वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 31
From जैनकोष
समयावलिभेदेण दु दुवियप्पं अहव होइ तिवियप्पं।
तीदो संखेज्जावलिहदसंठाणप्पमाणं तु।।31।।
काल की परमार्थ पर्याय व अल्पतम व्यवहारपर्याय—इस गाथा में व्यवहार काल का स्वरूप कहा है। कालद्रव्य की पर्यायों का स्वरूप कहा जा रहा है। कालद्रव्य की पर्याय वस्तुत: एक समय है। अब उन समयों का संचय करके अर्थात् ज्ञान में बहुत से समयों के समूह को जोड़कर फिर अन्य भेद किया जाता है। काल के दो भेद बताए जा रहे हैं—समय और आवली। यद्यपि भेद बहुत से हो जाते हैं पर परमार्थ से तो काल का भेद समय है और व्यवहार में जब अपन चलें, व्यवहार काल को जब उपयोगात्मक जाना तो उन सबमें सबसे छोटा काल है आवली। एक स्वतंत्ररूप और एक व्यावहारिक रूप, इस तरह से काल के ये दो भेद कहे गये हैं।
काल का मूल व्यावहारिक भेद—आँख की पलक तुरन्त बंद करने में और बंद करके तुरन्त उठा देने में जितना समय लगता है उसे बहुत छोटा समय कहेंगे, पर इतने समय में अनगिनती आवलियां हो जाती हैं। उनमें से एक आवली को व्यवहार काल का रूप दिया है। यों काल द्रव्य में परिणमन के दो प्रकार हैं—समय और आवली। अथवा एक दृष्टि से काल 3 प्रकार का है भूत काल, वर्तमान काल और भविष्यत् काल। इन तीनों में समस्त काल आ गए। वर्तमान काल तो वर्तमान हुआ और सारा व्यतीत हुआ काल भूतकाल हुआ और आगे होने वाले समस्त भविष्यत् अतीत काल से भी बड़ा है, हैं दोनों असीम।
अतीतकाल का प्रमाण—काल के वर्णन में यह बतला रहे हैं कि अतीत काल है कितना? इसको आचार्य देव ने बड़ी कलापूर्ण ढंग से बताया है कि जितने संस्थान हुए हैं आज तो सिद्ध हुए हैं उनके जितने जन्म हुए हैं, जितने शरीर मिले हैं उन संस्थानों में असंख्यात आवलियों का गुणा कर दिया जाय, जितना लब्ध हो उतना काल व्यतीत हो गया। इसका भाव यह है कि आज जो सिद्ध हैं उन्होंने जितने जन्म पाये हैं, सो एक जन्म असंख्यात आवलियों का तो होता ही है, ऐसी असंख्यात आवलियों के समय का गुणा कर दिया जाय तो अतीत काल है। कितनी उत्तम पद्धति से अतीत काल का वर्णन है?
समयपर्याय का स्वरूप—इनमें से अब समय की व्याख्या की जा रही है कि आकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु ठहरता है, एक परमाणु मंदगति से गमन करके एक प्रदेश को उल्लंघन कर दे जितने क्षण में उसको एक समय कहते हैं। परमाणु की तीव्र गति हो तो वह एक समय में 14 राजू गमन कर जाता है। इसी कारण परमाणु की मंदगति से समय का लक्षण बन सकता है और एक परमाणु जिस प्रदेश पर है उसके पास के प्रदेश पर पहुंच जाय जितने क्षण में, उसका नाम है एक समय। वैसे भी इससे अनुमान करो कि जिसे हम वर्ष कहते हैं उसका आधा तो कुछ हो सकता है। वे है 6 महीने और जिसे 6 महीने कहते हैं उसका भी आधा कुछ हो सकता है ना, उसे कहते हैं 3 महीने। जिसे हम दिन कहते हैं उसका भी तो आधा कुछ है। जिसको हम मिनट कहते हैं, उसका भी तो आधा कुछ है। इसी तरह सेकेण्ड का भी कुछ हिस्सा होता है ना। इसी तरह हिस्सा करते हुए वह अन्तिम हिस्सा जिसका हिस्सा न बन सके उसका नाम है एक समय। यह समय व्यवहार काल अर्थात् परमार्थभूत जो कालद्रव्य है उस कालद्रव्य का एक शुद्ध परिणमन है।
