वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 4
From जैनकोष
मिध्याबादिमदोग्रध्वांतप्रध्वंसिवचनसंदर्भां ।
उपदेशकान् प्रपद्ये मम दुरित्तारिप्रणाशाय ।।8।।
उपाध्याय परमेष्ठी की उपासना―सर्व आत्माओं में जो परम पद में स्थित हुए हैं उन्हें परमेष्ठी कहते है । ऐसे परमेष्ठी 5 होते हैं―अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । इनमें अरहंत तो वीतराग सर्वज्ञ देह सहित भगवान का नाम है, सिद्ध परमेष्ठी शरीररहित वीतराग सर्वज्ञदेव का नाम है । आचार्य परमेष्ठी जो साधुवों में से विशिष्ट तपश्चरण वाले है, विशिष्ट क्षमता रखते है, जो अपने संघ के सर्व साधुवों का आत्मपोषण कर सकते हैं वे आचार्य परमेष्ठी । यद्यपि आचार्य परमेष्ठी को साधुवों के आत्मपोषण में कुछ नहीं करना पड़ता । साधु ही स्वयं अपने कल्याण की भावना से आचार्य परमेष्ठी का शरण ग्रहण करते हैं और उनके आदेश में रहते हैं । और इस घटना से आचार्य परमेष्ठी के सहज व्यवहार से ही साधुवों का आत्मपोषण होता है । उपाध्याय परमेष्ठी वे कहलाते हैं जो साधु ज्ञान में बड़े ऊँचे हैं, जिनको 11 अंग, 14 पूर्वों में से भी किसी अंश का परिज्ञान है अथवा सबका परिज्ञान है, जिसमें इतनी क्षमता आयी है कि मिथ्यावादी पुरुषों के मदरूप घोर अंधकार को ध्वंस करने वाले जिनके वचन निकलते हैं अर्थात् इतना विशिष्ट ज्ञान कि कोई मिथ्या प्रलाप करें तो ऐसे पुरुषों का मद अंधकार दूर कर दें, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं ।
उपाध्याय परमेष्ठी के मूल गुण―उपाध्याय परमेष्ठी के मूल गुण 25 बताये हैं, किंतु यह आवश्यक नहीं है कि वे पच्चीसों मूल संपूर्ण ही प्रत्येक उपाध्याय में हों । वे 25 मूल गुण ज्ञान संबंधित हैं । 11 अंग और 14 पूर्व का ज्ञान होने से 25 अंग कहलाते हैं । कुछ कम अंगपूर्व के ज्ञानी साधु भी उपाध्याय परमेष्ठी हो सकते हैं, किंतु इतनी ज्ञान क्षमता हो कि उस समय के मिथ्यादृष्टियों का मद दूर कर सके जो उस सम्यज्ञान में अपनी श्रेष्ठता रखते हैं और जिनको आचार्य उपाध्याय पद देते है वे ही मात्र उपाध्याय परमेष्ठी हैं । केवल ज्ञान में बड़ा होने से स्वयं ही उपाध्याय नही कहलाते । ज्ञान में महान हों और आचार्य परमेष्ठी जिनको उपाध्याय पद प्रदान करें वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं । उपाध्याय परमेष्ठी कितने महान् बहुश्रुत ज्ञानमूर्ति हैं यह उनके 25 मूल गुणों के स्वरूप से जान सकते हैं । 11 अंगों का ज्ञान व 14 पूर्वों को ज्ञान होना ये 25 उपाध्याय परमेष्ठी के मूल गुण हैं । आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृकथा, उपासकाध्ययन, अंत:कृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिक्दशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग―ये 11 अंग है । अग सब 12 होते हैं 12वें अंग का नाम दृष्टिवाद अंग है । इस दृष्टिवाद अंग के भेद 14 पूर्व है तथा परिकर्म सूत्र आदिक हैं इन सबमें पूर्वों का ही परिमाण अत्यधिक होने से 14 पूर्व कहकर बारहवां अंग नहीं कहा । यो 11 अंग व 14 पूर्व ये सब मिलकर 25 गुण उपाध्याय परमेष्ठी के कहलाते हैं । पूर्वो के नाम ये हैं―उत्पादपूर्व, आग्रायणीय पूर्व, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणवाद, क्रियाविशाल, लोकबिंदुसार ये 14 पूर्व हैं । इन 11 अंग व 14 पूर्वों का जिन उपाध्याय परमेष्ठी को ज्ञान है वे 25 मूल गुणधारी उपाध्याय परमेष्ठी हैं ।
आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग व व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगों का विषय व पदपरिमाण―अब इन अंग पूर्वो का विषय व पदपरिमाण कहते हैं । इस प्रकरण में एक पद 16348307888 अक्षरों का होता है । आचारांग में साधुवों के समस्त आचरण का वर्णन है । साधु किस प्रकार बैठें, भोजन करें, रहें, सब विधियों का हितपरक वर्णन है । इसमें 18 हजार पद हैं । सूत्रकृतांग में ज्ञान का, विनयादि क्रियाओं तथा धर्म क्रियाओं के संबंध में स्वमत परमत की क्रियाओं का विशेष वर्णन है । इसके 36 हजार पद हैं । स्थानांग में जीव पुद्गल आदिक द्रव्य के एक आदिक स्थानों का निरूपण है । जैसे जीव द्रव्य चैतन्य सामान्य की दृष्टि में एक प्रकार है, सिद्ध और संसारी की अपेक्षा दो प्रकार हैं, संसारी जोव स्थावर विकलेंद्रिय सकलेंद्रिय के भेद से तीन तरह का है, इसी तरह तीन तरह के जितने और भी पदार्थ हैं, चार-चार आदि तरह के जो-जो पदार्थ हैं उन सबका एक संकलन रूप से वर्णन है । इसमें 42 हजार पद हैं । समवायांग में समानता का वर्णन है । कोई द्रव्य से समान है, कोई क्षेत्र से समान है, कुछ काल से समान है, कुछ भाव से समान है, जैसे धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य एक समान हैं, ये द्रव्य से समान हैं । मनुष्य क्षेत्र, प्रथम नरक का प्रथम इंद्रक विल स्वर्ग का प्रथम इंद्रक विमान ये सब बराबर के हैं । उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकाल ये दोनों समान हैं । केवलज्ञान, केवलदर्शन ये दोनों समान हैं । इस तरह समान-समान बातों का इसमें वर्णन है । इसके एक लाख चौंसठ हजार पद हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग में जीव के अस्तित्त्व नास्तित्त्व आदिक संबंधी 60,000 प्रश्न गणधर देव ने तीर्थंकर प्रभु के निकट किये हैं उनका वर्णन है । इसमें 2,2800 पद हैं ।
ज्ञातृकथा, उपासकाध्ययन, अंत:कृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण व विपाकसूत्र अंग का विषय व पदपरिमाण―ज्ञातृकथांग में तीर्थंकर के धर्म की कथा का जीवादिक पदार्थों के स्वभाव का वर्णन और गणधर के प्रश्नों के उत्तर का वर्णन है । इसका दूसरा नाम धर्मकथांग भी है । इसमें 5,36,000 पद हैं । उपासकाध्ययनांग में श्रावकों की प्रतिमा, व्रत, शील, आचरण क्रिया आदिक का वर्णन है । इसमें 11,17000 पद हैं । अंत: कृद्दशांग में एक-एक तीर्थंकर के संबंध में 10-10 महामुनि बहुत तीव्र उपसर्ग सहकर समतापरिणाम से कर्मों का नाश करके मोक्ष पधारे हैं, उनका वर्णन है । इसमें 23,28,000 पद हैं । अनुत्तरोपपादिकदशांग में एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में 10-10 महामुनि घोर उपसर्ग सहकर पंच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होते हैं उनका वर्णन है । इसमें 92,44, 000 पद हैं । प्रश्नव्याकरणांग में भूत भविष्यत्काल संबंधी लाभ-हानि, सुख दु:ख, जीवन मरण, शुभ अशुभ आदिक अनेक प्रश्न हैं, उनका उत्तर यथार्थ बताने का उपाय बताया है । तथा इसी में आक्षेपिणी, विज्ञेपिणी, सम्वेदिनी, निर्वेदिनी नामक चार प्रकार की कथाओं का वर्णन है । इसमें 93, 16000 पद हैं । विपाकसूत्रांग में कर्मों के बंध, उदय, सत्ता, फल, शक्ति, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा किस-किस प्रकार से फल होता है, इस सबका वर्णन है । इसमें 1,84,00,000 पद हैं ।
