वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 30
From जैनकोष
गमणणिमित्तं धम्ममधम्मं ठिदि जीवपोग्गलाणं च।
अवगहणं आयासं जीवादीसव्वदव्वाणं।।30।।
धर्मद्रव्य—जो जीव और पुद्गल द्रव्य के गमन में निमित्तभूत है उसे धर्मद्रव्य कहते हैं और जो जीव पुद्गल के ठहरने में निमित्तभूत है उसे अधर्मद्रव्य कहते हैं तथा जो जीवादिक समस्त द्रव्यों की अवगाहना का हेतुभूत है उसे आकाश कहते हैं। यह धर्मद्रव्य समस्त लोकाकाश में तिल में तैल की तरह सर्वप्रदेशों में व्यापक है और जैसे बावड़ी का जल स्वयं नहीं चल रहा किन्तु वहाँ बसने वाले मछली और कछुवे के गमन का निमित्तभूत है, इस ही प्रकार यह धर्मद्रव्य स्वयं गति नहीं करता है फिर भी गतिक्रिया परिणत जीव पुद्गल के गमन में निमित्तभूत है। यह धर्मद्रव्य कोई स्वभावगति को ही कर उसमें निमित्तभूत है और कोई विभावगति के कार्य करे उसमें भी निमित्तभूत है यह अन्य पदार्थों के स्वभाव और विभाव क्रियाओं के भेद से कहीं दो प्रकार की निमित्तता नहीं हो जाती है किन्तु गमन मात्र में निमित्तभूत यह धर्मद्रव्य है।
जीव की स्वभावगति में निमित्तता—जब यह जीव शुद्धोपयोग की भावना के प्रसाद से अपने आपके शुद्ध स्वरूप में अपना आलम्बन पुष्ट करता है तो उस शुद्ध परिणमन का निमित्त पाकर ये द्रव्यकर्म स्वयं अपनी परिणति से विनाश को प्राप्त होते हैं और उस समय इस जीव के समस्त क्लेश दूर हो जाते हैं अथवा यों कहो 5 प्रकार के संसार द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन रूप का अभाव हो जाता है ऐसे शुद्ध विकास के अवसर में यह जीव एक समय में ही यहाँ से एकदम सीधा ऊपर चला जाता है जहा तक लोकाकाश है अथवा धर्मद्रव्य अस्तिकाय है। यह शुद्धआत्मा शुद्ध गति से तीन लोक के शिखर तक पहुँचता है।
शुद्धात्मा का स्थायी स्थान—भैया ! परमात्मा का ध्रुव निवास ऊपर है, जहा तक लोक है वहाँ तक गमन करता है, अंत में अवस्थित रह जाता है। यहाँ भी लोग जब परमात्मा की याद करते हैं तो अपना सिर ऊँचा ही तो उठाकर करते हैं किसी को नीचे झुककर भगवान की याद करता हुआ क्या देखा है? जब जो परमात्मा की याद करता है वह ऊपर ही निगाह करके देखता है। और फिर जैसे तूँबी में मिट्टी भरी हो और वह पानी में पड़ी हो तो पानी के नीचे-नीचे ही रहा करती है। वह मिट्टी जब खिर जाती है तब तूँबी वहाँ नहीं ठहर पाती है जब मिट्टी गलकर बह गयी तो तूबी स्वभाव से जल के ऊपर पहुंच जाती है। ऐसे ही द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म का मल दूर होने पर आत्मा लोकान्त में जाता है।
जीव की स्वभावगति का साधन—इस स्वच्छ चित्चमत्कार मात्र आत्मा पर द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का मिट्टी का लेप पड़ा हुआ है। जिस बोझ से यह जीव संसार में दबा है। इस जीव को कभी चेत आए, स्वरूप की परख हो और इस ज्ञानस्वरूप की भावना बनाए तो उसके प्रसाद से द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ये मल दूर हो जाते हैं और उस समय यह जीव एक समय को लोक के अंत तक पहुंच जाता है। उस समय स्वभाव गति क्रिया निमित्त यह धर्मद्रव्य है, यह स्थिति एक मुक्त अवस्था में है। सर्व संकट जहा छूट गए, कर्म भी दूर हो गए, ऐसी मोक्ष की स्थिति इस प्रभु की होती है।
