वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 3
From जैनकोष
णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।3।।
नियमसार―जो नियम से करने योग्य है उसको नियम कहते हैं। वह नियम है ज्ञान दर्शन और चारित्र। नियम शब्द का अर्थ है विशेषरूप से जहां यम हो, फिट बैठता हो, स्थिरता हो उसको नियम कहते हैं। तो इस जीव का परम कल्याण रूप एक यही स्थिरता का पद है कि अपने उपयोग द्वारा उपयोग स्वरूप को ग्रहण करे और ऐसा ही ग्रहण करता हुआ निरन्तर बर्ते। यही नियम है। नियम और नियमसार, इनमें कुछ अन्तर तो नहीं है। उसी का ही नाम नियम है, उसी का नाम नियमसार है, पर थोड़ी और विशेष दृष्टि ऐसी डाल ली गयी कि उस नियम में सार तत्त्व होना है। परमार्थ होना, विपरीत नहीं होना, विषय-कषाय रूप नहीं होना मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान मिथ्या चारित्र रूप नहीं होना और व्यवहारधर्म क्रिया की अटक करके उसही में अपने कर्तव्य की इतिश्री न जाना जाय, इन सब बातों से अपने को सुरक्षित रखने के लिए सार शब्द दिया है।
नियमसार शब्द का वाच्य स्वभावरत्नय―जैसे समय और समयसार। वही समय है जो शुद्ध आत्मतत्त्व है, सहजस्वरूप है। अब समय को सामान्य कहकर कि सभी आत्मा हैं, उसमें सार जो ध्रुव तत्त्वभूत है सो समयसार है। नियम शब्द का अर्थ हुआ रत्नय और उसमें सारभूत लगाने से अर्थ हुआ स्वभावरत्नय स्वरूप। जैसे सिद्ध की पूजा में पढ़ते हैं ना ‘‘समयसार सुपुष्प सुभातया सजकर्म करेण विशोधया। परमयोग बलेन वशीकृतं सहज सिद्धमहं परिपूजये।।’’ मैं इस सहजसिद्ध को पूजता हूँ। पूजता हूँ इतना ही नहीं, परिपूजता हूँ, अर्थात् सर्व ओर से अभिसमन्तात् मैं इसे पूजता हूँ। पूजना, भजना, अर्चना, चर्चना–ये सब एकार्थक शब्द है। मैं इस सहजशुद्ध को पूजता हूँ। वह सहजशुद्ध कौन है ? तो इसमें दोनों ओर दृष्टि जाती है, सिद्धभगवान् अथवा शुद्ध ज्ञायकस्वरूप।
सहजसिद्ध स्वरूप―यह सिद्ध है, अर्थात् पूरा बना हुआ है और सहज सिद्ध है, सहज पूर्ण है, उस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को मैं पूजता हूँ। काहे के द्वारा ? समयसाररूपी पुष्पमाला के द्वारा किसको पूजता हूँ ? समयसार को। किसके द्वारा पूजूँ ? समयसार के ही द्वारा। यह पुष्पमाला कैसे बनायी जाय ? माला तो लोग हाथ से गूँथ लेते हैं। तो यह माला किस तरह गूंथें? तो सहज जो कर्म है, परिणमन है, सहज क्रिया है वही हुआ हाथ। उन हाथों के द्वारा बनायी गयी है। ऐसे माला के द्वारा परमयोग बल से वशीभूत इस सहज सिद्ध को मैं पूजता हूँ। ऐसा स्वभाव रत्नय अथवा निश्चय रत्नय का स्वरूप इस नियमसार में बताया गया है।
