वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 51
From जैनकोष
विपरीवाभिणिवेसविवज्जियसद्द हणमेव सम्मत्तं।
संसयविमोहविब्भमविविज्जियं होदि सण्णाणं।।51।।
सम्यक्त्व व सम्यग्ज्ञान के लक्षण के कथन का संकल्प—इस शुद्ध भावाधिकार में कारणब्रह्म का, शुद्धस्वभाव का वर्णन करके अब चूंकि शुद्ध भावाधिकार पूर्ण होने को है अत: इससे पहिले कुछ विज्ञान की बातें बतायी जा रही हैं, जिनमें प्रथम सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान का लक्षण कहा जा रहा है। जहां ज्ञान और विज्ञान दो शब्द कहे जायें वहाँ यह अर्थ लेना कि ज्ञान तो उसे कहते हैं जो आत्मविषयक सहजतत्त्व को जनावे और विज्ञान उसे कहते हैं जो एकस्वरूप अंतस्तत्त्व के अतिरिक्त विविध तत्त्व का ज्ञान करावे। जैसे जीवस्थान चर्चा जितनी भी है वह सब विज्ञान से सम्बन्धित है और शुद्ध अंतस्तत्त्व का विवरण जितना है वह ज्ञान से सम्बन्धित है। ज्ञान से सम्बन्धित विज्ञान यहाँ बताया जा रहा है।
सम्यक्त्व का अर्थ—जीव को कल्याणमार्ग से कल्याणसदन में पहुंचाने में सर्वप्रथम सोपान मिलता है तो सम्यक्त्व का। सम्यक्त्व का शब्दार्थ है भलापन। समीचीनता। सम्यक् शब्द में त्व प्रत्यय मिला है जिसका अर्थ हुआ भला, समीचीन और उसका भाव समीचीनता। समीचीनता और स्वरूप इन दोनों में सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो अन्तर है। स्वरूप तो निरपेक्ष कथन में आता है और समीचीनता की बात निरपेक्ष कथन में नहीं आती हैं। कोई वस्तु समीचीन है, इसका यह अर्थ है कि उस वस्तु में ऐब नहीं है। ऐब के अभाव से समीचीनता मानी जाती है। दोषों के न होने का नाम समीचीनता है। तो आत्मा में पहिले सम्यक्त्व आना चाहिए, मायने समीचीनता आना चाहिए। उन समीचीनतावों में सर्वप्रथम समीचीनता है विपरीत आशय का दूर हो जाना।
भ्रम का विचित्र क्लेश—विपरीत आशय से रहित श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। यद्यपि इस आत्मा में ऐब बहुत पड़े हुए हैं—उपाधि के सम्बन्ध से दर्शन मोह और कषायें, किन्तु सब ऐबों का मूल है, दर्शन मोह, विपरीत आशय पदार्थ है। और भांति, मानते है और भांति, यही है विपरीत आशय। जीवों को जितने भी मौलिक क्लेश हैं वे सब विपरीत मान्यता के क्लेश हैं। भ्रम का क्लेश बहुत अजब का क्लेश होता है, इस क्लेश का इलाज किसी दूसरे के निमित्त के हाथ की बात नहीं है। कषाय आये, क्रोध आए चार भाइयों ने समझा दिया, जरासी उसकी प्रशंसा कर दी, लो शांत हो गया, बन गया इलाज। पर भ्रम का इलाज कौन दूसरा करे? भ्रम मिटने की बात तो स्वयं के ज्ञान के आधीन है। उस ज्ञान में कोई निमित्त पड़ जाय, यह बात दूसरी है, पर यह स्वयं ही इलाज कर सकता है।
