वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - नियमसार गाथा 8
From जैनकोष
तस्स मुहुग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं।
आगममिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था।।8।।
शरणभूत परमागम―आप्तदेव के मुख से निकले हुए जो वचन हैं ध्वनि है जो गणधर देव के द्वारा झेली जाती है, जिनके वाच्य अर्थ में पूर्वापर कोई दोष नहीं रहता है, ऐसा जो शुद्ध उपदेश है उसका नाम आगम है। उस आगम के द्वारा कहा हुआ जो कुछ तत्त्वार्थ है उसके श्रद्धान से सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। उस परमेश्वर के मुख कमल से निर्गत चतुरवचनों की रचनाओं का समूह जो कि पूर्वापर दोष से रहित है वह आगम है। उस भगवान् के राग का अभाव होने से कोई अशुद्ध पाप क्रिया का पोषक वचन नहीं निकलता है किन्तु हिंसा आदिक पाप कार्यों का परिहार करते हुए शुद्ध वचन होते हैं और वे वचनसमूह परमागम कहलाते हैं। उस परमागमरूप में अमृत को भव्यजन अपने कानों की अंजुलि से पीकर अपने आपमें शुद्धतत्त्व का दर्शन किया करते हैं।
अमृतपान―भैया ! जैसे कहते हैं ना अमृतपान करो, वह अमृत कहाँ से पिया जाय ? मुँह से पिया जाय क्या ? मुँह से नहीं पिया जाता है। विलक्षण अमृत है। कानों से पिया जाता है। कोई ऐसी दवा नहीं समझना कि जैसे कोई दवा कान में डाल देते हैं, किन्तु अमृत नाम है ज्ञानभाव का। जो न मरे वह अमृत है। यदि मुख से कोई चीज खा ली जिसे अमृत कहा करते हैं तो वही चीज यदि नस गयी तो वह दूसरे को क्या अमर करेगी ? अमृत नाम है ज्ञान का। जो न मरे, सतत् हो उसका नाम है अमृत। मेरे लिए मेरा अमृत ज्ञानभाव है। विपत्तियाँ चारों ओर से घेर रही हों उस समय जरा ज्ञानभाव को संभाला कि सब विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं। यह आत्मा अमर है, कभी मरता नहीं है ऐसा ज्ञान जग जाय तो यह अमर हो गया और जहाँ यह संशय लगा है कि कहीं मैं मर न जाऊँ तो ऐसे संशय वाला तो मरा हुआ सा ही है। ज्ञान ही परम अमृत है। जिसके ज्ञान होता है वह कहीं जाय, किसी समय हो, किन्हीं घटनाओं में हों वह ज्ञानबल से अपने आपमें प्रसन्न रहा करता है।
अमृतरूप हुआ ज्ञान कहते किसे हैं ? अपना ज्ञानस्वरूप अपने ज्ञान में आए तो उस ज्ञानवृत्ति का नाम ज्ञान है, यही अमृत है और अज्ञान स्वरूप को अपने ज्ञान में आत्मरूप से ग्रहण करें तो उसका नाम अज्ञान भाव है। शुद्ध लौकिक ज्ञान को ही जब लक्ष्य में लिए होते हैं तो उसकी भी बड़ी महिमा विदित होती है, फिर अलौकिक ज्ञान का तो कहना ही क्या है ?
ज्ञानबल का एक लोकदृष्टान्त―एक वृद्ध ब्राह्मण था। सो वह और उसकी बुढ़िया पत्नी, लड़का और बहू–ये चारों प्राणी किसी गाँव को जा रहे थे। चलते-चलते एक गाँव से निकले और एक मील जाकर एक जंगल में से गुजरने लगे। वहाँ लोगों ने कहा कि आप लोग अभी लौट जाइए, एक मील पीछे गाँवहै, इसके बाद 6-7 मील तक गाँव नहीं है और यह एक भयानक जंगल है जिसमें एक प्रेत रहता है। सो वह प्रेत पहिले प्रश्न करता है। उसका उत्तर यदि देते न बने तो वह मार डालता है। तो सबने सलाह की कि अब चल दिये तो चल दिये पीछे मुड़ने का काम नहीं है। जो होगा देखा जायेगा। वे आगे बढ़ते ही गए। देर हो जाने से एक भयानक जंगल में वे ठहर गए। उन्होंने रात्रि के चार प्रहरों का बँटवारा कर लिया कि पहिले प्रहर में बुड्ढा जगेगा, दूसरे प्रहर में बुढ़िया जगेगी, तीसरे प्रहर में लड़का जगेगा और चौथे पप्रर में बहू जगेगी।