सहज परमपारिणामिक भाव―जो सहज परमपारिणामिक भाव में स्थित है, स्वभाव अनन्त चतुष्टय स्वरूप है। ऐसा जो शुद्ध ज्ञान चेतना का परिणाम है उसे नियम कहते हैं। प्रत्येक पदार्थ में सहज पारिणामिक स्वरूप होता है। जिसमें स्वरूप तो वही शाश्वत रहता है और जो स्वरूप की रक्षा के लिए उसके अनुरूप उसमें निरन्तर परिणमन चलता रहता है उन सब परिणमनों की स्रोतभूत जो शक्ति है उसे पारिणामिक भाव कहते हैं। यह शुद्ध ज्ञान चेतना परिणाम परमपारिणामिक भाव स्वरूप है। सर्व से विविक्त केवल स्वरूप मात्र भाव को शुद्ध ज्ञान चेतना परिणाम कहते हैं। यह स्वभाव अनन्तचतुष्टय रूप है, प्रभु सिद्ध भगवान् व्यक्त अनन्त चतुष्टय रूप है और यह सहज सिद्ध आत्मतत्त्व स्वभाव अनन्तचतुष्टयरूप है।
स्वभाव और शुद्ध परिणमन के वर्णन की एकता―भैया ! शुद्ध विकास और सहज स्वभाव इन दोनों का स्वरूप एक होता है। जैसे निर्मल जल और जल का स्वभाव इन दोनों का वर्णन तो करिये। जितना वर्णन आप निर्मल जल का कर सकेंगे उतना ही वर्णन आप जल का कर सकेंगे। सिद्ध भगवान् का जो व्यक्त स्वरूप है उसका जो कुछ वर्णन है वही वर्णन आत्मा के सहज स्वभाव का है। उनमें व्यक्त अनन्त चतुष्टय है तो सर्वजीवों का स्वभाव अनन्त चतुष्टय है। न हो तो प्रकट कैसे हो ? सिद्ध प्रभु कुछ नई चीज नहीं बने हैं किन्तु जो थे वही केवल रह गये हैं। इसी को सिद्ध भगवान् कहते हैं। केवल रह जाना इसी के मायने प्रभुता है।
प्रभु की प्रभुता―देखो भैया ! इस प्रभु की प्रभुता जैसे कोई बड़ा आदमी प्रसन्न हो तो बड़ी बात कर सकता है और अगर बिगड़ जाय तो बिगाड़ करने में भी सामर्थ्य चाहिए ना, सो बिगाड़ कर देता है। यह प्रभु जब प्रसन्न होता है निर्मल होता है तो सर्वज्ञता का व्यवहार करता है। यही प्रभु जब बिगड़ता है तो यह भी क्या कम प्रभुता है कि पेड़ बन जाय, डाली-डाली, पत्ते-पत्ते बनकर फैल जाय, पतले-पतले तनों में प्रदेश फैल जाएँ, हरा भरा बना रहे, यह इस बिगड़े हुए प्रभु की प्रभुता है। जो कुछ संसार में गुजर रहा है, कोई पशु है कोई कीड़ा है, कोई पेड़ है, ये सब बिगड़े हुए इस प्रभु की प्रभुता है। उसमें भी बड़ी सामर्थ्य चाहिए ना। कर दे कोई वैज्ञानिक ऐसी प्रभुता का काम तो हम भी समझें। बना तो दे कोई वैज्ञानिक इस चेतना को।
हितकारिणी प्रभुता―यह ज्ञायकस्वरूप भगवान् आत्मा इस संसार में अपनी प्रभुता विकाररूप में बना रहा है पर इसमें क्लेश ही है, इसमें सार नहीं है। जब इसे ज्ञान होता है कि मैं अपनी प्रभुता का दुरुपयोग कर रहा हूँ, प्रभुता तो अपूर्व है, अपने स्वरूपचतुष्टय को पहिचाने तो फिर उन विषयकषायादिक परिणमों से उपेक्षा करके अपने स्वरूप का श्रद्धान् करना, ज्ञान करना और आचरण करना, इससे रत्नत्रयस्वरूप प्रकट होता है। यही है मार्ग, यही है नियम, यही है नियमसार। इस नियम के द्वारा नियम के आश्रय से नियम से जो कार्य किया जाय, वही प्रयोजन स्वरूप है, वही नियमसार है, अर्थात् ज्ञानदर्शन और चारित्र है।