व्यवहारकाल का विस्तार—ऐसे-ऐसे असंख्यात समय मिल जायें तो उनसे बनता है फिर निमिष। निमिष कहते हैं नेत्र के जो पुट हैं उनमें पलक छू जाय और हट जाय, इतने में जितना समय व्यतीत होता है उतने को कहते हैं निमिष और 8 निमिष बराबर होते है एक काष्ठा के और 16 काष्ठा बराबर होते हैं एक कला के और 32 कला बराबर होते हैं एक घड़ी के और 60 घड़ी बराबर होते हैं एक दिन के और 30 दिन का होता है एक महीना और दो माह का होता है एक ऋतु, तीन ऋतुवों का होता है एक अयन, जिसे कहते है दक्षिणायन, उत्तरायण। आजकल समय है उत्तरायण का और दो अयन का होता है एक वर्ष। इस तरह और भी बात आगे लगाते जावो 12 वर्ष का होता है एक युग और भी आगे चलते जावो। यों व्यवहार समय अपनी कल्पना के समयों के संचय से अनेक प्रकार के होते हैं।
अपनी अतीत की झांकी—भैया ! बतावो अब कितना समय व्यतीत कर डाला अनन्त काल व्यतीत किया। किन-किन परिस्थितियों में? ऐसी ही संसार की दशाओं में व्यतीत किया है। अनन्त काल तो हमारा निगोद में गया। निगोद नाम कहने से तो आया वनस्पति का भेद, साधारण वनस्पति पर वह हरी नहीं है। उसका शरीर भी व्यवहार के लायक नहीं है। वे निगोद कहीं आश्रय में रहते हैं, और अनन्ते निगोदिया जीव निरालम्ब रहते हैं। जो आश्रय में रहते हैं और जिस आश्रय में रहते हैं उन सबका मिलकर नाम है सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति और जो निराश्रय हैं उनका नाम है सूक्ष्म निगोद अर्थात् साधारण वनस्पति। इन सब निगोदों की आयु 1 श्वास के 18वां भाग प्रमाण मानी जाती है, पुरुष की नाड़ी एक बार उचकने में जितना समय लगाये उतने समय का नाम श्वांस है। नाड़ी के एक बार चलने में जितना समय लगता है उतने में 18 बार मर जाते हैं वे निगोद जीव। ऐसे जन्ममरण के महाक्लेश पाते हुए निगोदभव में अनन्तकाल व्यतीत हुआ।
स्थावरों में परिभ्रमण—कभी निगोद से निकले और हो गए अन्य स्थावर जीव—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और पेड़ तो इसमें भी हमने क्या हित किया? असहाय पृथ्वी आदिक स्थावर अपना किसी भी प्रकार बचाव नहीं कर सकते। और वे खुद तड़पकर अपनी जगह भी छोड़ दें वे इतना भी नहीं कर सकते हैं। पृथ्वी को खोदते हैं, लो कहीं आग लगा दी जाती है। कितनी ही प्रकार से पृथ्वी का हनन हो रहा है। जल को गरम कर डाला, आग पर जला दिया, आदिक रूपों से वहाँ भी जल का घात हुआ। अग्नि को बुझा दिया और विशेष करके यह परम्परा न जाने किस बुद्धिमान् के जमाने से चली कि साधु को भोजन बनाया तो कोयला बुझा दिया, आग पर पानी डाल दिया और चूल्हे को साफ कर दिया। साधु हैरान हो जाते हैं, न जाने आकाश में