विह्वलता और वेदना—एक यह कथानक है कि 10 जुलाहे मित्र एक हाट में कपड़े बेचने गये। रास्ते में पड़ती थी नदी। चले गए बाजार, बाजार से कपड़े बेचकर जब वापिस आए तो उस नदी में से फिर निकल कर आए, अब उन्होंने सोचा कि हम सब अपने को गिन तो लें, वे दस थे, दसों के दसों हैं कि नहीं। सो गिनने बैठे। गिनने वाला गिनता जाए कि एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात, आठ और नौ। सबको तो गिन गया, पर अपने को न गिना। सो वह बड़ा बेचैन हो गया। कहा कि एक मित्र तो गुम हो गया भाई। अब दसों ने बारी-बारी से गिना, किन्तु सभी अपने आपको न गिने और दूसरों को गिन लेवें तो 9 ही निकलें। सभी रोने लगे, हाय-हाय करने लगे कि हमारा एक परम मित्र नदी में बह गया है। उस क्लेश में वे सब इतने दु:खी हो गए कि सिर में ईंट मारने लगे। अब कोई एक मुसाफिर निकला। उनको देखकर पूछता है कि तुम लोग क्यों विह्वल हो रहे हो? उन्होंने बताया कि हम बाजार गये थे दो रुपये के मुनाफे को और एक मित्र को खो आये। हम 10 थे, वह न जाने कहां नदी में बह गया। उसने एक नजर डालकर देखा कि कहां बह गया? दसों के दसों तो हैं। मुसाफिर ने कहा कि गिनना जरा कितने हो? तो पहिले की भांति दसों ने गिन दिया कि एक, दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात, आठ, नौ, पर अपने को न गिना। तब मुसाफिर बोला कि अगर हम तुम्हारा 10वां मित्र बता दें तो? सब लोग पैरों पड़ गए कि हम लोग तुम्हारा जिंदगी भर ऐहसान मानेंगे यदि हमारे 10वें मित्र को बता दिया। मुसाफिर ने एक छोटा बेंत लेकर उन्हें एक लाइन खड़ा करके धीरे-धीरे मारकर बता दिया और 10वें को जोर से मारकर कहा कि तू 10वां है। ऐसे ही फिर दसों को मारकर बताया कि तू दसवां है। जो अपने को भूल जाए, उस भ्रम से होने वाले जो क्लेश हैं, वे बहुत विचित्र क्लेश हैं। अब सभी जुलाहों को मालूम हो गया कि हम दसों के दसों ही हैं, हमारा कोई भी मित्र नहीं खोया है। यह सबको मालूम तो हो गया, पर ईंट मारकर उन सबने जो अपना सिर फोड़ लिया था, उससे खून तो निकल ही आया, दर्द तो वही का वही अभी बना हुआ है, पर सही जान लेने पर उनके विह्वलता नहीं है। भ्रम में ही विह्वलता थी। अब भ्रम नहीं रहा सो विह्वलता भी नहीं रही, अब केवल वेदना है। वेदना में और विह्वलता में बड़ा अन्तर है।
सम्यक्त्व में विपरीत अभिनिवेश से रहितपना—विपरीत आशय से रहित जो श्रद्धान है, उसका नाम सम्यग्दर्शन है। ये विपरीत आशय सैद्धान्तिक भाषा में तीन प्रकार के होते हैं—कारणविपर्यय, स्वरूपविपर्यय, भेदाभेदविपर्यय। कारणविपर्यय का अर्थ है कि पदार्थ जिन साधनों से बनते हैं, उन साधनों का सही पता न होना और उल्टा साधन माना जाए। स्वरूप विपर्यय है, पदार्थ का जो लक्षण है, स्वरूप है, उसे न मानकर उल्टा स्वरूप माना जाए। भेदाभेदविपर्यय वह है जो भिन्न बात है, उसे अभेद में कर दें और जो अभिन्न बात है, उसे भेद में कर दें। इन तीनों प्रकार के अभिप्रायों से रहित वस्तु का जो यथार्थ श्रद्धान् है, उसे सम्यक्त्व कहते हैं।