दृष्टिवाद अंग के भेद, विषय व पदपरिणाम―12 वां अंग दृष्टिवाद नाम का है । जिस अंग में 108,68,56,005 पद हैं । दृष्टिवादांग के 5 भेद हैं―परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । जिसमें परिकर्म के चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति ऐसे 5 प्रकार हैं । चंद्रप्रज्ञप्ति में चंद्रमा का गमन, चंद्रमा का परिवार, आयु काल की हानि वृद्धि, चंद्र इंद्र की देवियाँ, वैभव, ग्रहण आदिक का वर्णन है । इसमें 36,50,000 पद हैं । सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य की ऋद्धि, वैभव, देवी परिवार आदिक का वर्णन है । इसमें 5,03,000 पद हैं । जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में जंबूद्वीप संबंधी मेरुक्षेत्र, कुलाचल, सरोवर, नदी आदिक रचनाओं का वर्णन है । इसमें 3,25,000 पद हैं । द्वीपसागर प्रज्ञप्ति में सभी द्वीप सागरों की रचनाओं का, उनमें जहां-जहां भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी के आवास और वही जो जिनमंदिर आदिक हैं उन सबका वर्णन है । इसमें 52,36,000 पद हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति में जीव अजीव आदिक पदार्थों के प्रमाण का वर्णन है । इसमें 84,36,000 पद हैं । दृष्टिवाद अंग के द्वितीय भेद सूत्र में मिथ्यात्व संबंधी 363 कुवादों का वर्णन हैं, और उन कुवादों का वर्णन करके निराकरण करते हुए यथार्थस्वरूप का वर्णन है । जैसे कि जीव अबंधक ही है, अकर्ता ही है, निर्गुण ही है, अभोक्ता ही है, स्वप्रकाशक ही है, परप्रकाशक ही है आदिक अनेक एकांत पक्षपात हैं उनका वर्णन और उनका निराकरण है । इसमें 88,00,000 पद हैं । 12वें अंग का तीसरा भेद प्रथमानुयोग है, उसमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 नारायण, 9 प्रतिनारायण, 9 बलभद्र ऐसे 63 उत्तम पुरुषों का वर्णन है । इसमें 5000 पद हैं ।
दृष्टिवाद अंग के अंतर्गत पूर्वों के वर्णन में उत्पादपूर्व, अग्रायणीपूर्व, वीर्यवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व व ज्ञानप्रवादपूर्व का विषय व पदपरिमाण―12 वें अंग का चौथा भेद है―पूर्वगत । इसमें 14 पूर्व होते है―उत्पादपूर्व में जीव पुद्गल आदि के जिस काल में, जिस क्षेत्र में जिस पर्याय का उत्पादव्ययध्रौव्य होता है उन धर्मों की अपेक्षा लगाकर उनके स्वभाव का वर्णन किया है । इसमें 100,00,000 पद हैं । अग्रायणीपूर्व में 7 तत्त्व, 9 पदार्थ, 6 द्रव्य और सुनय दुर्नय आदिक का वर्णन है । इसमें 96,00,000 पद हैं । वीर्यानुवाद पूर्व में वीर्यपद, वीर्य, इंद्रादिक की ऋद्धियाँ, तप की शक्तियाँ, चक्रवर्ती बलदेव आदिक की शक्तियाँ, लाभ, संपदा आदिक का वर्णन है, इसमें 70,00,000 पद हैं । अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व में पदार्थों का स्वचतुष्टय परचतुष्टय आदिक की अपेक्षा करके अस्ति नास्ति आदि अनेक विधि निषेधों का वर्णन है । इसमें 60,00,000 पद है । ज्ञान प्रवादपूर्व में ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान के भेद, ज्ञान का विषय फल आदिक का वर्णन है । इसमें 99,99,999 पद हैं ।