मोह का नृत्य—भैया ! कैसा इस जगत में मोह का नृत्य है कि यह जीव दु:खी भी होता जाता है और उसी मोह और राग को दृढ़ पकड़ता जाता है। जिसके द्वारा जो तकलीफ हुई उस ही का बढ़ावा दिया जा रहा है। जैसे लाल मिर्च का खाने वाला जो खूब लाल मिर्च खाने का शौकीन हो वह सी-सी करता जाता हैं, आंखों से आंसू भी गिरते जाते हैं फिर भी मांगता है कि और दो। आसक्ति है। ऐसे ही इस संसार के विषयों के अनुराग में, मोह में, अपनाने में इस जीव में आकुलताए क्षोभ समाये जा रहे हैं और उन आकुलताओं को सहन न कर सकने के कारण उन आकुलताओं के कारणभूत उन ही विषयसाधनों का ये जीव आह्वान करते जाते हैं। पर यह बात ध्रुव सत्य है कि संसार में सर्वत्र क्लेश ही क्लेश हैं। इनसे यदि बचना है तो अपने आपके सहज स्वभाव का परिचय करना ही होगा और यही स्वरूपाचरण जो आत्मदर्शन के अवसर में प्राप्त हुआ है यही वृद्धिगत होकर परमात्मस्वरूप तक पहुंचा देता है।
शुद्धात्मा की अनुश्रेणि ऊद्र्ध्वगति—सिद्ध प्रभु 6 अपक्रम से अब रहित हैं। जहा से यह मनुष्य मुक्त हुआ है उसही के ठीक सीध में आकाश का एक प्रदेश भी टेढ़ा नहीं जाता है किन्तु एकदम सीध में यह शुद्धात्मा गमन करता है। यह संसारी जीव मरने के बाद 6 ओर से गमन किया करता है। पूरब से पश्चिम को, पश्चिम से पूरब को, पश्चिम से उत्तर और उत्तर से दक्षिण, ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर। इस तरह 6 अपक्रमणों में नवीन देह धारण करने के लिये गमन किया करता है और जीवन में तो यह जीव इतनी भी सीध नहीं रखता है अर्थात् गोल चल दे, तिरछा चल दे, जैसा चाहे चल दे किन्तु सिद्ध भगवान कर्मों से मुक्त होते ही एकदम सीधे ऋजुगति से मोक्ष निवास में पहुंच जाते हैं।
प्रभुता की व्यक्ति की व पहिले की स्थितियां—मुक्ति से पहिले भगवान अयोग केवली रहते हैं और इससे पहिले सयोग केवली हुआ करते हैं। इससे पहिले साधना की अवस्थाए हुआ करती हैं और उन साधनों की अवस्थाओं से पहिले यह प्रमाद अवस्था में साधु रहता है, उससे पहिले कुछ भी हो अविरत सम्यग्दृष्टि रहे या देशव्रती श्रावक रहे सब संभव है। तो यह जीव अभ्यास बल से सबसे पहिले जितेन्द्र बनता है, यह बहुत बड़ी साधना है अपनी इन्द्रियों पर विजय किए रहना। पंचेन्द्रिय के विषयों में यह समस्त लोक अपने मार्ग से च्युत होकर भटक रहा है। उन इन्द्रियों पर विजय करना सबसे पहली फतह है।
रसनेन्द्रियविजय—भैया ! जरा कहने में तो आसान लगता है कि क्या बात है, न खायें रसीले, चटपटे भोजन आखिर गले के नीचे उतरने के बाद घाटी नीचे माटी की हालत हो जाती है। एक सेकेण्ड का स्वाद न आवे तो क्या बिगड़ता है? एक सेकेण्ड के उस स्वाद की प्रबलता में कितने ही रोग कितने ही दोष ये अपने आपमें मोल ले लेते हैं। सीधा सात्विक खावो और रोग से बचे रहो तो कौनसी अटक पड़ती है?स्वादिष्ट चाय पी लो तो इसमें कौनसा लाभ मिलता है? हाँ नहीं किया जायेगा पर ज्यों ही विषय साधन समक्ष आते हैं तो यह मोही जीव उनको भोगे बिना रह नहीं पाता है। कितना व्यामोह है संसारी प्राणी का।