आत्मत्व का नाता—भैया ! कल्याणार्थी पुरुष को आत्मा का नाता प्रमुख रखकर इस ही नाते से ज्ञान ढूंढना चाहिये, कल्याणस्वरूप आचरण ढूंढना चाहिए। मैं अमुक जाति का हू, अमुक सम्प्रदाय का हू, अमुक गोष्ठी का हू—ऐसा लगाव रखकर धर्म की बात सही समझ में नहीं आ सकती है। मैं आत्मा हू और इस आत्मा को शांति और संतोष मिलना चाहिए। जैसे आत्मा को शान्ति मिले, वैसा मेरा ज्ञान रहना चाहिए, वह ज्ञान है यथार्थज्ञान। जैसा पदार्थ है, वैसा स्वरूप जान जाए। सम्यग्ज्ञान और सम्यक्दर्शन में स्वरूप सम्बन्धी अन्तर क्या है? विपरीत आशय न रहें—ऐसी स्थिति में जो ज्ञान बनता है, उसका नाम है सम्यग्ज्ञान। सम्यग्ज्ञान जिस कारण से सम्यक् कहला सके अर्थात् विपरीत अभिप्राय का न रहना ही है सम्यग्दर्शन।
पदार्थ का स्वरूप—जगत् के सब पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप हैं। यह वस्तुस्वरूप की बात कही जा रही है। धर्म की पुष्ट नींव बने, जिस पर आत्मकल्याण का महल बनाया जा सके उस नींव में, कुछ विज्ञान की बात कही जा रही है। यदि कुछ है तो वह नियम से उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है, यह पक्का नियम है, कभी टूट नहीं सकता। किसी भी वस्तु का नाम ले लो, जैसे जीव, ये भी उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं, ब्रह्म—यह भी उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक हैं। कुछ हे तो वह नियम से उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है। अच्छा जरा कल्पना ही कर लो कि कोई चीज है तो सही, मगर उसकी दशा कुछ भी नहीं है, उसका रूपक कुछ भी नहीं है। ध्यान में आया कि वह है?अच्छा, हैं तो जरूर, मगर वह क्षण-क्षण में नष्ट होने वाला है। मूलत: तो मिट गया, अब कुछ न रहा—ऐसी भी कोई चीज समझ में नहीं आती। यदि कुछ है तो उसमें तीनों बातें अवश्य हैं—बनना, बिगड़ना और बने रहना।
वस्तु की त्रितयात्मकता—जो बनती बिगड़ती नहीं है, वह बनी भी नहीं रहती है। जो चीज बनी रहती नहीं है, वह बनती बिगड़ती भी नहीं है। सभी पदार्थ बनते हैं, बिगड़ते हैं और बने ही रहते हैं। जैसे कि यह दृष्टांत ले लो कि घड़ा फोड़ दिया गया और बन गयी खपरियां। बिगड़ क्या गया? मिट्टी बराबर वही की वही बनी रही। जैसे जीव आज मनुष्य है और मरकर बन गया मान लो हाथी। तो इसमें मनुष्य तो बिगड़ गया और हाथी बन गया, किन्तु जीव तो वही का वही रहा। कोई भी पदार्थ ले लो। किसी को कोई तत्त्व स्पष्ट ध्यान में आये या न आये, किन्तु वस्तुस्वरूप तो यह कहता है कि जो भी वस्तु है, वह उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है।
