वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 7
From जैनकोष
णिस्सेसदोसरहिओ केवलणाणाइपरमविभवजुदो।
सो परमप्पा उच्चइ तव्विवरीओ ण परमप्पा।।7।।
उत्कृष्ट व्यवहारशरण भगवद्भक्ति―जो समस्त दोषों से रहित है, जिनके समस्त चार घातिया कर्म दूर हुए, जो दोषरहित हैं वही हमारा आराध्य आप्तदेव है। अनादि प्रवाह से माया में बसे हुए हम आप लोगों को कोई शरण नहीं है। सो परमार्थ की बात तो ठीक ही है कि अपने ज्ञायकस्वरूप का आलम्बन शरण है। परन्तु जो इस स्वरूप में स्थिर नहीं हो पाते या इस ज्ञायकस्वरूप की पुन: पुन: दृष्टि होने में महीनों का भी अन्तर आ जाता है। तो इस ज्ञायकस्वरूप के शरण में जो नहीं ठहर पाते हैं उनको बाह्य में शरण क्या है सो तो बताओ ? यही परमात्मदेव की भक्ति ही शरण है। यह हमारी ज्ञानानन्दस्वरूप की ज्योति दबी हुई है। इसको उघाड़ने में समर्थ परमात्मभक्ति है। मूल उपाय मूल बात जिसके बाद फिर सब कलाएँ आती हैं और परमार्थ शरण की बुद्धि होती है वह है मूल भगवद्भक्ति।
निधिलाभ के प्रसंग में आनन्द का उद्रेक―जैसे किसी के घर में जमीन के नीचे गड़ी हुई निधि हो ओर उसे पता न हो कि हमारे घर में निधि गड़ी है तो वह अपने को दीन हीन मानता है और दीनता से अपना समय गुजारता है। यदि उसे किसी प्रकार विदित हो जाय, बहियों में लिखा हो या उसको कोई लोग पता दे दें, किसी भी प्रकार विदित हो जाय कि इस जगह पृथ्वी में नीचे निधि गड़ी हुई है तो इतनी ही बात जानकर उसका हर्ष उछल आता है, श्रद्धा बन जाती है कि हम तो बड़े धनिक पुरुष हैं। निधि हमारे यहाँ पड़ी हुई है। परन्तु व्यवहार में अभी दीनता दरिद्रता ही उसकी दिखती है पर अन्तर में बल बढ़ जायेगा। यह जान लेने से कि इस जगह निधि गड़ी हुई है। अब वह कुदाली लेकर जमीन खोदता है, जमीन खोदता है। जमीन खोदने पर उसे कुछ आसार नजर आते हैं तो उसे संतोष होता है और उसकी निधि जब मिल जाती है तब अपने में विचित्र परिवर्तन करता है और अनुपम गौरव अनुभव करता है।
भगवद्भक्ति के प्रताप से आत्मनिधि की समृद्धि―इसी प्रकार यह आत्मज्योति इन भावकर्मों, द्रव्यकर्मों कर्मपटलों से तिरोहित पड़ी हुई है, इस अज्ञानी को पता नहीं है सो अपनी दीनता और दरिद्रता से गुजारा करता है। परवस्तुओं की ओर आकर्षित होकर सुख मानना यह दरिद्रता से गुजारा नहीं है तो क्या है ? क्या कोई ऐश्वर्य की बात है ? ऐसी दीनता और दरिद्रता से गुजारा करने वाला यह अज्ञानी यदि किसी प्रकार जान जाय कि मेरे स्वरूप में ही अनुपम ज्ञान और आनन्द दबा हुआ है। शात्रों में बहियों में लिखा हुआ मिल गया या किन्हीं पुरुषों ने बता दिया कि अमुक आत्ममहल के अन्दर यह ज्ञानानन्द की अपूर्व निधि पड़ी हुई, थोड़ा विश्वास हो जाय तो इसे बहुत हर्ष उत्पन्न होता है क्योंकि दीनता दरिद्रता का भार अब उसके उपयोग से हटता है और सर्वप्रथम ही प्रभुभक्तिरूपी