवीतराग सर्वज्ञदेव के शासन में चार ज्ञानों के ध्यानी आचार्यों ने गणधरों से बताया है।
मार्ग का अर्थ―मार्ग किसे कहते हैं ? जो खोजा जाय वह मार्ग है या जिस पर गमन करके इष्ट स्थान पर पहुँचा जाय उसे मार्ग कहते हैं। इस मार्ग का नाम आजकल क्या रखा ? सड़क। शब्द अशुद्ध है। सड़क नहीं बल्कि सरक। अब देखो कि सरकता तो आदमी है और उस रास्ते का नाम सरक रखा। जहाँ आदमी सरकते हों उसका नाम सरक है। तो जिस के आधार से पथिक सरकते हैं उसका नाम है सरक। जिसके आधार से यह संसारी जीव इस वन से सरककर ऊपर पहुँचे उसका नाम है सरक। तो यह है मार्ग, पथ अपने आपके विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वरूपी आत्मतत्त्व का यथार्थ श्रद्धान् होना और ऐसा ही उपयोग बनाए रहना, उसमें ही रत रहना यही अभेदरत्नत्रय है। मार्ग और इसका फल है मोक्ष। एक शब्द में मोक्ष का उपाय कहें तो कह लीजिए परम निरपेक्ष होकर एक निज सहज स्वभाव का उपयोग में तन्मय होना यही है मोक्षमार्ग।
शान्ति का ज्ञान से मेल―निजपरमात्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान्, परिज्ञान और उसका ही अनुष्ठान होना ही निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्ष का उपाय और उस शुद्ध रत्नत्रय का फल स्वात्मा की प्राप्ति होना है। बात बड़ी सीधी है, मगर लग रही है बड़ी कठिन। इतना सीधा काम कुटुम्ब का पालन नहीं है। आप दुकान को चलाते नहीं है, वहाँ अपना अधिकार ही कुछ नहीं है। कोई आए या न आए। परिवार के लोग आज्ञा मानें, न मानें, फिर ये समग्र परवस्तु हैं। उन परवस्तुओं का कुछ भी परिणमन हो, कदाचित् तुम्हारे मन के द्वारा भी परिणमन हो तो भी शान्ति तो मिल ही नहीं सकती, क्योंकि शांति का मेल परपदार्थ की दृष्टि के साथ नहीं है, किन्तु इस ज्ञान तो ज्ञानस्वरूप ही बसे तो उस ज्ञानवृत्ति के साथ ही शांति का मेल हो सकता है।
विशुद्ध ज्ञानार्जन का पुरुषार्थ―भैया ! अब क्या काम करना है ? ऐसा काम करो कि जिस पर सारी दुनिया पागल कहेगी। लोगों की समझ में चाहे आए नहीं। लो घर छोड़ दिया, चल दिया, इतना कमाया, मकान बनवाया, दुकान बनावाई और अब आराम के दिन थे, सो कैसी कुबुद्धि हुई कि सब कुछ त्याग दिया। अब आए थे आराम के दिन और आराम के दिनों में लात मारकर घर छोड़कर चल दिया–ऐसी भावनाएँ मोही पुरुषों की है, पर इस एक ज्ञानी को तो सारा जगत् पागल दिख रहा है और सारे जगत् को यह ज्ञानी पागल दिख रहा है। अब निर्णय यह हुआ कि जिसमें अपना उपयोग शांति में फिट बैठे वही अपना काम करना है और उसका उपाय है ज्ञानार्जन। स्वाध्याय करके, विद्याध्ययन करके, तत्त्वचर्चा करके, ध्यान करके एक इस ज्ञान का अर्जन करना, शुद्धज्ञानवृत्ति को जगाना ये एक काम है, इसे करते जाइए।