शुद्ध पदार्थ में भी त्रितयात्मकता—यदि कोई शुद्ध पदार्थ है, भगवान् है तो भगवान् का जितना परिणमन है, वह सब एक स्वरूप सदृश-सदृश चलता है। उनके समस्त विश्व का ज्ञान हो गया तो जैसा ज्ञान आज है समस्त विश्व का, वैसा ही पूर्णज्ञान उन्हें अगले मिनट में है। अनन्तकाल तक वही पूर्णज्ञान रहेगा। जिस ज्ञान में भूत भविष्यत् वर्तमान सब कुछ आ गया, उस ज्ञान की दशा अब क्या बदलेगी? पूर्णज्ञान से अपूर्णज्ञान बने, अपूर्णज्ञान से पूर्णज्ञान बने, वहाँ तो दशा का बदलना कह सकते हैं, पर पूर्णज्ञान है और आगे भी पूर्णज्ञान है। अब उसमें परिवर्तन क्या-क्या बतलावेंगे? इतने पर भी पहिले समय में जो पूर्णज्ञान चल रहा है, वह पहिले समय का पुरुषार्थरूप परिणमन है, दूसरे समय में वही पूर्णज्ञान दूसरे समय का परिणमन है व शक्ति का परिणमन नया-नया चल रहा है। जानना भी कार्य है। चाहे एक-सा ही जाने, पर प्रति समय में नवीन शक्ति से जानता रहता है।
दृष्टान्तपूर्वक सदृशपरिणमन में नव-नव परिणमन का समर्थन—जैसे बिजली एक घण्टे तक लगातार एकरूप में जली, प्रकाश किया, वहाँ एक घण्टे के समस्त सेकिण्डों में प्रकाश जला। तो वही का वही प्रकाश प्रति सेकण्ड में नहीं है, किन्तु पहिले सेकण्ड में प्रकाश पहिले सेकण्ड की शक्ति के परिणमन से हुआ, दूसरे सेकण्ड में दूसरे परिणमन की शक्ति से हुआ, तभी तो मीटर में नम्बर पड़े हुए मिलते हैं। इतनी बिजली खर्च हो गई। उसने निरन्तर नवीन-नवीन काम किया, वही एक काम नहीं किया। यों ही प्रभु का परिणमन भी प्रतिसमय नया-नया बनता है, पुराना-पुराना विलीन होता है और वह चित्स्वभाव वही का वही रहता है। हम लोगों में यह बात जरा स्पष्ट समझ में आ जाती है, क्योंकि हममें विविधता है, अनेक राग, अनेक द्वेष, अनेक तरह के त्रुटित ज्ञान परिवर्तन ज्ञान में आते हैं, हम अपने बारे में शीघ्र कह सकते हैं, अब हम यों बन गए, जो पहिले था वह विलीन हो गया। यों प्रत्येक पदार्थ बनता है, बिगड़ता है और बना रहता है। बनने का नाम उत्पाद है, बिगड़ने का नाम व्यय है और बने रहने का नाम ध्रौव्य है।
वस्तु की त्रिगुणात्मकता—सत्त्व, रज: और तम:—ये तीन गुण प्रत्येक वस्तु में निरन्तर रहा करते हैं। जो उसमें अभ्युदय हुआ है, परिणमन हुआ है वह है रज, जो विलय हुआ है वह है तम: और जो बना रहता है वह है सत्त्व। प्रत्येक पदार्थ त्रिगुणात्मक होता है, त्रिदेवतामय होता है। इन ही तीन गुणों को विद्वान् पुरुषों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन देवतावोंरूप में अलंकृत किया है। पदार्थ में जो नवीन परिणमन हुआ है वह ब्रह्मस्वरूप है, पुराना परिणमन जो विलीन हो गया है वह महेश स्वरूप है और जो सदा सत्त्व बना रहे वह विष्णु स्वरूप है। प्रयोजन यह है कि प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है।