शिक्षापूर्ण प्रश्नोत्तर―अब पहिले प्रहर में प्रेत आया दांत निकाले हुए और बुड्ढे से प्रश्न किया–एको गोत्रे, यह व्याकरण का एक सूत्र है, शब्द सिद्धि में यह काम देता है। पर वहाँ तो कोई शिक्षाप्रद बात कही जाय तो योग्य उत्तर होगा। तो वह बूढ़ा तुरन्त कविता बनाता है–‘एको गोत्रे भवति स पुमान् य: कुटुम्बं बिभर्ति।’ जो सर्व कुटुम्ब का भरण पोषण करता है वही कुटुम्ब में श्रेष्ठ पुरुष होता है। शिक्षारूप उत्तर सुनकर प्रेत प्रसन्न हुआ और मारना तो दूर रहा कोई आभूषण इनाम में दे गया। उसके बाद दूसरे प्रहर में बुढ़िया जगी। उससे भी प्रेत ने प्रश्न किया–‘सर्वस्य द्वे’ यह भी व्याकरण का सूत्र है। इसका भी अर्थ करना चाहिए। सो वह तुरन्त कविता बनाती है ‘सर्वस्य द्वे सुमति-कुमति संपदापत्तिहेत्।’ सब जीवों को ये दो बातें, कौन-कौन–सुमति और कुमति ये सम्पदा और आपदा के कारण होती हैं। सुमति तो सम्पदा का हेतु है और कुमति आपदा का हेतु है। ऐसे शिक्षाप्रद उत्तर को सुनकर प्रेत प्रसन्न हुआ और उसे भी कुछ इनाम दे गया। अब तीसरे प्रहर में जगा लड़का। प्रेत आया तो उससे भी प्रश्न करता है ‘वृद्धो यूना’ यह भी व्याकरण का एक सूत्र है। इसे भी शिक्षारूप में लेना है। तो लड़का उत्तर देता है–‘वृद्धो यूना सह परिचयात्त्यज्यते कामिनीभि:’ उसके उत्तर को भी सुनकर वह प्रेत इनाम दे गया। किसी त्री का वृद्ध पुरुष हो तो किसी युवक से स्नेह होने पर कामिनी उस वृद्ध को त्याग देती है। अब चौथे प्रहर में जगी वह बहु। प्रेत उसके पास आया और उससे प्रश्न किया। ‘त्री पुंवत्’ यह भी एक सूत्र है। इसका भी शिक्षारूप में उसने अर्थ लगाया। ‘त्री पुंवत् प्रभवति यदा तद्धि गेहं विनष्टम् ।’ त्री जिस घर में पुरुष की तरह स्वच्छन्द चलाने वाली हो जाती है वह घर नष्ट हो जाता है। प्रेत इस तरह का उत्तर सुनकर उसे भी कुछ इनाम देकर चला गया। सुबह हुआ, चारों के चारों अपने इष्ट स्थान पर पहुँच जाते हैं।
विद्याधन की विशेषता―मनुष्य का धन एक विद्या ऐसा धन है कि जिसको परिवार के लोग बाँट नहीं सकते, डाकू चोर चुरा नहीं सकते, गवर्नमेंण्ट कुछ टैक्स नहीं लगा सकती। पर और सब धन ऐसे हैं कि जिनका कल का भी विश्वास नहीं होता। विद्या ही निर्बाध धन है और उन विद्याओं में आत्मविद्या एक ऐसी विलक्षण विद्या है कि जिसकी होड़ किसी भी अन्य विद्या से नहीं हो सकती। परीक्षा हुआ करती है योग्य पुरुषों की। अयोग्य की परीक्षा क्या ? कष्ट आया करते हैं तपस्वीजन और संयमीजनों पर, असंयमी के लिए कष्ट क्या ? क्या असंयमियों को कष्ट नहीं है ? उनको जब कष्ट आते हैं तब एकदम बेहद ही कष्ट आते हैं, पर जिसे लोग मानते हैं इस मनुष्य जीवन में कष्ट वे कष्ट असंयमियों को नहीं होते। जैसे भूखे प्यासे रहना, ठंड गरमी सहना ये कष्ट असंयमीजनों को कहाँ है ? जब भूख लगे तब खा लें, जो ओढ़ने को दिल चाहा ओढ़ लिया। तो परीक्षा तो संयमी, योग्य पुरुषों की ही हुआ करती है।
