वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 3
From जैनकोष
साचारश्रुतजलधीन् प्रतीर्य शुद्धोरुचरणनिरतानाम् ।
आचार्याणां पदयुगकमलानिंदधे शिरसि मेऽहम् ।।3।।
आचार्य परमेष्ठी की भक्ति―पंच परमगुरुवों में अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु माने गए हैं । अरहंत और सिद्ध तो परम महागुरु हैं, वे भगवान हैं । जो वीतराग सर्वज्ञ हुए, अपने अनंत आनंद में लीन हुए ऐसे अरहंत और सिद्ध का वर्णन करने के बाद आचार्य परमेष्ठी का वर्णन करते हैं । जो आचारांग आदिक श्रुतजलधि को तैरकर शुद्ध आचरण में निहित हुए हैं वे आचार्य हैं, और ऐसे आचार्य के चरणकमलों को अपने मस्तक पर मैं धारण करता हूँ । मुख्यतया पद तीन हैं―साधु, अरहंत और सिद्ध । इसी कारण चत्तारिदंडक में चार मंगल लोकोत्तम ओर शरणभूत माने हैं―अरहंत, सिद्ध, साधु और धर्म । अरहंत, सिद्ध, साधु ये तीन तो व्यवहार से मंगल, उत्तम और शरणभूत माने हैं, धर्म निश्चय से मंगल, उत्तम और शरण है । इसका अर्थ इतना ही है कि वे भिन्न द्रव्य हैं । उन भिन्न आत्माओं की भक्ति सेवा और यहाँ तक कि रागद्वेष मोहादिक कुछ भी व्यवहार की बातें करें तो वह सब व्यवहारकथन होता है । प्रभु की भक्ति करने में जो आत्मा में प्रभु के गुणों का स्मरण, गुणों की दृष्टि, गुणों की उपासना रूप जो परिणाम होता है वह परिणाम वस्तुत: शरण है, मंगल है, उत्तम है और उस परिणाम के जो विषय है ऐसे प्रभु उनकी भक्ति उपासना आदिक का जो शरण है वह व्यवहारकथन है । भिन्न द्रव्य है इसलिए व्यवहार बताया है, पर हमारे जो निश्चयरूप भक्ति के परिणाम हुए उनमें भी आश्रय होते हैं, उनका वह विषय है, इसलिए दृष्टि उन पर है, पर तत्त्वस्वरूप की बात कह रहे हैं कि निश्चय से यह आत्मा क्या कर पाता और उसे व्यवहार में हम क्या कहते हैं?
वस्तुस्वातंत्र्य की दृष्टि का प्रसाद―निमित्त उपादान की बात में इतना तो निश्चित है कि एक कोई भी द्रव्य अपने गुण, अपनी पर्याय, अपने प्रदेश कुछ भी अपने से बाहर निकाल कर दूसरे में नहीं डालते । यह तो एक वस्तु का स्वरूप है? अकाट्य नियम है । जैसे आप यह बताओ कि जो यहाँ पर प्रकाश दिख रहा है क्या वह बिजली का प्रकाश है? निश्चय से तो यह सब इस बिजली का प्रकाश नहीं है, क्योंकि दीपक को अब कितना बड़ा मानते हैं? जितना यह बिजली का डंडा है उतना बड़ा दीपक आप मानते हैं या जितना प्रकाश इस सारे कमरे में फैला है उतना बड़ा आप दीपक मानते हैं? अरे यह दीपक तो उतना का उतना ही है लेकिन उसका निमित्त पाकर ये चौकी, तख्त आदि प्रकाशित हो गए । तो एक दूसरे में कुछ न कर सका इस दृष्टि से तो वह बात सदा अकाट्य है । वस्तुवों का स्वातंत्र्य है, लेकिन यह बात जो दिख रही है कि दीपक का निमित्त पाकर यह पदार्थ अपनी अंधकार अवस्था को छोड़कर स्वयं प्रकाश अवस्था में आया, ऐसी जो निमित्त-नैमित्तिक योग की बात है उसे तो कोई मिटा नही सकता। और मेटे कोई तो उसे तुरंत दिखा सकते । बटन बंद किया तो तुरंत अंधकार, बटन खोला तो तुरंत उजेला हो गया । तो ऐसा निमित्तनैमित्तिक योग है लेकिन प्रत्येक पदार्थ अपने अपने ही स्वरूप में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य करते हैं । यह अकाट्य नियम है । तो निमित्तनैमित्तिक भाव होते हुए भी वस्तु में अपने-अपने परिणमन से परिणमने का स्वातंत्रय सदैव हैं । निमित्तनैमित्तिक का संबंध तो विकार अवस्था में है, अत: उसकी चर्चा यहाँ नहीं है । इस निमित्त उपादान की चर्चा में प्रयोजन यह निकालते हैं कि मैं सहजज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ, पर इस प्रयोजन को निकालने वाले बिरले ही लोग हैं और केवल एक चर्चा विस्तार करने की रुचि वाले लोग अधिक होते हैं । कोई भी कथन ऐसा नहीं है कि जिस कथन से हम निज आत्मस्वरूप में दृष्टि न ला सके ।
नयों से आत्मपरिचय की उद्देश्यपूरकता―नय इस क्षेत्र में मुख्यतया 4 प्रकार के हैं―अशुद्धनिश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, परमशुद्धनिश्चयनय और व्यवहारनय । निश्चयनय उसे कहते हैं जहाँ एक ही वस्तु का धर्म उस ही वस्तु में जाना जाय, परखा जाय, दूसरी वस्तु का संबंध मानकर, संपर्क देखकर दूसरी वस्तु का कुछ भी ख्याल करके जो बात कही जाती है वह व्यवहार है । केवल में केवल को बात निरखने को निश्चयनय कहते हैं । अब केवल में केवल की बात देख लिया । देखो―मलिन प्रयोजन में तो अशुद्ध निश्चयनय है, शुद्ध प्रयोजन में शुद्ध निश्चयनय है, और केवल स्वभावमात्र को देखा तो वहाँ परमशुद्ध निश्चयनय है । जब दो का संबंध निरखकर बात की जाती है तो वह व्यवहारनय है । अशुद्ध निश्चयनय का उदाहरण है कि जो जीव रागी है, उसमें अपने आप में अपने रागपरिणमन से राग हुआ है । बात ऐसी है । जैसे दर्पण के सामने कोई बालक खड़ा हो जाय तो दर्पण में बालक का प्रतिबिंब आया । तो वह प्रतिबिंब दर्पण में दर्पण का है । उस बालक के शरीर से निकलकर वह प्रतिबिंब आया हो, ऐसा नही है । उस दर्पण में उस बालक जैसा ही वह प्रतिबिंब है । इतने पर भी वह प्रतिबिंब दर्पण का है । हां दर्पण में जो उस बालक का प्रतिबिंब आया है वह उस बालक का सन्निधान निमित्त पाकर हुआ है । इस प्रकार का निमित्तनैमित्तिक योग होने पर भी बालक का उत्पाद-व्यय ध्रौव्य बालक में है ओर दर्पण का उत्पाद-व्यय ध्रौव्य दर्पण में है । उस बालक का जो भी परिणमन हुआ वह दर्पण में आया हुआ नहीं है । अब अशुद्धनिश्चयनय के वर्णन में मैं ज्ञानमात्र हूँ, सहजज्ञानस्वरूप हूँ, इस प्रकार की दृष्टि करने की गुंजाइश कैसे बने?
एकार्थदृष्टि का प्रताप―अथवा एक दृष्टि को यों समझिये कि जैसे हम दर्पण को देख रहे हैं, मगर पीछे खडे हुए बहुत से बालकों के प्रतिबिंब दर्पण में आ रहे हैं । वे बालक हाथ पैर चलाने आदिक की जो भी क्रियायें करते हैं वे सब क्रियायें हमें दर्पण में दिख रही हैं, तो उस स्थिति में दर्पण की ही सारी बातें हमें दर्पण में दिख रही हैं । उस समय हम जैसा प्रतिबिंब वाला दर्पण निरखते हैं वह एक अशुद्ध निश्चयनय का दृष्टांत है । ऐसे ही यह आत्मा इस शरीर में रुका है । तो शरीर का परिणमन शरीर में हो रहा, आत्मा का परिणमन आत्मा में हो रहा । वहाँ एक दूसरे के परिणमन में कोई मेल नहीं है, मिलावट नहीं है । यह आत्मा अकेला ही रागादिक विकाररूप हुआ है । तो इस दृष्टि में जब निमित्त को देखने की दृष्टि ही नहीं, संकल्प ही नहीं, भाव ही नहीं और देख रहे केवल एक द्रव्य को तो यद्यपि वर्तमान में आत्मा विकाररूप परिणम रहा है, लेकिन उस आत्मा में एक ऐसा प्रताप पैदा हो सकता है कि वह विकार परिणाम से ओझल होकर एक स्वभावदृष्टि की बात हो पड़ेगी और वहाँ यह आत्मा इस अनुभव में आ सकेगा कि यह ज्ञानमात्र है । आखिर जैसे दर्पण में विकृत रूप में परिणमते हुए प्रतिबिंब को देखकर हमें यह बोध रहता हैं कि यह प्रतिबिंब जो विकृत परिणमन रूप दिख रहा है यह इस दर्पण का नहीं है, दर्पण तो बिल्कुल स्वच्छ है । इसी प्रकार इस आत्मा के परिचयी पुरुष को आत्मा में रागादिक विकार निरखने पर भी उसकी दृष्टि में यह बात आ जाती है कि ये रागादिक विकार इस आत्मा के नहीं हैं, आत्मा तो शुद्ध सहज ज्ञानमात्र है, इसमें विकार नहीं है । शुद्ध निश्चय से जब देखा तो आत्मा केवल ज्ञानी है, आत्मा सर्वज्ञ है । केवल में केवल की बात देखें, शुद्धपर्याय की बात देखें तो शुद्ध पर्याय का और स्वभाव का तो वैसा ही मेल है और स्वभाव का विशुद्ध पर्याय का, स्वभाव का शीघ्र परिचय होता है तो वहां भी पर्याय से दृष्टि हटाने का अवसर आयगा और एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप आनंदस्वरूप अनुभूति में रह सकेगा, ऐसी गुंजाइश है परमशुद्ध निश्चयनय में । तो पदार्थ को एक उसके स्वभावरूप से तका जा रहा है । पर्याय को गौण किया जा रहा है । आत्मा का अनादि अनंत शाश्वत स्वभाव निरखा जा रहा है । तो वहाँ तो कल्याण की बात सीधी ही है ।