पुरुषार्थ का आवश्यक कर्तव्य―भैया ! ऐसा लगेगा बहुत दिन तक कि सफलता नहीं मिली, पर सफलता मिलने का बुद्धिपूर्वक उपाय तो यही है। अब और क्या करें, यह बतलाओ ? यहाँ कुछ ऐसा नहीं है कि इस रोजगार में फायदा नहीं दिखता है तो दूसरा रोजगार करो। अब सर्राफा में दम नहीं रहा तो बजाजा करें। अब बजाजा में दम नहीं रहा तो आढ़त का काम करें। सो अदल-बदलकर रोजगार करें। जिस आत्मा में मोक्षमार्ग का काम नहीं है कि अरे ज्ञानार्जन से कुछ लाभ नहीं होता है, अब मनभर लड़कों से मिल लें, अब खूब धन सम्पत्ति के ही बीच में बैठ लें। उसका तो एक ही फैसला है, उसको तो दूसरा कोई रोजगार है ही नहीं। चाहे सफलता मिलती हो अथवा न मिलनी हो, कार्य करते जाओ, यह फिट बैठेगा।
उद्यम―एक बाबू साहब ने एक कुम्हार को पायजामा दिया, किन्तु पहिना हुआ होने पर भी नया-सा था। कुम्हार उस पायजामे को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। सो कुम्हार उस पायजामे का उपयोग करने लगा तो सिर पर बाँधे तो फिट न बैठे, क्योंकि उसकी सियन ही ऐसी थी। कोई सीधा-सा कपड़ा हो तो सिर में बाँधने पर बँध जाए। सिर में न फिट बैठा तो कमर में बाँधे, वहाँ भी फिट न बैठे, क्योंकि ऊपर का जो पोर्सन था वह ढीला-ढाला रहता है। वहाँ ठीक न बैठा तो हाथों में डाले, जब हाथ में फिट न बैठा तो उसने एक पायचे में एक पैर डाल दिया और दूसरे पायचे में दूसरा पैर डाल दिया तो फिट बैठ गया। अब वह कहता है कि ओह, अब फिट हो गया। यह पायजामा यहीं पहिनने की चीज है। जानते हो पायजामा किसे कहते हैं ? जिसमें पाँव जम जाएं, वह पायजामा है। जिसमें पाँव लात जम जाएं, उसका नाम है पायजामा। सो इसी तरह से ज्ञानार्जन के काम में बैठे रहें। अगर आज फिट न होंगे तो कभी तो फिट हो ही जायेंगे।
प्रतिभाशून्यता में विडम्बना―अपने आपमें फिट न होने का कोई दूसरा उपाय नहीं है, इसके लिये बड़े मित्र की आवश्यकता है। भाई कुछ भी चीज नहीं है, पर जो धर्म में लगायें, वह मित्र सब कुछ है। मित्र योग्य हो तो ठीक है। ऐसी दशा न हो जाये कि एक गुरु महाराज थे। उन्होंने एक शिष्य को पढ़ाया। शिष्य पढ़ने में चतुर था, मगर प्रतिभा कुछ न थी, विद्या रटंत थी। शिष्य पर गुरुजी प्रसन्न हो गये तो उसी शिष्य को अपनी ही लड़की ब्याह दी। अब वह शिष्य दामाद बन गया। वह लउ़की बहुत ही रूपवती थीं, सो शिष्य एक दिन सोचता है कि भार्या रूपवती शत्रु:। स्त्री रूपवान् हो तो वह शत्रु होती है। सो उसने दोष मिटाने के लिए चक्कू से उसकी नाक काट डाली। अब शत्रु न रहेगी, मित्र बन जायेगी। उसकी बेवकूफी पर गुरुजी को नाराजगी हो गयी और दामाद को घर से निकाल दिया।
यह शिष्य जब घर से चला तो साथ में कलेवा ले लिया। कलेवा जानते हो किसे कहते हैं ? क मायने शरीर और वह जिसे लेवे, उसे कलेवा कहते हैं अर्थात् जिसे खाया जाये। अब सोचा कि किस दिशा में जाऊँ? उसे जल्दी ही स्मरण हो आया कि ‘‘महाजनो येन गत: पन्था:।’’ जिस रास्ते से बड़े-बड़े आदमी जा रहे हों, वही रास्ता चलना चाहिए। सो किसी के घर का कोई आदमी मर गया था, उसके संग में बहुत से आदमी मरघट जा रहे थे। सो वह उन्हीं के पीछे चला गया। सो वे तो वहाँ से फूँक-फाँककर चले आए, अब उसने सोचा कि साथ में कलेवा है उसे खा लें, पर ख्याल आया कि अकेले कलेवा न खाना चाहिए, बंधुओं के संग में खाना चाहिए। ‘बंधुभि: सह भोक्तव्यम्।’