प्रगति में ही परीक्षा―यहाँ यह जानना है कि भाई जो आत्मविद्या में रत होते हैं, जिन्हें धर्म से प्रेम होता है, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह जिसको प्रिय हैं ऐसे लोगों की तो आज की दुनिया में कुछ अच्छी दशा नहीं दिखती, उन्हें आपत्ति आती है, कोई विशेष पूछता भी नहीं है, यों लोगों को आशंका रहती है। सो भाई यह तो एक परीक्षा है। ज्ञान हमें कितना प्रिय है, धर्म हमें कितना प्रिय है ? इसकी यह परीक्षा है। हम थोड़े लाभ में आकर धर्म और ज्ञान को खो बैठे, बस यही तो परीक्षा की बात है। इस संसार में कौन मेरा प्रभु है, किसको क्या दिखाना है, किसकी निगाह में हम भले बन जायें हमारा उद्धार हो जाय, ऐसा कोई लाकर खड़ा कर दीजिए फिर उसकी ही हम गुलामी करते रहेंगे। कोई ऐसा दूसरा नहीं है कि जिसको हम अपना समर्पण कर दें, जिसकी हम शरण में जायें तो मुझे दु:ख रहित कर दे। ऐसा दुनिया में कोई दूसरा नहीं है।
अपने परिणामों के संभाल की प्रथम आवश्यकता―भैया ! अपनी ही श्रद्धा, अपना ही ज्ञान, अपना ही आचरण यदि उत्तम रहता है तो समझ लीजिए कि मुझको दु:खी करने वाला कोई दूसरा नहीं हो सकता है। सुखी भी वह स्वयं अपने आपके उत्तम आचरण के प्रसाद से होता है। एक पुस्तक है सुशीला उपन्यास। हमने उसे पढ़ा तो नहीं है पर कहीं थोड़ा प्रकरण देखने में आया कि किसी एक पुरुष से त्री ने कोई दूर्भाव बताया और उसने इस प्रकार बाध्य किया कि यदि तुम इच्छा की पूर्ति न करोगे तो हम देशभर में तुम्हारी बदनामी करेंगी। उस पुरुष का उत्तर सुनिये, वह पुरुष कहता है माँ दुनिया मुझे बुरा जान जाय उससे मेरे में बुरा परिणमन नहीं बनेगा किन्तु मैं ही अपने को जब बुरा जानता रहूँगा, मैं ही अपने ज्ञान में बुरा बना रहूँगा तो उससे मेरा अकल्याण होगा। दुनिया की दृष्टि में मैं बुरा भी कहलाऊँ तो भी मेरा अकल्याण न होगा।
भावनानुसार सोते जागते वृत्ति―आप देखो कि जब कोई पुरुष स्वयं बुरा होता है तो अपनी वृत्ति स्वयं ऐसी बनाता है कि उसकी बुराई सबके आगे स्पष्ट हो जाती है। कोशिश यह करो कि अपने भाव स्वप्न में भी बुरे न हो सकें। जागृत अवस्था की तो बात क्या, क्योंकि जगती हुई अवस्था में यदि हम भले रहते हैं तो सोये हुए में भी भली ही बात आयेंगी। जो अध्यात्म की बात बहुत-बहुत ध्यान में रखते हैं उनको सोते हुए में भी अध्यात्म के ज्ञान के स्वप्न आते हैं। यह बात असम्भव नहीं है, ऐसा होता है, जिसका चित्त तृष्णा में रहता है उसको स्वप्न तृष्णा की बातों के आते हैं। जिसका शुद्ध ज्ञान की चर्चा में उपयोग रहता है उसको स्वप्न में भी शुद्ध ज्ञान का स्मरण होता है।
तृष्णावासित पुरुष का एक स्वप्न―एक पुरुष सोते हुए में स्वप्न देखता है कि वह एक गाँव में गया, तो उस गाँव में ज्वार 1)रुपये की मन भर बिक रही थी और उसके खुद के गाँव में 2)रुपया मन थी। एक रुपया की मन भर ज्वार। ऐसे ही पुराने भाव हुआ करते थे। सो उसने सोचा कि 2 मन ज्वार खरीद लें और गाँव में 20 सेर बेच देंगे और 20 सेर अपने खाने को बच जायेगी, सो 1 मन ज्वार खरीदकर एक बोरे में भरकर सिर पर लादे जा रहा है। स्वप्न की यह बात है। इतने बड़े बोझ को लादे हुए सिर में पीड़ा हो गयी। उसकी गर्दन दुखने लगी। तो उसने सोचा कि अब तो बड़ी मुश्किल है, सो उसमें से आधी ज्वार निकालकर उसने फेंक दीया रास्ते में, अब 20 सेर ज्वार लिए हुए जा रहा है। उतने में भी गर्दन दु:ख गयी। सोचा कि आधी ज्वार और फेंक दें, सो उसने 10 सेर ज्वार और फेंक दी, अब तो 10 सेर ही ज्वार उसके पास रह गई। फिर भी वह 10 सेर ज्वार गर्दन को दु:ख दे रही थी। सो उसमें से 5 सेर और फेंक दी, अब रह गयी 5 सेर, 5 सेर ज्वार से भी दु:ख बंद न हो तो उसने सब ज्वार फेंक दी। अब वह रीता होकर चला। फिर भी गर्दन तो दु:ख ही रही थी। बाद में वह देखता है कि अभी सिर में तो कोई दाना नहीं अटका जो कष्ट दे रहा हो, सो वह अपने सर को भी टटोलता है।