चक्षुरिन्द्रियविजय—एक रसनाइन्द्रिय की ही बात नहीं है—जो बहुत दूर की इन्द्रिय है, जिसका विषयों से सम्बन्ध भी नहीं बनता ऐसे चक्षुरिन्द्रिय विषय का भोग क्या इसके कम रोग की बात है। अरे न देखें बाहर में किसी चीज को तो कौनसी अटक हो जाती है, कौनसा घाटा पड़ जाता है, पर सुन्दर रूप की बात तो दूर रहो, कोई चीज सामने से निकल जाय, चाहे सड़क से रद्दी ढेला ही निकलने लगे, लो आंखें वहाँ पहुंच ही जाती हैं। कैसी यह व्यर्थ की व्याधि लगी हुई है। न देखा रूप, न देखा बाहर कुछ तो आत्मा में कौनसी हानि होती है? पर नहीं रहा जाता है। जबकि देखो रसना और नेत्र इन दोनों को वश में करने के लिए प्राकृतिक ढक्कन लगे हुए हैं। मुँह में दो ओठों का ढक्कन लगा है, इनको बंद कर लिया तो इस रसना विषयक का ढक्कन लग गया। इसी तरह नेत्र के दोनों ढक्कन बंद कर लिए तो सारी आफत मिट गयी। मगर मोह के रोग में यह जीव इन ढक्कनों को बंद नहीं कर सकता है।
शेषेन्द्रियविजय—और इन दो इन्द्रियों की ही बात नहीं है, कान भी कैसा खड़े रहा करते हैं, नाक भी कैसा सदा तैयार रहा करती है गंध लेने के लिए। इसका द्वार तो कभी बंद ही नहीं होता। नाक का द्वार सदा खुला रहता है। कान का द्वार भी सदा खुला रहता है। खूब शब्द सुनते स्पर्शन कामभाव का विषय तो मुग्धतापूर्ण है। तो ऐसे इन विषयों के वश में होकर यह जीव अपनी बरबादी किए जा रहा है। उनसे बचने का जिसने यत्न किया है वे जितेन्द्रिय हो जाते हैं।
इन्द्रियविजय धर्ममार्ग का प्रथम कदम—धर्म मार्ग में सबसे पहिले जो कदम उठता है चारित्र के रूप में वह इन्द्रिय विजयता का उठता है और साधारण लोग तक के भी धर्म की बात मन में आती है तो भोजन के त्याग की बात पहिले कर ली जाती है। अमुक रस आज नहीं खाना है, आज एक बार ही खाना है या इतना-इतना त्याग सहित खाना है। सबसे पहिले तो भोजन पर ही दृष्टि जाती है। धर्ममार्ग में और बात भी देखो जब तक जितेन्द्रियता नहीं प्रकट होती है तब तक परिणामों में विषय और कषाय का अभाव नहीं हो सकता। सबसे पहिले इन्द्रिय विषय पर विजय किया जाता है तत्पश्चात् कषायों के दूर करने में सफलता होती है। और जब कषाय दूर हो जायें तब फिर यह निष्कषाय होने के बाद सयोगकेवली भगवान बनता है।
अयोगकेवली गुणस्थान के पश्चात् जीव की स्वभावगति—वीतराग आत्मा भगवान हो गया। शरीर बना हुआ है, विहार चल रहा है, दिव्य ध्वनि भी होती है, यहाँ के लोगों के उनका दर्शन होता है। ऐसा सयोगकेवली भगवान बहुत दिनों के पश्चात् जब उनका संसार छूटता केवल अन्तर्मुर्हूत मात्र शेष रह जाता है तब वह अयोगकेवली हो जाता है। उस गुणस्थान का समय 5 ह्रस्व अक्षर बोलने के बराबर है। स्वरों में ह्रस्व 5 ही होते हैं। इन ह्रस्व अक्षरों को जल्दी बोलने में जितना समय लगता है उतने समय में वह अयोगकेवली भगवान गुण स्थान को तजकर, शरीर से अलग होकर लोक के शिखर पर विराजमान् हो जाता है। यहाँ भगवान के स्वभावगति की क्रिया का परिणमन है। उनका पंचम गति को जाने में अर्थात् सिद्ध होने में जो भगवान गमन होता है उस गमन का हेतुभूत जो द्रव्य है उसका नाम है धर्मद्रव्य।
