वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 50
From जैनकोष
पुब्वुत्तसयलभावा परदव्वं परसहावमिदि हेयं।
सगदव्बमुवादेयं अंतरतच्चं हवे अप्पा।।50।।
हेय और उपादेय—पहिले जितने भी भाव बताए गए हैं निषेधरूप में और जिनका फिर व्यवहारनय से समर्थन किया गया है, वे सब भाव परद्रव्य हैं, परभाव हैं इस कारण हेय हैं और निजद्रव्य उपादेय है। वह निजद्रव्य है अन्तस्तत्त्व अर्थात् स्वयं आत्मा। यह आत्मा स्वभावत: ज्ञानानन्दस्वरूप है। जो चीज इस आत्मा में कभी हो और बिखर जाए, विलय हो जाए, यह आत्मा की चीज न समझिए। आत्मा का तत्त्व वह है जो आत्मा में प्रारम्भ अर्थात् अनादि से लेकर सदा काल तक रहे।
आत्मा का शाश्वत् तत्त्व—अब खोजिए कि इस आत्मा में शाश्वत् रहने वाली बात क्या है? क्या गुणस्थान और यह मार्गणास्थान? गतिमार्गणा, इन्द्रियमार्गणा, कार्यमार्गणा आदि ये सबके सब भाव आत्मा में अनादि काल से अनन्तकाल तक टिकने वाले नहीं हैं। कभी से होते हैं और कभी समाप्त हो जाते हैं, इस कारण ये सब आत्मा के लक्षण नहीं हैं, स्वभाव नहीं हैं, किन्तु उपाधि के सन्निधान में जीव की कैसी-कैसी अवस्थाएं होती हैं और फिर उस उपाधि का अभाव हो जाने पर फिर जीव की क्या स्थिति होती है? इसका वर्णन मार्गणाओं में हैं, पर वे सब मार्गणाओं के भेद जीव के स्वरूप नहीं हैं। यह जीवस्थान चर्चा जीव की दिशा को बताने वाली है। जीव का स्वरूप तो फिर यों जान लीजिएगा कि जो तत्त्व इन सब भेदों में रहता हो व किसी भी भेदरूप बनकर नहीं रहता, वह है जीव का स्वरूप।
अनात्मभाव का द्वैविध्य—इन भावों में कुछ भाव तो सीधे पौद्गलिक हैं। हैं जीव के सम्बन्ध से, पर हैं स्वयं पौद्गलिक और कुछ भेद हैं तो जीव के विकार, किन्तु हैं उपाधि के सम्पर्क से। जैसे ये औदारिक शरीर, वैक्रियक शरीर, पृथ्वीकाय, जलकाय आदिक ये सभी शरीर सीधे पौद्गलिक हैं, पर जीव के सन्निधान बिना ऐसी रचना नहीं हो पाती है, इस कारण सम्बन्ध तो है, परन्तु हैं सीधे पौद्गलिक। ये रूप, रस, गंध, स्पर्श के पिण्ड हैं, प्रकट जड़ हैं। जीव के चले जाने पर ये पड़े रहते हैं। सो वे भी प्रकट परतत्त्व हैं, इसलिए इस जीव को वे हेय हैं, उनकी दृष्टि करना हेय है, उनका अपनाना यह योग्य नहीं है और कुछ भाव ऐसे हैं जो पौद्गलिक तो नहीं हैं, हैं तो जीव के भाव, किन्तु जीव में अनादि से नहीं हैं व सदा रहने वाले नहीं हैं, इस कारण वे भी नैमित्तिक भाव हैं, जीव के स्वभाव भाव नहीं हैं।