इज्जत और धन की तृष्णा में विडम्बना―जो लोग लोभ करते हैं उनको अन्त में कष्ट ही उठाना पड़ता है। जो अपनी पोजीशन की लालसा रखते हैं उनका भी ऐसा ही हाल होता है। एक कोई बहुत बड़ा पुरुष था, किसी कारण से कुछ घाटा आ गया तो वह अपने घर का गहना गिरवी रखने लगा। वह खुद न गिरवी धरने जाय, सो किसी दूसरे के हाथ से वह गिरवी रखवाया करे। उस बड़े पुरुष के दिन ऐसे आए कि वह जो गहने गिरवी में रख दे उसे उठा न पाये। उसने जितने भी छोटे बड़े आभूषण थे सब गिरवी में रख दिये। जब कुछ न रहा और खपरों के बिकने का नम्बर आया तो अब जब खपरा बेचने लगा तो खपरा अपने हाथ से गिनकर देता है कि कहीं 100 के 105 न चले जायें। सो कहाँ तो बड़े-बड़े गहने आभूषण दूसरों के अपने यहाँ गिरवी रखते थे और कहाँ अब खपरियाँ गिनने लगे। तो जहाँ तृष्णा होती है, चाहे धन की हो चाहे इज्जत की हो, तृष्णा में विवेक काम नहीं देता है।
अज्ञानी पर पर्यायतृष्णा का बड़ा बोझ―अज्ञानीजनों के तो पर्याय की तृष्णा निरंतर रहा करती है, मैं पुष्ट हूँ, मैं दुर्बल बन गया हूँ, मैं सबल बन गया हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं कुरूप हूँ आदिक बातों का तो उसके उपयोग पर बोझा रूप रहा ही करता है। उसके दु:ख का तो ठिकाना ही क्या है ?
सुन्दरता के अर्थ का रहस्य―भैया ! सुन्दर जानते हो किसे कहते हैं ? कहते हैं ना लोग कि यह बड़ा सुन्दर है। सुन्दर में तीन शब्द हैं–सु उन्द् अर। सु तो उपसर्ग है उन्द् धातु है और अर प्रत्यय लगा है। उन्द् धातु का अर्थ है जो क्लेश दे और अर लग गया कृदन्त का प्रत्यय और सु लग गया भली प्रकार। जो अच्छी तरह से क्लेश दे उसका नाम है सुन्दर। जो अत्यन्त कष्ट दे यह है सुन्दर शब्द का अर्थ। मगर मोहीजन आसक्त हैं ना अपनी इष्ट वस्तु में, इसलिए उन्हें सुन्दर शब्द के कहते ही बहुत अच्छा लगता है। वाह-वाह मुझे कहते हैं लोग कि तुम बड़े सुन्दर हो और कहा क्या है कि तुम तड़फा-तड़फाकर बुरी तरह से कष्ट देकर मारने वाले हो, पर लोग खुश-खुश होते हैं कि मुझे बहुत सुन्दर कहा। सो इसका अर्थ ठीक ही है–जो सुन्दर लगता है वह दूसरे के कष्ट के लिए होता है और उसका काम ही क्या है ?
यह जीव अपने को सुन्दर मानता, कुरूप मानता, निर्धन मानता, धनी मानता, अनेक परिणमनोंरूप मानता है। यह इसका अज्ञान इसके समस्त कष्टों का बीज बन गया है। नहीं तो बतलाओ कि किसे क्या कष्ट है ? जरा अपने उस सहजस्वरूप को तको कि मैं तो केवल ज्ञानज्योतिमात्र हूँ, बस यही पर्यायबुद्धि दु:ख देती है।
आगमज्ञान का बल―आप्त आगम और तत्त्वार्थों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। इस प्रसंग में आप्त का लक्षण तो बता चुके थे, इस गाथा में आगम और तत्त्वार्थों का स्वरूप कहा जा रहा है। जो आप्तदेव हैं उनके मुख कमल से निर्गत जो दिव्यध्वनि है उससे जो गणधर देवों ने रचना की है और उसी परम्परा की जो रचना है वह परमागम कहलाता है। यदि परमागम न होता तो आज लोग कहाँ से वस्तुस्वरूप का अवगम कर पाते ? परमागम भव्य जीवों के कर्णों द्वारा पीने योग्य अमृततत्त्व है। मुक्ति का क्या स्वरूप है इसको बताने के लिए यह परमागम दर्पण है। जैसे दर्पण को देखकर बहुत-सी चीजें ज्ञात कर ली जाती हैं, इसी तरह परमागम एक ऐसा आइना है कि जिसके बल पर आप नरक स्वर्ग द्वीप समुद्र सब रचनाएँ ऐसी दृढ़ता से बोलते हैं जैसे मानलो आप वहीं होकर आए हैं।