व्यवहारदृष्टि की पद्धति में भी सहजस्वभाव के दर्शन का उद्देश्य―अब व्यवहार की बात देखिये कि व्यवहार का दर्शन, व्यवहार की चर्या में भी आत्मा को एक सहज ज्ञानस्वरूप में ले जाना किस तरह कारण बनता है? दर्पण में जैसे बालकों का प्रतिबिंब आया है तो व्यवहारनय से यह भी कहा जाता कि यह प्रतिबिंब बालकों का है । व्यवहार में यह भी कहा जायगा कि बालकों का निमित्त पाकर यह प्रतिबिंब रूप हुआ है । तो जहाँ यह सीधा कहा जाता कि यह प्रतिबिंब बालकों का है, वहाँ यही भाव है कि बालकों का निमित्त पाकर दर्पण इस प्रतिबिंबरूप हुआ है, इस पर विचार करें । यह प्रतिबिंब निमित्त पाकर हुआ । इसमें यह बल मिला कि दर्पण का यह स्वरूप नहीं है, वह नैमित्तिक चीज है । इतना भर समझने से स्वभाव दर्शन के बल से कषाय भावों से यह जीव शीघ्र ही विमुख हो जाता है । प्रतिबिंब दर्पण का नहीं, किंतु नैमित्तिक है, निमित्त पाकर हुआ है । किन्हीं भी शब्दों में कहो भ्रम के लिए नहीं होते जिनको वस्तुस्वरूप का परिचय हुआ है । स्तुति में भी बोला जाता कि हे प्रभो ! तुम ही भवोदधि से तारनहार हो, हमें संसार से मुक्त होने में तुम ही निमित्त हो । उन शब्दों का अर्थ तो तुरंत ही भक्त जान जाता है कि जो प्रभु की उपासना करता है, उसके परिणाम स्वयं ही विशुद्धि की ओर बढ़ते हैं, तो उसके इस विशुद्ध परिणमे हुए रूप में वे प्रभु आश्रय हैं । भक्ति के समय में अगर कोई उन शब्दों का अर्थ न समझे तो वहाँ भक्ति नहीं बन सकती । तो जहाँ यह समझा कि दर्पण में यह प्रतिबिंब निमित्त है, निमित्त पाकर हुआ है तो दर्पण की निजी स्वच्छता की दृष्टि उसके तुरंत हो जाती है । यह दर्पण में मूलत: एक स्वच्छता है । स्वच्छतामात्र दर्पण है । दर्पण में जो विकृत परिणमन दिखा वह तो एक नैमित्तिक चीज है । यह तो निरुपाधि स्वभाव है । तो निमित्त के इस वर्णन में स्वभावदृष्टि के लिए कितना बल मिला, उसे इसका उपयोग कर लेना चाहिए ।
आगमवचनों की अंतस्तत्त्वपरिचय में उपयोगिता―निश्चयनय के कथन से भी स्वभावदृष्टि का उपयोग लेना, व्यवहार के कथन से भी स्वभावदृष्टि का उपयोग लेना, एक स्वभावदृष्टि के प्रयोजन के लिए है ज्ञान और इसी कारण जयसेनाचार्य ने इसे निश्चयत: कहा है । जीव से रागादिक भाव हैं, वे परमार्थ से पौद्गलिक हैं, इतना जो व्यवहार कथन जोर वाला दिया गया है उसका नाच देखना चाहिए । ये रागादिक विकार पुद्गल परिणाम से निष्पन्न होने के कारण कुंदकुंदाचार्य के कथन में भी ये सब पौद्गलिक भाव हैं । परिणमन जीव का है, लेकिन स्वभावभक्ति में स्वभाव निर्लेप स्वभाव स्वरक्षित देखने के लिए आत्मा का जो रागादिक परिणमन है वह चूँकि स्वभाव से तो नहीं हुआ है । रागादिक करने का स्वभाव तो आत्मा का नहीं है, वह विकारपरिणमन है । उस विकार परिणमन को निमित्त के साथ जोड़ करके यह नैमित्तिक है, पौद्गलिक है, बाहरी चीज है, आत्मा की वस्तु नहीं । तो यह व्यवहाररूप स्वभावभक्ति में परमार्थ का रूप परखा गया । किसी कथन से हम तत्त्व की बात जाने, यह तो युक्त है और किसी कथन से घबड़ायें, उस कथन को पसंद ही न करें तो यह जितना वर्णन है शास्त्रों में क्या वह सब व्यर्थ का है? इन सब वर्णनों में हम स्वभावदर्शन का प्रयोजन पा सकते हैं । लोक का 343 घनराजूप्रमाण विस्तार बताया है । यह सब रचना भी हमें स्वभावदर्शन के लिए प्रेरणा करती है । स्वभावदर्शन के बिना जीव लोक में, इतने बड़े लोक में प्रदेश-प्रदेश पर अनंत बार जन्म मरण कर चुके । इसी बात का ख्याल दिलाने के लिए ही तो लोक का वर्णन है, जीव के शरीर की अवगाहना का वर्णन है । उस अवगाहना के वर्णन से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि अपने आत्मा के सहजस्वरूप का परिचय पाये बिना यह जीव ऐसे-ऐसे देहों में बँधा फिरता है । स्वभावदृष्टि का प्रयोजन अगर हम रखते हैं शास्त्रों के कथन में तो हम अपना भला करते हैं ।
आचार्य की प्रभुता―उक्त प्रकार के समस्त कथन जो श्रुत में किए गए हैं इन सब कथनों पर, इन सब रहस्यों पर जिनका भली प्रकार अधिकार है, ऐसे गुरुराज ही आचार्य परमेष्ठी होते है । जैसे कि लोग मान जाते हैं कि कोई भी साधु हो, जिसको चार आदमियों ने कह दिया, या जिसको चार आदमियों के बीच अपना गुरु कह दिया उसे लोग आचार्य कहने लगते हैं, और लोग समझते हैं कि आचार्य होने के लिए ज्ञान की क्या जरूरत? तपश्चरण खुद करें, दूसरों से करवाये, यह आचार्य का काम है । अगर शिष्यों से कोई अपराध हो जाय तो उन्हें उचित दंड दें और उसके लिए जितने ज्ञान की जरूरत है उतना ज्ञान सीख ले । वे आचार्य हैं, ऐसा लोग मान लेते हैं, पर ऐसी बात नहीं है । उनके नीचे जो उपाध्याय रहता है उस उपाध्याय को कुछ विशेष ज्ञान होता है । आचार्य में तो उपाध्याय से बढ़कर विशेषता होनी चाहिए तब आचार्यत्व हो । तो आचार्य में प्रयोगात्मक रूप से विशेषता होती है । आचार्य के असल में मूल गुण 8 बताये गए हैं । जो 36 मूल गुणों की बात आचार्यों में बतायी गई है वे मूल गुण तो साधुवों में भी पाये जाते हैं, आचार्य में भी पाये जाते हैं । जैसे तप है, धर्म है, 5 आचार हैं―ज्ञानाचार आदिक । यह सब एक सामान्य बात है । इसकी विशेषता है इस कारण इन 36 को भी मूल गुण कह दिया है, पर आचार्य में मूल गुण 8 हैं । प्रथम है―आचारी । जो पंचाचारों का स्वयं निर्दोष पालन करते हैं, दूसरों से पालन कराते हैं वह है एक आचारगुण । इसमें जो ज्ञानावरण नाम का भेद है उससे यह सिद्ध है कि आचार्य में स्वयं इतना विशिष्ट ज्ञान होता है कि जिस ज्ञान से प्रभावित होकर उपाध्याय भी उनके आदेश में अनुवर्ती रहता है और कभी धर्म में विघ्न होता हो, हम आप कभी विचलित होते हों, किसी धर्मप्रसंग में या कोई दूसरे विवाद के लिए उपस्थित होते हों, वहाँ कोई चिंता आ गयो हो तो एक आचार्य है, ऐसा नाम जानकर चिंतायें सब छूट जानी चाहिएँ । अब क्या परवाह? हमारे आचार्य तो ये विद्यमान हैं । ऐसी बात तब आ सकती जब आचार्य में योग्यता भी हो । आचार्य प्रखर विद्वान हो, प्रखर व्यवहार का ज्ञाता हो, तत्त्वमर्म का ज्ञाता हो, ऐसे आचार्य के रहते हुए धर्ममार्ग में उपासक को क्या चिंता? इतनी श्रेष्ठता होती है और इसी बात को दूसरे मूल गुण में बतला रहे हैं―आचारवान, जितना श्रुतज्ञान है, रहस्य है, तत्त्वबोध हो, उस सबके वे आधार हैं, इस ही छंद में यह बतलाया जा रहा कि आगम समुद्र को उत्तीर्ण करके आचरण के पालन में जो निरत है ऐसे आचार्यों की मैं वंदना करता हूँ ।
आचार्य का शरण्यत्व―आचार्य का दूसरा मूल गुण हुए आधारवान, जिससे यह प्रमाणित है कि आचार्य परमेष्ठी इतने ऊँचे तत्त्वज्ञान के ज्ञाता होते हैं । वस्तुस्वातंत्रय, निमित्त उपादान आदिक की कथनी और इनके ज्ञान की बात तो यह सब आचार्य परमेष्ठियों को सुपरिचित होती है और सभी जीवों को उनसे निसंदेहता मिलती है । तो जो श्रुतजलधि को उत्तीर्ण करके शुद्ध व्यवहार आचरण में लीन हुए हैं वे कहलाते हैं आचार्य ।
आचार्य परमेष्ठी का इतना दृढ़तम वैराग्य होता है कि साधुवों का शिक्षा दीक्षा आदिक का कार्य करते हुए भी वे उस सबसे इतना निवृत्त और अपने आपके आश्रय में इतना प्रवीण होते हैं कि वे सब झंझट उनके लिए झंझट नहीं हैं । झंझट होता है भीतर के राग से । तो इतना सब कुछ करने पर भी अन्य साधुवों की तरह ही निर्लेप रहें, इसमें कितना उनका आत्मबल है । ग्रंथों में यह वर्णन है कि आचार्य परमेष्ठी आचार्य पद त्यागकर सामान्य साधु रहकर अंतिम अवस्था में उन्हें धर्मसाधना करनी बतायी है । यह एक जानकर पुरुषार्थ पूर्वक प्रयोगरूप से करने की बात है, किंतु कोई आचार्य ऐसा नहीं कर सकता । आचार्यपद छोड़े, दूसरे को दे, खुद सामान्य साधु रहें इतनी बात न कर सके और कभी उपयोग इतना निर्मल हो जाय कि उनका रत्नत्रय पूर्णतया बन जाय तो केवलज्ञान होने में कोई रुकावट नहीं है क्योंकि आचार्य परमेष्ठी स्वयं इतने विरक्त हैं, इतने योग्य हैं कि ध्यान कभी वे ऐसा बना सकेंगे कि जो केवलज्ञान के योग्य बन जाय, लेकिन एक प्रयोग रूप में कैसे करना चाहिए, उस व्यवहाररूप में यह बात कही गई है कि आचार्य भी अंत समय में समाधिमरण के निकट समय में आचार्यपद छोड़कर स्वयं सामान्य साधु रहकर तपश्चरण करना चाहिए । फिर भी आचार्य के स्वरूप जानने में यह निःसंदेह समझना चाहिए कि वे स्वयं भीतर में ज्ञान के आधार हैं और स्वयं बड़े निर्विकार हुए हैं । ऐसे आचार्यों को सिर नवाकर मैं वंदन करता हूँ।