विभावगति के निमित्त का विवरण—संसारी जीवों के विभाव गति क्रिया होती है जो कि मरने के बाद उपक्रम करके सहित होती है उस क्रिया का भी हेतुभूत धर्मद्रव्य है और जीवन अवस्था में कैसा भी यह गमन कर, तिरछा, टेढ़ा, गोल ऐसे विषम गमन का भी कारणभूत यह धर्मद्रव्य है, जैसे पानीके गमन में पनालिया कारण होती हैं इस ही प्रकार जीव और पुद्गल के गमन में कारण धर्मद्रव्य होता है। यह धर्मद्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित है, अमूर्त है। इसमें 8 प्रकार का न स्पर्श है, न 5 प्रकार का वर्ण है, न 5 प्रकार का रस है और न दोनों प्रकार का गंध है। आकाशवत् अमूर्त सूक्ष्म किन्तु लोकाकाशप्रमाण व्यापक यह धर्मद्रव्य है, यह अपने आपके द्रव्यत्व और अगुरुलघुत्वगुण के कारण अपने आपमें निरन्तर परिणमता रहता है। उसका आकार वही है जो लोक का आकार है।
धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य व लोकाकाश के आकार की समानता—लोक का आकार इसी प्रकार का बताया गया है कि जैसे मानों 7 पुरुष एक से कद के हों और एक के पीछे एक इस तरह सातों खड़े हो जायें दोनों पैरों को पसारकर और हाथों को कमर पर रखकर तो ऐसी स्थिति में एक सिर भाग को तो न सोचा जाय और बाकी जो कुछ आकार है यह आकार धर्मद्रव्य का है, लोकाकाश का है, अधर्मद्रव्य का है।
धर्मद्रव्य के गुण का दिग्दर्शन—इस धर्म द्रव्य में शुद्ध गुण होते है और शुद्ध पर्याय होती है। यह शाश्वत है, शुद्ध है, और उसकी पर्याय भी शुद्ध है। धर्मद्रव्य का गुण क्या है इस बात को समझने का अपने पास कोई उपाय नहीं है, किन्तु युक्ति से अवगत व आगमगम्य पदार्थ है यह धर्मद्रव्य जीव पुद्गल के गमन में कारण होता है, यह तो आपेक्षिक कथन है। किसी द्रव्य का गुण किसी दूसरे द्रव्य में परिणमन की अपेक्षा रखकर नहीं हुआ करता है। तो धर्मद्रव्य का यह गति हेतुत्व गुण जो जीव और पुद्गल की गति परिणति की अपेक्षा रखता है, वह अविभागप्रतिच्छेदात्मक स्वभाव गुण हो, ऐसा नहीं है। वह अपेक्षित धर्म है। जैसे कोई अंगुली छोटी है, कोई बड़ी है, कोई मजबूत है, तो यह अपेक्षित है। कहीं एक ही अंगुलि को देखकर छोटी बड़ी तो नहीं कहा जा सकता है ऐसे ही मात्र धर्मद्रव्य को ज्ञान में लेकर उसका गुण खोजें तो गुण नहीं बताया जा सकता है। धर्मद्रव्य का यह गतिहेतुत्वरूप लक्षण औपचारिक है, धर्मद्रव्य किस बात में निमित्त होता है, ऐसा बताने के लिए यह एक कथन है। वस्तुत: धर्मद्रव्य अपने द्रव्यत्व और अगुरुलघुत्वगुण के कारण निरन्तर षड्गुणहानि वृद्धि रूप में अपने आपमें परिणत है, किन्तु शुद्ध द्रव्य होने के कारण भाव, विभाव, प्रभाव विदित नहीं होता है।
धर्मद्रव्य का गुण व पर्याय के रूप में वर्णन—गुण सहभावी हुआ करता है और पर्याय क्रमभावी हुआ करते हैं। धर्मद्रव्य में एक साथ जो कुछ उसमें पाये जाते हैं वे सब धर्मद्रव्य के गुण हैं। साधारण गुणों की तो खबर है ही। अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशित्व, प्रमेयत्व ये 6 गुण हैं। इन 6 गुणों के आधारभूत ये धर्मद्रव्य है, पर उसमें कोई विशेष गुण भी अवश्य है। कोई द्रव्य ऐसा नहीं है कि जिसमें केवल साधारण गुण तो हों और विशेष गुण कोई न हो। यदि विशेष गुण कोई नहीं है तो वह द्रव्य ही नहीं ठहर सकता है और यदि साधारण गुण नहीं है तो विशेष गुण किसके आधार पर विराजें? सो साधारण गुण न हो या असाधारण गुण न हो तो वस्तु का सर्वथा अभाव होने का प्रसंग आता है। है कोई धर्मद्रव्य में असाधारण गुण। गुण के विवरण के प्रसंग में जीव और पुद्गल का गतिहेतुत्व बना करता है। ऐसे जीव और पुद्गल के गमन में कारणभूत धर्मद्रव्य का वर्णन किया गया है।