भोजन बनाया या चूल्हे में बनाया। सीधी बात है कि गृहस्थों के यहाँ भोजन बन रहा है, साधु को पड़गाह लिया, पहुंच गए जितनी देर साधु को आहार देने का समय है उतनी देर नया भोजन न बनाये जाने की बात थी, मगर इतनी अप्राकृतिकता हो गयी, साधु की तो कोई कष्ट ही नहीं है। कष्ट है तो गृहस्थों को घंटा भर पहिले आग बुझा दिया और द्वार पर बाट देखते रहे, फिर घर की रोटी बनाने को आग जलायेंगे। तो आप समझो कि आग का बुझाना विवेकी गृहस्थ तो नहीं करते। तो अनेक प्रकार से आग को भी कष्ट दिया। वायु को रबड़ में रोग दिया अथवा अनेक प्राकृतिक रूपों से वायु का आघात किया। पेड़-पौधों की तो बात ही कौन कहे हैं। चले जा रहे हैं, तोड़ दिया, काट दिया, छेद दिया, भेद दिया, अनेक प्रकार से वनस्पति के भव में क्लेश भोगे।
त्रस भव के क्लेश—कदाचित् स्थावरों से निकले तो दो इन्द्रिय लट आदि बना, तीन इन्द्रिय बना, चार इन्द्रिय बना। कौन मनुष्य इनकी परवाह करता है? कितने ही लोग तो जमीन पर चलते हुए कीड़ों पर अपना मन बहलाने के लिए नाल गड़े जूतों से रगड़ देते हैं, दिल बहल गया। किन्तु कभी पंचइन्द्रिय हुआ तो वहाँ भी बड़े कष्ट सहे। किन्हीं हिंसक जानवरों ने खा लिया। और चूहे हुए तो बिल्ली ने पकड़ लिया और कुत्ता बिल्ली से बच जाय तो अनेक बिना पूछ के कुत्ता बिल्ली भी हैं। पकड़ा, डोरा से बाँध लिया और खेल करना हो तो नीचे आग जला दिया, कितना कष्ट है? ये सब कष्ट दूसरे के नहीं हैं, हमारे ही समान वे भी जीव हैं, अथवा हम भी ऐसी पर्यायों में हुए थे। चिड़िया, बैल, गाय, भैस, कुत्ता, बिल्ली, सूकर, गधा सभी के क्लेश देखते जावो। इन पशुओं को लोग तब तक लाड़-प्यार से पालते हैं जब तक इनसे खूब पैसा पैदा होता है, आय होती है। वे जानवर बूढ़े हो जायें, आय न हो तो उन्हें कौन पूछेगा? काम तो करते नहीं, सो उन्हें कोई नहीं पूछता है। देव नारकी हुए तो दु:खी रहे।
मनुष्यभव का लाभ—भैया ! कितने प्रकार के हम आपने अनेक कष्ट भोगे और आज हम आप मनुष्य बने, एक सभ्य भव मिला, ढंग से बैठ सकते हैं, अनेक प्रकार से भोजन बनाकर खाते हैं, पलंगों को बिछाकर सोते हैं, अनेक वाहनों का उपयोग करते हैं, अपनी बात दूसरों को सुना सकते हैं, दूसरों की बात को हम समझ सकते हैं, पशु पक्षी आदि सभी तिर्यचों की अपेक्षा हम आपका कितना बड़ा विकास है और छोटी-छोटी बातें क्या बताए?उनकी पीठ पर कहीं मक्खी बैठ जाय तो उड़ाने का साधन भी पूछ है। उसी से उड़ा सकते हैं पर आपके तो दसों उपाय हैं। कपड़ा पहिन लिया, हाथ से उड़ा दिया। मनुष्य की नाक सूख जाय तो अंगुली भीतर डालकर नाक साफ कर लें पर पशु बेचारे किस तरह से अपनी नाक साफ करें? अच्छी प्रकार से देख लो—परमार्थ ज्ञान से, सभी दृष्टियों में हम आप कितने महान् भव को प्राप्त हुए हैं? ऐसे भव को पाकर भी वही विषय कषाय आहार, नींद, भय, मैथुन आदि विषयों में ही रहे और वही ममता रही तो बताओं मनुष्यभव पाने का लाभ क्या लूटा?