गतिमार्गणा और जीव स्वरूप—उदाहरण के लिए देखो, गतिमार्गणा 5 होती हैं—नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति, देवगति व गति रहित। नरकगति जीव के स्वभाव में नहीं पड़ी है किन्तु नरकगति नामक नामकर्म के उदय में ऐसी स्थिति बन जाती है तब नरकगति इस जीव के हित की चीज नहीं है। उसकी दृष्टि करना अयोग्य है। तिर्यचगति के नामकर्म के उदय से तिर्यचगति होती है। मनुष्यगति और देवगति भी उन-उन नाम कर्मों के उदय से होती है। ऐसे ही ये चारों गतियां जीव का स्वरूप नहीं हैं, और गतिरहितपना भी जीव का स्वरूप नहीं है। क्योंकि गतिरहितपना जीव में अनादिकाल से नहीं है। जिस क्षण से मुक्त हुआ है उस क्षण से यह गतिरहित है। यदि गतिरहित होने की स्थिति जीव का स्वरूप होता तो अनादिकाल से रहता। जीव का स्वरूप तो ज्ञायकभाव है, चैतन्यभाव है वह कभी अलग नहीं होता। यद्यपि गतिरहित होना जीव का स्वभावपरिणमन है, कोई अन्य बात का मेल नहीं है, लेकिन गतिरहितपना किसी की अपेक्षा रख रहा है और स्वरूप अपेक्षा रखकर नहीं हुआ करता है।
इन्द्रियमार्गणा और जीवस्वरूप—इन्द्रियमार्गणावों में छहों की छहों मार्गणाएं आपेक्षिक चीज हैं जिनमें एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चारइन्द्रिय, पांचइन्द्रिय ये तो आपेक्षिक हैं ही, कर्म के उदय के सन्निधान में होती हैं। इन्द्रियां दो प्रकार की हैं एक द्रव्येन्द्रिय और एक भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय तो प्रकट पौद्गलिक हैं और भावेन्द्रिय जीव के परिणाम हैं—खण्ड ज्ञान हैं, पर द्रव्येन्द्रिय भी जीव का स्वरूप नहीं है और भावेन्द्रिय भी जीव का स्वरूप नहीं है। खण्ड-खण्ड जानना यह जीव का लक्षण नहीं है, यह तो एक असक्त स्थिति में परिस्थिति बन गई है और इन्द्रियरहित होना भी जीव का लक्षण नहीं है। यद्यपि इन्द्रियरहित होना जीव का स्वभाव है, फिर भी यदि लक्षण होता तो अनादिकाल से यह जीव इन्द्रियरहित क्यों न रहा? किस क्षण से क्यों हुआ?
आत्मक्रान्ति—इस गाथा में स्वभाव भाव की बात तो नहीं कह रहे हैं, किन्तु जितने भी ऐसे भाव हैं तो परद्रव्यरूप हैं या पर के निमित्त से होने वाले जीवों के विकाररूप है वे सब भाव हेय हैं। जैसे जब अपने में क्रांति आए और एक धुनि बन जाय कि बढ़े चलो, कहां? स्वभाव की ओर, कहां? मुक्ति की ओर बढ़े चलो। तो बढ़े चलो के यत्न में रास्ते में कितने ही स्थान आयेंगे, कितने ही पद होंगे, कितनी ही परिस्थितियां आयेंगी, उन सबमें न अटक कर बढ़े चलो, बढ़े चलो—यह उसका यत्न होगा। मानो अबसे ही मुक्ति का यत्न होगा तो इस ही जीवन में अनेक प्रसंग आयेंगे, गोष्ठी बनेगी, चर्चा होगी। जंगल में रहे, गुफा में रहे, कहीं रहे। मरने के बाद कितने ही भव मिलेंगे। कभी मनुष्यगति मिलीं, कभी देवगति मिली। देवगति में बड़ी-बड़ी ऋद्धियां मिलीं, पर जो मुक्ति के लिए क्रांति के साथ बढ़ रहा है उसकी अन्तर्ध्वनि है—बढ़े चलो, कहीं मत अटको, बढ़े चलो। इतनी देवों की दीर्घ आयु व्यतीत करके मनुष्यभव में आए वहाँ पर भी बड़ा समागम मिला, बड़ा लाड़-प्यार मिला, लोगों के द्वारा होने वाला आदर मिला, पर इसकी धुन है—बढ़े चलो, मत कहीं अटको। समस्त परद्रव्य जो अत्यन्त भिन्न हैं वे भी समागम में आते हैं। और जो अपने एकक्षेत्रावगाह में हैं ऐसे शरीरादिक ये भी समागम में आते हैं और रागद्वेषादिक औपाधिकभाव ये भी आक्रमण कर आते हैं, पर ज्ञानी की दृष्टि यह है कि बढ़े चलो, किसी भी परभाव में मत अटको।