धर्म की उपासना और उपलब्धि―यह मनुष्य जिस वस्तु के प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रख रहा हो और योग्यता भी हो प्राप्त करने की, उस मनुष्य को वह वस्तु प्राप्त हो जायगी । यहाँ हम आप योग्यता तो रखते हैं कि हम सही ढंग से धर्म का आनंद लूट सके । आनंद धर्म में ही मिलेगा, अन्य प्रसंग में आनंद का नाम नही है । मान लो जड़ वैभव बहुत इकट्ठे हो गए, अब उस प्रसंग में पर की ओर दृष्टि फंसाये हैं, यह कम है, और होना चाहिए, अथवा हमारे पास खूब धन है, हम इन सबमें अच्छे हैं, यों किसी प्रकार के विकल्प चलें तो वहाँ क्षोभ ही तो रहेगा, शांति का नाम नहीं । तो धर्मपालन के सिवाय और किसी भी काम में इस मनुष्य को शांति नहीं मिल सकती । जब-जब भी किसी बाहरी काम में रहते हुए भी शांति मिल रही हो तो समझना चाहिए कि उस समय भी धर्म का प्रसंग चल रहा है इस कारण शांति है । जितने रूप में हमारा धार्मिक परिणाम होगा उतने रूप में शांति है और जितने रूप में हमारा अधार्मिक परिणाम है उतनी ही अशांति हैं । धार्मिक परिणाम अपने आपके स्वभाव से संपर्क रखने वाले, अपने स्वभाव की अभिमुखता रखने वाले जो प्रवर्तन हैं वह तो है धार्मिक परिणाम और अपने आप से संपर्क न रखकर किसी पर की ओर लगाव रखने वाला जो परिणाम है वह अधार्मिक परिणाम है । तो जिन मनुष्यों को तीव्र आकांक्षा हुई है कि मुझे आत्मा को जानना है और आत्मा के ही निकट निरंतर रहना है । हमारा तो एक यही प्रोग्राम है, इसके सिवाय मुझे दूसरी बात रुचती नहीं है, ऐसी जिनकी तीव्र आकांक्षा हुई है उनकी यह दशा होगी कि सब कुछ बाह्य परिग्रह छूट जायेंगे, क्योंकि बाह्यपरिग्रहों को अपना सकने वाला परिणाम तो उनके रहा नहीं । जिसके फल में उनका निर्ग्रंथ रूप हो जाता है । तो जो साधु केवल एक यही धुन रख रहे हैं कि मुझे काम ही दूसरा नहीं है, केवल इस ही कार्य के लिए मेरा जीवन है कि मैं अपने आत्मा को जानूँ, निगाह में लूँ और उसके निकट निरंतर बसा करूँ । कर्मविपाकवश अब भी वे जिस काम में सफल नहीं हो पाते तो भी उनकी धुन, उनका लक्ष्य उनका प्रयत्न यही रहता है, उन्हें साधु कहते हैं और वे ही हमारे गुरु हैं ।
शांतिसाधना के उद्यम में निश्चयशरण व व्यवहारशरण का दिग्दर्शन―हमें चाहिए शुद्ध, स्वाधीन शांति, जिसके पा लेने पर कोई खतरा ही नहीं है नष्ट होने का या कभी उसके एवज में अशांति आने का । शांति भोगते-भोगते कभी अशांति भी आ जाय, ऐसा जहाँ धोखा भी नहीं है, ऐसी शांति चाहिए । इस प्रकार की शांति चाहने वाले पुरुष यहाँ व्यवहार में किसकी शरण गहें? शरण गहें गुरुवों की, और ऐसे गुरु ही यहाँ किसकी शरण गहें कि वे भी अपने कार्य को निर्वाध रूप से सफल बना सके । तो वे गुरुराज शरण गहते हैं आचार्य परमेष्ठियों की । यह व्यवहारशरण की बात कही जा रही है । निश्चयशरण के संबंध में गुरुवों को तो क्या, अविरत सम्यग्दृष्टि को भी भूल नहीं हो सकती । फिर भी जब तक प्रमाद अवस्था है, तब तक व्यवहारशरण ग्रहण करना ही चाहिए । प्रमाद युक्त अवस्था में हम एक अपना ही रूखा ज्ञान बनाये । किसका कौन है? मैं ही अपने लिए शरण हूँ । और धर्म की शरण, गुरु की शरण त्याग दे तो वह शांति के मार्ग में ठीक प्रकार लग नहीं सकता । तो गुरुजन भी जिनको केवल आत्मकल्याण की ही धुन है, आत्मस्वरूप में मग्न होने का ही जिनका भाव है वे भी जिनकी शरण ग्रहण करते हैं उन आचार्य परमेष्ठियों का स्वरूप बताया जा रहा है कि उनकी पात्रता क्या हो सकती है? आचार्य परमेष्ठियों की योग्यता बताने वाले गुण 36 होते हैं । इन 36 गुणों की रूढ़ि और किस्म से है । 12 तप, 10 धर्म आदिक रूप से । किंतु ये तो मुनियों में भी संभव हैं । ये 36 गुण आचार्य के खास न रहे । वे 36 गुण क्या हैं, उन्हें सुनिये―8 तो होते हैं आचारवान आदिक गुण―12 तप, 10 स्थिति कर्म और 6 आवश्यक कर्म । इनमें 10 स्थिति कर्म और 8 आचार्यवत्व आदिक, ये 18 गुण कुछ खास विशेषता रखते हैं ।
आचार्य के आचारवत्त्व गुण में ज्ञानाचार का दिग्दर्शन―आचार्य के गुणों में पहिला गुण है आचारवान होना । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार―इन 5 आचारों का निर्दोष पालन स्वयं करना और शिष्य साधुजनों को भी पालन कराना । पालन कराया तो नहीं जाता, किंतु अपनी क्रिया से, अपना निर्दोष व्रत पालने से अथवा उपदेश से शिष्यों को पंचाचार के पालन करने में सावधानी बना सकना, यह ही पालन कराना है । ज्ञानाचार का अर्थ यह है कि सम्यग्ज्ञान के जो आचरण हैं, किस विधि से स्वाध्याय करना, स्वाध्याय करते हुए कैसा भाव रखना, जिन गुरुवों ने स्वाध्याय किया है उनके प्रति कैसा व्यवहार करना, अपने गुरु का नाम न छिपाना, कुछ विशेष प्रतिज्ञा लेकर शास्त्राध्ययन करना आदिक जो साधन हैं उन साधनों सहित ज्ञान का आचरण करना ज्ञानाचार है ।
आचारवत्त्वगुण में अंगभूत दर्शनाचार में नि:शंकित अंग का दिग्दर्शन―सम्यग्दर्शन के अंग में रुचि रखकर सम्यग्दर्शन के अंग का निर्दोष पालन करते हुए सम्यक्त्व में उपयोग बनाये रहना वह दर्शनाचार है । जैसे नि:शंकित अंग―अपने आपके स्वरूप में शंका न करना । लोक में दुःख कहीं नहीं है अपने स्वरूप की संभाल हो, उपयोग अपने स्वरूप को देख रहा हो, जान रहा हो, मैं तो ज्ञानमात्र हूँ, बाहर में शरीर में अन्य जीवों में जो परिणमन होता है चह अन्य पदार्थों में ही हो रहा है । मैं तो यह ज्ञानमात्र हूं, इसमें जो किसी वस्तु के प्रवेश होने का अवकाश ही नहीं है । अपने सहजस्वरूप को उपयोग में संभाले हुए हों तो चाहे उपसर्ग, कुष्ट, व्याधियाँ, उपद्रव हों तो भी इसको कष्ट कहां है? और फिर जिसकी बाहरी कोई उपद्रव नहीं, कोई मार पीट नहीं कर रहा, ऐसी स्थिति में भी हम आप इस पर कुछ अपना उपयोग न रखें कि मैं तो ज्ञानमात्र हूं । इस ज्ञान में दुःख कहाँ, तो यह ऐसा सुंदर अवसर खोया जा रहा है । हम अपने उपयोग को इस तत्त्व के निकट अधिकाधिक बनाये । मैं ज्ञानमात्र हूँ, जानन प्रकाशमात्र, इसके अतिरिक्त मैं और कुछ नहीं हूँ, मेरा स्वरूप इतना है, इस स्वरूप में मुझे कोई जान नहीं रहा । जिसे हम रिश्तेदार कहते, मित्र जन कहते सहयोगी कहते, विरोधी कहते, कोई भी जीव यहाँ मेरे इस ज्ञानस्वरूप को जान नहीं रहे । और जब जान नहीं रहे हैं, तो मेरा ये क्या कर रहे हैं? मेरे से प्रीति ही ये नहीं कर सकते । जिस किसी को भी कुछ समझकर, अपनी कल्पना में अपना सुख जानकर अपने सुख के लिए अपना परिणमन कर रहे हैं, मेरे से किसी का व्यवहार भी नही हो रहा और यह ज्ञानमात्र मैं आत्मा किसी का कुछ व्यवहार ही नहीं कर सकता । मैं तो यह अकिंचन ज्ञानमात्र हूँ, ऐसे निजस्वरूप को कोई देख रहा हो, फिर उसे भय किस बात का? कभी कोई बद भी कर रहा हो, कुछ मृत्यु के समय भी उपयोग यदि इस ज्ञानस्वरूपमात्र को संभाले हुए है तो यह यहाँ न रहा और जगह गया । उपयोग अपने स्वरूप को संभाले है तो आगे भी इसका कालयापन उत्तम होगा । अपने स्वरूप में शंका न रखना, यह निश्चयत: नि:शंकित अंग है और व्यवहारत:, जिन-वचन में किसी प्रकार का संदेह न करना, सो नि:शंकित अंग है । आज या कभी पहिले भी थोड़ासा ज्ञान पाकर ज्ञानमद में आकर, किसी भी ग्रंथ के वाक्य से उसके मर्म को न जानकर, उसकी स्थितियां परिस्थितियां न समझकर एकदम यह संदेह कर बैठते हैं, प्रकट भी कर देते हैं कि इस ग्रंथ में यह बात गलत है, आचार्य यहाँ भूल कर गए, यह सब कितना एक मद का वेग है । तो जिसका व्यवहार नि:शंकित अंग भी नहीं पल सकता, वह आगे अपना कदम हो क्या बढ़ायेगा? ऐसे नि:शंकित अंग का पालन करते हुए दर्शनाचार का पालन करना यह दर्शनाचार गुण है ।
आचारवत्त्वगुण के अंगभूत दर्शनाचार में नि:कांक्षित गुण का दिग्दर्शन―निःकांक्षित अंग―आत्मकल्याण की धुन वाले जीव को प्रथम तो किसी भी विषय में वांछा नहीं जगती । किसी भी विषय की वांछा करने से, साधन बना लेने से इस जीव का क्या पूरा पड़ता? इस काल में भी दुःखी और भविष्य में और भी अधिक दुःखी होगा । तो प्रथम तो यह बात है कि किसी भी विषयसाधन में इस ज्ञानी की आकांक्षा नहीं जगती । और उदयवश जगे भी धर्मपालन करके धर्म की एवज में तो कभी भी यह इच्छा जग ही नहीं सकती कि मुझ को इंद्रपद प्राप्त हो, धनिकपना प्राप्त हो, ऐसा सुख प्राप्त हो । यदि धर्म के एवज में यह इच्छा जगे तो समझना चाहिए कि उसके नियम से मिथ्यात्व है । वैसे दुकान पर जब ज्ञानी गृहस्थ बैठता है तो क्या यह इच्छा नहीं करता कि इतना लाभ होना चाहिए ? फिर दुकान पर जाता ही वह किसलिए है? तो ऐसी वांछा होना और बात है, मगर धर्म करके विधान, पूजन, तपश्चरण यात्रा आदिक काम करके फिर चाह रखना कि मुझे यह चीज मिले, तो वहाँ सम्यक्त्व नहीं है । निःकांक्षित अंग का पालन करते हुए दर्शनाचार का धारण होता हैं ।