अधर्मद्रव्य का विवरण—अधर्मद्रव्य का भी यही हाल समझो। जो कुछ धर्मद्रव्य के विषय में बताया गया है वही सब कुछ विशेषण अधर्मद्रव्य में है। यहाँ केवल साधारण कार्य की निमित्तता में ही अन्तर है कि धर्मद्रव्य तो जीव पुद्गल की गति में कारण है किन्तु अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की स्थिति में कारण है विशेष गुण का अन्तर आ गया, उसको इस विशेष गुण की मुख्यता न करना तो धर्म अधर्म परस्पर में एक समक्ष आता है वहाँ यह विश्लेषण करने की गुजाइश नहीं रहती है। यों इस प्रकरण में धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का वर्णन किया गया है। जैसे धर्मास्तिकाय के गुण शुद्ध और पर्याय शुद्ध होती है, ऐसे ही अधर्मद्रव्य भी गुणपर्याय से शुद्ध रहता है। इन अमूर्त द्रव्यों के गुण स्पष्ट नहीं जान सकते, विशेष अपेक्षित गुण के द्वार से धर्म और अधर्म का मान कर सकते हैं।
आकाश का स्वरूप—आकाशद्रव्य का विशेष गुण है द्रव्यों को अवगाह देना, यह सब आपेक्षिक कथन चल रहा है। आकाशद्रव्य किसी को अवगाह देता फिरे, ऐसी उसकी कोई परिणति नहीं है, वह तो अपने अगुरुलघुत्व गुण के परिणमन से परिणमता हुआ एक द्रव्य है पर उसके स्थान में पदार्थ रहता है, इस कारण वह अवगाह का निमित्त है और उसे अवगाहन का हेतु कहा गया है। अवगाहन आदि में समर्थ तो सभी द्रव्य हैं परमाणु की जगह दूसरा परमाणु रह जाता है जीव के स्थान में अनेक पुद्गल पड़े हुए हैं। तो इस पदार्थ में भी अपने आपमें दूसरों को समा लेने की सामर्थ्य है पर ऐसा होते हुए भी स्थान तो आकाश में ही है इसलिए अवगाहन का हेतु आकाश को कहा गया है।
लोकाकाश और अलोकाकाश—धर्म और अधर्म के शेष गुण आकाश के शेष गुणों में सदृश हैं अथवा जो साधारण गुण धर्म अधर्म का है वह ही आकाश में है, जो आकाश में है वह ही धर्म अधर्म में है। लोकाकाश धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य का एक समानपरिमाण है। पर अलोकाकाश इससे अधिक है अनन्तगुणा। आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। आकाश के दो भेद नहीं होते हैं किन्तु आकाश के जितने प्रदेशों में समस्त द्रव्य ठहरते हैं उतने का नाम लोकाकाश है और जहा केवल आकाश ही आकाश है उसका नाम अलोकाकाश है।
सर्वज्ञेयों के जानने का प्रयोजन—भैया ! यह सब कुछ जान लो। जो गति का कारण है वह धर्मद्रव्य है और जो स्थिति का कारण है वह अधर्मद्रव्य है। समस्त द्रव्यों को स्थान देने में प्रवीण आकाशद्रव्य है। इन सबको भली प्रकार द्रव्य रूप से जान लो और जानकर कहीं उनमें प्रवेश नहीं करना है, उनमें उपयोग नहीं फसाना है। जान लो, ज्ञेयतत्त्व न जाना तो एक वह अज्ञान अँधेरा है। ऐसी स्थिति में ज्ञान प्रगति का अवसर नहीं होता है।