निजपरमात्मत्व का परिज्ञान―ज्ञान किसे कहते हैं ? परद्रव्यों का आलम्बन न करके सर्व प्रकार अन्तर्मुख अपनी योगशक्ति लगाकर, अन्तर्मुख उपयोगी होकर जो निज-परमात्मत्व का परिज्ञान होता है, जो कि उपादेयभूत है वही है ज्ञान। इस लक्षण में ज्ञान पाने की तरकीब भी बता दी गयी है। इसको दो बातों में जान लीजिए। एक तो परद्रव्यों का आलम्बन छूटे और दूसरे अन्तर्मुख अपना उपयोग जाय, दो ही तो ये बातें हैं।
आत्मत्वपरिज्ञान के दो मुख्य उपायों का विवरण―इन दोनों बातों को और सरल भाषा में यों समझियेगा कि एक काम तो यह है कि समस्त परद्रव्यों को भिन्न जानकर, असार जानकर, अपना दुर्लभ अवसर बिगाड़ने ही वाला जानकर उन समस्त परद्रव्यों को अपने उपयोग से हटा दो। तुम्हारे उपयोग में जो आता हो, कोई विकल्प आता हो, कोई धन प्राप्त करने का उपायरूप विकल्प आता हो उन सबके प्रति यह तो ध्यान करिये कि ये सब असार बातें हैं, भिन्न हैं, अहित की बातें हैं। कुछ न रहेगा अंत में, खाली विकल्प करके जैसा यह पातकी बना वही रह जायेगा। कैसा भी विचार बनाओ वहां नियत स्वलक्षण देखो, स्वरूपास्तित्त्व देखो, सबको भिन्न जानो, असार जानो, अहितरूप जानो। किसी भी परद्रव्य में उपयोग न दो। कोई कहेगा कि परद्रव्य में उपयोग न देने की बात तो साहब कठिन है। इतना करा दो फिर हम आगे तो बढ़ लेंगे। अरे इसे खुद कर लो, कोई दूसरा आकर न करायेगा।
निज परमात्मत्वपरिज्ञान का द्वितीय मुख्य उपाय―दूसरा काम करना यह है कि जो अपने में जानता हुआ रहता है ना सदैव वह जानना क्या है? किस स्वरूप का है, जानने की शकल क्या है, जानने का रूपक क्या है ? उस जानने के स्वरूप के ही जानने में लग जायें, चीजों के पीछे न पड़ें, परचीजों को जानते हैं तो पर के पीछे न पड़कर उसका जो जानन हो रहा है वह जानन किस ढंग का है, उसका क्या स्वरूप है ? इसके जानने में लग जायें। और आप आत्मा का भी जानन कर रहे हों तो वहां भी आप आत्मा के पीछे न लगें किन्तु वहां भी वह जानन किस तरह का हो रहा है ? उस शुद्ध जानन का क्या स्वरूप है ? जहां मात्र जानन ही जानन की बात हो उस जानन के स्वरूप को ही जानने में लग जायें, ये ही दो बातें यहां कही गयी हैं। तो इस उपाय के द्वारा निज परमतत्त्व का परिज्ञान होता है।
निजपरमात्मत्व के परिज्ञान में अन्त:पुरुषार्थ की आवश्यकता―इस निजतत्त्व के परिज्ञान में अंत:पुरुषार्थ करना होता है। मात्र ऊपरी दृष्टि रखकर दूसरों को समझाया दूसरों को उपदेश आदि की कोई दृष्टि रखकर जो जानन का यत्न होता है उससे निज परमतत्त्व का परिज्ञान नहीं होता है, किन्तु परद्रव्यों का परिहार करके सर्वयत्न से अपने आपके अन्तर्मुख होकर ज्ञान परिणमन करने से निज परमतत्त्व का ज्ञान होता है। उस ही ज्ञान को यहाँ नियमसार में कहा गया है।
