वर्णीजी-प्रवचन:पंचगुरु भक्ति - श्लोक 7
From जैनकोष
एष पंचनमस्कार: सर्वपापप्रणाशन: ।
मंगलानां च सर्वेषां प्रथमं मंगलं मतं ।।7।।
णमोकार मंत्र की सकलपापर्ध्वसता एवं मंगलरूपता―यह पंचनमस्कार मंत्र सर्व पापों का नाश करने वाला है और समस्त मंगलों में पहिला मंगल माना गया है । चूंकि पंचनमस्कार मंत्र में निर्दोष आत्माओं का स्मरण किया जाता है, इस कारण इस मंत्र में महत्त्व और प्रभाव बढ़ गया है । जो आत्मा पंचनमस्कार मंत्र का जपने वाला है वह स्वयं प्रभावित होकर ही अतिशय प्रकट करता है और यह बात शुद्ध आत्मा के आश्रय करने से ही बनती है । इस मंत्र में स्मर्तव्य शुद्ध आत्मा हैं अरहंत और सिद्ध । आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन शुद्ध होने के प्रयत्न में लगे हैं ये भी सन्मार्ग संबंधित होने से शुद्ध हैं । तो पंच परमेष्ठियों के स्मरण के प्रसंग में शुद्ध तत्त्व का ही संबंध है, इस कारण पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण समस्त पापों का नाश करने वाला है । जब तक हृदय में पापवासना रहती है तब तक वह जीव शुद्ध आत्मा की उपासना में नहीं लगता । जिसकी जैसी भावना होती है वह उसके अनुसार ही अपना संग बनाता है । जिसका पापभाव है वह पाप का ही संग बनायेगा । जिसका धर्मभाव है वह धर्मात्माओं का संग बनायेगा । तो धर्मात्माओं में ये पंच परमेष्ठी प्रधान हैं । तो अब धर्मभाव का, शुद्ध ज्ञानभाव का आलंबन लिया है पंच पदों में निरखकर तो उस पुरुषार्थ के कारण आत्मा पवित्र बनता है और पाप भी दूर हो जाते हैं । लोक में जितने मंगल माने गए हैं उन सब मंगलों में प्रथम मंगल, प्रधान मंगल, एकमात्र मंगल यह पंचनमस्कार मंत्र है । लोग अब भी अनेक कार्यों की आदि में णमोकार मंत्र का स्मरण करते हैं और आचार्यों का भी यही संदेश है कि गृहस्थों के द्वारा गृहस्थधर्म की नीति के अनुकूल धर्म के कार्य किए जायें । गृहस्थधर्म के कार्य विवाह प्रीतिभोज आदिक अवसर पर भी उन प्रसंगो में एक-एक घटना के आरंभ में णमोकार मंत्र का स्मरण करना चाहिए । अलौकिक उद्देश्य से णमोकार मंत्र का स्मरण धर्मभाव को उत्पन्न करता हे और लौकिक कार्यों के अवसर पर णमोकार मंत्र का स्मरण विघ्नों का नाश करता है । तो यह पंचनमस्कार मंत्र सर्व मंगलों में प्रथम मंगल है ।
पंच परमगुरु के प्रति दृढ़तम श्रद्धान रखने का कर्तव्य―भैया ! श्रद्धा इतनी दृढ़ होनी चाहिए कि पंच परम गुरुवों के सिवाय अन्य किसी रागी द्वेषी, देवी देवता या पुरुषों में हमारा आदर न पहुंचना चाहिए धर्म के नाते से । प्राय: लोग कुबुद्धिवश जैसा कि लोगों ने बहका दिया उस प्रकार पर की सुविधा के लिए पुत्र निरोग रहे, धन वैभव बढ़े आदिक अनेकानेक भाव करके जिस चाहे पत्थर को देवी देवता मानकर उनकी भक्ति में पहुंचते हैं और प्रार्थना करते हैं । यह श्रद्धा आत्मस्वभाव के संबंध से डिगाने वाली है । वहाँ सम्यक्त्व का उदय नहीं है और मिथ्यात्व से ही यह संसार बढ़ा हुआ है । तो कुदेवों की उपासना अथवा कुगुरुवों की उपासना ये सब मिथ्यात्व को बढ़ाने वाले हैं जिनको अपने आत्मा का श्रद्धान हैं वे इतने दृढ़ संकल्पी हैं कि जो कुछ जिसका होता है उसके परिणमन से होता है, उसके भाग्य के अनुसार होता है । मैं केवल अपना ही स्वामी हूं । कुटुंब के लोग, मित्रजन अथवा जिन जिनसे संबंध है वे सब अपने-अपने स्वामी हैं । सबका अपना-अपना भाग्य है । उनके भाग्य के अनुसार उनकी बात चला करती है । मैं किसी का अधिकारी नहीं । यों जानकर अपनी रक्षा इस ही बात में समझना है कि मैं पंच परम गुरुवों की उपासना में रहूं । जो निर्मोह हैं, नि:संग हैं, साधु हैं, शुद्ध होने के प्रयत्न में सफल होते जा रहे हैं ऐसे आत्माओं में ही आदर रहे इस प्रयत्न में रहना है । लोक में जितने मंगल हैं, मंगलाचरण हैं, शकुन की बातें हैं उन सबमें प्रधान एक यही पंचनमस्कार मंत्र है ।