परमागम की भक्ति से स्पष्ट ज्ञान―कैसे नरकों की रचना अपन बता देते हैं कि पहिला नरक इतना लम्बा चौड़ा है, उसमें इतना पोल है, उसमें ऐसे नारकी रहते हैं और वहाँ तक क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भी पहुँच सकते हैं, फिर उससे कुछ आकाश छोड़कर दूसरा नरक है। कोई दूसरा यदि गलत कह दे तो बीच में टोक देते हैं, अजी ऐसा नहीं है। तीसरे नरक तक असुरकुमार के देव जाकर खूब भिड़ाते हैं कैसी दृढ़ता से सब बातें बताते जाते हैं, जैसे नरक से अभी आ रहे हों और बता रहे हों और स्वर्गों की भी बातें खूब बताते हैं। तो यह परमागम एक ऐसा दर्पण है जिसमें पदार्थ का हम आप परिज्ञान करते हैं।
परमागम में मुक्ति मुखबिम्ब का दर्शन―अथवा यह परमागम मुक्तिरूपी सुन्दरी के मुख को झलकाने वाला दर्पण है। अर्थात् जैसे कोई युवती मुख देखती है दर्पण में तो दर्पण सामने रखती है। देखती है तो दर्पण में भी मुख प्रतिबिम्बित हो जाता है इसी प्रकार आत्मा का पूर्णस्वरूप मोक्ष किस वस्तु का नाम है, वह कहाँ स्थित होता है ? यह सब इस परमागम दर्पण में देखते जाओ। इस परमागम का कितना महोपकार बताएँ ? कितना संसार में क्लेश है, मानो संसाररूपी महान समुद्र की भंवरोंफँसे हुए हम आप जीव हैं, इस जीव को हस्तावलम्बन देने वाला विशुद्ध परमागम है।
परमागम का निर्भ्रान्त हस्तावलम्बन―भैया ! बड़ी-बड़ी कठिन स्थितियाँ आ जाती है। कुछ कठिनाई नहीं आती। कल्पना में बना लेते हैं। जैसे मानलो किसी का कोई इष्ट गुजर गया, तो चिल्लाते, प्राण देते, कैसी भयंकर स्थिति है इस संसार में ? है नहीं कष्ट कुछ भी पर सब कल्पना से कष्ट बना लिए जाते हैं। तो ऐसे महान् उपद्रवों में भी अगर कोई शुद्ध हस्तावलम्बन देने वाला है तो यह परमागम है। और आज के जमाने में जबकि कुछ समय का ऐसा फेर है कि गुरुजन भी ऐसे नहीं मिलते कि जिनके वचनों का तुरन्त विश्वास किया जा सके। ये ठीक कहते हैं, ये जानते हैं, ये निर्दोष बात बोलेंगे–ऐसा विश्वास नहीं बैठ पाता। कठिन है गुरुजनों का मिलना। गुरुओं के नाम पर बहुत मिलते हैं पर उनके वचनों का पूर्ण विश्वास हो सके, ऐसी बात आज बहुत कठिन है। कोई किसी को गलत बताता है, कोई पूर्वाचार्यों की ही गलती बताने लगते हैं, कोई अपने मनगढ़ते सिद्धान्त रचने लगता है। कोई ऐसी बात लिख देते हैं जो शात्रों में नहीं मिलती ताकि लोगों पर प्रभाव पड़े। अब कहाँ विश्वास करें ? ऐसे संदेह वाले वातावरण में यदि कोई हस्तावलम्बन की चीज है तो यही है परमागम।
परमागम का एकमात्र शरण―आचार्यों के वचन झूठे न निकलेंगे, वे धोखा न देंगे, उनका अर्थ समझ लो, श्रद्धान करो। तो आज जैसे समय में जहाँ धर्म के ह्रास का समय आ रहा है तो यह परमागम ही एक हस्तावलम्बन है। हमारा कल्याण कैसे हो, ऐसा किसी की ओर से प्रश्न आये कि इसका उपाय तो बताओ। तो आप क्या उपाय बताएंगे ? इसका सीधा एक ही उपाय है कि खूब स्वाध्याय करो, ज्ञानार्जन करो तो परमागम का शरण हम आप सबके लिए महान् हस्तावलम्बन है।