विषयकषायों का फल—विषयकषायों के फल में वही तो होगा ना कि जहा से उठे वहीं से गिरे। तिर्यञ्च में, निगोद में। जैसे कहते हैं कि एक साधु के पास चूहा था सो वह चूहा बिल्ली से डरा। तो साधु ने चूहे को आशीर्वाद दिया कि तू बिल्ली हो जा, सो वह बिल्ली बन गया। बिल्ली कुत्ते से डरी सो कहा कि तू कुत्ता बन जा, सो वह कुत्ता बन गया। कुत्ता शेर से डरा सो साधु ने कहा कि तू शेर बन जा सो वह शेर बन गया। शेर को चाहिए था भोजन सो शेर ने सोचा कि साधु महाराज को ही क्यों न पहिले खायें, इनसे अच्छा मास और किसका होगा? सो वह शेर साधु पर झपटा, सो साधु ने कहा कि तू पुन: चूहा बन जा। सो वह पुन: चूहा बन गया। यों ही हम आप निगोद आदि से निकल कर मनुष्यभव में आए और मनुष्य होकर इस ही आत्मदेव पर हमला करने को तैयार होते हैं तो इस आत्मदेव को यही भर तो अन्तर में कहना है कि तू पुन: निगोद बन जा या तिर्यच बन जा। तो इस अनन्त काल में आज एक दुर्लभ शरीर पाया है, उसे यों ही खो दिया तो यह तो महामूर्खता की बात है। कभी तो यह उद्यम हो कि हम बहुत बार ऐसी स्थिति लाए कि पर से उपयोग हटाकर इस ज्ञानानन्द स्वरूप को निरखा करें तो इस करतूत से हमारा जन्म सफल होगा।
सोदाहरण अतीतकाल का विवरण—अतीत काल कितना है? अतीत काल का प्रमाण बतला रहे हैं कायदे मुताबिक कि जो शुद्ध हुए हैं उनकी सिद्ध पर्याय बनने से पहिले जितने संसार अवस्था में उनके संस्थान हुए हैं, जन्म हुए हैं, शरीर मिले हैं उनमें असंख्य आवलियों का गुणा करके उतने बराबर काल व्यतीत हुआ। कोई पूछे कि 100 कितने होते हैं? अरे 100 के आधे कर लें और उतने ही और मिला दें तो इतने 100 होते हैं कायदे मुताबिक उत्तर ठीक हो गया ना। केवल ज्ञान के कितने अविभाग प्रतिच्छेद होते हैं। केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों में कितनी गिनती है कि सब जीव सब पुद्गल अतीत काल और आकाश के प्रदेश और-और सब बहुत बातें जितनी होती हों सब, उससे भी केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं अर्थात् ऐसे-ऐसे अनन्त आकाश काल जीव पुद्गल होते तो उन सबको भी केवल ज्ञान जानता है। तो केवल ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद में से ये आकाश, जीव, पुद्गल, ये सब प्रदेश परमाणु घटा दें। जितने बचें उतने में फिर उतने ही मिला दें तो पूरा हो जायेगा। चीज कायदे में तो समझ में आ गयी होगी।
अतीतकाल से भविष्यत्काल की वृहत्ता—इसी तरह पुन: लगावो, अतीत काल कितना हुआ? जो सिद्ध हुए हैं उन्होंने संसार अवस्था में जितने जन्म पाये हैं उनमें असंख्य आवलियों का गुणा कर दें, जितना काल लब्ध हो उतना व्यतीत हो गया। समझ में तो आ गया पर कितना व्यतीत हुआ यह पकड़ में नहीं आया। पकड़ में कैसे आए? वह तो अनन्त काल है और अनागत काल अथवा भविष्य का काल कितना है वह भी इतना ही है कि भविष्य में जो सिद्ध होंगे उसके बाद भी जितना काल व्यतीत हुआ उससे भी अधिक काल। देखो मजे की बात कि आज पूछ रहे हैं कि अतीतकाल कितना है और भविष्यकाल कितना है। तो यही बतावोगे कि अतीतकाल अनन्त है और भविष्यकाल अनन्त है। फिर भी दोनों में बड़ा कौन है? भविष्य का काल बड़ा बताया है। दिखाई किसी को नहीं देता है। तो ये सब व्यवहार काल के विस्तार हैं।
व्यवहारकाल का उपमाप्रमाण तक विस्तार—समय, निमेष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिन, रात, महीना, ऋतु, अयन और वर्ष। फिर इसके बाद गिनती चलेगी। सौ वर्ष, हजार वर्ष, लाख, करोड़, अरब, खरब, नील, महानील, शंख, महाशंख और इसके बाद पूर्व, पूर्वांग, फिर नयुतन युतांग, नलिन, गिनते जाइए, हा हा हू हू न, ये सब संख्यात में बताये हैं। बीच में कितने ही अंग छोड़ दिए हैं, और आगे चलो तो पल्य, उसके बाद सागर, उसके बाद उत्सर्पिणी और उसके बाद कल्पकाल और कल्पकाल के बाद पुद्गल परिवर्तन और सबसे बड़ा भाव परिवर्तन। ये सब व्यवहारकाल में आये, पर कोई तो उपमा रूप हैं और कोई गिनती रूप हैं। ये सब काल के बहुत भेद हैं पर इस काल के पढ़ने से इसका फल क्या मिलता है? उस काल से मेरा कोई काम नहीं सधता, मेरा तो मेरे उपादान से काम सधता है। अन्य की दृष्टि से हमें क्या मिलेगा? क्षोभ। एक जो अपना निरुपम शुद्ध चैतन्यतत्त्व है उसको छोड़कर मेरा अन्य किसी से कोई प्रयोजन नहीं है।