सम्यक्त्व का आधार स्थान―नियमसार सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को कहते हैं। जिसमें सम्यग्ज्ञान का स्वरूप तो संक्षेप में बता दिया गया था। अब सम्यग्दर्शन का स्वरूप कह रहे हैं। निज शुद्ध जीवास्तिकाय में जो निज सहज स्वभाव का परम श्रद्धान है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं। इस आत्मा को चार प्रकार से दिखाते हैं–जीव पदार्थ, जीव द्रव्य, जीवास्तिकाय और जीवतत्त्व–ये चार प्रकार की देखने की पद्धति हैं–द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव का आश्रय करना। जब द्रव्य का आश्रय करके जीव को देखा जाय तो यह जीवपदार्थ के रूप में देखा जाता है। जब क्षेत्र का आश्रय करके इस जीव को देखा जाय तो जीवास्तिकाय के रूप में देखा जायेगा और काल की दृष्टि से जीव को देखा जाय तो जीवद्रव्य के रूप में देखा जायेगा। और जब भाव की प्रमुखता से इस निज को देखा जायेगा तो जीवतत्त्व के रूप में देखा जायेगा। चूँकि श्रद्धान आदिक अवस्थाएँ इस जीवभूमि में होती है, अत: शुद्ध जीवास्तिकाय में समुपजनित परमश्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, यह कहा गया है।
द्रव्यदृष्टि से जीव की परख―जब द्रव्य की दृष्टि से देखा तो इस जीव को जीव पदार्थ कहते हैं ‘गुण पर्ययवत् द्रव्यम् ।’ गुणपर्याय का पिण्ड द्रव्य होता है। द्रव्य की दृष्टि में चैतन्य द्रव्यात्मक निरखा जाता है और व्यवहार में भी समन्वय हुआ, इस तरह द्रव्यदृष्टि से तो पुद्गल पकड़ा जाता है मुख्यतया, क्योंकि वह पिण्डरूप में साफ नजर आता है। हाथ में लेकर बता सकें कि यह है घड़ी, यह है स्कंध, यह है पुद्गल। तो यद्यपि ये चार दृष्टियाँ सभी पदार्थों में हैं, फिर भी व्यवहारिकता में द्रव्यदृष्टि से पुद्गल का निहारना स्पष्ट होता है। और क्षेत्रदृष्टि से आकाशद्रव्य का समझना स्पष्ट होता है और कालदृष्टि से कालद्रव्य का निहारना स्पष्ट होता है और भावदृष्टि से जीववस्तु का निहारना स्पष्ट होता है–ये चारों सभी वस्तुओं में हैं, पर प्रमुखता की बात कही है। गुणपर्याय का पिण्ड यह जीववस्तु है, ऐसा जब देखा तो जीव पदार्थ दीखा। पदार्थ का शब्दार्थ है, पद का अर्थ है जो जीव पद कहा गया है उसका वाच्यभूत पिण्ड जो है उसे पदार्थ कहते हैं। तो एक पिण्डरूप नजर आए यह जीव अनन्त शक्ति का पुञ्ज है, अनन्त परिणमन का पुञ्ज है और जीव में पुञ्ज नहीं निरखा जाता है पर समूहात्मकता को पिण्ड कहते हैं। यों द्रव्यदृष्टि से यह जीव पदार्थ देखा गया है।
क्षेत्रदृष्टि से जीव की परख―क्षेत्रदृष्टि से देखो तो विस्तार विस्तंभ प्रदेश फैलाव यह दृष्टि बनेगी। क्षेत्रदृष्टि करके हम जीव को देखें और राग दिख जाय, ऐसा न होगा या ज्ञानात्मक कोई गुण दिख जाय, ऐसा न होगा क्योंकि दृष्टि लगायी है क्षेत्र की। इस दृष्टि में तो असंख्यातप्रदेश हैं, इतने विस्तार वाला है, इतना फैला हुआ है, यह दिखेगा और इस दिखने में यह जीव अस्तिकाय नजर आयेगा। अस्तिकाय कहते हैं उसे जो है और परिणमता है। जीव में बहुत प्रदेश हैं, यह बात क्षेत्रदृष्टि से ग्रहण में आयेगी।