बोध बिना वैराग्य की विडम्बना―यह परमागम वैराग्य महल के शिखर का शिखामणि है। परमागम का बोध न हो तो वैराग्य भी अटपट रहता है। सिलसिलेवार ढंग से फिट बैठता ही नहीं है।
बोध बिना वैराग्य की विडम्बना का एक उदाहरण―एक भाई जी थे। सागर की बात है। सो उनका यह नियम था कि हरीसाग न छौंकना, हरी साग छौंकने का त्याग था। चक्कू से तो काट लें, पर पतेली में न छौंकने का नियम था और एक दिन खाना व एक दिन न खाना, यह दूसरा नियम था। सो जिस दिन खाने की बारी आए उस दिन सारा दिन लग जाता था। एक दिन दोपहर के 10, 11 बजे से सागभाजी बनाकर बैठे हुए सोच रहे हैं कि कोई आए तो छौंकवा लें क्योंकि उनके छौंकने का त्याग था। इतने में बड़े वर्णी जी पहुँचे। उस समय वे ब्रह्मचारी ही थे। तो भाई जी बोले अरे पंडित जी तनिक हमारा साग छौंक दो। कहा कि तुम काहे नहीं छौंकते ? भाई जी ने कहा कि हमारा छौंकने का त्याग है। तो वर्णीजी बोले कि, हम छौंक तो देंगे पर यह कह देंगे कि इसमें जो पाप लगे वह भाई जी को लगे। कहा वाह वाह फिर छौंका ही क्या ? तो बहुत मनाया सो पंडितजी साग छौंकने लगे, परन्तु छौंकते हुए वर्णीजी ने कह ही दिया कि इसका पाप भाई साहब को लगे। सो भाई जी उचक कर खड़े हो गए। बोले–वाह जी तुमने तो हमारा नियम तोड़ दिया। अरे परिणाम में आया सो वह तो छौंके की ही तरह हो गया।
परमागम की सेवा का प्रयोजन―भैया ! बिना ज्ञान के वैराग्य की विडम्बना बता रहे हैं। और आगे आप देखते जाओ दसों जगह ऐसी बात मिलेगी बिना ज्ञान के वैराग्य की विडम्बना की। तो यह परमागम वैराग्य रूपी महल के शिखर पर शिखामणि की तरह है। परमागम पढ़ने का प्रयोजन है कषायों को मिटाना। जैसे एक दोहे में कहते हैं कि ‘धन को पाय दान नहीं दीन्हा, आगम पढ़ नहीं मिटी कषाय। काय पाय के व्रत नहीं कीन्हा, कहा किया नरभव में आय।’ तो परमागम के अभ्यास का प्रयोजन है कषाय का मिटना। यह कषाय कैसा है ? बुढ़िया, जवान, बच्चे, बूढ़े सभी में यह कषाय भरा हुआ है। इस कषाय के मिटाने का मूल उपाय है ज्ञान। और ज्ञान में ज्ञान है वह जहाँ वस्तु की स्वतंत्रता का भान हो, और उस ज्ञान में भी ज्ञान है वह जहाँ ज्ञान ज्ञान को ही जानने में लगा हो। और बाकी तो सब अज्ञान के खेल हैं।
अज्ञान के खेल―बड़े रईस लोग अपने बांस बल्ला का खेल खेलें, बौल उचकाने में लग जायें और जो गरीब आदमी हैं वे कबड्डी ही खेल लेंगे। मगर हैं तो वे दोनों खेल ही। पुण्यवान् हो तो और तरह खेल खेले, पापवान् हो तो और तरह खेल खेले, पर हैं तो सब अज्ञान के खेल। इस परमागम की महत्ता बतायी जा रही है। जिसकी ओर आज सामूहिक रूप में समाज की दृष्टि नहीं है और धर्म के नाम पर ईंट महल पत्थर बड़े से बड़े खड़े कर देंगे। धर्म के नाम पर बाजे वगैरह बजवायेंगे पर पूछो कि इस समारोह में तुम्हारे 5 लाख रुपय लगे हैं तो परमागम की सेवा में क्या 5 हजार भी खर्च नहीं कर सकते ? 5 हजार तो जाने दो, 500 का भी अनुपात नहीं मिलता। और कहीं तो 5) भी खर्च नहीं होते तो इसकी क्या वजह है कि जब आज सभी के सिद्धान्त देश विदेश में भारी पैमाने पर और अच्छे ढंग में दर्शकों के हाथ में पहुँच रहे हैं और तुम्हारे क्या हाल है ? सो जरा पढ़े लिखे पुरुषों से जाकर पूछो कि आपके सिद्धान्त का कोई संचार है ?