दृष्टिवादांग के अंतर्गत सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद व कर्मप्रवाद का विषय एवं पदपरिणाम―सत्य प्रवादपूर्व में वचनगुप्ति, वचन संस्कार के कारण 12 प्रकार की भाषा सत्य असत्य के भेद इन सबका वर्णन है । इसमें 1,00,00,006 पद हैं । आत्मप्रवादपूर्व में आत्मा के संबंध में कर्तृत्व भोक्तृत्व आदिक विषयों का निश्चय व्यवहार की अपेक्षा वर्णन है । जैसे कि व्यवहारनय से इंद्रिय बल आदिक प्राणों को धारण करे सो जीव है । निश्चयनय से चैतन्य प्राणी को धारण करे सो जीव है आदिक आत्मा के संबंध मैं वर्णन है । व्यवहार और निश्चय का मुकाबला एक-एक विषय में किया गया है जैसे जीव व्यवहारनय से शुभाशुभकर्म का कर्ता है। निश्चय से अपनी परिणति का कर्त्ता है । व्यवहारनय से शुभाशुभ कर्मों का भोक्ता है, निश्चय से निजस्वरूप का भोक्ता है । व्यवहारनय से कर्मवश होकर संसाररूप परिणमता है, निश्चय से स्वयं अपने ज्ञानदर्शन की परिणति में परिणमता है आदिक आत्मा के स्वभाव का कथन किया गया है । इसमें 36,00,00,000 पद हैं । कर्मप्रवादपूर्व में ज्ञानावरण आदिक कर्म के संबंध में उनकी सब अवस्थाओं का वर्णन है । तथा मन, वचन, काय की अनेक क्रियाओं का वर्णन है । इसमें 1,80,00,000 पद हैं।
दृष्टिवादांग के अंतर्गत प्रत्याख्यानवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणवाद क्रियाविशाल व लोकबिंदुसार नामक पूर्व का विषय तथा पदपरिमाण―प्रत्याख्यानवादपूर्व में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शक्ति संहनन के अनुसार त्याग, उपवास, भावना आदिक का वर्णन है । इसमें 84,00,000 पद हैं । विद्यानुवादपूर्व में 700 अल्प विद्यायें और 500 महा विद्यायें, इनके स्वरूप का, सामर्थ्य का, मंत्र तंत्र साधना का, सिद्धविद्या के फल का तथा अष्टांग नाम ज्ञान का वर्णन है । इसमें 1,10,00,000 पद हैं । कल्याणवादपूर्व में तीर्थंकर, चक्री, बलदेव आदिक के कल्याण का महोत्सव और तीर्थंकरत्व का कारणभूत षोडशकारण भावनाओं का तपश्चरण आदिक का वर्णन है । इसमें 26 करोड़ पद है । प्राणवादपूर्व में 8 प्रकार के वैद्यक चिकित्सायें भूत आदिक व्याधियां दूर करने के मंत्र आदिक, विष दूर करने के मंत्र आदिक, स्वर विज्ञान, आदिक विषयों का वर्णन है । इसमें 13,00,00,000 पद हैं । क्रियाविशालपूर्व में संगीतशास्त्र, अलंकार आदिक अनेक कलावों का वर्णन है । पुरुषों की कलायें, स्त्रियों की कलायें, सम्यक्त्व आदिक क्रियायें, देववंदन क्रियायें, इनका वर्णन है । इसमें 900,00,000 पद है । लोकबिंदुसार पूर्व में तीनों लोक के स्वरूप का बीजगणित आदिक का, मोक्ष के कारणभूत क्रियावों का मोक्षसुख का वर्णन है । इसमें 12,50,00,000 पद हैं ।
दृष्टिवाद के अंतर्गत चूलिका के भेदों का विषय व पदपरिमाण―12वें अंग के पंचम भेद चूलिका में जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता, आकाशगता विद्याओं का वर्णन है । जलगता में जल को रोकने के लिए जल में गमन करना, अग्नि को रोकना, अग्नि-प्रवेश, अग्नि-भक्षण आदिक क्रियावों के कारणभूत मंत्र-तंत्र का वर्णन है । इसमें 2,09,89,200 पद हैं । स्थलगता―चूलिका में पर्वतभूमि में प्रवेश करना शीघ्रगमन, इन मंत्र-तंत्रों का वर्णन है । इसमें 2,09,89,200 पद हैं, मायागत