प्रयोजनवश विभाव गुणपर्याय की उपादेयता—जितने भी विभाव गुणपर्याय बताये गए हैं वे सब व्यवहारनय की दृष्टि से उपादेयरूप से कहे गए हैं, लेकिन परमशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से उपादेयरूप नहीं कहे गये हैं, परम शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से वे हेय हैं। यहाँ उपादेय का मतलब ग्रहण करने से नहीं है कि जीव में रागद्वेष बताये हुए हैं, तो व्यवहारदृष्टि से वे भी उपादेय हैं—ऐसा अर्थ न लेना, किन्तु ये रागद्वेष जीव में हुए हैं, जीव के वर्तमान परिणमन हैं ऐसा ज्ञान करना, ऐसा मानना यह उपादेय का मतलब है क्योंकि ऐसा माने बिना और ये रागादिक पुद्गल के हैं मेरे नहीं हैं, ऐसा मानने पर जीव कल्याण किसका करेगा? पुद्गल के रागद्वेष हैं तो पुद्गल का तो कल्याण करना नहीं, जो रागद्वेष मिटाने का यत्न किया जाय। जीव में रागद्वेष हैं नहीं, तब फिर यत्न किसका करें? इस कारण यथार्थज्ञान के लिए व्यवहारनय की दृष्टि आवश्यक है, उपादेयरूप है अथवा चारित्र के मार्ग में जब उत्कृष्ट ध्यान, उत्कृष्ट भक्ति, उत्कृष्ट रमण नहीं हो पाता है तो देवपूजा, दान, परोपकार आदि जो शुभोपयोग हैं वे राग हैं, फिर भी व्यवहारनय की दृष्टि से उपादेय बताए हैं, लेकिन शुद्धनय के बल से वे सभी परिणमन हेय हुआ करते हैं।
निर्विकल्प समाधि के उद्यम में—अब जरा यों सोच लो कि भारी पढ़ना क्यों जरूरी है?धार्मिक ज्ञान करना, बड़ी बातें जानना, शास्त्र पढ़ना, सब न्याय करणानुयोग खूब पढ़ना—ये सब काहे के लिए किए जाते हैं? उन सबको और उनके साथ अन्य विकल्पों को भी एकदम छोड़ देने के लिए। जो कुछ पढ़ेंगे, उस पढ़ें को छोड़ देने के लिए पढ़ा जाता है। वाह, कोई कहेगा कि हम बड़े अच्छे, बिना पढ़ें पहिले से ही हम छोड़े भये हैं। सारा पढ़ना छोड़ने के लिए ही तो कहा है। सो भैया ! यों नहीं स्वच्छन्द होना है। जरा ध्यान से सुनिये कि जो कुछ पढ़ा जाए, जो कुछ जानकारी बनायी जाए, वह सब अलग करना है और बड़े विश्राम से निर्विकल्प आराम से रहना है। याद किया, सोचा, जीव समास हैं, गुणस्थान हैं, यह सब छोड़ना होगा और समाधि परिणाम करना होगा, किन्तु कोई ऐसा सोचे कि जो छोड़ना होगा, उसे पहिले से पढ़ें क्यों? तो उसमें वह कला न आएगी कि इसको भी छोड़ें और इसके साथ संसार के सर्वविकल्पों को भी छोड़ें। तो यों सब चीजें व्यवहारनय से करनी होती हैं, करना चाहिए, फिर भी ध्येय एक ही प्रमुख रहता है ज्ञानी जीव का। सर्व से विविक्त केवल उस आत्मतत्त्व में ही रहूं।