राष्ट्रीय ध्वज में त्रितयात्मकता—भैया ! त्रितयात्मकता तो आपको राष्ट्रीय झंडे में भी मिलेगी। राष्ट्रीय झंडे के तीन रंग हैं—हरा, लाल या केसरिया और सफेद। ये रंग इस क्रम से हैं कि ऊपर नीचे तो हरा, लाल है और बीच में सफेद है। साहित्यकारों ने उत्पाद का वर्णन हरे रंग से किया है। लोग बोलते भी है कि यह मनुष्य खूब हरा-भरा है, बाल-बच्चों के पैदा होने का नाम हरा-भरा है। बुढ़िया आशीर्वाद भी देती है कि बेटा खुश रहो, हरे-भरे रहो। तो उत्पाद का नाम है हरा। उस झंडे में जो हरा रंग है वह उत्पाद का सूचक है। लाल रंग का नाम है व्यय। साहित्यकार जब कभी विनाश का वर्णन करते हैं तो लाल रंग से वर्णन करते हैं और ध्रौव्य का नाम है श्वेत रंग। जिस रंग पर उत्पाद का रंग भी चढ़ जाय और व्यय का रंग भी चढ़ जाय, वह ध्रौव्य उत्पाद में भी है और व्यय में भी है। जैसे वह श्वेत रंग हरे को भी छुवे हुए है, लाल को भी छुवे हुए है। यों उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक स्वरूप को बताते हुए यह झंडा क्या लहराता है? प्रत्येक पदार्थ इन ही तीन स्वरूपमय होने के कारण सदा लहराते रहते हैं। इस सत् का कभी अभाव नहीं होता।
चौबीस आरे के विवरण में आद्य ज्ञातव्य—अब इस झंडे में 24 आरे का चक्र भी बना हुआ है। वे 24 आरे उस वस्तु के भीतरी परिणमन के मर्म को बताते हैं। वस्तु जो परिणमती हैं वे जगमग स्वरूप को लिए हुए परिणमती हैं। प्रत्येक परिणमन में आपको जगमग स्वरूप नजर आयेगा। जग मायने बढ़ना, मग मायने घटना। वृद्धि हानि बिना पदार्थ के स्वरूप का परिणमन नहीं होता। एक समय की अवस्था को त्यागकर दूसरे समय की अवस्था पाये तो वहाँ घटना बढ़ना अवश्य होता। कुछ परिणमन ध्यान में आये अथवा न आये, इस हानि वृद्धि को षड्गुण हानि और षड्गुण वृद्धि के रूप से कहते हैं। अर्थात् वृद्धि हुई अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यात भाग वृद्धि, संख्यात भाग वृद्धि, संख्यात गुण वृद्धि, असंख्यात गुण वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि। इसी प्रकार हानि हुई अनन्तभाग हानि, असंख्यात भाग हानि, संख्यात भाग हानि, संख्यातगुण हानि असंख्यात गुणहानि और अनन्तगुण हानि।
वृद्धि हानि में एक दृष्टान्त—जैसे 99 डिग्री बुखार है और 100 डिग्री बुखार हो जाता है तो एक डिग्री बुखार जो बढ़ गया, वह 99 डिग्री से एकदम ही 100 डिग्री हो गया ऐसा नहीं है। आपको ध्यान रहे या न रहे उसे एक डिग्री में जितने अविभागी अंश हो सकते हैं जैसे थर्मामीटर में आपने 8-10 अंश देखे होंगे पर 8,10 अंश ही नहीं हैं, 100 अंश हो सकते हैं और उन अंशों की सीमा नहीं बना सकते हैं, उसमें भी अनेक अंश है। तो बुखार का एक-एक अंश बढ़-बढ़कर कहीं कुछ अंशों के साथ बढ़कर एक डिग्री बुखार बढ़ता है। वे पाइन्ट थोड़े ही समझ में आते हैं। जैसे थर्मामीटर में कह देते हैं कि 99 डिग्री 3 पाइन्ट बुखार है। तो बढ़ाव और घटाव जिस क्रम से हुआ, उस क्रम में वैसी षड्गुण हानि वृद्धि है।