अनात्मतत्त्व के जानने की आवश्यकता—ये सब पदार्थ तो अभी सम्बन्धित हैं, यह मैं आत्मा हू। इसमें कोई मलिनता है, क्यों इसकी दुर्दशा है? उसमें निमित्त है उपाधि, उस उपाधि का वर्णन किया जाना चाहिए। ऐसे पुद्गलों का वर्णन आवश्यक है। उपाधि का निमित्त पाकर बाह्य पदार्थों का आश्रय बनाकर ये रागद्वेषादिक हुआ करते हैं। सो बाह्य विषयों का भी बोध कराना चाहिए। सो ऐसे पुद्गलों का भी वर्णन आयेगा। यह जीव द्रव्य डोलता है, गमन करता है, कहां तक गमन करता है?क्यों गमन करता है, अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं, उनका समाधान मिलता है धर्मद्रव्य का वर्णन होने से। यह चलकर ठहरता भी है और कहीं आखिरी सीमा में ठहर जाता है ऐसा समझने के लिए अधर्मद्रव्य का वर्णन है और आकाशद्रव्य तो अमूर्त होता हुआ भी, न दिखता हुआ भी लोगों को परिचय में हो रहा है। यह सब आकाश ही तो है, जहाँ पोल है, जहाँ हम रहते है वह आकाश है। हम कहां रहते हैं, उसका समाधान करने को आकाशद्रव्य का वर्णन जानना। वस्तुत: प्रत्येक पदार्थ अपनी ही परिणति से परिणमता है और अपने ही प्रदेश में उसका अवधान है। फिर भी बाह्य बात, विभावों की बात बाह्य अटक ये सब जानने से ओझल नहीं किए जाते। इस कारण सभी द्रव्यों का वर्णन जानना आवश्यक हो गया है।
पर से अलगाव व निज में लगाव का यत्न—जान लिया, पर जान करके मोक्षार्थी पुरुष सदा निजतत्त्व में ही प्रवेश करे। जानने की बातें जानने की जगह हैं, पर करें क्या, कहां प्रवेश पायें? यह आत्महित के जानने के लिए एक अनिवार्य बात हैं, हम अपने आपके जानने में रहते हैं तब आकुलता नहीं होती, क्योंकि आकुलता का निर्माण किसी परविषय का आश्रय करके होता है। कोई मनुष्य किसी पर को तो उपयोग में न रखे और आकुलता कर ले, ऐसा नहीं हो सकता। कोई परविषय लक्ष्य में रहता है, उपयोग में रहता है तब ही आकुलता मच सकती है तो निराकुल होने के लिए यह आवश्यक है कि हम किसी पर में न फसें और केवल निज शुद्ध ज्ञायक स्वरूप की दृष्टि बनाए रहें।
आनन्द प्राप्ति का साधनभूत ज्ञान—आनन्द पाने का कितना सुगम उपाय है कि बाहर से उपयोग नेत्र को बंद किया जाय यह मैं ज्ञान नहीं, स्वभाव मात्र स्वयं तो हू ऐसी दृष्टि बनाए तो यह शीघ्र शांति प्राप्त कर लेता है। कितना व्यर्थ का यह ऊधम है कि न पर से इस मुझमें कुछ आना है और न मुझसे किसी पर में कुछ जाना है, कोई वास्ता नहीं है। मैं मैं हू, पर पर है,फिर भी कितना बोझ इस जीव ने अपने पर लादा है कि बोझ की वजह से यह कभी विश्राम नहीं ले पाता। यत्र तत्र दौड़ लगाये चला जाता है। बिना कारण यह अपने आपमें संक्लेश बनाए रहता है। सब विवरणों का अर्थ यह है कि न कुछ पर से हममें परिणति आती है और न हमसे पर में कुछ जाता है। ये अपने घर के हैं, हम अपने घर के हैं, किन्तु परदृष्टि करके अपने आपमें कल्पनाए बनाकर यह दु:खी होता रहता है। यदि सब द्रव्यों को जानकर प्रवेश करना है तो अपने निजतत्त्व में प्रवेश करना है। पर का जानना पर से निवृत्त होने के लिए किया जा रहा हैं। पर में फसने के लिएपर का जानना नहीं किया जाता है। यहाँ तक अजीवाधिकार में पुद्गल, धर्म, अधर्म का वर्णन किया, अब शेष रहा जो कालद्रव्य है उसका वर्णन अगली गाथा में किया जा रहा है।