आचारवत्त्व गुण के अंगभूत दर्शनाचार में निर्विचिकित्सिक गुण का दिग्दर्शन―तीसरा है निविंचिकित्सक अंग―कर्मोदयवश दुःख आ पड़ा, उस दुःख में अपने को दुःखी न रखना, म्लान न करना, मलिन न बनाना यह निर्विचिकित्सक अंग है । भूख प्यास आदिक कोई दुःख आने पर अपने को म्लान न बनाना, विषाद न करना, यह निश्चयत: निर्विचिकित्सा अंग है और साधुजनों के बाह्य अपवित्र देह को निरखकर कोई रोग है, कै, दस्त आदि होते हैं अथवा नाक बहती हैं, लार टपकती है, पीप निकलती है आदिक ऐसी भी स्थिति हो तिस पर भी साधुजनों की सेवा करते हुए में अपने चित्त में ग्लानि न करना, अपने दिल को म्लान न होने देना सो निर्विचिकित्सा अंग है । जैसे माता अपने बच्चे की नाक साड़ी अथवा रुमाल से बड़े प्रेम से पोंछ देती है, ग्लानि नहीं करती । गोद में बैठा हुआ बालक यदि मलमूत्रादि कर दे तो कहीं माँ उस बालक को पटक तो नहीं देती । उसे बहुत संभालकर सुखपूर्वक बैठाकर उस मल मूत्र को धो देती है । ऐसा जिसको जिसके हृदय से प्रेम है उसको उसके प्रति ग्लानि नहीं आ सकती । जो पुरुष साधुजनो के प्रति ग्लानि का भाव रखते हैं, प्रकट सिद्ध है कि उनको साधु गुण में, रत्नत्रयभाव में, धर्मभाव में प्रीति नहीं है । तो निर्विचित्सक अंग को निर्दोष विधि से पालन करना दर्शनाचार का धारण है ।
आचारवत्त्व गुण के अंगभूत दर्शनाचार में अमूढ़दृष्टि अंग का दिग्दर्शन―चौथा अंग है अमूढ़दृष्टि । अपने को मूढ़ (मुग्ध) न बना देना, जो तत्त्व है वही तत्त्व है ऐसी अपनी प्रतीति रखना, कभी भी कुतत्त्व में किसी बाहरी चमत्कार, बाहरी शोभा श्रंगार को निरखकर प्रीति न जगना, कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु में किसी भी स्थिति में कुछ भी निरखकर, लौकिक अतिशय देखकर अपने श्रद्धान को न बिगाड़ना, उन्हें देव, शास्त्र, गुरु न मान लेना, सच्चे देव, शास्त्र, गुरु में ही प्रतीति करना, उससे विचलित न हो सकना, सो अमूढ़दृष्टि अंग है । मार्ग केवल एक ही है―आत्मा को जानना, आत्मा के उस सहज ज्ञानमात्र स्वरूप को समझना, तन्मात्र आत्मा की प्रतीति करनी और उस स्वरूप में ही अपने ज्ञान को मग्न करना, यही संसारसंकटों से छूटने का उपाय है । जो ऐसा करते हैं वे गुरु हैं, जो ऐसा कर चुके हैं वे देव हैं, जो ऐसा करने का उपदेश है वह शास्त्र है । उस प्रतीति से विचलित न होना अमूढ़दृष्टि अंग है । ये अनेक गृहस्थ घर में किसी को जरा भी कष्ट आने पर जिसने जो सलाह दी―अमुक पीर को मानो, अमुक के गुरु को मानो, अमुक मंत्र-तंत्र करो, तो झट लोग वैसा करने लगते हैं । लेकिन संसार में आज यह मनुष्यजन्म प्राप्त किया है तो इससे हमें क्या लाभ लेना है इसका जिन्हें कुछ निर्णय ही नहीं । मैं कौन हूँ, कहां से आया हूँ, मेरा क्या स्वरूप है, इन सब बातों का कुछ बोध ही नहीं है । तो यह प्रवृत्ति मनुष्यजन्म सफल करने वाली प्रवृत्ति नहीं है । अनेक जन्म पाये, जैसे वे जन्म खो दिए वैसे ही यह मनुष्यजन्म भी खोया जाने को है । जैसे कभी कोई चीज लूटी जा रही हो तो लोग कहते हैं कि भाई थोड़ा समय रह गया है, लूटना हो तो लूट लो । इसी तरह यह मनुष्यभव का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है कि जहाँ ऐसी चीज प्राप्त कर सकते हैं, सिद्ध कर सकते हैं, लूट सकते हैं, प्राप्त कर सकते हैं कि जिससे यह जीव सदा के लिए दुःखों से हट सके । आचार्यजन उपदेश करते हैं कि जितना बन सके सिद्ध कर लो, मनुष्यभव को पाकर जितना जल्दी बन सके तिरने का उपाय बना लो । यहाँ के रागद्वेष मोह में कोई तत्त्व न मिलेगा बल्कि विपदायें ही मिलेगी । निज को निज पर को पर जान, यदि ऐसा उपयोग रहेगा तो तुझे शांति मिलेगी, और मान न मान में तेरा मेहमान, यदि ऐसी प्रवृत्ति रहेगी तो उसको क्लेश ही क्लेश मिलेंगे । पुत्र रूठ रहे, स्त्री रूठ रही, मित्रजन रूठ रहे, वे बोलते नहीं, विरोध करते, लेकिन यह पुरुष तो कहता है कि मेरे तो सब कुछ ये ही हैं । मान न मान, मैं तेरा मेहमान, यह तो है एक लौकिक बात, परस्वरूप की बात यह है कि कोई भी जीव मेरा कुछ नहीं हे । कोई मुझे समझता नहीं, कोई मेरी चाह से चलता नहीं, सभी जीवों की यही प्रवृत्ति है । चाहे कितने ही आज्ञाकारी पुत्र हों, कैसे ही आज्ञाकारी सेवक हों, वस्तुस्वरूप ही यह है कि पर से कुछ नहीं मिल सकता । इसके साथ-साथ यह भी सोचना चाहिए कि हम अपना झुंझलाहट वाला भी हृदय न बनाये । देखो ये सबके सब बड़े खुदगर्ज हैं, अपना खाना अपना पहिनना, अपना पैसा, अपनी ही बात में राजी । कैसा खुदगर्ज लिए हैं, ऐसी झुंझलाहट मत करो । खुदगर्जपना क्या? वस्तुस्वरूप ही यह है, जो सत् है वह अपना परिणमन करेगा । कोई भी सत् किसी दूसरे का परिणमन कर सकेगा क्या? अथवा किसी दूसरे के परिणमनरूप बन जायगा क्या? अपना परिणमन कोई दूसरे पदार्थ में सौंप देगा क्या? यह कभी संभव नहीं । तो खुदगर्ज को अर्थ क्या? कोई खुदगर्ज न हों और कोई खुदगर्ज हो तब तो यह भेद करें कि यह खुदगर्ज है; जब सभी पदार्थ खुदगर्ज हैं, अपने सत्त्व के कारण अपने आपके परिणमन में ही हैं, अब किसको खुदगर्ज कहते? खुदगर्ज भी किसको कहें सब सत्त्व के भले । सबमें सत्त्व है; अस्तित्त्व है । वे अपने सत्त्व के कारण सुस्थित हैं, सम्यक् हैं, स्वयं हैं, भले हैं, ऐसी भली दृष्टि रख करके अपना पथ गमन हो, उपयोग का प्रवर्तन हो, यही एक शांति का उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं। ऐसे उपाय से अतिरिक्त धर्म से, शास्त्र से, उद्देश्य से अपने को डगमग न करना, ऐसे ही गुरु, देव से अपने को विचलित न करना, कुपथ में रहने वाले देव, गुरु में कभी भी आदर आधेय बुद्धि होना, कुछ शरण सा ग्रहण करने जैसी वृत्ति न होना यह अमूढ़दृष्टि अंग है । ऐसे अमूढ़दृष्टि अंग की साधनों सहित जो दर्शनाचार है उसका धारण यह दर्शनाचार नामक गुण है ।
आचारवत्त्व गुण के अंगभूत दर्शनाचार में उपगूहन आदि शेष अंगों का दिग्दर्शन―एक है उपगूहन अंग, जिसका भाव है कि अपने गुणों को अपने वचनों से प्रकट न करना, दूसरे के दोष को प्रकट न करना उपगूहन अंग है । दूसरे के दोष को प्रकट करने की बुद्धि बाले जीव के उपयोग में गुण का आदर नहीं बनता । उसका दोषों में उपयोग रहेगा । अपने गुणों को प्रकट करने वाले पुरुष में वजन न रहेगा । उस गुण के विकास में जो गति चल रही है वह गति समाप्त हो जायगी, इस कारण अपने गुण अपने मुख से न कहना उपगूहन अंग है । जहाँ अपने आपके गुणों का विकास होता हैं, ऐसे उपगूहन अंग सहित सम्यक्त्व का पालन होना दर्शनाचार है । यह ज्ञानी संत इस आत्मप्रकाशमय मार्ग में स्थित रहने की ही बुद्धि लगाये, मैं जिस किसी भी प्रकार इस स्वभाव में मग्न तो हो जाऊँ ऐसी बुद्धि सहित प्रवृति करने वाले ज्ञानी के कभी कर्मविपाकवश ऐसी अड़चनें, बाधायें, रोग आपत्तियां आ जायें कि जिन आपत्तियों से यह श्रद्धान से चलित हो सकता है, ऐसी आपत्तियों के समय अपने ज्ञानबल की संभाल करके उन प्रसंगों में अपने को चलित न करना, धर्म में स्थित ही बनाये रहना और दूसरों को अनुकूल उपदेश देकर जिन में धर्म की प्रगति हो उन्हें रत्नत्रय मार्ग में स्थित कर देना स्थितिकरण अंग है । ऐसे स्थितिकरण अंग सहित सम्यक्त्व का पालन करना दर्शनाचार है । ज्ञानी संतों को ज्ञानी संतों के प्रति निष्कपट प्रीति रहती है जैसे यहाँ एक ही कार्य में पूरे भाव से लगने वाले पुरुषों में परस्पर कुछ निष्कपट-सा प्रेम रहता है । निष्कपट प्रेम तो नहीं कह सकते, मगर ऐसा देखा जाता है । जैसे दो बालक, जिनको सनीमा देखने की इच्छा हुई तो वे मिल-जुलकर कैसा प्रेमपूर्वक एक दूसरे के गले पर हाथ रखकर जाते हैं और उन दोनों में से जो बालक चाहे एक दूसरे के पीछे खर्चा कर दे । और-और प्रसंगो में भी जैसे लोग परस्पर में बड़े प्रेम से रहते हैं, इसी प्रकार यहाँ ज्ञानी पुरुष जिनका ध्येय केवल यही है―आत्मा को जानना, आत्मा में मग्न होना, ऐसे अभिप्राय के कुछ ज्ञानी संत मिलें तो उनमें कैसा प्रेम होता? निष्कपट प्रेम होता । इसको कहते हैं शुद्ध वात्सल्य । ऐसे वात्सल्य सहित सम्यक्त्व का पालन करना दर्शनाचार का पालन है और अपने व्रत तप आदिक से रत्नत्रयधर्म की प्रभावना करना, अपने में प्रभावना करना, व्यवहार में भी प्रभावना हो जाय, ऐसी प्रभावना सहित जो सम्यक्त्व का पालन है सो दर्शनाचार का धारण है ।
आचारवत्त्व गुण के अंगभूत चारित्राचार में महाव्रतों का दिग्दर्शन―आचार्य में आचारकता गुण है । इसकी व्याख्या में प्रसंग अब यह चलेगा कि आचार्य चारित्राधार का आचरण करते हैं । चारित्र होता है 13 प्रकार का अथवा ऐसा कह लो कि चारित्र के 13 अंग है―5 महाव्रत, 5 समिति, 3 गुप्ति । अहिंसा महाव्रत―पूर्ण अहिंसा का पालन करना, स्व-पर जीव की भी हिंसा न करना, सर्व हिंसाओं से विरक्त अहिंसा की मूर्ति साधु परमेष्ठी होते हैं । वही व्रत साधुवों का है, वही व्रत आचार्यों का है । क्योंकि आचारत्व गुण कहकर सब गर्भित कर दिया जो इष्ट छत्तीसों में आचार्य के 36 मूल गुण कहे । उनमें 5 आचार का अलग वर्णन किया और वह सब एक आचारत्व गुण में गर्भित हो जाता है । सत्य महाव्रत में सत्य बोलना, असत्य अप्रिय कटुक वचनों का प्रयोग न करके सत्य, प्रिय, हितकारी वचन बोलना सो सत्य महाव्रत है । अचौर्य महाव्रत में सर्वथा चोरी का परित्याग, बिना दी हुई कुछ भी वस्तु ग्रहण न करना सो अचौर्य महाव्रत है । ब्रह्मचर्य महाव्रत में सर्वप्रकार के ब्रह्मचर्य का पालन, चित्र के सहारे या पहिले भोगे हुए भोगों के चिंतन के सहारे या किसी के दर्शन से, स्मरण से किसी भी प्रकार रंचमात्र भी विकारभाव न आने देना, सो ब्रह्मचर्य महाव्रत है । परिग्रह का पूर्ण त्याग होना परिग्रहत्याग महाव्रत है । केवल पिछी कमंडल और दो एक शास्त्र रह जाते हैं, वे शुचि, ज्ञान और संयम के उपकरण के नाते से हैं, फिर भी उन उपकरणों के लिए झगड़ा न ठान सकेगा । कोई पुस्तक लेता हो, पिछी छुड़ाता हो तो भी वह साधु उनके पीछे झगड़ नहीं सकता । केवल वे उपकरण मात्र हैं और समस्त परिग्रहों का उनके परित्याग है ।