मुक्तिमंदिर का प्रथम सोपान परमागम―उस परमागम की बात कही जा रही है जिसकी सेवा बड़े-बड़े आचार्यों ने अपनी जीवन भर की बड़ी तपस्याओं के अनुभव करके जिन्होंने ऐसा लिख दिया कि आपको बना बनाया भोजन तैयार है, फिर भी इसकी ओर दृष्टि कम है। यह परमागम निर्दोष मोक्ष महल की पहिली सीढ़ी है। जैसे सीढ़ी पर चढ़े बिना महल में नहीं पहुँच सकते इसी प्रकार यदि मोक्ष महल में पहुँचना है तो सबसे पहिली सीढ़ी परमागम का अभ्यास है। सब बातें यहाँ से शुरू होती हैं। परमागम के अभ्यास बिना आगे धर्म में प्रगति नहीं होती।
रागसंताप शान्ति में परमागम का योग―यह परमागम अशुभ राग आग के अंगारों से जलते हुए जीव को मेघ का काम करने वाला है। वन में आग लग जाय तो वहाँ बाल्टियों से काम न चलेगा, वहाँ म्यूनिसिपैलिटी के औजारों से काम न चलेगा, वहाँ तो मेघ ही बरष जायें तो आग बुझ सकती है और दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसी प्रकार कामवासना आदिक अशुभ परिणामों से उत्पन्न हुए अप्रशस्त राग के अंगारों द्वारा पच रहा जो यह जीवलोक है, इसके इस राग संताप को मिटाने में समर्थ यह परमागमरूप मेघ है। इस परमागम के अभ्यास द्वारा ज्ञान बरष जाय तो ये क्लेश दूर हो सकते हैं। ऐसे इस परमागम के द्वारा कहे गये जो तत्त्व हैं उन्हें कहते हैं तत्त्वार्थ।
तत्त्वार्थ के अवगम का लक्ष्य―तत्त्व कितने हैं जिनके जानने से सम्यग्ज्ञान की दिशा मिलती है। वे तत्त्व 3 हैं, वे तत्त्व 6 हैं, 7 हैं, 9 हैं, किन्हीं भेदों के सहारे आत्मतत्त्व का सहजस्वभाव पहिचाना जाता है और सर्वपरिज्ञानों का मर्म एक ही है कि अपने सहजस्वभाव का परिचय हो जाय। तीन तत्त्व हैं, बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा। उन्हीं का ही विश्लेषण करते जाइए सब बातें आ जायेंगी, 7 तत्त्व, 9 पदार्थ सब उसमें गर्भित हो जायेंगे अथवा 6 द्रव्य –जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इनका वर्णन जानिये, प्रयोजनभूत सहजस्वभाव का मर्म आ जायेगा। 7 तत्त्वों का श्रद्धान तो बताया ही गया है और पुण्यपाप सहित 9 पदार्थ होते हैं। ये ही तत्त्वार्थ कहे गए हैं।
आवश्यक व्यवहार श्रद्धान―जैसा जो पदार्थ है, न उससे कम, न ज्यादा, न विपरीत, जैसा है तैसा नि:संदेह जानना यही है तत्त्वार्थ का परिज्ञान। सो आप्त आगम और तत्त्वार्थ के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है। यह बात यहाँ बतायी जा रही है। किन्हीं शात्रों में देव, शात्र, गुरु के श्रद्धान की बात कही गयी है। उससे और इससे विरोध कुछ नहीं है। आप्त में देव आ जाते हैं और गुरु आंशिक आप्त गुरु हैं और सर्वदेश देव आप्त सर्वज्ञदेव हैं। शात्र में आगम और तत्त्वार्थ ये दोनों गर्भित किए जाते हैं। वाचक और वाच्य। शात्र वाचकरूपता की प्रमुखता से वाच्य रूप शात्र में तत्वार्थ आया, यों आप्त आगम और तत्त्वार्थ का श्रद्धान करना, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है।
परमागम की वास्तविक भक्ति―कैसा है यह परमागम अथवा यह श्रुत ज्ञान जो परमागम निर्वाण के कारण का कारण है, मोक्ष का कारण है रत्नत्रय और रत्नत्रय के पाने का कारण है परमागम। यदि यह वीर वाणी का प्रकाश न होता तो कहाँ ये जीव शांति पाया करते ? कहाँ यह निर्वाण का मार्ग पाते ? यह परमागम सदा योगी पुरुषों के द्वारा वंदनीय है और परमागम की वास्तविक वंदना तो उसमें लिखे हुए अर्थ का मनन करने में है और उस मनन द्वारा ऐसी प्रसन्नता पाये कि उस पर गद्गद् होकर परमोपकार सूचक अनुराग जगे। तो यही है परमागम की वास्तविक भक्ति और केवल शात्र को उठाया, दो लकीर पढ़ा, चल दिया, यह परमागम की भक्ति नहीं है।