चौबीस आरे का संकेत—भैया ! कोई परिणमन रंच भी समझ में न आए तब भी जानो कि उनमें षड्गुण हानिवृद्धि अवश्य हुई हैं, और विपरिणमन दूसरे षड्गुण हानि वृद्धि हो तो ध्यान में रहता है। तो यों 24 हानि वृद्धियों से जो यह परिणमन जगत् में विदित हो पाता है वह ही संकेत में आरे में समझाते हैं।
सर्वथावाद में विपरीतता—प्रत्येक पदार्थ उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक है उसमें ये हम केवल यह माने कि यह आत्मतत्त्व, यह ब्रह्मस्वरूप सर्वदा ध्रुव है, इसमें उत्पाद नहीं है, या किसी तत्त्व के बारे में इन तीनों में से किसी एक को सर्वथावाद कह दिया जाय तो विपरीत आशय हो गया अथवा यह वस्तु एक समय ही होती है फिर विलीन हो जाती है, उसका नाम निशान भी नहीं रहता है। ध्रौव्य कुछ तत्त्व नहीं है, सर्वथा उत्पाद व्यय ही है। ऐसी धारणा हो, आशय बने तो इस ही को कहते हैं विपरीत आशय—यह सैद्धान्तिक बात है।
सूक्ष्म और स्थूल सभी विपरीताशयों के अभाव की आवश्यकता—अब मोटी बात देखें तो प्रत्येक पदार्थ हमसे अलग हो जायेंगे। जो भी आजसमागम में मिला है उसे हम माने कि यह सदा रहेगा, बस यही विपरीत आशय है। कोई जीव मेरा कुछ नहीं है। यदि हम मानें कि यह तो मेरा लड़का है, यह तो मेरा घर है, यह विपरीत आशय होगा। तो स्थूल और सूक्ष्म सभी प्रकार के विपरीत आशय जहां नहीं रहे और फिर वस्तु का जो श्रद्धान् हो उस शुद्धता का नाम है सम्यक्त्व। सम्यक्त्व के अभाव से यह सारा लोक दु:खी हो रहा है। तो सम्यक्त्व को उत्पन्न करना यह सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।
सम्यक्त्वलाभ का यत्न—सम्यग्दर्शन के अर्थ कैसी भावना होनी चाहिए और किसकी दृष्टि होनी चाहिए—इस सम्बन्ध में यह समस्त ग्रन्थ ही बना हुआ है, अलग से विवरण देने की आवश्यकता ही नहीं है। इस समस्त ग्रन्थ में वर्णित निज कारणपरमात्मतत्त्व जो शाश्वत स्वरूपास्तित्त्व मात्र सहज परमपारिणामिक भावरूप चैतन्यस्वभाव है उसकी दृष्टि और भावना मिथ्यात्व पटल को दूर कर देती है। इस सम्यक परिणाम के बिना ही जगत् के प्राणी दु:खी हो रहे हैं। सारा क्लेश बिल्कुल व्यर्थ का है, अपना बाहर कहीं कुछ है नहीं और भ्रम से मान लिया कि मेरा कुछ है, इस भ्रम के कारण इस जीव की चेष्टाए चलती रहती हैं और दु:खी होता रहता है। इस सम्यक्त्व के प्राप्त करने का यत्न होना ही एक प्रधान कर्तव्य है।
सम्यग्ज्ञान व संशय विपर्यय दोष—सम्यग्ज्ञान किसे कहते हैं? संशय, विपर्यय, अनध्यवसान से रहित जो ज्ञान है उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। इस सम्यग्ज्ञान का दो जगह प्रयोग होता है—एक लोकव्यवहार में और एक मोक्षमार्ग में। लोकव्यवहार में भी जो सच्चा ज्ञान कहलाता है वह भी संशय, विपर्यय और अनध्यवसान से रहित होता है तथा मोक्षमार्ग में जो सम्यग्ज्ञान कहलाता है वह भी तीनों दोषों से