बंधु कौन ‘राजद्वारे श्मशाने च य: तिष्ठति स बान्धव:’। सोचा कि कचेहरी में और मरघर में जो साथ दे वही बंधु होता है। सो मरघट में एक गधा बैठा था। कहा कि यही मेरा भाई है, सो कलेवा खोलकर बैठ गया, गधे को भी पास में बिठा लिया। सो गधा भी खाता जाय और वह भी खाता जाय। सोचा कि ग्रन्थ में लिखा है कि हमारा बंधु है गधा, सो इसे धर्म के साथ जोड़े। अब धर्म क्या है ? ढूँढ़ा तो मिल गया श्लोक–‘धर्मस्य त्वरिता गति:।’ धर्म की गति बड़ी तेज होती है। सो वहाँ बड़ी तेजी से ऊँट जा रहा था, जिसकी तेजगति हो, जल्दी-जल्दी जाय उसका नाम धर्म है। मिल गया धर्म। अब बंधु को उस धर्म से जोड़ना चाहिए। सो रस्सी से गधे को ऊँट के गले में जोड़ दिया। धर्म में लगा दिया बंधु को। सो ऐसी अटपट विद्या सीख लेने से ज्ञान आत्मा में फिट तो नहीं बैठता।
ज्ञानकला का जागरण―भैया ! कितना ही अध्ययन करलें सबकी प्रायोजनिक जानन की पद्धति भूतार्थ पद्धति है। सब पर्यायों को जानें, किन्तु इस पर्याय का स्रोत क्या है ? इसे भी जानें। वह स्रोत है शक्ति। कोई शक्ति है तो उस शक्ति का मूल क्या है, जहाँ से सब अभेदरूप एक हो जाते हैं। वह है द्रव्य और वह द्रव्य क्या है, वस्तु क्या है ? स्वभाव और स्वभाव का मतलब क्या है ? स्वस्य भवनं, स्व का होना।बस इस प्रकार सहज स्वभाव पर पहुँच बने वही है ज्ञान, वही है धर्म और उसमें अपने को जोड़ा चाहिए, फिट बैठा लेना चाहिए। बस यही हुआ शुद्ध रत्नत्रय और शुद्ध रत्नत्रय का फल है निज आत्मा का आलम्बन अर्थात् जैसा सहज ज्ञायकस्वरूप यह भगवान् आत्मा है वैसा स्वरूप उपयोग में और परिणमन में यथार्थ प्रकट हो गया है, यही है मार्ग का फल। इस प्रकार इस गाथा में मार्ग और मार्ग के फल का निरूपण किया जा रहा है।
जीवों का खोजयत्न―जगत् के जीव कोई स्त्री के प्रेमजन्य सुख की तलाश में ढोलते हैं तो कोई धन के अर्जन और रक्षण में अपनी बुद्धि को भ्रमाते हैं, तो कोई जिनेन्द्रदेव के प्रणीत मार्ग को पाकर अपने आत्मा में रत होने का यत्न करते हैं। जो आत्मरति का यत्न करते हैं वे ही पंडित हैं। पंडित अर्थात् विवेक बुद्धि को जो इत हों, अर्थात् प्राप्त हों उन्हें पंडित कहते हैं। जगत् में खूब छानकर देख लो–जैसे कि कहते हैं संसारभावना में कि ‘‘दाम बिना निर्धन दु:खी तृष्णावश धनवान, कहूं न सुख संसार में सब जग देख्यो छान।।’’
जगत् की छान―जैसे कहीं सूई अंधेरे में गिर जाय तो खूब छान-छानकर देख लो रत्ती-रत्ती जगह को टटोलकर देख लो पर पता नहीं चलता कि सूई कहाँ गिरी है ? इसी तरह संसार में खूब छानकर देख लो कहीं सुख नहीं दिखता। जो निर्धन है या जिसके पास दाम कम है वह निर्धनता का ख्यल कर करके दु:खी हो रहा है और जिसके पास धन है वह तृष्णा बढ़ाकर और अधिक धन हो, इस विकल्प से दु:खी हो रहा है। जिसके पुत्र नहीं हुए वह पुत्रों का ध्यान बनाकर दु:खी हो रहा है और जिसके पुत्र हैं उसे वही तमात आपत्तियाँ नजर आ रही हैं। जिसकी इज्जत नहीं हुई वह इसी बात से दु:खी है कि मेरी इज्जत नहीं है। मेरी कोई पूछ नहीं है और जिसको इज्जत है वह उस स्थिति के विकल्प बनाकर दु:खी हो रहा है।