चूलिका में इंद्रजाल, विक्रिया के मंत्र-तंत्र का वर्णन है । इसमें 2,09,89,200 पद हैं । रूपगता चूलिका में सिंह, हाथी, हिरण आदिक के रूप पलटने के मंत्र-तंत्र तपश्चरण का निरूपण है । चित्रामधातु रस-रसायन का भी इसमें वर्णन है । इसमें 2,09,89,200 पद हैं । आकाशगता चूलिका में आकाशगमन के मंत्र-तंत्र आदिक का वर्णन है । इसमें 2,09,89,200 पद हैं । इस तरह यह समस्त द्वादशांग है । इसके ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं।
श्रुतज्ञान में जघन्य श्रुतज्ञान से उत्कृष्ट श्रुतज्ञान तक का वृद्धिवर्णन―श्रुतज्ञान में सबसे कम ज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक के है । इसके अक्षर के अनंतवां भाग ज्ञान बताया गया है । इस ज्ञान के ऊपर और अनेक वृद्धियाँ होकर असंख्यात लोकप्रमाण षड्वृद्धियाँ ऊपर जाकर पर्यायसमास नाम का श्रुतज्ञान होता है । जो कि पर्याय समास का अंतिम भेद है । इससे अनंतगुना करने पर अक्षर नाम का श्रुतज्ञान होता है अर्थात् एक अक्षर के प्रसंग में जितने ज्ञान का प्रमाण होता है उतने ज्ञान को अक्षर बराबर ज्ञान कहते हैं । इस अक्षर श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धि हो-होकर जब तक एक पूरा पद नहीं होता तब तक अक्षरसमास ज्ञान कहलाता है । अक्षरसमास ज्ञान में एक अक्षर ज्ञान बढ़ने पर पद नामक श्रुतज्ञान होता हे । यह पद 1634,8307,888 अक्षरों का एक पद होता है । इस पद नामक श्रुतज्ञान के ऊपर एक- एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान बढ़ने पर एक पद कम संघातक पद समास श्रुतज्ञान है । पदसमास श्रुतज्ञान में एक अक्षर बढ़ने पर संघात श्रुतज्ञान होता है । एक संघात में नरकगति की एक पृथ्वी का वर्णन हो जाता है । संघात श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षरप्रमाण श्रुतज्ञान बढ़ने पर एक कम प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान तक संघातसमास होता है । संघातसमास में एक अक्षर बढ़ने पर प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है । प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर अधिक होने पर एक कम अनुयोग द्वार तक प्रतिपत्तिसमास होता है । इसमें एक अक्षर बढ़ने पर अनुयोगद्वार श्रुतज्ञान होता है । एक अनुयोग में 14 मार्गणाओं का पूर्ण ज्ञान भरा हुआ है । अनुयोग श्रुतज्ञान पर एक-एक अक्षर बढ़ने में एक कम प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान,तक अनुयोगसमास श्रुतज्ञान होता है । उसमें एक अक्षर बढ़ने पर प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । प्राभृत-प्राभृत श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर बढ़ते रहने में एक कम प्राभृत श्रुतज्ञान तक प्राभृत-प्राभृत समास होता रहता है । इसमें एक अक्षर बढ़ने पर प्राभृत श्रुतज्ञान होता है । इसके ऊपर एक-एक अक्षर के बढ़ते रहने में एक अक्षर कम 20वें प्राभृत तक प्राभृतसमास होता है। 