मुमुक्षु का लक्ष्य—जैसे कोई मकान बनवा रहा है तो उसका प्रधान लक्ष्य क्या है? मकान तैयार कराना। अच्छा, आज जा रहा है वितरण विभाग में कि हमारा सीमेण्ट का परमिट बना दो, कभी ईंट वाले के पास जा रहा है, कभी प्रोग्राम बनता है कि आज मजदूरों को इकट्ठा करना है। वह मजदूरों को इकट्ठा करता है, सारी सामग्रियां जुटाता है, फिर भी उसका लक्ष्य यह सब कुछ करना नहीं है। उसका लक्ष्य तो मकान बनवाने का है। कभी किसी कारीगर से लड़ाई हो जाए तो उससे वह यह भी कहता है कि अब हम तुम्हें न रखेंगे, कल से दूसरा कारीगर रक्खेंगे। क्या कोई ऐसा भी करेगा कि मकान बन गया, थोड़ासा ही रह गया और वह यह कहे कि अजी ठीक नहीं बना है, इस मकान को ढा दो? उसमें यह फर्क नहीं डालता है। देखो वह कितने ही अन्य कार्य कर रहा है, पर लक्ष्य उसका केवल एक है घर बनवाने का। उपलक्ष्य उसके बीच में सैकड़ों हो जाते हैं। ऐसे ही ज्ञानीजन हैं, चाहे अविरत गृहस्थ हो, चाहे प्रतिमाधारी श्रावक हो पंचम गुणस्थान का, चाहे मुनि हो, सबका लक्ष्य एकरूप है। लक्ष्य के दो भेद ज्ञानियों में नहीं है, किन्तु उपलक्ष्य अपने-अपने पद के अनुसार विभिन्न होते हैं।
विभावगुणपर्यायों की हेयता का निर्णय—किन्हीं स्थितियों में व्यवहारनय का आदेश उपादेय है, फिर भी सर्वज्ञानियों का सर्वपरिस्थितियों में मूल निर्णय एक ही है कि वे सबकी सब पर्यायें परिणमन हेय हैं, क्योंकि परस्वभावरूप है। यह शरीर परस्वभाव है और रागादिक भाव परस्वभाव हैं। परस्वभाव के दो अर्थ करना—पर के स्वभाव पुद्गल के स्वभाव हैं ये शरीर। पर स्व भाव—तीन टुकड़े कर लो। परपदार्थ के निमित्त से होने वाले स्व में परिणाम। उसका नाम है परस्वभाव। तो ये रागादिक भाव तो परस्वभाव हैं—ये पर के निमित्त से होने वाले स्व में जीव के परिणाम हैं, इस कारण परस्वभाव हैं और ये शरीर आदिक प्रकट करके स्वभाव हैं, रूप-रस-गंध-स्पर्श वाले हैं। यह कहां मेरा स्वभाव है?परस्वभावरूप होने से ये सबकी सब विभावगुणपर्यायें जो व्यवहारनय के आदर्श में जीव के बताए गए हैं, वे सब हेय हैं और परस्वभाव होने के कारण से ये सब परद्रव्य हैं।
रागादिकों का परभावपना—भैया ! शरीर परद्रव्य है, ऐसा सुनते हुए कोई अड़चन नहीं होती। ठीक कह रहे हैं, भौतिक है, पुद्गल से रचा गया है और रागादिक परभाव द्रव्य हैं—ऐसा सुनने में कुछ अड़चन हो रही होगी। रागादिक भावों को कैसे परतत्त्व कह दिया? ये तो चेतन के तत्त्व हैं, ठीक है, इसमें भाव यह है कि परद्रव्य के निमित्त से होने वाला जो परिणाम है, उसको परद्रव्य की निकटता दी गई है। तुम जाओ परद्रव्यों के साथ।