स्वाध्याय की निरुद्देश्य रुढ़ि से शात्र की आफत―यदि किसी मंदिर में बिना जिल्द का बिना सिया हुआ शात्र हो तो उसकी तो आफत आ जाती है। एक महिला उस शात्र को धरे स्वाध्याय कर रही हो तो एक ने तो नीचे से पन्ना निकाल कर पढ़ लिया, किसी ने बीच में से एक पन्ना निकालकर पढ़ लिया। खुले शात्र की बात कह रहे हैं। तब उस शात्र में पृष्ठ नम्बर भी क्रम से नहीं रह पाते हैं। और वे शात्र इसीलिए हैं कि अनेक पुरुष एक शात्र का एक साथ स्वाध्याय करलें। तो यह परमागम की सेवा नहीं है। विधिवत् पढ़ो, विद्यार्थी बनकर पढ़ो।
विद्यार्थी बनने में जो वैभव भरा है उसको विद्यार्थी ही जान सकते हैं। थोड़ी देर को मान लो यहाँ क्लास लगाते होते और बूढ़े, जवान, बच्चे सभी अपना-अपना बस्ता ले आते, अपनी-अपनी पोथी दबाकर आते, कलम, कागज, पेंसिल लेकर आते और चलते कि अब पढ़ने जा रहे हैं तो चाहे कैसे ही बूढ़े हों पर एक बार तो बालकपना झलक ही जायेगा। बालक की विशेषता है निर्विकारता और कषाय की मंदता। यदि अवस्था के प्रतिकूल हो तो भी ये गुण कुछ उस क्षण आ जायेंगे। विद्यार्थी बनकर किसी गुरु के समक्ष पढ़ो तो क्रोध कषाय का तो काम रहेगा नहीं क्योंकि विनयपूर्वक अध्ययन करना बताया गया है। मान नहीं है, मायाचार नहीं है, लोभ तृष्णा का ध्यान नहीं है, एक ही लक्ष्य है कि मुझे पढ़ना है।
भावपूर्वक विद्यार्थी के बाने का असर―जैसे आजादी का सूत्र निकल गया था कि चर्खा चलाओ। तो क्या चर्खा चलाने से आजादी मिल जायेगी ? अरे चर्खे की कमाई से आजादी नहीं मिलती, पर चर्खा जो चलायेगा रईस हो, बाबू हो उसके अन्दर से रईसी की ऐंठ तो गायब ही हो जायेगी और एक अनुभव होगा जनता की तरफ का, गरीबों की तरफ का। ऐसी स्थिति में लोगों की बुद्धि बढ़ेगी और अक्ल ठिकाने आयेगी। फिर उससे जो योजना बन गयी उसने आजादी दिलायी। चर्खे ने सीधी आजादी नहीं दिलायी। इसी तरह यह पढ़ने का जीवन है। कितनी ही उम्र हो जाय यदि यह भाव आ गया कि अब हमें पढ़ने जाना है तो पोथी लेकर चलें, बस्ता बाँधकर चलें, एक दो साथी भी जा रहे हैं। तो जो बचपन की खेलकूद बहुत दिनों से भूल चूके हैं उसकी कला थोड़ी तो आ ही जायेगी। निर्विकारता और मंद कषायता तो कुछ हो ही जायेगी और फिर विनयपूर्वक क्रम से अध्ययन करने में जो मार्ग मिलता है उस मार्ग से फिर शांति के पाने में उसे संदेह नहीं रहता।
तत्त्वार्थपरिज्ञान से लाभ―इस प्रकार आगम और आगम के द्वारा कहे गए तत्त्वार्थ का वर्णन इस गाथा में किया गया है और तत्त्वार्थों में तीन तत्त्व, 7 तत्त्व और 9 पदार्थ के रूप से प्रयोजनभूत बातें सब बतायी गयी हैं। यही सब तत्त्वभूत 6 पदार्थों का वर्णन इस गाथा में आया है। जिस किसी भी प्रकार यह ज्ञान में आ जाय कि मेरा परमाणुमात्र भी नहीं है, बस ज्ञान का फल पा लिया और जब तक यह समझ नहीं बैठती है तब तक समझो कि विद्या और ज्ञान उतनी ही कीमत रख रहा है जितनी कि धन और वैभव। धन वैभव से जैसे हम लोग पोजीशन बढ़ाते हैं, इसी तरह इस शब्द की विद्या से भी अपनी पोजीशन बढ़ाते हैं। इससे अधिक अपने आपमें मौलिक कोई लाभ होता हो सो नहीं हो पाता है।
भगवती प्रज्ञा का बल प्रदान―भैया ! करने के लिए बात तो सीधी है, कहते हुए तो बात सुगम है पर अज्ञान में यह बात कठिन क्या असम्भव है। परिग्रह के संग में ममता के रंग में तेज रंगा हो उसको यह बुद्धि कहाँ से आये कि जरा अपने ज्ञानस्वरूप की दृष्टि करके कुछ अपना बल तो बढ़ा लें। कितनी ही परेशानियाँ हों और ऐसी कठिन परेशानियाँ हों जिनसे पिण्ड छुड़ाना कठिन हो, फिर भी इस भगवती प्रज्ञा के प्रसाद से इस ज्ञानभावना के प्रसाद से बीच-बीच में ऐसा बल प्राप्त होता है कि वे परेशानियाँ महसूस नहीं होतीं। जैसे किसी की कोई चीज नष्ट हो गयी हो तो उसे समझाते हैं अपना क्या है ? क्यों रोते हो ? तो समझाने पर क्षणिक शांति की बात मन में आती है। समझाने वाले हटे कि वे ही परेशानियाँ फिर आ गयीं, फिर समझाने वाले मिले कि वे ही परेशानियाँ फिर कम हो गयीं। इसी प्रकार जैसे ही ज्ञानभावना जगी कि संकट कम हो जाते हैं, और फिर ज्ञानभावना शिथिल हुई कि संकट फिर बढ़ जाते हैं। तो संकटों के मिटाने का उपाय एक ज्ञानभावना ही है।
तत्त्वार्थ 6 होते हैं, उनका वर्णन अब इस 9वीं गाथा में कहा जा रहा है।