कुदाली से और उसी से ही सम्बन्धित अपनी प्रतीति द्वारा उस भाव कर्म की पटल को दूर करते हैं, ये रागादिक मेरे नहीं हैं। मैं इन रागादिकों में तन्मय नहीं हो सकता। ये मुझे बरबाद करने के लिये आये हैं। मेरी प्रभुता के ये विभाव वैरी है। उनमें तन्मय न होऊँ, और इस ज्ञान वैराग्य से सनी हुई प्रभुभक्ति रूप कुदाली के द्वारा खुदाई के प्रताप से, इस अरहद् भक्ति के प्रताप से, यह भाव कर्म ये आवृति जब दूर होती है तब ज्ञानानन्द निधि का आसार मिलता है, इससे शांति होती है और विशेषकर उत्साह के साथ ज्योति को और निकाल लेने के लिए अन्त:प्रयत्न करते हैं। जब यह ज्ञानानन्द ज्योति अनुभव में आती है तब आनन्द का ठिकाना नहीं रहता।
मूढ़तावश खुशी-खुशी विपद्गर्त में पतन―हे प्रभु ! परपदार्थों की ओर आकर्षण मेरा मत हो। जैसे जो चीज अपने को हित की जंचती है तो उदार पुरुष यही कहते हैं कि यह चीज सबको ही प्राप्त हो, कोई मेरा बैरी हो उसे भी प्राप्त हो। अर्थात् परम अभीष्ट वस्तु से कोई वञ्चित न रहे। परदृष्टि करने के बराबर, अज्ञान के बराबर कोई वैरी नहीं, कोई पाप नहीं। जैसे एक विवाह का दोहा बना रखा है कि–‘‘तुलसी गाय बजाय के देत काठ में पांव। फुले-फुले वे फिरैं होत हमारो व्याव।।’’ यह व्यवहार की बात है। यहाँ यह बात लगाओ कि इन विषयसुखों को पाकर, इस पुण्य के वैभव को पाकर ये अज्ञानी जीव फूले-फूले फिर रहे हैं, मैं बड़ा महान हूँ, मेरे को इतना वैभव मिला है, मेरी लोगों में इतनी इज्जत है। अरे क्या फूले-फूले फिरते हो, तुम हँस-हँसकर विपत्तियों के गड्ढों में, पापों के गड्ढों में, जन्ममरण के चक्कर लगाते रहने की आपत्तियों में खुश होकर जी रहे हो। यहाँ कुछ शरण नहीं है। एक भी कोई जीव आपके लिए शरण नहीं है। आपको शरण आपके ज्ञान का विधिवत् ठिकाने बना रहना बस यही एक शरण है।
व्यवहारशरणत्रय―भैया ! अपने ज्ञान के ठिकाने की स्थिति जब नहीं मिलती है तो हम किसकी छाया में जायें ? तो वे छाया आपको तीन ही हैं शरणभूत। एक देव जिसका कि प्रकरण चल ही रहा है। दूसरा शात्र–ये भी धोखा न देंगे, ये सन्मार्ग ही बतायेंगे। और तीसरा–गुरु, जो तत्त्व के जानने वाले हैं और प्राणियों के हित का भाव रखते हों उन्हें गुरु कहते हैं।
भगवान् व आप्त तथा साधु व गुरु का विश्लेषण―जैसे भगवान् और आप्त एक ही बात है, फिर भी भगवान् के कहने में वह बात नहीं झलकती जो आप्त के कहने में हमारे उपकार से सम्बन्ध रखने वाली बात झलकती है, अर्थात् जो हितोपदेशी हो, वीतराग हो, सर्वज्ञ हो वह है आप्त और जो वीतराग हो, सर्वज्ञ हो वह है भगवान्। सब भगवान् हितोपदेशी हुआ करते हों यह बात नहीं है। भगवान् हैं, आदर्श हैं, पर हमारे उपकार का तांता आप्त से शुरू होता है। यद्यपि आप्त भी भगवान् हैं, भगवान् भी भगवान् हैं फिर भी उपकार का सम्बन्ध आप्त के नाते से है, भगवान् के नाते से नहीं, आप्तपने के