कालदृष्टि से जीव की परख―जब कालदृष्टि की प्रमुखता करते हैं तो यह न नजर आयेगा कि जीव इतना लम्बा चौड़ा फैला हुआ है। क्योंकि कालदृष्टि की प्रमुखता से जीव को निहारने जा रहे हैं। वहाँ जो परिणमन होगा, रागरूप, द्वेषरूप, विवेकरूप, ज्ञानरूप वह नजर आयेगा। पर्याय प्रमुख हो जायेगी और पर्याय की प्रमुखता से जीव का नाम है जीवद्रव्य। द्रव्य उसे कहते हैं, अदुद्रवत् द्रवति द्रोष्यति पर्यायवान इति द्रव्यम् । जिसने पर्यायों को उत्पन्न किया, ग्रहण किया, पर्यायों को कर रहा है, पर्यायों को करेगा वह द्रव्य कहलाता है। जीवद्रव्य कहने से परिणमन की प्रमुखता आती है।
भावदृष्टि से जीव की परख―जब भावदृष्टि को मुख्य बनाते हैं तो भाव मायने शक्ति ध्रुव गुणस्वभाव। उस दृष्टि को प्रमुख करके अपने आपको देखेंगे तो यह जीवतत्त्व के रूप में विदित होगा।
अन्तस्तत्त्वविलास की भूमि―जहाँ श्रद्धान् परिणमन हुआ वह है शुद्ध जीवास्तिकाय। शुद्ध, जिसमें पर की लपेट नहीं, केवल जीव ही जीव फैला हुआ है;ज्ञान ज्योतिस्वरूप शुद्ध जीवास्तिकाय में उसही का श्रद्धान होना सो सम्यग्दर्शन है। यह जीवास्तिकाय, आत्मभूमि का शुद्ध अंतस्तत्त्व के विलास का जन्मभूमिस्थान है। यह शुद्ध अन्तस्तत्त्व अर्थात् ज्ञायकस्वभाव विकसित कहाँ से होता है, वह है यही शुद्ध जीवास्तिकाय अर्थात् आत्मभूमि। उसमें उसही का श्रद्धान हुआ।
सम्यक श्रद्धान का अधिकारी―यह श्रद्धान किसके होता है ? जो भगवान् परमात्मदेवत्व के सुख का अभिलाषी हो अर्थात् जो शुद्ध आत्मीय आनन्द का प्रयोजक हो, ऐसे भव्य जीव के श्रद्धान् होता है। जैसे मोटे रूप में यहीं परखिये। जिसने अपने जीवन में यह उत्सुकता बनायी है कि मैं इन मनुष्यों के बीच में कुछ शान से रहूं, इनमें महान कहलाऊँ, मेरा किसी से अपमान न हो, मेरे अनुसार सब चलें, जिसकी ऐसी दृष्टि होगी, जिसने ऐसा जीने का लक्ष्य बनाया होगा उसको यह बात आ पड़ेगी ही कि वह अच्छा महल बनवाए, धन को बढ़ाये, सरकार में अपनी पैठ बनाए, ये सब उसकी तृष्णायें जगेंगी।
ज्ञानी की संवेगभावना―जिसके अन्तर में यह भावना जागृत हुई है कि इस मायामय जगत् में मायामय प्राणियों से हम अपने लिए क्या कहलाएँ ? ये भिन्न हैं, अपने परिणमन से परिणमकर समाप्त हो जाते हैं, इनसे मेरे हित का कोई सम्बन्ध नहीं है, न इन पर मेरा सुख दु:ख निर्भर है, ये सब मेरी ही तरह अथवा मेरे से भी मलिन परिणामों सहित अपना जीवन गुजार रहे हैं, ये भी अपने क्लेश भोग रहे हैं, ऐसे क्लेश भोगने वाले मायामय मनुष्यों से मुझे क्या कहलाना है ? आज मनुष्य हैं, थोड़े ही समय बाद मरकर कहीं के कहीं पहुँच गए, तब फिर मेरे लिए कहाँ क्या है ? अगर अपना जीवन इन्हीं लल्लोचप्पों के ही करने में बिता दिया;प्रेम करके बिता दिया, अपना आत्मसमर्पण करके बिता दिया तो फिर अपने कल्याण का अवसर और कहाँ मिल सकेगा ? यह समय भी गया। अपना यह दुर्लभ नरजीवन अज्ञानी बनकर ही बिता दिया तो उससे कुछ भी लाभ न होगा। बाहर में मेरे लिए कोई कुछ नहीं है। न मेरे लिए शरण हैं, न सहाय हैं।