रहित है। संशय कहते हैं अनेक कोटियों का स्पर्श करने वाले ज्ञान को। जैसे पड़ी हुई सीप में संशय हो जाय कि यह सीप है या चाँदी है या कांच है, कितनी ही कोटियों का स्पर्श करने वाला ज्ञान बने उसके वह संशय ज्ञान है। लोकव्यवहार में संशय ज्ञान को सच्चा ज्ञान नहीं बताया है। विपरीत ज्ञान क्या है? है तो सीप और मान ले कि यह चाँदी हैं। विपरीत ज्ञान में एक कोटि में ही रहने वाले ज्ञान का उदय होता है। वस्तु है और, मानते हैं और कुछ, तो इस ज्ञान को लोकव्यवहार में भी सम्यग्ज्ञान नहीं बताया है।
अनध्यवसाय दोष—अनध्यवसान किसी वस्तु के बारे में कुछ भी आगे न बढ़ सकना और साधारण आभास होकर अनिश्चित दशा में रहना इसका नाम है अनध्यवसान। जाते में, चलते में कुछ छू गया तो साधारण आभास तो हुआ कुछ छुवा, पर उसके सम्बन्ध में कुछ भी निश्चय न कर सका कि मामला क्या था? यहाँ संशय के रूप में भी ज्ञान का विकास नहीं हो सका। अनध्यवसान उन दोनों ज्ञानों से भी कमजोर स्थिति का है। अथवा कोई आवाज सुनाई दी और सुनकर रह गये। एक जिज्ञासा भी तेज नहीं बनी कि किसकी आवाज है अथवा कुछ अध्यवसान न हो सकना, सो अनध्यवसान है। लोकव्यवहार में अनध्यवसान का प्रमाण न मानना सच्चा ज्ञान नहीं है।
मोक्षमार्ग में सम्यग्ज्ञान—इस ही प्रकार अब मोक्षमार्ग में सम्यग्ज्ञान की बात सुनिये। मोक्षमार्ग में सम्यग्ज्ञान वही है कि मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्व में संशय न रहे, विपर्यय न रहे और अनध्यवसान भी नहीं रहे। तो संशय कैसा? जैसे आत्मा के बारे में यह सोचना कि आत्मा वास्तव में है या नहीं है या कल्पना की बात है या पञ्चतत्त्वों से बना है, आगे भी रहेगा या न रहेगा, अनेक प्रकार की कोटियों को छूने वाला जो ज्ञान है, वह संशय ज्ञान है, यह सम्यग्ज्ञान नहीं है। मोक्षमार्ग में विपर्यय ज्ञान कैसा है कि वस्तु तो है और भांति तथा मानते हैं और भांति। जैसे आत्मा तो है चैतन्यस्वरूप और एक विरुद्ध-विरुद्ध कोटि में अड़ गये कि आत्मा तो पञ्चतत्त्वमयी है, पञ्चतत्त्व बिखर गए, जिस तत्त्व की जो चीज है वह उसी तत्त्व में चली गयी। आत्मा नाम की फिर कोई चीज नहीं रहती है। यह आत्मा मौलिक सत् नहीं है, किन्तु पञ्चतत्त्व के पिण्ड में इसका आभास होता है। यह विपर्यय ज्ञान हो गया कि एक विपरीत कोटि को छू लिया ना। विपर्यय ज्ञान मोक्षमार्ग में प्रमाण नहीं है। अनध्यवसाय में कुछ निर्णय ही नहीं हो सकता है। खैर, करते जावो त्याग, व्रत, तपस्या, उपवास होंगे कुछ। इन बातों में हम नहीं पड़ते, इनको तो बड़े-बड़े लोग जानें, कुछ भी निश्चय नहीं कर सकते हैं। इन तीनों दोषों से रहित जो ज्ञान है, उस ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं। अब इस ही सम्यक्त्व और सम्यग्ज्ञान के स्वरूप को कुछ स्पष्टीकरण के लिए आगे फिर स्वरूप कह रहे हैं।