नाते से है। इसी तरह गुरु में और मुनि में भी भेद नहीं है। सब मुनि गुरु नहीं होते। यद्यपि गुरु भी वही, मुनि भी वही लेकिन जिसके प्रसंग में रहकर, जिसकी आन में रहकर, जिसकी वैयावृत्ति में रहकर अपने कल्याण का उद्धार का मार्ग पायें उसे कहते हैं गुरु, और जो विषयों की आशा से रहित हैं, ज्ञान, ध्यान, तपस्या में जो लवलीन है वह मुनि साधु है ही। वह भी गुरु है मगर गुरुता का नाता हमारे उन मुनियों से होता है जिन मुनियों के संग से, स्मरण के सम्बन्ध से हमें हित की प्रेरणा मिलती है। तो हम जब किसी संकट में आ जायें तो कहाँ भागें ? भगवान् आप्त की स्मृति में, स्वाध्याय में, सत्शात्रों की सेवा में और गुरुओं के सत्संग में।
कार्यपरमात्मा आप्त का निर्देश―उनमें से यह आप्तदेव का वर्णन चल रहा है। प्रभु आप्त समस्त दोषों के ध्वंस होने से दोषरहित हैं। ये 18 प्रकार के जो दोष कहे गये हैं उन महादोषों को खण्डित करने से वे दोष निर्मुक्त हैं और ये देव केवलज्ञानादिक परम वैभव से युक्त हैं, कैसे हैं ये केवलज्ञानादिक वैभव कि समस्त लोकों का जाननहार निर्मल केवलज्ञान, निर्मल केवलदर्शन और परमवीतरागस्वरूप आनन्दादिक अनेक वैभवों से समृद्ध है, ऐसा प्रभु कार्य परमात्मा है।
कार्यपरमात्मा होने का साधन―कैसे हुआ है वह कार्यपरमात्मा ? निज कारणपरमात्मा की निरन्तर भावना से वह कार्यपरमात्मा हुआ। अपने स्वभाव की निरन्तर दृष्टि और भावना रहे तो यह पुरुष कार्यपरमात्मा हो सकता है। जैसी जो भावना करता है उसको वैसी ही प्राप्ति होती है।
भावनानुसार कार्य होने का एक लोकदृष्टान्त―एक पथिक था। गर्मी के दिनों में नंगे पैर बिना छतरी के बेचारा गरीब जा रहा था। धूप के संताप से तप्त होकर वह विचार करता है कि मुझे कोई छाया वाला वृक्ष मिल जाय तो बड़ा अच्छा हो। रास्ते के निकट एक छायावान् वृक्ष मिला और वृक्ष के नीचे पहुँच गया। मानो वह वृक्ष था कल्पवृक्ष। पर उस पथिक को इसका पता न था। उस वृक्ष के नीचे पहुँचा तो सोचता है कि छाया तो अच्छी मिल गयी, पर थोड़ी हवा चल जाती तो बड़ा आनन्द आ जाता। सोचते ही हवा चलने लगी। फिर सोचता है कि हवा तो अच्छी मिली पर थोड़ा पानी भी मिल जाता, प्यास बुझा लेते तो अच्छा होता। ऐसा सोचते ही सामने पानी से भरा लोटा आ गया। फिर सोचा कि पानी तो आ गया, पर कुछ खाने को होता तो अच्छा होता। भोजन से सजी सजायी थाली भी उसके सामने आ गयी। अब वह सोचता है कि यह क्या मामला है कि जो चाहो, सभी चीजें हाजिर हो जाती हैं। कहीं यहाँ भूत तो नहीं है। तो भूत का ख्याल कर लेने से भूत आ गया। फिर सोचता है कि यह भूत कहीं मुझे खा न जाये, सो वह उसे खा भी गया याने जान भी ले ली। जो सोचा वही हुआ। दृष्टांत में केवल यह जानना है कि जैसे वह कल्पवृक्ष के नीचे बैठा हुआ पुरुष जो सोचता था वही होता था, इस ही प्रकार चैतन्यस्वरूप में तन्मय यह पुरुष अथवा चेतना को लिए हुए यह आत्मपदार्थ जैसी दृष्टि बनाता है वैसी ही बात प्राप्त करता है।