20वें प्राभृत के ऊपर एक अक्षर प्रमाण श्रुतज्ञान बढ़ने पर वस्तु नामक श्रुतज्ञान होता है । वस्तु श्रुतज्ञान के ऊपर एक-एक अक्षर बढ़ते रहने में एक कम अंतिम वस्तु श्रुतज्ञान तक वस्तुसमास श्रुतज्ञान होता रहता है । अंतिम वस्तु श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि होने पर पूर्व नामक श्रुतज्ञान होता है । पूर्व श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर बढ़ने पर पूर्वसमास श्रुतज्ञान होता है । यह पूर्वसमास श्रुतज्ञान तब तक बढ़ता रहता है जब तक कि 14वें पूर्व का अंतिम अक्षर उत्पन्न होता है । इस प्रकार श्रुतज्ञान के अनेक विस्तार है इन सबके ज्ञाता उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं । यद्यपि समस्त द्वादशांग के ज्ञाता आचार्य भी होते हैं तो भी आचार्य जिनको उपाध्याय पद देते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं ।
पाप बैरी के विनाश के अर्थ ज्ञानशिक्षक उपाध्याय परमेष्ठी का शरणग्रहण―साधुजन अपने ज्ञान की वृद्धि के लिए और आत्मकल्याण कारक सद्बोध के विकास के लिए उपाध्याय परमेष्ठी का शरण ग्रहण करते हैं । वे उनसे अध्ययन करते हैं, तत्त्वाभ्यास करते हैं । ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी का मैं पाप बैरियों के नाश के लिए शरण ग्रहण करता हूँ । पाप को, अज्ञानांधकार को, मोह बेरी को दूर करने में समर्थ एक ज्ञान ही है । जीव का धन सिवाय ज्ञान के और क्या है? ये घर, सोना, चाँदी आदिक बाह्य वैभव जिनमें आज का मनुष्य एकदम बह रहा है, उन ही को अपना सार समझता है और इन रात-दिन के चौबीसों घन्टे धन-वैभव के पीछे पड़ा हुआ है, वे समस्त बाह्य वैभव असार है, ये आत्मा को काम देने वाले नहीं हैं । रही एक जिंदगी की बात, तो यदि एक जीवन में कुछ स्वार्थी जनों ने, मोही जनों ने थोड़ा भला कह दिया तो इतने मात्र से आत्मा का क्या लाभ होता है और इतनी-सी असार बात के पीछे अपनी सारी जिंदगी उस ही पंक में लपेटे रहना यह कितना बड़ा अनर्थ है । चूंकि इस अभिप्राय के लोगे बहुत हैं, प्राय: करके सभी जन इस ही लौकिक सुख की धुन में पड़े हुए हैं, सो लोग धन के विशाल हो जानें से बड़प्पन महसूस करते हैं । यह बड़ा आदमी है, ऐसा कहकर लोग यही अर्थ लेते हैं कि इसके पास धन बहुत है । किसी सच्चरित्र गरीब के लिए बड़ा कहने वाला यहां कोई नहीं मिलता । यह बड़ा आदमी है ऐसा कहने वाले का भाव ही यह है कि यह बड़ा धनी है और सुनने वाले भी यही अर्थ लेते हैं । तो जिस धन-वैभव के पीछे आज सारा मानव इतना बहा जा रहा है वह धन वैभव इस जीव के लिए काम न देगा । जीव का काम देने वाला है तो एक ज्ञान ही है । धन वैभव भी हो तो भी सुखी वह ज्ञान के बल पर ही रह पाता है । गरीब हो तो भी वह सुखी ज्ञान के बल पर ही रह पाता है । जीव का साथी ज्ञान ही है, जीव का शरण ज्ञान ही है । घर में रहने वाले किसी पुरुष का दिमाग चल जाय, पागल हो जाय तो सब लोग उसे मरे की तरह जानकर स्नेह छोड़ देते हैं । यदि कुछ आशा हो कि इसका दिमाग सुधर सकता है तब तो थोड़ी बहुत प्रतीति रखते हैं, लेकिन जान लिया कि यह तो बेकार हो गया, इसके पागलपन पूरा आ गया तो सब लोग उसे चित्त से बिल्कुल उतार देंगे । ज्ञान सही है तो लोक में पुण्योदय से साथी भी मिल जायेंगे और अपना ही ज्ञान यदि मिथ्या हो गया, भ्रांत हो गया तो साथी भी साथ छोड़ देंगे । तो जीव का असली सारथी शरण एक ज्ञान ही है । सम्यक् धर्मसंबंधित ज्ञान जिनकी शरण ग्रहण करने से प्राप्त होता है वे उपाध्याय परमेष्ठी हम आप सब लोगों के कितने बड़े उपकारी कहें जायें? तो ऐसे उपाध्यायों की में अज्ञानांधकार, मोहांधकार दूर करने के लिए शरण को ग्रहण करता हूं ।