आचारवत्त्वगुण के अंगभूत चारित्राचार में समिति व गुप्तियों का निर्देशन―ईर्यासमिति―चार हाथ आगे जमीन देखकर दिन में अच्छे भाव से, अच्छे काम के लिए विहार करना सो ईर्यासमिति है । सत्य, हित, मित, प्रिय वचन बोलना सो भाषासमिति है । उपकरण देख भालकर धरना उठाना सो आदाननिक्षेपणसमिति है । विधिपूर्वक अंतराय टालकर शुद्ध निर्दोष आहार लेना सो एषणासमिति है । मलमूत्र, कफ, थूक आदिक निर्जंतु जमीन पर फेंकना सो प्रतिष्ठापनासमिति हें । मन को वश में करना, मन वश में हो, कोई संकल्प विकल न होने दे, यहाँ वहाँ के व्यर्थ विचार न चलाना सो मनोगुप्ति है । वचन को वश में करना, मौन रहना सो वचनगुप्ति है । शरीर को स्थिर रखना, चंचल न बनाना सो कायगुप्ति है । ऐसे 36 अंगरूप चारित्र का आचरण आचार्य ही करता है और निर्दोष आचरण पालकर दूसरों को प्रयोगात्मक उपदेश देता है और पालन कराता है । यों चारित्राचार के कारण वे आचार्य परमेष्ठी आचारवान कहलाते हैं ।
आचारवत्त्व गुण के अंगभूत तपाचार व वीर्याचार का निर्देशन―12 प्रकार के तपों का आचरण निर्दोष विधि से आचार्य करते हैं और उनके इस निर्दोष आचरण को देखकर अन्य साधु शिष्यजन तपाचार में उद्यमी होते हैं । ऐसे तपश्चरण 12 प्रकार के कहे गए हैं । अनशन―आहार का परित्याग करना, ऊनोदर―उदर से कम खाना, भूख से कम आहार लेना ये दोनों ही व्रत निष्प्रमादता के लिए और ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए शुद्ध भाव वृद्धि के लिए कारण पड़ते हैं । व्रतपरसंख्यान―आहारचर्या को जाते हुए कुछ ऊटपटांग विधि व्रत का परसंख्यान कर लेना (आखड़ी ले लेना) । जैसे―मैं इस तरह इस विधि से जाऊँगा, वहाँ इस तरह की विधि मिलेगी तो आहार लूँगा अथवा नहीं आदिक कोई व्रतपरसंख्यान कर लेना उसे व्रतपरसंख्यान कहते हैं । रसपरित्याग―रस का त्याग करना सो रसपरित्याग है । विविक्तशय्यासन―एकांत स्थान में सोना बैठना अर्थात जहाँ शोरगुल न हो ऐसी स्थिति का निवास विविक्तशय्यासन है । कायक्लेश―शरीर का कृश करना । इन तपश्चरणों के कारण शरीर स्वयं कृश होता है । काय की उपेक्षा करना यह कायक्लेश तप है । क्लेश से मतलब शरीर का कष्ट देने की बात नहीं है, किंतु अपने आचरण में ऐसा सावधान रहना कि शरीर कृश हो जाय उसे कायक्लेश तप कहते हैं । ये 6 बाह्यतप कहलाते । आभ्यंतर तप भी 6 हैं―प्रायश्चित्त करना―कोई अपराध हो जाय उसका पछतावा करना, गुरुजनों से प्रायश्चित्त लेना जिससे आगामी काल में दोष न बने और वर्तमान दोषों से भी मुक्ति मिले । दोष बन जाने से एक चिंता और शल्य हो जाती है, जिससे ध्यान में प्रगति नही हो पाती । प्रायश्चित्त के प्रताप से उसका चित्त ऐसा शल्यरहित होता कि अपनी ध्यानसाधना में वह प्रगतिशील हो जाता है । विनय―अपने से बड़े जनों की अथवा उत्तम भावों की विनय करना, उनका आदर करना सो विनय नाम का तप है । जो घमंडी लोग होते हैं, जिन में अहंकार है, मद है उनसे विनय तप तो कभी बन ही नहीं सकता और विनय तप से ऐसी पात्रता आ जाती है कि विनयशील पुरुष के हृदय में तत्त्व की बात, स्वानुभव का उपाय सुगमता से समा जाता है । वैयावृत्य तप―दु:खी रोगी, थके हुए साधु जनों की सेवा करना वैयावृत्य नाम का तप है । वैयावृत्य का असली अर्थ है व्यावृत्त का काम । व्यावृत्त कहते हैं निवृत्ति को, रिटायर को । जो संसार के झंझटों से निवृत्त हो गया, छूट गया उस पुरुष के कार्य को वैयावृत्य कहते हैं । जो यह सिद्ध करता कि वैयावृत्य नाम का तप विरक्त पुरुषों को ही हो सकता है । रागी पुरुष वैयावृत्ति नहीं कर सकते । स्वाध्याय तप―तत्वोपदेश का ज्ञानवर्द्धक, वैराग्य वर्द्धक शास्त्रों का स्वाध्याय करना, जिसमें स्व का भी अध्ययन चलता रहे, अपने आपके लिए उससे कुछ शिक्षा मिलती रहे, इस पद्धति से अध्ययन करना, सुनना सो स्वाध्याय नाम का तप है । व्युत्सर्ग तप काय से भी और अन्य सब समागमों से भी उपेक्षा करना, उनका परिहार करना और अपने आपके आत्मध्यान में, आत्मउपयोग में वृद्धि रखना सो व्युत्सर्ग नाम का तप है । ध्यान―तत्त्वविचार पूर्वक ध्यान करना, एक ओर अपने चित्त को लगाये रहना इसको ध्यान कहते हैं । यों 12 प्रकार के तपों का निर्दोष आचरण करना और दूसरों को निर्दोष आचरण पालन कराने में उत्साहित बनाना सो तपाचार है । इस तपाचार से आचार्य परमेष्ठी आचारवान कहलाते हैं । वीर्याचार―इन समस्त आचारों को करने की शक्ति प्रयोग करना, समर्थ होना, ऐसा अपना उत्साह बनाना सो वीर्याचार तप है । यों 5 प्रकार के आचारों का पालन करने से आचार्य, परमेष्ठी में आचारत्व गुण होता है । आचार्यपरमेष्ठी के 36 गुणों में से यह पहिला गुण है ।
आचार्यपरमेष्ठी का आधारवत्त्व व व्यवहार गुण―दूसरा मूल गुण है आधारवान होना । श्रुतज्ञान के धारण करने को आधारत्त्व कहते हैं । श्रुत ज्ञान संपदा की कोई तुलना नहीं कर सकता । तत्त्वज्ञान के समान जगत में और श्रेष्ठ पदार्थ है ही क्या? उस श्रुतज्ञान संपदा को जो धारण करे, 9 पूर्व 10 पूर्व, 14 पूर्व तक के श्रुतज्ञान को जो धारण करे अथवा कल्पज्ञान परिज्ञान को जो धारण करे, यह करने योग्य है, यह नहीं करने योग्य है ऐसी विवेक पद्धति वाले कल्प व्यवहार शास्त्र के धारण करने को आधारत्व कहते हैं । यह द्वितीय गुण आचार्यपरमेष्ठी का है । तीसरा गुण है व्यवहार―व्यवहार नाम प्रायश्चित्त का है । आगम के अनुसार, श्रुत के अनुसार, आज्ञानुसार, धारणानुसार और जीत नामक प्रयोग के अनुसार प्रायश्चित का ज्ञान होना और उस प्रकार प्रायश्चित्त देना यह गुण कहलाता है व्यवहारगुण । आचार्य परमेष्ठी प्रायश्चित शास्त्रविषयक परिपूर्ण ज्ञाता होते हैं । 11 अंगरूप शास्त्र में स्पष्ट अथवा अन्य प्रकार के वर्णन से उस प्रायश्चित का प्रतिपादन है । उस आधार से जो प्रायश्चित दिया जाता है वह आगमानुसार प्रायश्चित है । 14 पूर्व में स्पष्ट अथवा अन्य-अन्य रूप से बताये हुए प्रायश्चित को देना श्रुतानुसारी प्रायश्चित है । यद्यपि आगम और श्रुत दोनों का एक अर्थ है, फिर भी यह 11 अंग रूप शास्त्र को आगम और पूर्वरूप शास्त्र को श्रुत कहा है । आज्ञानुसारी प्रायश्चित―जों आचार्य समाधिमरण के लिए उद्यमी हुए है, पर जिनकी जंघाओं में इतना बल नहीं है कि किन्हीं आचार्यों के पास जा सकें, एक ही जगह वे स्थित हैं और कोई आचार्य वहाँ उपस्थित नहीं है, तब वह आचार्य क्या करता है कि अपने ही समान किसी योग्य ज्येष्ठ शिष्य के द्वारा अपना सम्वाद भेजता है और वहाँ उस शिष्य के मुख से दूसरे आचार्य परमेष्ठी के समक्ष आचार्य के दोष की आलोचना होती है । फिर उनके उपदेशे हुए प्रायश्चित्त को ग्रहण करना आज्ञानुसारी प्रायश्चित्त है अर्थात् आचार्यपरमेष्ठी का समाधि समाधिमरण के समय अन्य कोई आचार्य न रखकर अपने ही शिष्य को किसी दूसरे आचार्य के पास भेजे । वह उनकी जो आलोचना करेगा वह आचार्य की ओर से और जो कहेगा वह आचार्य ग्रहण करेगा । धारणानुसारी प्रायश्चित्त―आचार्य स्वयं मरण के लिए उद्यमी है और समर्थ नहीं है कि बह किसी अन्य क्षेत्र में भी जा सके तो वह स्वयं अपने आप अपनी धारणा के अनुसार प्रायश्चित्त निश्चित करके प्रायश्चित्त लेता है, वह धारणानुसार का प्रायश्चित्त है । जीत के अनुसार प्रायश्चित्त―समाधिमरण की क्रिया में 72 साधु उद्यमी होते हैं । जैसे किसी की संभाल के लिए दो चार आदमी छोड़ दिये जाते हैं । उत्कृष्ट समाधिमरण करने वाले क्षपक की सेवा के लिए 72 साधु उपयोगी बनते हैं । उन सबका विधान भगवती आराधना में खुलासा किया गया है । कुछ साधु उस क्षेत्र से बहुत दूर पर विराजमान रहते हैं, ऐसे द्वार पर कि कोई वादविवाद के लिए क्षपक के पास जाना चाहे तो वह वहीं तत्त्वचर्चा में लगा लेता है और क्षपक को बाधा न आये इस प्रयोजन से कुछ साधु कुछ और निकट रहते हैं । कुछ समय बांधकर दो-दो साधु एक साथ वैयावृत्ति के लिए निकट रहते हैं, ऐसे उन 72 साधुवों का अपना-अपना प्रोग्राम होता है । इस समाधिमरण करने वाले क्षपक को बहुत शांति का मौका मिलता है । तो इस प्रकार 72 पुरुषों को अपेक्षा जो प्रायश्चित बताया जाय वह जीत प्रायश्चित है । ऐसे 5 प्रकार के प्रायश्चित में जो निपुण है, ऐसे आचार्य को व्यवहारी आचार्य कहते हैं । आचार्य में कितनी क्षमता, कितना ज्ञान, कितनी सामर्थ्य होनी चाहिए? यह सब इस प्रसंग में विदित होता है । यह है आचार्य परमेष्ठी का तीसरा मूल गुण ।