आत्मभावनानुसार आत्मपरिणमन―जो अपने को इस संसार में नानापर्यायों रूप अनुभव करता है वह इसी तरह का बनता चला जाता है और जो अपने को केवल देख रहा है तो क्या उसके कैवल्य प्रकट न होगा ? होगा। केवलज्ञान कहो, कैवल्य कहो, बिल्कुल अकेला रह जाना कहो इस ही का नाम निर्वाण है। किसी के घर में सब आदमियों का वियोग हो जाय तो यह कहते हैं कि हाय मैं अकेला रह गया। अरे भाई तुम अकेले रह गए होते तो तीनों लोक तुम्हारे चरणों में झुक जाते। अभी तो अकेले कहाँ हो ? इन अनन्त शरीर स्कंधों का बोझ लदा है, अनन्त कार्माण वर्गणाओं का बोझ लदा है और अनन्त अनुभाग सहित असंख्यात प्रकार के इन भाव कर्मों का बोझ लदा है। अभी तो तेरे पास इतना कुटुम्ब पड़ा है और तू कहता है कि हाय मैं तो अकेला रह गया।
केवल की पूजा―भैया ! अकेला जो हो जाता है उसकी मूर्ति भी पूजी जाती है। अकेला हो जाना यही, निर्वाण है, कैवल्य है। कैवल्य कैसे प्राप्त हो ? जब अपने को केवल देखना प्रारम्भ कर दें और केवल का ही आलम्बन लें तब तो कैवल्य प्राप्त होगा। उस कैवल्य की दृष्टि भी न करें और कैवल्य रह जाय, यह कैसे हो सकता है ? असली मायने में जैन वह है कि जिस किसी भी परिस्थिति में रहता हो उस ही परिस्थिति में विरक्त रहे, जो कुछ भी उस पर गुजरता हो उसमें वह वियोग बुद्धि रखे। इतनी बात यदि हो सकती है तो हम जिनभक्त होने का दावा कर सकते हैं। प्रभु की भक्ति यह नहीं है कि प्रभुभक्ति के लिए शाम सुबह बड़ा जलसा मनायें, बाजे बजायें, बड़ी क्रियायें करें पर हृदय से धन वैभव लक्ष्मी का बोझ नहीं उतरता और कुटुम्ब परिवार की ममता में अन्तर नहीं आता तो ऐसी स्थिति में प्रभु के भक्त तो नहीं हुए। हृदय में जो बसा हो उसके ही भक्त हैं।
अनुराग का परीक्षण―भैया ! सामने दो चीजें मुकाबलेतन आ जायें और उनमें से दोनों ही नष्ट होने को हों तो एक छोड़कर दूसरे को बचायेंगे। तो जिसको छोड़कर जिसको ग्रहण किया उसकी ही पूजा दिल से लगी समझो। धन वैभव पर और अपने कुटुम्बजनों पर इन दोनों पर कोई आक्रमण कर दे, विनाश करने पर उतारू हो जाय तो धन वैभव की उपेक्षा करके परिवारजनों को आप बचाएँ तो धन की अपेक्षा परिवार के लोगों की भक्ति ज्यादा हुई और परिजन और अपनी जान–इन दोनों पर कोई आक्रमण करने का उद्यमी हो तब परिवार को छोड़कर अपनी ही जान बचाने का उद्यम करे तो अपनी जान की भक्ति विशेष हुई ना, परिजन की अपेक्षा। अभी यहाँ से एक चूहा निकल भागे तो पास में ही आपके दो तीन लड़के पड़े हों तो उनके ऊपर पैर रखकर आप बड़ी तेजी से भागेंगे। चाहे लड़के के ऊपर पैर पड़ जाय। जान की प्रियता इतनी होती है और किसी समय जान पर और ज्ञान पर दोनों पर आक्रमण हो, जैसे ज्ञानीसंतों के किसी स्थिति में शेर ने आकर उपद्रव किया, दुश्मन ने आकर आक्रमण किया तो उस स्थिति में जान पर तो आक्रमण है ही, मगर किसी रूप से ज्ञान पर भी आक्रमण है, क्योंकि वह घबड़ा जाने का अवसर है। ऐसी स्थिति में जान की उपेक्षा करके ज्ञान की कोई रक्षा कर सकता है तो समझ लो कि उसकी ज्ञान में भक्ति है।