संतोषकारी वृत्ति―भैया ! यह सारा जगत जिसे असार विदित हुआ है उसके लिए तृष्णा की क्या गुञ्जाइश है? उसका उत्साह ही उस ओर न जगेगा। रही गुजारे की बात। जहाँ पुण्य के उदय में ऐसा श्रेष्ठ भव पाया है, कुल पाया है, धर्म संगति प्राप्त की है वहाँ गुजारे की क्या जरूरत? रही एक मन के ऊधम की बात। कोई कहे कि भाई 4 रुपया तो रोज हमारे बीड़ी, सिगरेट, पान के लिए हों, तो इस ऊधम का तो कोई इलाज नहीं है मगर गुजारे के लिए कोई कितनी ही महंगाई का जमाना हो पर टोटा नहीं है। अगर समझते हो कि गुजारे का टोटा है तो जरा अपने से हीन परिस्थिति वाले और बहुकुटुम्बियों पर दृष्टि दो तो देखो कि वे भी जिन्दा हैं कि नहीं। वे भी गुजारा करते हैं कि नहीं। इस जीवन का लक्ष्य क्या है ? बड़ी ठाठबाट आराम से जीवन गुजारना ही लक्ष्य बनाया है क्या ? यह जीवन बुझ जायेगा फिर क्या होगा आगे ? सो स्पष्ट है।
सुयोग के दुरुपयोग का फल―हमने यदि अपने आपका अनुराग न किया, आत्मदेव का स्पर्श न किया और बाहरी आश्रयभूत विषयों का ही ध्यान बनाया तो परिणाम स्पष्ट है कि अब कुछ आगे न मिलेगा। मन का दुरुपयोग किया, दूसरे का बुरा विचारा तो कर्म भी यह कहेगा कि इस जीव को मन की जरूरत नहीं है क्योंकि मन दिया तो उसका उपयोग नहीं किया, इसलिए अब क्या जरूरत है इस मन को मन की। तो यह मन बिना बिल्कुल असंज्ञी बन गया। इन कानों का दुरुपयोग किया, राग भरी बातें सुनी, नाच गाना हुआ तो वहाँ बहुत जल्दी मन लग जाय। उसके लिये कहीं टिकट लेने जाना पड़े तो घंटों से खड़े रहें। कानों का दुरुपयोग किया तो (अलंकार में कह रहे हैं) यह विधि सोचता है कि इस भैया को कान की जरूरत नहीं है, यह तो बिना ही कान के ठीक रहेगा, तो बनेगा चौइन्द्रिय। आँखों का दुरुपयोग किया, रागदृष्टि से सुहावनी वस्तुओं को देखना और दुरुपयोग करना, यों आँखों का दुरुपयोग किया तो आँखों की भी अब क्या जरूरत है ? सो तीनइन्द्रिय ही रहना ठीक है।
धिक् किनको ? एक सभी जुड़ी हुई थी, बरात की महफिल थी, सो उसमें गाने नाचने को एक वेश्या बुलाई गयी। खूब लोग जुड़े हुए थे। मृदंग, हारमोनियम, मंजीरा सब ठाठबाट थे। उस समय के ठाठबाट को एक कवि ने बताया कि मिरदंग कहे धिक् है धिक् है, मंजीरा कहे किनको किनको, तब वेश्या हाथ पसार कहे इनको, इनको, इनको। क्या कहा कवि ने, कि महफिल में मृदंग बज रहा था तो वह यों ही बोलता है ना कि धिक् है, धिक् है, तो उसकी आवाज आती थी कि धिक्कार है, धिक्कार है। तो मंजीरा पूछता है कि किनको धिक्कार है ? ऐसी ही तो आवाज किनको किनको की निकलती है मंजीरा से, तब वह मृदंग तो जवाब नहीं देता लेकिन जो वेश्या नाच रही थी सो मानो वेश्या कह रही है इनको-इनको इनको-इनको। चारों दिशाओं में बैठे हुए लोगों की तरफ हाथ फैला-फैला कर मानो कह रही है कि इनको धिक्कार है। तो रागभरी इस तरह की बातें सुनने में इन मोही जीवों का उपयोग लग रहा है। सो क्या जरूरत है कानों की और आँखों की, अन्य कर्मठ इन्द्रियों की, सो सब सपाट होकर फैसला निगोद का ही मिलेगा।
