वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 8
From जैनकोष
अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याया: सर्वसाधव: ।
कुर्वंतु मंगला: सर्वे निर्वाणपरमश्रियम् ।।8।।
मंगलमय प्रभु से मंगलरूप निर्वाण परमश्री के लाभ की कामना―अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु ये सब मेरे मंगलरूप हो और निर्वाणरूप परम लक्ष्मी को देवें । अरहंत―जिनके चार घातियाकर्म दूर हो गए हैं, जिनके रागद्वेष मोह का समूल नाश हो गया है, केवलज्ञान के द्वारा जिनके ज्ञान में सारा लोकालोक प्रतिभासित होता है, जिनके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और, अनंतवीर्य प्रकट हुआ है ऐसे अरहंत देव हम आप सबको मंगल प्रदान करें । सिद्धभगवान―जिन्होंने ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा अष्ट कर्मों को दग्ध कर दिया है, और जो जन्म जरा मरण से परे हो गए हैं, जिन्होंने शाश्वत आत्मपद प्राप्त कर लिया है, जो लोक के अग्र भाग में निवास करते हैं, शरीररहित केवल ज्ञानमात्र ज्ञान-ज्ञान ही जिनका स्वरूप है, ऐसे देहरहित निकल परमात्मा हम आप सबको परमपद प्रदान करें । यद्यपि भगवान अपने अनंतज्ञान और अनंत आनंद का अनुभव छोड़कर भक्तों की पुकार में, भक्तों के अतिशय में नहीं लगा करते हैं । वे तो अपने ज्ञानानंद में मग्न रहा करते हैं, किंतु भक्तजन, उनके इस विशुद्धस्वरूप को निहारकर स्वयं ही उस मार्ग में लगते हैं और परमपद को प्राप्त करते हैं । तो जिनका आलंबन लिया था कल्याण प्राप्ति करने वाले जीवों ने निमित्तदृष्टि से यह कहा जाता हैं कि प्रभु ने उनका कल्याण किया और यह बात आलंबन प्रसंग में युक्तिसंगत है ।
प्रभु की प्रभुता के दर्शन का उद्यम―प्रभु की प्रभुता क्या है ? उस प्रभुता के हमें दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं? जब हम अपने भाव प्रभु की वीतरागता के ढंग से अपनी योग्यतानुसार वीतरागता में अपने को ढालकर निरखेंगे तो प्रभुता के दर्शन होंगे । हम रहें तो सविकल्प, चिंतावान, मोही और चाहें कि निर्मोह शुद्ध ज्ञानस्वरूप के दर्शन पा ले तो यह बात तो अशक्य है । हमें खुद को स्वयं को उस वीतरागतारूप प्रवर्ताना होगा अपनी योग्यतानुसार और बाह्य विकल्पों को तोड़ना होगा । जब हम अपने आपमें सत्य विश्राम पायेंगे तो हम प्रभुता के दर्शन कर सकते हैं । लोक में रहकर रागद्वेष मोह बढ़ाकर अपने आपके उपयोग को कितना ही कलुषित कर लें, भ्रमा लें, किंतु, इन व्यवहारों में आत्मा का लाभ कुछ नहीं मिलता । भावना यह होनी चाहिए कि हे प्रभो ! इस जगत में सब चीजें असार हैं । जो देह मिला यह भी साथ न देगा, धन वैभव तो प्रकट पर हैं । चेतन अन्य लोग ये भी मेरे कुछ नहीं हैं । मेरे लिए तो मेरे आत्मा में से मेरा ज्ञान रमण करे बस यह स्थिति चाहिए । इसके सिवाय और कुछ मेरी कामना नहीं है, भाव यह होना चाहिए । यहाँ हम किसी दूसरे की अपेक्षा, सहारा लेकर चाहे कि हम सुखी हो जायें तो यह बात नहीं बन सकती है । कारण यह है कि हमें सुख दुःख हमारे ही सुख दु:ख के परिणमन से प्राप्त होते रहते हैं ।
प्रभुशासन में वस्तुस्वरूप का दर्शन और कल्याण का स्पष्ट मार्ग―सभी पदार्थ, अपने-अपने स्वरूप से नई-नई वृत्ति पैदा करते हैं, पुरानी परिणतियां विलीन करते हैं और शाश्वत रहा करते हैं । यहाँ कौन मेरा साथी होगा? मैं द्रव्य हूँ अतएव अपनी ही परिणति से मैं परिणमता रहता हूँ, अपने में ही उन्मग्न निमग्न होता रहता हूँ । जैसे कि समुद्र अपने आप में ही तरंग वाला बनता है, अपने आपमें ही तरंगरहित होकर शांत बनता है । जब लहर उठ रही है तो वह कोई दूसरी चीज तो नहीं बन गयी । वह समुद्र ही है । अब लहर वाला हो गया है । जब लहर मिट गयी तो वह समुद्र ही है, कुछ दूसरी चीज नहीं हो गयी । तो जैसे समुद्र हवा का निमित्त पाकर लहर वाला बनता है और हवा का निमित्त हटते ही लहररहित होकर शांत हो जाता है तो जब लहर वाला बना समुद्र, तब भी वह दूसरा कुछ नहीं था, स्वयं का ही स्वरूप इस तरह से बन रहा था । जब लहररहित हो गया तब भी