भक्ति की कस―यहाँ कोई घर पर भी आक्रमण हो और धर्मायतन पर भी आक्रमण हो तो धर्मायतन की उपेक्षा करके घर बचाने की कोशिश करते हैं। तो यह धर्मायतन में भक्ति हुई या घर में भक्ति हुई ? मुकाबलेतन दो चीजें रख लो, दोनों का विनाश हो रहा हो। उनमें से जिस एक को बचाने की कोशिश हो समझो कि भक्ति उसकी है। बस इसकस पर कसते जाइए कि तुममें प्रभुभक्ति विशेष है या घर परिवार में या धन में भक्ति विशेष है।
दृष्टि के अनुसार वृत्ति―भैया ! जैसी दृष्टि होती है वैसी ही वृत्ति बनेगी। कैवल्य पाने के लिए इस निज कैवल्य की दृष्टि होना आवश्यक है। जो त्रिकाल निरावरण है निज ज्ञानानन्द स्वभावमात्र है, ऐसा जो निज कारण परमात्मतत्त्व है उसकी भावना से कार्यपरमात्मत्व प्रकट होता है। देखो स्वभाव यद्यपि व्यक्त नहीं है इस समय और विभाव परिणमन चल रहा है, फिर भी स्वभाव सदा निरावरण रहता है, आवरण होकर भी सदा निरावरण रहता है क्योंकि स्वभाव में भी आवरण हो जाय, स्वभाव का भी कोई मोड़ बदल जाय तब फिर स्वभाव ही क्या रहा ? स्वभाव तो एक शक्तिरूप है। अब शक्ति में भी कोई बाधा आ जाय तो द्रव्य ही क्या रहा ? ऐसे निज कारणपरमात्मस्वरूप की भावना से यह कार्यपरमात्मत्व प्रकट होता है। ऐसा यह भगवान् अरहंत परमेश्वर है।
सुदेव की भक्ति व आज्ञाकारिता में शान्तिलाभ―भगवान् परमेश्वर के स्वरूप के विरुद्ध जितने परिणमन हैंउन करि सहित जो अन्य जीव हैं, यदि वे देवत्व के अभिमान से दग्ध हैं तो वे कुदेव शब्द से व्यपदिष्ट होते हैं। वे संसारी जीव हैं। हम और आप भी रागी द्वेषी हैं किन्तु हम आपका नाम कुदेव नहीं है। यदि हम आप देवपने को जाहिर करने लगें, प्रसिद्ध करने लगें और कुछ हों भीइस लायक शकल के दो चार ऐसे भक्त भी मिल जायें, जो हम आपको देव कहकर पुकारने लगें तो हम आपका भी नाम कुदेव बन जायेगा। जिनमें देव का स्वरूप तो दिखता नहीं और देवत्व को प्रसिद्ध करते हैं उन्हें कुदेव कहते हैं। वे संसारी ही तो हैं। उनकी ओर भक्ति न रखकर जो वीतराग सर्वज्ञ हितोपदेशी हैं ऐसे आप्त की भक्ति रखो और उनके बताए हुए मार्ग पर चलकर शांतिलाभ लो।
निर्दोषता का शरीर पर प्रभाव―भगवान् के जब तक शरीर रहता है तब तक उनके शरीर की स्थिति सर्वोत्कृष्ट होती है। अर्थात् न वहाँ कोई रोग है, न भूख है, न प्यास है और बहुत उत्कृष्ट कांतिमान शरीर होता है। सूर्य और चन्द्रमा से भी अधिक प्रतापी शरीर बन जाता है। जो वीतराग है, निर्दोष है उनके द्वारा अधिष्ठित शरीर की कौन प्रशंसा करे ? अभी यों ही देखो–कोई कैसा ही बीमार हो, यदि परिणामों में निर्दोषता जगती है तो बीमारी