आचार्यपरमेष्ठी का प्रकारण व आयापायदर्शित्व गुण―चौथा मूल गुण है प्रकारण । प्रकारण कहते हैं सेवा परिचर्या करने को । समाधिमरण करने में प्रवृत्त हुए क्षपक साधु की परिचर्या शुश्रुषा वैयावृत्ति करना सो प्रकारण नाम का गुण है । जब आचार्य स्वयं क्षपक की सेवा के लिए उपस्थित रहते हैं तो सभी शिष्यों में क्षपक की सेवा करने का उत्साह रहता है, ऐसा प्रकारण नाम का गुण आचार्य में होता है । 5वां मूल गुण है आचार्य का आयापायदिक्―लाभ और विनाश की दिशा बताना, आलोचना करने वाले साधु को आचार्य समझाते हैं―देखो―आत्महित के लिए निर्दोष आलोचना करने में यह लाभ है, निर्दोष आलोचना न करने पर यह दोष है । यह भव क्षणिक है । इसमें साधुपद अंगीकार किया है तो आत्महित के लिए निष्कपट रहना प्रथम कर्तव्य है और पूर्णरूप से आलोचना करने में आत्मा की शुद्धि होती है । कोई बात छिपा ले दूसरे के संकोच से या स्वयं की लाज से तो उसमें दोष होगा और उससे इसकी हानि है । जन्म मरण की परंपरा छिद नहीं सकती । यों लाभ और हानि का उपदेश करना यह आचार्य परमेष्ठी का 5वाँ मूल गुण है ।
आचार्य परमेष्ठी का उत्पीडन, अपरिश्रावित्व व सुखावहत्व गुण―छठवां मूल गुण है उत्पीड़न । आलोचना करने वाला साधु कुछ अपने दोष छिपाना चाहे तो समर्थ आचार्य के समक्ष छिपा सकता है क्या? वे आचार्य ओजस्वी होते, तेजस्वी होते, वचनव्यवहार में चतुर होते, और उनकी इस बुद्धिमानी के प्रयोग से शिष्य स्वयं अपने दोष को अपने मुख से उगल देता है । जैसे कि सिंह के पराक्रम को निरखकर स्याल अपने मुख में पड़े हुए मांस को उगल देता है न, यों ही समझिये कि आचार्यपरमेष्ठी के विद्या पराक्रम और चारित्र विक्रम उनकी ओजस्विता को निरखकर साधु अपने आपमें पड़े हुए दोष को स्वयं उगल देता है । ऐसी विशिष्ट सामर्थ्य आचार्य में होती है । 7वाँ मूल गुण है अपरिश्रावी । शिष्य अपने कहे हुए दोष आचार्य को बताये जो लोक में अपवाद करने वाला हों, जिसे लोग जाने तो मरण भी कर सकें, ऐसे कठिन से कठिन दोष निष्कपट भाव से साधु आचार्य से प्रकट करते हैं और आचार्य उन सब आलोचनाओं को अपने आप में इस तरह गुप्त कर लेते हैं कि जैसे तप्त तवे पर पानी की बूंद गिर जाय तो वह दिखती नहीं हैं । वे आचार्य अपने किसी शिष्य के दोष को लोगों में प्रकट नहीं करते । यह उनका अपरिश्रावी नाम का गुण है । 8वां मूल गुण है सुखावहत्व । कोई साधु सुधा से दुःखी है, तृषा से संतप्त है, रोग से संतप्त है तो उस साधु को आचार्य महाराज ऐसे मधुर और उत्साहवर्द्धक, धर्मरुचिवर्द्धक शब्दों में उपदेश करते हैं कि उसे सुख शांति प्राप्त होती है । इस प्रकार ये 8 आचार्य के मूल गुण हैं ।
आचार्य के स्थितिकल्प गुणों में आचेलक्य व ओद्देशिक पिंडत्याग नाम का गुण―अब 10 मूल गुण स्थितिकल्प नाम के होते हैं । उन 36 मूल गुणों में से यह 9वाँ मूल गुण है आचेलक्य नाम का स्थितिकल्प अर्थात् निर्ग्रंथ दिगंबर रूप में रहना सो आचेलक्य नाम का स्थितिकल्प है । इस आचेलक्य प्रवर्तन से भावों की पवित्रता, ब्रह्मचर्य की निर्दोषता, चिंता शल्यों का अभाव आरंभ से मुक्ति आदिक अनेक गुण प्रकट होते हैं । दूसरे पुरुष भी उसके प्रति बड़ा विश्वास रखते हैं । यह सतायेगा नहीं, यह किसी को मारेगा नहीं, यह किसी से कलह न करेगा, जिसने सर्व परिग्रह त्याग दिया है इस स्थिति में रहने वाली साधु किसी के लिए अनिष्ट नहीं हो सकता । इस प्रकार का उसके प्रति लोगों को विश्वास रहता है । 10वां आचार्य का मूल गुण है औद्देशिक पिंडत्याग अर्थात् जो साधु के उद्देश्य से, मुनि के उद्देश्य से आहार बना हो उस आहार का त्याग करना । वह जानता है कि इसने केवल मेरे लिए यह अलग से आरंभ किया है तो वह उस आहार को ग्रहण न करेगा । यदि गृहस्थ अपने समस्त घर के लिए शुद्ध विधि से आहार तैयार करता है और फिर उसने यह संकल्प रखा कि मैं मुनि को पड़गाह करके आज जीवूँगा तो यह उद्दिष्ट दोष नहीं है । कारण यह है कि व्रती पुरुष ने तो रोज का ऐसा नियम ही रखा है, जिसे अतिथि सम्विभाग व्रत नाम से कहा गया है । बारह व्रतों में एक अतिथि संविभाग नाम का व्रत है, उसमें यही तो व्रत रखा है कि मैं अतिथि को आहार देकर भोजन करूँगा ।
आचार्य का शय्याधरपिंडत्याग व राजकीयपिंडत्याग गुण―ग्यारहवाँ मूल गुण है शय्याधरपिंडत्याग । शय्याधर अर्थात् बसतिका मुनि को ठहराने का प्रबंध करने वाला बसतिका बनवाता है । कोई बसतिका को साफ-सुथरा बनाता है, कोई गृहस्थ बसतिका में ठहरने का प्रबंध रखता है । ये तीनों शय्याधर कहलाते हैं । ये तीन प्रकार के पुरुष जो साधु को बसतिका बनवाकर ठहराये, बसतिका की सफाई परिश्रम करके ठहराये या उसके प्रबंध पर रहें तो तीन प्रकार के लोगों के यहाँ दूसरे दिन पहिली बार साधुजन आहार ग्रहण न करेंगे । हां यदि वे शय्याधर अपने को शय्याधर जाहिर नहीं करते, धर्मलाभ के लिए इस नाम से प्रच्छन्न होकर आहार दे तो दे सकते हैं । इसमें बात यह आयी कि प्रबंधक लोग प्रबंध करते हों, मैंने मुनि को ठहराया है, मैंने मुनि के रहने की व्यवस्था की है, इस नाते से अधिकार है किं हमारे यहाँ ही भोजन होगा, ऐसी बात लोगों को जंचे, मुनि को जंचे, ऐसा रूप रखकर आहार न दे सकेंगे शय्याधर पुरुष । पर कोई स्थिति ऐसी हो कि जिसको आचार्य समझे योग्यता तो कभी कर भी सकेंगे, पर प्राय: शय्याधर पिंड का त्याग होता है । बारहवाँ मूल गुण है राजकीय पिंडत्याग । इक्ष्वाकुवंश आदिक बड़े-बड़े कुलों में जो राजा महाराजा हैं उनके समान ऋद्धि संपन्न, वैभवशील व्यक्ति हैं उन व्यक्तियों के घर में जाकर भोजन ग्रहण न करना यह राजकीय पिंडत्याग कहलाता है । यद्यपि सर्वथा यह नियम नहीं है कि राजाओं के यहाँ या बहुत बड़े पुरुषों के यहाँ आहार न लेंगे, कभी स्थिति निरख कर सकते हैं, लेकिन ऐसी प्रवृत्ति बनायें तो उसमें क्या दोष आता है? प्रथम तो राजघराने में बड़े घरों में भयंकर कुत्ता आदिक जानवर स्वच्छंदता से फिरते हैं । संयमी पुरुष उन घरों में प्रवेश करे तो संयम का अपघात भी हो सके, काट भी ले, उपद्रव भी करे और मुनि नग्न भेष को देख कर वहाँ के गाय, बैल, भैंस, घोड़ा, कुत्ता आदिक जानवर विजुक सकते हैं । यहाँ वहाँ भागने लगे तो स्वयं संयमी व्यक्ति को भी और वहाँ के मनुष्यों व पशुवों को भी क्लेश हो सकता है । बड़े घरानों में नौकरचाकर भी बहुत होते हैं; वे मुनि का उपहास भी कर सकते हैं और कभी राजघराने में कोई चोरी हो जाये तो वहाँ लोग यह भी कह सकते हैं कि इस घर में यह मुनि आहार लेने आया करते हैं, इन्होंने ही न चुरा लिया हो । इस प्रकार का संदेह लोग उस मुनि पर भी कर सकते हैं । ऐसी अनेक बातें हैं जिनके कारण राजघराने में बड़े लोगों के यहाँ आहार ग्रहण करने की प्रवृत्ति नहीं बतायी है । हां कभी आहार कर भी सकते हैं, क्योंकि वह निर्दोष व्यक्ति है ।
आचार्य का कृतिकर्म, व्रतारोपण व ज्येष्ठता गुण―तेरहवाँ मूल गुण है कृतिकर्म । अपने आवश्यक कार्यों में सावधान रहना और मुनिजनों का विनय रखना कृतिकर्म कहलाता है । चौदहवाँ मूल गुण है व्रतारोपण योग्यता व्रतों के निभाने की योग्यता होना । जो पुरुष पूर्वकथित गुणों में सावधान होता है उसके व्रतारोपण की योग्यता होती है । इस तरह इन अनेक गुणों से संपन्न आचार्य परमेष्ठी होते हैं । उनकी शरण गहने वाले शिष्यों की निर्वाध मोक्षमार्ग में प्रगति बनती है । इससे गुरुजन आचार्य परमगुरुवों की शरण ग्रहण करते हैं । आचार्य में ज्येष्ठता नाम का मूल गुण होता है । जिसमें शुरू से अब तक बड़प्पन ही बड़प्पन रहा और घर में भी बड़प्पन था । अपने घर में बड़ा पुत्र हो, वहां भी बड़प्पन हो, ऐसा पुरुष साधु होकर यहाँ भी बड़प्पन पाये, सबके द्वारा आदर के योग्य हो तो उसमें ज्येष्ठता गुण की बड़ी शोभा होती है । ज्ञानचर्या आदिक में उपाध्याय आदिक से भी महान् हों तो वे आचार्यपरमेष्ठी कहलाते हैं ।