दूसरी बात देखिए कि जो जौहरी शुद्ध स्वर्ण का प्रेमी है, बाजार में शुद्ध स्वर्ण का ही लेनदेन करके उसमें ही उसकी रुचि है, उसकी ही परख रखता है, उसको ही कसौटी पर कसता है और उसके पास यदि कोई चार आने मैल वाली एक तोले सोने की डली लाए तो वह उस सोने को कसकर फेंक देता है और कहता है कि क्या तुम मिट्टी हमारे पास लाए हो, क्या तुम पीतल हमारे पास लाए हो? अरे बाबा ! कहां है यह पीतल? इसमें तो 12 आने भर स्वर्ण है। लेकिन जिसको शुद्ध स्वर्ण से प्रेम है और जब शुद्ध स्वर्ण के व्यवहार का ही मन चलता है तो उसकी निगाह में वह हेय होने के कारण मिट्टी अथवा पीतल हो जाता है। यों ही जिसकी अंतस्तत्त्व में रुचि है, आत्मस्वरूप में भक्ति है—ऐसे पुरुष को ये रागादिक भाव जो कि चैतन्य के विकार हैं, परिणमन हैं, फिर भी उन्हें रञ्च स्वीकार नहीं किया करता कि यह मैं हू। जब यह स्वीकार नहीं किया गया कि यह मैं हू और कोई झकझोर कर बार-बार पूछे कि बताओ तो सही किसके हैं रागादिक? वह झल्लाकर कहेगा कि पुद्गल के हैं रागादिक। सो ये समस्त विभाव हेय हैं।
अन्तस्तत्त्व की उपादेयता—अब उपादेय क्या है? सर्वविभावगुणपर्यायों से रहित जो शुद्ध अन्तस्तत्त्वस्वरूप है, वही स्वद्रव्य होने के कारण उपादेय है। इस अंतस्तत्त्व के परिचय में रञ्च भी दशा की ओर दृष्टि न देना। तो शुद्ध परिणमन की ओर भी कौन दृष्टि दे? सिद्धभगवान्, अरहंतभगवान्, केवलज्ञान, वीतरागता, गतिरहित, इन्द्रियरहित, कायरहित, वेदरहित, योगरहित, कषायरहित, किसी भी शुद्ध दशा पर भी दृष्टि दें तो भी अन्तस्तत्त्व का परिचय नहीं किया गया। आत्मा की किसी भी दशा को उपयोग में न लेकर जिस शक्ति की ये सब दशाएं बना करती हैं, उस शक्ति को, मात्र एनर्जी को, केवल स्वभाव को दृष्टि में लिया जाए तो अंतस्तत्त्व का परिचय मिलता है। यह अन्तस्तत्त्व समस्त विभाव गुणपर्यायों से रहित है, निजद्रव्य है, इसके सत्त्व में किसी अन्य की धराई नहीं है। किसी परद्रव्य के निमित्त से इसका सद्भाव नहीं हुआ करता है। इस कारण यह शुद्ध अंतस्तत्त्व उपादेय है।
अन्तस्तत्त्व की सहजज्ञानरूपता—यह शुद्ध अंतस्तत्त्व का जो स्वरूप है, वह सहजज्ञानरूप, सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजसुखरूप है। सहजज्ञान और ज्ञान इनमें अन्तर क्या रहा कि जाननरूप जो प्रवर्तन है, उसका नाम तो ज्ञान है। ये ज्ञान तो नाना होते हैं—अब पुद्गल का ज्ञान, अब चौकी का ज्ञान है, अब घर का ज्ञान है, ये ज्ञान नाना होते हैं, किन्तु उन सब ज्ञानों की आधारभूत, स्रोतभूत जो ज्ञानशक्ति है, उसका नाम है सहजज्ञान। वह सहजज्ञान अनादि अनन्त एकस्वरूप है। यह अन्तस्तत्त्व ज्ञानरूप नहीं है, किन्तु सहजज्ञानरूप है। ज्ञान में तो केवल ज्ञान भी आया है, वह भी एक दशा है, पर केवलज्ञान अन्तस्तत्त्व नहीं है, किन्तु सहजज्ञान अन्तस्तत्त्व है। यद्यपि केवलज्ञान सहजज्ञान का शुद्ध विकास है, पर विकास तो है, दशा है, पर्याय है। यों ही सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजआनन्द और सहजचारित्ररूप जो यह शुद्ध अन्तस्तत्त्व है, इसका आधारभूत कारणसमयसार है।