में अन्तर आ जाता है। जिस किसी का बुखार मिटने को होता है उससे पहिले उसकी सभी बातों में अन्तर आने लगता है। निर्मल परिणामों का ही तो यह प्रताप है कि जीव को योग्य अच्छा शरीर मिलता है। जिसके परिणाम खोटे होते हैं उसका इस भव में चाहे शरीर न बिगड़ पाये पर अगले भव में बिगड़ा कुत्सित शरीर प्राप्त होता है। प्रभु का तेज, उनकी दृष्टि, उनका ज्ञान, उनकी ऋद्धि सुख ऐश्वर्य सब कुछ उत्कृष्ट होता है और तीन लोक में जिसका माहात्म्य फैले ऐसा उनका प्रताप होता है।
वीतरागता का आकर्षण―प्रभु भगवान् होने के पश्चात् हम और आप लोगों की तरह बीच में बैठे हुए नहीं मिलते हैं कि कुछ भी उनसे बातें करलें। वे इस पृथ्वी तल से कितनी दूर ऊपर आकाश में अधर विराजते हैं। उनका विहार होता है तो आकाश में ही होता है। जहाँ वे स्थित होते हैं वहाँ देवेन्द्र क्षण मात्र में विशाल रचना करा लेते हैं जिसका नाम है समवशरण। सम् अब शरण, जहाँ पहुँचने पर जीव को भला शरण प्राप्त होता है उसे कहते हैं समवशरण। वहाँ मनुष्य क्या, देव क्या, तिर्यंच क्या, सभी समझदार विवेकी प्राणी आकर्षित होते चले आते हैं। वीतरागता का निर्दोषता का सत्य प्रभाव दूसरों पर पड़ता है, खुदगर्जियों का, विषयी कषायी का, मलिन पुरुषों का प्रभाव दूसरों पर नहीं पड़ता। प्रभु की वीतरागता के कारण तीनों लोक के प्राणी उनकी शरण में आते हैं और उनके गुणानुराग के बल से अपने आपके भव-भव के कमाये हुए पाप धो डालते हैं।
दिव्य भाव, दिव्य प्रभाव, दिव्य देह, दिव्य उपदेश―प्रभु का शरीर इतना स्वच्छ है कि अपनी कांति के द्वारा दसों दिशाओं को स्नान करा देते हैं। इतना स्वच्छ जिनका रूप है कि आकर्षक और प्रिय बनकर मनुष्यों के दिल को चुरा लेते हैं अर्थात् उनकी ही ओर यह मन आकृष्ट होता है। जिनका दिव्यरूप इतना पवित्र हितकारी होता है कि सुनने वालों के मन में मानो अमृत-सा झरता हुआ अनुपम आनन्द प्रदान करता है। जिनके शरीर में, जिनके अवयवों में शुभ लक्षण विराज रहे हैं ऐसी दिव्यकाय प्रभु अरहंत देव की हो जाती है। वे चाहे मुनि अवस्था में हों, बूढ़े हों, कोई अंग कुछ टूट गया हो, लचक गया हो, तकलीफ भोग चुके हों, कोढ़ हो, कुछ भी रोग हो, पर परमात्मत्व प्राप्त होने के बाद वह शरीर युवावस्था सम्पन्न जैसा कान्तिमान पुष्ट हो जाता है। यह भी सब उस वीतरागता का प्रताप है।
चमत्कार के मूल की दृष्टि―जैसे मंदिरों में बड़ी सजावट हो, कीमती स्वर्ण रत्नों के आभूषणों से बड़ी सजावट की गयी हो तो उस सजावट को देखकर उस सजावट की आलोचना नहीं करना है किन्तु वीतरागता की और ध्यान देना होता है कि धन्य है वह वीतरागता की महिमा कि वीतराग प्रभु के चरणों में बड़े-बड़े धनिक देव इन्द्र अपना सर्वस्व लगाकर ऐसी शोभा और श्रृङ्गार किया करते हैं। ऐसा आप्तदेव का वर्णन करके अब शात्र का लक्षण कहते हैं, तत्वार्थ का लक्षण कहते हैं।