आचार्य परमेष्ठी का प्रतिक्रमण गुण―सोलहवाँ मूल गुण है प्रतिक्रमण नाम का । दैनिक, पाक्षिक, मासिक, वार्षिक, चातुर्मासिक और संन्यास मरण के समय का उत्तमार्थ प्रतिक्रमण। । इन सब प्रतिक्रमणों की जानकारी होती है और दूसरों को प्रतिक्रमण कराने की जिनकी निपुणता है ऐसे आचार्यों में यह प्रतिक्रमण नाम का स्थितिकल्प होता है । प्रतिक्रमण कहते हैं लगे हुए दोष को दूर करने को । जो दोष हो गया है, कर्मोदय प्रबल ऐसा आया था कि कुछ चिग गए, व्रत में दोष किया तो उस दोष की शुद्धि कर ले, ऐसे जौ प्रायश्चित्त हैं वे सब प्रतिक्रमण कहलाते हैं । प्रतिक्रमण में निश्चयत: दृष्टि इस बात पर देनी होती है कि मेरे आत्मा का स्वरूप सहज सत्त्व अपने आपके सत्त्व की ओर से विकाररहित है, स्वभाव मेरा अविकारी है, उस अविकारी स्वभाव को दृष्टि में लेकर यह ज्ञानी यों निरखता है कि यह विकार औपाधिक मेरे में आया था, चला गया, मेरा मूल रूप नहीं है। जिसकी मैं निरंतर शल्य बनाये रहूं, हाय, मेरा जन्म बिगड़ गया, मैं दोषी हो गया, अब मेरा उद्धार ही नहीं हो सकता । दोष करने पर दो आपत्तियाँ जीव पर आती हैं―एक तो यह कि दोष की प्रकृति बन जानें से इसका मन पर की ओर ही रहता है, आत्मध्यान का पात्र नहीं बन सकता । दूसरा यह कि कुछ थोड़ा बहुत बुद्धिमान हो और दोष हो जाय तो वह हमेशा यह शल्य लिये रहता है कि हाय ! मुझ से दोष बन गया । यों वह अपने को कायर मनाये रहता है । विपत्ति तो अज्ञानियों पर और ज्ञानियों पर इन दोनों पर आती है, मगर अज्ञानियों की विपत्ति दूर करने का कोई उपाय नहीं है, सिवाय सम्यग्ज्ञान के । ज्ञानियों पर जो दोष होने पर चिंता की विपत्ति आती है उस विपत्ति को परमार्थ से वह अविकार स्वभाव की दृष्टि करके अपनी कायरता को हटाता है । विकार तो औपाधिक था, मेरे स्वभाव में बसा हुआ नहीं था । यदि उस विकार से ही हम घबड़ा गए तो फिर हमारा उद्धार नहीं हो सकता । अपने उस अविकार स्वभाव को दृष्टि में लेकर प्रतिक्रमण करने वाला यह कहता है, कि मिथ्या में दुष्कृतं भवतु, मेरे पाप मिथ्या हों । तो क्या ऐसा कहने मात्र से उस ज्ञानी के पाप मिथ्या हो जायेंगे ? वह ज्ञानी तो अपने निष्पाप विचार ज्ञानस्वभाव को निरख रहा है। उसकी दृष्टि में यह बात जंच रही कि पाप तो मिथ्या थे, मेरे स्वभावरूप न थे, वे तो कर्मोदय से आये । उस निगाह में इसकी यह आवाज होती है कि मेरा पाप मिथ्या होवे । यह तो है परमार्थ प्रतिक्रमण की बात, लेकिन जो व्यवहार प्रतिक्रमण नहीं करता वह परमार्थ प्रतिक्रमण का अधिकारी नही । उसे यह चाहिए कि अपने गुरु से, आचार्य से, निष्कपट आलोचना करके जैसा भी दोष हों वह पूरा दोष निवेदन करें और गुरु महाराज जो प्रायश्चित दे उसे करें । ऐसा करने वाले पुरुष प्रतिक्रमण में अपना उपयोग लगा सकते हैं, और जो व्यवहार प्रतिक्रमण की अवहेलना करता है तो उसमें दोष करते रहने की आदत का प्रश्रय दिया है, उत्साहित किया है । दोष करने की आदत उसकी छूट नहीं सकती, इसलिए व्यवहार प्रतिक्रमण करें और परमार्थ प्रतिक्रमण करें । तो इस प्रतिक्रमण के विधान का पूर्ण ज्ञान है आचार्य परमेष्ठी को जो स्वयं करते हैं और दूसरों से कराते हैं बह उनका प्रतिक्रमण नाम का स्थितिकल्प है । यहाँ व्यवहार प्रतिक्रमण का अर्थ यह है कि अपने गुरु से दोष की आलोचना करके गुरु जो उसका प्रायश्चित दे उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करें कि हमारे शरण्य गुरु महाराज ने जो बात कही उससे ही मेरी शुद्धि होती है और उससे ही मैं मुक्तिमार्ग में अबाधित चल सकूँगा, मेरा दोष निवृत्त हो ही चुका । जब गुरु महाराज ने इसमें प्रायश्चित विधान बताने की कृपा को है तो अब वह दोष न रखे और प्रायश्चित करे यह उसका व्यवहार अतिक्रमण है।
आचार्य का मासैकवासित व वर्षायोग गुण―आचार्य का 17वां मूल गुण है―मासैकवासित । योग्य स्थिति योग्य क्षेत्र समझकर योग्य अवसर जानकर अधिक से अधिक किसी एक स्थिति पर एक माह तक ठहर सकते हैं । वैसे वर्षायोग के अतिरिक्त विधान यह है कि छोटे गाँव में एक रात्रि, कस्बा जैसे नगर में 3 रात्रि और बड़े शहर में 5 रात्रि तक रहें, इससे अधिक न रहें, किंतु कोई स्थिति ऐसी आये जिसको आचार्य आवश्यक समझते हैं तो एक मास तक कहीं ठहर सकते हैं । यह मासैकवासित नाम का स्थितिकल्प है । इस गुण के संबंध में कुछ आचार्यों का यह भी मंतव्य है कि यह मासैकवासित चातुर्मास के पहिले और चातुर्मास के बाद के लिए है । जहाँ चातुर्मास करने का कुछ भाव हो रहा हो उस जगह एक माह पहिले ठहर सकते है और जहाँ चातुर्मास किया हो वहाँ एक माह बाद तक ठहर सकते है । आचार्य उन सब स्थितियों को जानते हैं जिनके कारण वे ठहरना चाहते है । तो यह उनका मासैकवासित नाम का स्थितिकल्प है । 18वां मूल गुण है―वर्षायोग । वर्षायोग के संबंध में आचार्य परमेष्ठी को सब तरह का विशेष परिज्ञान होती है । आचार्य अपने आत्मतत्त्व के भी विपुल ज्ञानी होते हैं । जिसके ज्ञान में उपाध्याय और अन्य साधुवों से कुछ महत्ता है । और व्यवहार की बातों में भी क्षेत्र कैसा, काल कैसा, स्थितियां क्या, भविष्य में इसका परिणाम क्या होगा, इन सब विषयों के भी बहुत बड़े ज्ञाता होते हैं । वर्षायोग करना सब साधुवों को आवश्यक हे, क्योंकि वर्षाकाल में जीव-जंतु विकलत्रय एकेंद्रिय वनस्पति ये जगह-जगह उत्पन्न हो जाते हैं, चलने में विराधना होगी, इसलिए एक जगह ठहरना चाहिए । तो वर्षायोग के संबंध में क्या विधियाँ है? कम से कम कितना समय वर्षायोग का है, अधिक से अधिक कितना समय वर्षायोग का है, और क्या स्थितियां गुजरे तो किस प्रकार रहता इन सबका परिज्ञान आचार्य परमेष्ठी को अधिक है । सामान्यतया वर्षायोग का यह विधान है कि असाढ़ सुदी 14 की शुरू रात्रि से लेकर कार्तिक बदी 14 की आखिरी रात्रि तक वर्षायोग का समय है । निर्वाण लाडू का जो दिन है, दीवाली का जो दिन है उस दिन वर्षायोग समाप्त होता है । किसी समय स्थितियाँ ऐसी आ जायें कि वर्षायोग करने वाले साधु आषाढ़ सुदी 14 के दिन न पहुंच सके तो सावन बदी 4 के दिन तक पहुंच सकते हैं, इसी तरह वर्षायोग समाप्त होने पर कदाचित् स्थितिवश कार्तिक बदी 15 को न विहार कर सके तो अगहन बदी 4 तक विहार कर जाते हैं । योग्य कारण जानकर वर्षायोग के बाद भी एक माह तक ठहरा जा सकता है । आचार्य परमेष्ठी उसका निर्देश करते हैं और ठहर सकते हैं सभी साधु । कोई विपत्ति ऐसी आ जाय सारे नगर पर कि महामारी फैले, प्लेग फैले और सारे मनुष्य नगर से बाहर जाने लगे, ऐसी स्थिति में वर्षायोग के भीतर भी किसी भी समय आचार्य जब उचित समझें, वर्षायोग समाप्त कर देते हैं और किसी निकट के निरुपद्रव स्थान में अपना वर्षायोग व्यतीत कर देते हैं । इन सब विधियों का ज्ञान आचार्यपरमेष्ठी को है, उसके अनुसार वे वर्षायोग करते हैं और अन्य साधुवों से कराते है । यह वर्षायोग नाम का स्थितिकल्प है । इस 18वें मूल गुण के संबंध में किन्हीं आचार्यों के मंतव्य से यह पाद्य नामक मूल गुण है, जिसका अभिप्राय है कि दो-दो महीने से अपने निषिद्ध काल का निरीक्षण करते हैं । जहाँ रहते हैं उसके परीक्षण, विचारा निर्णय का काम दो महीने पहिले से भी करते हैं ।
आचार्य परमेष्ठी के द्वादश तपश्चरण व आवश्यकों में से समता, वंदना व स्तवन गुण―उक्त प्रकार आचार्य के 36 मूल गुणों में से ये 18 मूल गुण बताये । शेष 18 मूल गुण हैं―12 प्रकार के तप और 6 प्रकार के आवश्यक । 12 प्रकार के तप की बात तो सर्वविदित है । 6 बाह्य तप हैं और 6 आभ्यंतर तप हैं । 6 आवश्यक हैं । पहिला आवश्यक है समता । रागद्वेष मोह से रहित साम्य परिणाम में अपना उपयोग लगाये रहना यह समता नाम का आवश्यक है । इसका दूसरा नाम सामायिक है । मुनियों का जो सामायिक नाम का आवश्यक है तो गृहस्थों की भाँति नियत समय के लिए नहीं है किंतु रागद्वेष न करके सदा समता परिणाम से रहने का जो अभ्यास है वह सामायिक नाम का आवश्यक है । जिस ज्ञानी संत ने केवल एक यही अपना उद्देश्य सामने रखा कि मुझे तो केवल इस अविकार ज्ञानस्वभाव में ज्ञान को मग्न रखना ही काम है, दूसरा मेरे लिए कोई काम ही नहीं, इसके अतिरिक्त सारे काम सारहीन हैं―समाज का काम, उपदेश का काम, दूसरे को दीक्षा शिक्षा प्रायश्चित आदि देने का काम आदिक जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे सब मेरे आत्महित की एकमात्र नहीं, ऐसा करना अच्छा नहीं है । यै प्रवृत्तियाँ करनी पडती हैं । और आचार्य इन व्यावहारिक क्रियावों को करके प्रतिक्रमण भी करते हैं । यहाँ तक कि दूसरें पुरुषों को मुनि दीक्षा भी देते, उनके उपकार में सहयोग देते, ऐसे काम करके भी आचार्य उस प्रमाद का अतिक्रमण करते है । यहाँ प्रमाद का मतलब आलस्य नहीं, किंतु आत्मस्वरूप से चिगकर किन्हीं भी बाहरी कार्यों में लगना उसे प्रमाद कहते हैं । आचार्य का इतना ऊँचा वैराग्य होता है कि साधुवों का शिक्षा दीक्षा आदिक व्यवहार करके शिष्यों का संपोषण करके भी अपने आपसे अपने आपकी प्रतीति, अपने आपके ध्यान कार्य से वे विचलित नही होते । जब कि साधु जनों का कोई बाहरी लेप नहीं है और उनको अवकाश है, अवसर है कि वह निरंतर अपने आपके स्थान में बना रहे, उन स्थितियों से भी बढ़कर अथवा उन स्थितियों के समान आचार्य परमेष्ठी में विरक्ति है, उपयोग लीनता और विरक्ति इन दो का समावेश आचार्य परमेष्ठी में है । 20वाँ मूल गुण है आचार्य परमेष्ठीका―वंदना, प्रभुवंदना, अरहंतसिद्ध देव की वंदना प्रतिदिन करना भावत:, चिरकाल करना और किन्हीं खास परिस्थितियों में, अपनी किन्हीं क्रियावों में कब कैसी वंदना करना, इन सबका परिचय आचार्य परमेष्ठियों को है । तो इस वंदना का स्वयं पालन करते हैं और अन्य शिष्यों से पालन कराते हैं । 21वाँ मूल गुण है स्तवन―प्रभु का स्तवन, तीर्थंकरों का स्तवन करना और कराना, यह उनका स्तवन नाम का मूल गुण है ।