विकल्प से क्लेशजाल―एक सहपाठी से चर्चा करते हुए कहा कि देखो हम बताएँ अपने त्यागी महाराजों को गुस्सा क्यों आ जाता है ? कहा अच्छा बताओ। तो उन्होंने कहा कि कोई त्यागी महाराज अपने आपमें ऐसा निर्णय करलें कि में इतनी ऊँची पोजीशन का हूँ और मेरा इतना अधिक सम्मान हो ऐसा मेरा पद है, यह तो निर्णय कर चुके अपने दिल में। अब दूसरे की परिणति तो उनके आधीन है नही। कोई चाहेगा, कोई न चाहेगा;काई कहना मानेगा, कोई न मानेगा, तब अपने में किए हुए निर्णय में कुछ कमी रह जाय तो ये गुस्सा होते हैं। ऐसा क्यों नहीं हुआ इसने विनयपूर्वक क्यों नहीं बैठाया, नमस्कार क्यों नहीं किया ? अरे ये जगत् के जीव हैं, उनकी परिणति उनके आश्रित है।
शान्ति का कारण यथार्थ ज्ञान―भैया ! शांति तब मिलेगी जब त्यागी महाराज यह जान जायें कि यह पर्याय तो मेरी आफत लगी है। मैं तो एक शुद्ध चैतन्यस्वरूप हूँ। यहाँ तो सारा बखेड़ा लगा है। हमारा काम तो जंगल रहने का था, कंकरीली जमीन पर लोटने का था। काई शत्रु आए, दु:ख दे तो वहाँ समता भाव करने का था। यहाँ तो सारी सुविधाएँ हैं। किस बात पर इतराना ? यह बात नहीं समाती है जब और अपनी पोजीशन का ख्याल रहता है–मैं इतना ऊँचा उठा हुआ पुरुष हूँ, बस इसी से दु:खी हो जाता है। तो कौन है इस संसार में सुखी ? सब जग छानकर देखलो अथवा जैसे छलीनी से राख छानकर उसमें से कुछ छाँट लिया जाता है इसी तरह अपनी विवेकछलनी में सारे जगत् को छान लो और देख लो कि इसमें कोई सुख है ? कहीं सुख न मिलेगा। केवल कल्पना करके विकल्प बनाकर समय काट रहे हैं।
पर से अनुराग की आशा की व्यर्थता―भैया ! मनुष्यभव का इतना अमूल्य भव छोड़कर फिर कल्याण करने का मौका कहाँ मिलेगा ? अनन्त काल के समयों में 40-50 वर्ष कायह समय कुछ गिनती भी रखता है क्या ? नरजीवन के ये क्षण यों ही विकल्पों में व्यतीत हुए जा रहे हैं। इस जिन्दगी का क्या भरोसा ? सारे जीवन पर की सेवा करें, पर विघटना होता है तो एक क्षण में ही सब बिगड़ जाता है। कई वर्षों तक किये हुए प्रयत्न की कृतज्ञता कोई नहीं मान सकता क्योंकि कषाय है ना। एक बात बिगड़ जाय तो चाहे कितना ही उपकार किया हो, दूसरे का वह सब भूल जाता है। और फिर यह कह देते हैं कि देखो हमें पिता ने कहाँ पाला, अजी पिता ने हमें कहाँ पैदा किया ? उसने तो कषाय करके अपने विषय को पुष्ट किया और पाला पोषा भी हमें कहाँ? विकल्प ही बनाया। यह तो उदय की बात है। खैर कुछ हो।
इस जगत में कितना ही किसी के लिए श्रम करें, पर वस्तुस्वभाव तो न बदल देंगे प्रत्येक द्रव्य केवल वह खुद में ही रहता है, परिणमता है। क्या उनका स्वरूप बदला जा सकेगा ? जीव की खोज अनेक प्रकार के विषयों में सुख के लिए होती रहती है, पर पंडित चतुर वही है जो जिनवरके मार्ग को प्राप्त करके अपने आत्मा में रत होता है। मुक्ति को प्राप्त वही होगा। अब नियमसार शब्द का अर्थ बताते हुए नियमसार में क्या बात वर्णन में आयेगी, इसका संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हैं।