अद्वैत के प्रतिबोधनार्थ आधार आधेय का व्यवहार—यह सब कुछ बोध के लिए आधार आधेय बताया जा रहा है। वहाँ आधार आधेय क्या है? जो एक ही स्वरूप है, उसे आधार आधेय क्या कहें? जैसे कोई कहे कि नीलरंग मेंनील रंग है, बोलते भी तो हैं ऐसा लोग। वह नीलरंग पदार्थ जुदा है क्या और नीलरंग जुदा है क्या? पर समझने के लिए एक चीज में भी आधार आधेय भाव बताया जाता है। इस शुद्ध अंतस्तत्त्व का आधार सहजपारिणामिक भावरूप कारणसमयसार है। यह मैं शुद्ध अंतस्तत्त्व हू, शुद्धचिन्मात्र हू, सदैव परमज्योतिरूप हू।
अन्तस्तत्त्व की उपासना का महत्त्व—अहो, यह तत्त्व मोक्षार्थी पुरुष के लिए, संसार से विरक्त पुरुष के लिए उपासना करने के योग्य है। मैं यह शुद्ध चित्स्वभावमात्र हू और ये रागद्वेषादिक भाव जो मेरे स्वभाव से पृथक् बिल्कुल विपरीत लक्षण वाले हैं वे सब मैं नहीं हू। वे सारे के सारे परद्रव्य हैं। मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र हू। देखो—देखो—जब इस जीवद्रव्य में उठने वाली रागद्वेषादिक तरंगों को भी अपने में नहीं कहा जा रहा है तो धन वैभव बाहरी बातें जो प्रकट जुदी हैं, उनमें कोई ऐसी वासना लाये कि ये तो मेरे हैं तो यह तो बड़े व्यामोह की बात है। में तो शुद्ध जीवास्तिकायरूप हू। इस शुद्ध जीवतत्त्व के अतिरिक्त अन्य सब भाव पुद्गल द्रव्य के भाव है। जो ऐसे स्वरूपास्तित्त्वमात्र का ज्ञाता है वह पुरुष अपूर्व सिद्धि को प्राप्त करता है, जो आज तक नहीं मिला।
अपूर्व सिद्धि—भैया ! अपूर्व सिद्धि क्या है? शुद्ध सहज अनाकुल अवस्था। जिसकी परद्रव्यों में रुचि नहीं है, परद्रव्यों का झुकाव नहीं है, परद्रव्यों का विकल्प नहीं है वह शुद्ध ज्ञानरसानुभव से छका चला जा रहा है। ऐसा पुरुष सहज अनाकुल अवस्था को प्राप्त करता ही है। बाह्य परिस्थितियां कुछ रहो, बाहरी पदार्थ का इस पर कोई हठ नहीं चल सकता। हम यदि अपने अन्तर में पड़े ही पड़े अपने आपके स्वभाव उपवन में विहार करके शुद्ध आनन्द लूटा करें तो इसमें कौन बाधा डालता है? बाह्यपदार्थों में लग-लगकर इतना तो थक गए—अब उस थकान में भी थककर अपने आपके ज्ञानसुधारस का पान करें। एक परमविश्राम तो लेना चाहिए। लोग थककर थोड़ा तो रुक जाते हैं ताकि फिर काम करने की स्पीड आ जाय। अरे इन विषयों से थक कर थोड़ा भी तो नहीं रुकते। विषयों का रुकना और ज्ञानसुधारस का पान करना, इन दोनों का एक ही तात्पर्य है। शुद्धज्ञानानुभव ही अपूर्व सिद्धि है।