विवेकपूर्वक चाह की छांट―तो भैया ! यह निर्णय करो कि तुम्हें क्या चाहिए ? पहिले चाह की खूब छांट कर लो। फिर मिल जाना बहुत जल्दी होगा। पहिले चाह ही ठीक बना लो–क्या आत्मसुख चाहिए या वैषयिक सुख चाहिए। वैषयिक सुख के पीछे बड़ी आकुलताएँ सहनी पड़ती। परपदार्थों की बड़ी रक्षा करना पड़ती है कि मन माफिक इनका परिणमन हो और इतने पर भी विघ्न आएँ तो उनको दूर करने में युद्धसा मचाओ, सारी परेशानी करके तो मिलता है वैषयिक सुख, तिस पर भी, सुख भोगने के काल में शांति नहीं किन्तु आकुलता से ही उपभोग होता है। और इतना ही नहीं, उपभोग के पश्चात् महान् पछतावा और आकुलता होती है। क्या चाहिए तुम्हें ? पहिले उस चाह की छांट कर लो।
एकस्वरूपी जीवों में भी भेद बैठाकर कठिन पक्षपात―जगत् में अनन्त जीव हैं, उन अनन्त जीवों में से घर में पैदा हुए दो चार जीवों को अपना मानना और शेष सब जीवों को पराया मानना, इसको कितना बड़ा अंधेर और अज्ञान कहा जाय ? ऐसी क्या आफत आयी कि उन झूठे भिन्न समस्त जीवों की ही तरह अपने ही स्वार्थ में रहने वाले अपने ही विषय-कषाय खुदगर्जी में रहने वाले उन दो चार जीवों को अपना सब कुछ मान लेना और उनके लिए तन, मन, धन, वचन सब समर्पण खुशी से कर रहे हैं। बाकी जीवों में ये भी जीव हमारी ही तरह हैं ऐसा हृदय में नहीं सोचते। इसे कितना बड़ा अज्ञान माना जाय ? फिर और अज्ञान पर अज्ञान चले। घर के बाल बच्चों का तो खैर थोड़ा सा भार है, लेकिन ये मेरी समाज के हैं, ये मेरी बिरादरी के हैं–ऐसा मानना कितना बड़ा अंधेर है ? अच्छा और जाने दो। जिस त्यागी का प्रथम परिचय हुआ उसे मानते हैं कि यह तो दूसरे के त्यागी हैं। इसे कितना भ्रम और अज्ञान कहा जाय ? अपने पर दया नहीं आती।
आत्महित की आत्मा में खोज―भैया ! अपने स्वरूप को तो समझो, सर्व जीवों पर सही निगाह तो बनावो। मिलेगी जो कुछ अपने को कल्याण की बात वह अपने द्वारा अपने में ही मिलेगी। अन्यत्र कितनी ही टकटकी लगाकर प्रतीक्षा करें, केवल क्लेश ही है, लाभ कुछ नहीं है, यह तो हुई सम्यग्दर्शन की बात, अब चारित्र की भी बात देख लो। निश्चय ज्ञान दर्शनात्मक जो कारणपरमात्मा है उसमें अविचल रूप से स्थित हो जाना इसका नाम है चारित्र।
आत्मतत्त्व की त्रिरूपता―भैया ! परमात्मतत्त्व को 3 प्रकार से निहारिये –द्रव्यरूप कारणपरमात्मतत्त्व, पर्यायरूप कारणपरमात्मतत्त्व और कार्यपरमात्मतत्त्व। कार्यपरमात्मतत्त्व है अरहंत और सिद्ध। जिनका सहजस्वरूप निरपेक्ष स्वयं जैसे तत्त्व को लिए हुए हैं वैसा ही प्रकट हो गया है उसे कहते हैं कार्यपरमात्मा और इस कार्यपरमात्मा होने से पहिले जो शुद्ध आत्मतत्त्व है उसे कहते हैं पर्याय रूप कारण परमात्मा और जो प्रत्येक आत्मा का सहज स्वभाव है उसे कहते हैं ओघ कारणपरमात्मा।