कुछ और नहीं बन गया । स्वयं ही वह समुद्र मानो अपने आप सहज शिक्षा दे रहा है । इसी प्रकार जब हम विकारपरिणत कहलाते हैं उस समय भी यह मैं कुछ और द्रव्य नहीं बन गया । मैं ही कर्मोदय का निमित्त पाकर स्वयं अपने आपमें विकृत बन जाता हूँ, और जब विकाररहित होऊँगा तब भी मैं कहीं दूसरा कुछ नहीं हो जाऊंगा । जो मैं था, जो मेरे स्वभाव में है बस वही प्रकट हो जाता है । कितना शुद्ध और स्पष्ट मार्ग है प्रभु शासन का । अपने आपको एक शांतस्वभाव में प्रवर्ताना है तो अपने आपके निजस्वरूप को देख ले। पर से दृष्टि हटा लें, पर का मोह छोड़ दे, अपने आपके सही स्वरूप का बोध कर लें, सब कुछ मंगल हो जायगा । मेरा कल्याण करने कोई दूसरा न आयगा । प्रभु तो एक आश्रयमात्र है । अर्थात् हम ध्यान करते हैं प्रभु का तो उस समय प्रभु का शुद्ध स्वरूप मेरे उपयोग में रहता है तो उपयोग भी स्वच्छ रहता है, उसका प्रताप है कि हम कल्याण पा लेते हैं । करना अपने को ही होगा । प्रमाद न करना चाहिए । यथाशक्ति उस ज्ञानविधि में लगे रहना चाहिए । सिद्धप्रभु इस ही उपाय से सिद्ध हुए हैं ।
आचार्य व उपाध्याय परमेष्ठी से मंगलप्रार्थना―साधुवों के रक्षक प्रवर्तक आचार्यदेव विशिष्ट विरक्त रहते हैं । करुणावश साधुवों को शिक्षा-दीक्षा, प्रायश्चित आदिक प्रयत्न करते हुए अपने स्वरूप से नहीं डिगते, अहंकार में नहीं आते, परदृष्टि में नहीं उलझते । इतना उत्कृष्ट उनका सहज वैराग्य रहता है, जिसमें वे सर्व गुण प्राप्त हो जाते हैं कि जिनके कारण साधुजन बड़ी सुख सुविधा से रत्नत्रयमार्ग में चलते हैं । वे आचार्य परमेष्ठी हैं जिन्होंने ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार इनको साध लिया है, इन पर जिनका अधिकार है । जो द्वादशांग के अथवा कुछ अंग पूर्वी के ज्ञाता हैं ऐसे आचार्यदेव हमको भी मोक्षपथ प्रदान करें । उपाध्याय परमेष्ठी ज्ञानपुंज, जिनके प्रतिक्षण ज्ञान बर्तता है, अन्य साधु शिष्यजन जिनसे विद्याभ्यास करते हैं जिनके आगे मिथ्यावादियों का पद नहीं टिक सकता है इतने विशिष्ट ज्ञानी उपाध्याय परमेष्ठी जो घोर संसाररूपी भयानक अटवी में, जहां पर कि विकराल विकाररूपी सिंह गरजते रहते हैं, जहाँ पर जीव अपने कर्म को भूले हुए विपरीत पथ में गमन करते हैं, उनको जो प्रतिबोध कराते हैं, उपदेश देते हैं वे उपाध्याय परमेष्ठी सदा वंदनीय हैं ।
साधु परमेष्ठी से मंगल प्रार्थना―साधु कितना हितकारी शब्द है, हितकारी अर्थ है । जो आत्मा के स्वभाव की साधना करे उसे साधु कहते हैं । साधु को सिवाय शुद्ध ज्ञानोपयोग रखने के प्रयत्न के अन्य कोई बात चित्त में ही नहीं है, और यही कारण है कि वे सर्व परिग्रह से रहित निर्ग्रंथ रहते हैं, उनके केवल शरीरमात्र परिग्रह रहता है और वे अपने आत्मा की साधना में निरंतर जुटे रहा करते हैं, एकांत स्थान, देखते हैं जहाँ आत्मध्यान के विचलित होने का बाहरी निमित्त न हो । जो तपश्चरण में बड़े कुशल है, अनेक उपवास, शीत गर्मी आदिक की अनेक बाधायें, अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करने की जिनके क्षमता है, कोई दुष्ट लोग उन्हें प्रतिकूल वचन भी कहे, गाली भी दें तो भी वे साधु जानते हैं कि ये सब भाषावर्गणा के परिणमन हैं । जीवों की कषायों के ये सब परिणाम हैं । जो ज्ञाता दृष्टा रहते हैं, समतापरिणाम में रहते हैं, ऐसे साधु परमेष्ठी मेरे द्वारा सदा वंदनीय हैं । इन साधु जनों ने बड़े-बड़े उग्र तपश्चरण करके अपने शरीर को क्षीण कर लिया है, जो धर्मध्यान शुक्लध्यान के अधिकारी हैं, जो तपश्री से सदा संपर्क रखते हैं ऐसे साधु मेरे को भी मोक्ष पथ की बुद्धि दिलाने वाले रहें । साधु की मुद्रा ही ऐसी शांत है कि जिससे भक्त को भी यथार्थ ज्ञान झलक रहा है उस मुद्रा के दर्शन करने मात्र से लोग सम्यक्त्व उत्पन्न कर लेते हैं, सम्यक्त्व उत्पन्न करने का निमित्त साधुदर्शन है, जिनबिंब दर्शन हैं । तो अब समझिये कि साधु का कितना उच्च पद है आत्मसाधना का । ऐसे साधु पुरुष हम सबके मंगलरूप हों और ये सब निर्वाण परमश्री को प्रदान करें ।