आचार्य के आवश्यक गुणों में प्रतिक्रमणनामक मूल गुण―प्रतिक्रमण आवश्यक―रोज-रोज प्रतिक्रमण करना, दैवसिक प्रतिक्रमण, दिनभर के दोष का शाम को प्रतिक्रमण करना और रात्रि में लगे हुए दोष का प्रात: काल प्रतिक्रमण करना यह दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण है । कोई व्यापारी रोज-रोज हिसाब लगाये बिना नही रह सकता । रोज हिसाब लगाये बिना उसके व्यापार में अंधेरा है । रोज वह हिसाब लगाता है कि आज कितना गया, कितना आया, ठीक रोकड़ है कि नहीं? यों सब प्रकार की सम्हाल प्रतिदिन कर लिया करते हैं । जिनको व्यापार में रुचि है वे प्रतिदिन उसकी सम्हाल कर लेते हैं । कोई बिल्डिंग बनवाये या अन्य कोई कार्य करे तो वहां भी वह उसकी सम्हाल प्रतिदिन कर लेता है । आज क्या काम हुआ, कितना काम हुआ, क्या गल्ती हो गई, क्या प्रगति करना है । अब कल के लिए कैसा क्या बनाना है, यों सारी बातों की सम्हाल वह शाम को कर लेता है । उन सब सारहीन सम्हालो से आत्मा की सम्हाल तो बहुत ऊँची चीज है । तो ज्ञानी संत अपने आपके आत्मा की सम्हाल प्रतिदिन करते हैं, और प्रतिदिन ही नही, 24 घन्टे के दो बार (शाम को और प्रातःकाल) करते है । मैंने क्या गल्ती की? पाठ पढ़ जाना, यह भी एक श्रद्धा को लिए हुए हैं, यह भी ठीक है, लेकिन साथ ही सभी चिंतन रखना, मुझ से आज क्या दोष बने उन दोषों को मानसिक भावों की पद्धति से देखना हे । मैंने क्या विकल्प किया, कैसे भाव बनाया, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, इनके संबंध में मैंने मन में क्या दोष किया, कितना कौनसा पाप किया, इसका निरीक्षण करते हैं और अपनी गल्ती समझकर उसका कारण निहारकर चिंतन करते हैं कि क्यों यह विकल्प उठा? विकल्प उठाते ही पाप का बंध हो जाता है ।
शरीर से क्रिया कर सके या न कर सके । पर कर्म जो आत्मा में विस्रसोपचय रूप से पड़े हुए हैं वे शरीर की क्रिया को नहीं निरखते, वह क्रिया भी कुछ नही, किंतु ऐसा सहज निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि यहाँ आत्मा में पाप संबंधी भाव हुआ, विषय कषाय की प्रवृत्ति हुई तो उस हो क्षण में दूसरे भी कार्माण स्कंध कर्मरूप परिणत हो जाते हैं, और ऐसा सहज निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि उसी समय यह भी निर्णय हो जाता है कि ये कर्म इतने समय तक रहेंगे, ये कर्म इतनी डिग्री में फल देंगे, यह कर्म इस प्रकृति का फल देगा । और इस निषेक में ये इतने परमाणु हैं, इतने निषेकों में यह फल देने की प्रकृति है, ये सब तुरंत ही विभाग हो जाते हैं । तो ज्ञानी साधुसंतजन चिंतन करते हैं अपने दिन-रात में लगे हुए दोषों का और अविकार स्वभाव का ध्यान करके उन दोषों का प्रतिक्रमण करते हैं । और जो दोष विशेष बुद्धिगत हुए, सूक्ष्मता से ऊपर के हुए उनकी फिर गुरुवों से आलोचना करता है । जो लिया प्रायश्चित उनका फिर यह प्रतिक्रमण करता है ।
आलोचना का व्यावहारिक अर्थ है―गुरुवों से अपने दोष निवेदन करना । प्रतिक्रमण का व्यावहारिक अर्थ है कि लगे हुए दोषों का प्रायश्चित ग्रहण करके दोषों को दूर करना । प्रायश्चित का अर्थ है―आगामी काल में उस दोष को न करने देना और निश्चय से आलोचना का अर्थ है वर्तमान काल में जो विकार हो रहा है, विभाव हो रहा है उससे भिन्न अपने आपके स्वभाव को निरखना यह है परमार्थ आलोचना, और उस ही उपाय से अतीत वैभवों से भी अपने को न्यारा निरखा जा रहा है । यह उसका प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान है । आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान―इन तीनों का एक प्रयत्न है परमार्थ से । वह एक प्रयत्न क्या है इन तीनों का सो परख कीजिये । वर्तमान काल में उत्पन्न हुए विभावों से निराला अपने अविकारस्वभाव को निरखना इसमें वर्तमान दोष की भी निवृत्ति हुई और अतीत में जो कर्म बँधे थे, जो दोष किया था उनसे भी निवृत्ति हुई । और अब जब अतीत कर्मों को भी न्यारा निरखा है तो भावी दोष से भी निवृत्ति हुई, क्योंकि उनका फल फिर न होगा । यों वर्तमान दोष से, विभावों से निराला अपने अविकार ज्ञानमात्र स्वरूप को निरखना इसमें आलोचना, अतिक्रमण और प्रत्याख्यान परमार्थ से आया है । तो यह हुआ प्रतिक्रमण नाम का आवश्यक ।
आचार्य का स्वाध्यायनामक आवश्यक गुण―अब 22वां है है स्वाध्याय नाम का मूल गुण । स्वाध्याय का कितना उपकार है, इसके ही प्रताप से हमको बोध मिलता है । ज्ञानप्रकाश जगता है । समस्त बाह्य पदार्थों से जो अत्यंत भिन्न हैं, कोई संबंध नहीं है, व्यर्थ ही जिन में दृष्टि लगाकर अपने को दुःखी किया जाता है उन सब असार बाह्य भिन्न पदार्थों से निवृत्त करा सकने वाला यदि कोई साधन है तो बह है स्वाध्याय । स्वाध्याय के प्रताप से हम आप जो कुछ थोड़ा बहुत तत्त्वज्ञान में लग रहे हैं, कुछ आत्महित में चल रहे हैं, यह अपना ही तो उपकार है । गुरुवों के तीन कार्य बताये गए हैं―ज्ञान, ध्यान और तपश्चरण । स्थूलरूप से अर्थ तो यह है कि ज्ञान मायने स्वाध्याय करना, ध्यान मायने आत्मस्वरूप का, तत्त्वस्वरूप का एकाग्र चिंतन करना, ध्यान करना, यह ध्यान तप है । और तपश्चरण 12 प्रकार के बताये ही गए हैं । अब अंतरंग दृष्टि से ज्ञान का अर्थ है केवल जाननहार रहना, सहज ज्ञानस्वभाव को ज्ञान में बनाये रहना । अब आगे देखिये―सहजस्वभाव को ज्ञान में बनाये रहने का काम तपश्चरण और ध्यान से भी ऊँचा है । इसलिए इन तीनों में ज्ञान सर्वोपरि है । इस ज्ञान का अर्थ साधारण जानकारी न लेना किंतु अविकार ज्ञानस्वभाव ज्ञान में बसा रहे, ऐसी जो परिणति है उसका नाम है ज्ञान । इससे और ऊँचा क्या पुरुषार्थ है । सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है । जब गुरु इस ज्ञान पुरुषार्थ में न टिक सके, कभी संज्वलन कषाय के उदय से जो ऐसा ही उपयोग में आ जाय और उस ज्ञान परिणति से चिग जाय तो उसका कर्तव्य है ध्यान । वस्तुस्वरूप का आत्मतत्त्व के, चैतन्यस्वरूप के ध्यान में यदि बाधा आये, तो पुन: ध्यान करे, ध्यान की संतति बनाये रखना यह है दूसरा पुरुषार्थ । जब ध्यान में भी लीन न हो सके तो तपश्चरण करे (12 प्रकार के तप) इस प्रकार शुद्ध ज्ञानध्यान तपश्चरण में अपना पवित्र समय गुजरता हें ।
आचार्य परमेष्ठी का व्युत्सर्गनामक आवश्यक गुण―अंतिम मूल गुण है कायोत्सर्ग । काय का ममत्व त्यागना । जब काय का ममत्व ही त्याग दिया तो इसका भाव है कि सबसे ममत्व त्याग दिया । कोई पुरुष शरीर से तो ममता छोड़े और अन्य लोगो से बनाये रहे, प्रथम तो ऐसा होता नहीं, जिसको औरों से ममता है उसे अपनी काय से ममता है, और कोई पुरुष यदि अपने आप आत्महत्या भी कर ले तो उससे काय की ममता से भी काय का घात किया है । जिस शरीर को माना है कि मैं यह आत्मा हूँ, बस उसका यश बढ़े, बड़प्पन बढ़े, यह भाव उसने रखा था, उसमें आयी बाधा तो उस बाधा के संबंध में उसने आत्मघात किया । वहाँ भी मूल में काय में ममता ही रही । काय का ममत्व महापाप है । तो काय का ममत्व त्यागना यह कायोत्सर्ग है । जहां देह का भी ममत्व त्यागा वहाँ सबका ही ममत्व त्याग दिया । तो समस्त पर वस्तुवों से ममत्व का छोड़ देना इसका नाम कायोत्सर्ग है । मुख्यतया जीव को काय में ममत्व रहता है अतएव काय का ममत्व कैसे त्यागा गया है? उसका अर्थ है सबसे ममत्व के त्याग का । परद्रव्यों से ममत्व त्यागना यह कायोत्सर्ग नाम का अंतिम मूल गुण है । ऐसे 36 मूल गुणों से संपन्न आचार्य परमेष्ठी को मैं नमस्कार करता हूँ ।