परमार्थशरण कारणपरमात्मतत्त्व―यह कारणपरमात्मतत्त्व इस द्रव्यरूप कारणसमयसार के लिए अध्यात्मशा में प्रयोग किया जाता है क्योंकि इस समस्या का समाधान यह कारणपरमात्मतत्त्व ही है। किस समस्या का ? कि हम किसका आश्रय करें जिससे हमारी शुद्ध परिणति बने, परपदार्थ का तो यह आत्मा निश्चय ही नहीं कर सकता, क्योंकि अपने जीवास्तिकाय को छोड़कर अन्यत्र इसके गुणों की गति नहीं है। चाहे प्रभु अरहंतदेव हैं, सिद्ध देव हैं, उनके इस गुण की गति नहीं है। यह आत्मा अपने जीवास्तिकाय में रहते हुए ज्ञान द्वारा ऐसा ग्रहण करता है कि जिसमें अरहंत और सिद्ध के स्वरूप का विषय होता है पर आश्रय नहीं कर सकता। आश्रय तो यह स्वयं का ही कर सकता है, सो स्वयं है वर्तमान में अशुद्ध और अनादि से ही चला आया है यह अशुद्ध। तो क्या इस अशुद्ध के आश्रय से शुद्ध परिणति बनेगी ? यह भी बात सम्भव नहीं है। तब यह निर्णय करना कि अपने आपका जो अपने आपके सत्त्व के कारण सहजस्वरूप है चित्स्वभाव, चित्प्रकाश, कारणपरमात्मतत्व है उस शुद्धस्वरूप का आश्रय करें तो शुद्ध वृत्ति जगेगी।
ज्ञान की अबाध गति―यह कारणसमयसार चाहे परिणमन में अशुद्ध है पर ज्ञान की ऐसी पैनी दृष्टि होती है कि यह ज्ञान अशुद्ध अवस्था में भी अशुद्ध में न अटक कर, अशुद्ध को छोड़कर भीतर गमन करता है और शुद्ध को ग्रहण कर लेता है। जैसे हड्डी का फोटो लेने वाला यंत्र कपड़ों को, चमड़े को, खून को, मांस को न ग्रहण करके केवल हड्डी का फोटो ले लेता है। जैसे आपकी कोई कीमती चीज तिजोरी में बक्स के अन्दर पोटली में बंधी है, मोती हीरा कुछ भी हो, आप यहाँ बैठे-बैठे एकदम उपयोग से हीरा को ज्ञान से पकड़ जाते हैं। घर के किवाड़ लगें हों तो आपका ज्ञान दरवाजे पर न अटक जायेगा कि किवाड़ खुलें तो हम भीतर जाएँ। तिजोरी के फाटक में न अटक जायेगा सीधा वहीं पहुँच जाता है। इसी प्रकार इस अशुद्ध अवस्था में भी भेदविज्ञान के बल से अपने नियत लक्षण का आलम्बन करके यह उपयोग उन सब परिणमनों को छोड़कर अंत: शुद्ध चैतन्यस्वरूप को ग्रहण कर सकता है। इस शुद्ध चित्स्वभाव के आश्रय से शुद्ध परिणति होती है।
ज्ञानी की नियमसार की भावना―ऐसे निश्चयज्ञान दर्शनात्मक कारणपरमात्मतत्त्व में अविचलरूप से स्थित होना इसको ही कहते हैं चारित्र। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र यही नियमसार कहा है और सार शब्द को लगाने से यह जानना कि इस स्वरूप से अतिरिक्त और जो कुछ बात है, परिणमन है वह नियमसार नहीं है। ऐसे नियमसाररूप अपने आपकी वृत्ति जगाने के लिए कुन्दकुन्दाचार्य देव ने इस नियमसारग्रन्थ को बनाया है। ज्ञानी जीव रत्नय के स्वरूप को जानकर यह भावना करते हैं कि मैं विपरीत आशयरहित सम्यग्दर्शन को, विपरीत ज्ञानरहित सम्यग्ज्ञान को और विपरीत परिणतिरहित सम्यक्चारित्र को प्राप्त करके मैं आत्मीय आनन्द को प्राप्त होऊँ। अब इस ही रत्नय का वर्णन जानने के लिए रत्नय का भेदपूर्वक वर्णन कर रहे हैं।