वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 108
From जैनकोष
जीवाजीवाभावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं ।
संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।।108।।
नव पदार्थों के नाम व स्वरूप―जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, सम्वर, निर्जरा, बंध और मोक्ष―ये 9 पदार्थों के नाम हैं । इन पदार्थों में से जीव नामक पदार्थ क्या कहलाता है जिसमें चैतन्यस्वभाव का सद्भाव पाया जाय, ऐसा जीवास्तिकाय ही जीव है । कुछ लोग इस जीव को और आत्मा को जुदा-जुदा मानते हैं और उसमें आत्मा का श्रेष्ठ स्वरूप बताते हैं और जीव का विकृत स्वरूप बताते हैं । उनके सिद्धांत में विकारी जीव ही होता है आत्मा नहीं होता है । जीव अनेक हैं आत्मा एक है, ऐसा मानने का उन्हें अवसर कैसे मिला? इस मान्यता की समस्या उनमें कैसे आयी? उसका कारण सुनिये ।
आत्मा और जीव के पार्थक्य के अध्यवसाय का कारण―आत्मा और जीव का पृथक्त्व मानने का कारण यही संभव हो सकता है कि एक चैतन्यपदार्थ में द्रव्यत्व और पर्याय ये दो बने हुए हैं, ये अलग नहीं हैं । ये पदार्थ जो नित्य हैं, ध्रुव हैं उनमें जो शाश्वत स्वभाव है वह तो एक मूल द्रव्य है और उसको प्रतिसमय में जो परिणमन होता है वह परिणमन पर्याय है । यों कहो शक्ति और परिणमन । यह चेतनात्मक है । जो ध्रुव शक्ति है वह और उसका जो बाहरी व्यक्त रूप है वह ये दोनों चेतन तत्त्व से जुदे नहीं हैं, किंतु इनका लक्षण परिचय तो भिन्न-भिन्न है । जो प्रतिक्षण उत्पाद व्यय होता है वह तो पर्याय है और जो शाश्वत रहे वह चितशक्ति है । इस व्यपदेश के भेद से, लक्षण के भेद से अत्यंत भिन्न मानकर परिणमन का नाम तो जीव रख दिया और चैतन्यशक्ति का नाम आत्मा रख दिया । आत्मा और जीव के पृथक् व्यपदेश की इस व्यवस्था के बाद तो यह भी बात फिट कर ली जायगी कि जब यह जीव अपने स्वरूप को छोड़कर आत्मा में लीन हो जाता है तब इसको मोक्ष होता है । उसका भी अर्थ यही है कि जब यह जीव अपनी पर्याय का व्यामोह त्यागकर एक चैतन्यशक्ति के उपयोग में तन्मय होकर एकत्व को प्राप्त हो जाता है, वहां शक्ति के अनुरूप ही तो व्यक्ति बनती है उसका ही तो नाम निर्वाण है ।
पदार्थस्वरूपव्यवस्था―जीव चाहे शुद्ध दशा में हो, चाहे अशुद्धदशा में हो, जिसमें चेतना पायी जाय वह जीवास्तिकाय ही जीव है । अजीव वह है जिसमें चेतना का अभाव हो । ये अजीव. 5 प्रकार के होते है-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गल अस्तिकाय, आकाश अस्तिकाय और कालद्रव्य । इस प्रकार जीव और अजीव में ये 6 पदार्थ आ गए, उनमें मूल पदार्थ तो दो हैं ना―जीव और अजीव । इस मोक्षमार्ग के प्रकरण में अजीव शब्द से अर्थ ले लो कार्माणवर्गणा जाति के पुद्गल । जीव और अजीव पृथक्भूत अस्तित्व से बने हुए हैं ।सत्ता दोनों की निराली, न्यारी अपनी-अपनी है । भिन्न-भिन्न स्वभावभूत हैं । जीव और पुद्गल के संयोग परिणमन से रचे गए 7 अन्य पदार्थ हैं । वे किस प्रकार है? सो सुनिए ।
पुण्य और पाप―जीव अजीव के बाद पुण्य पाप का नाम लिया गया है । तो पुण्य पाप दो-दो प्रकार के होते हैं―एक जीवपुण्य और एक पुद्गलपुण्य अर्थात् अजीवपुण्य तथा एक जीवपाप और दूसरा अजीवपाप । इस जीव का जो शुभ परिणाम है जिसको भावपुण्य कहते हैं, प्रभुभक्ति दया दान परोपकार उदारता आदिक जो जीव के शुभ भाव हैं वे सब भाव हैं भावपुण्य और उसके निमित्त से जो पुण्यकर्म बंधन है, कर्म का परिणमन होता है वह है द्रव्य पुण्य । इसी प्रकार पाप भी दो प्रकार के हैं―एक जीवपाप और अजीवपाप । जीव का जो अशुभ परिणाम है आर्तध्यानरूप, रौद्रध्यानरूप, रागद्वेष से विकृत मोह में मलिन जो जीव का परिणाम है वह तो है जीवपाप । भावपाप और उस अशुभ परिणाम के निमित्त से जो कर्मों का बंधन होता है वह है द्रव्यपाप । पुद्गल का पाप, अजीवपाप । यह 9 पदार्थों का एक साधारण रूप से व्याख्यान चल रहा है ।
आस्रव और संवर―इसके बाद नाम है आस्रव । जीव का जो मोह रागद्वेष परिणाम है वह तो है जीवास्रव और उसके निमित्त से जो कर्मबंध होता है वह है अजीवास्रव, अर्थात् जीव में रागद्वेष मोह विकारों का आना यह तो है जीवास्रव और इन परिणामों के निमित्त से उसही काल में जो कार्माणवर्गणा कर्मरूप से बन रही हैं उनका नाम है अजीवास्रव । आस्रव तत्त्व के बाद सम्वर का नाम लिया है । ये दोनों विरोधी हैं आस्रव और सम्वर, इसलिए तत्काल प्रतिपक्ष का नाम लिया है । मोह रागद्वेष परिणामों का रुक जाना यह तो है जीव का सम्वर । जीव में रागद्वेष मोह परिणाम हटे ऐसा जो अंतरंग पुरुषार्थ भाव है वह है जीव सम्वर । और इस जीव के परमपुरुषार्थ के निमित्त से जो कार्माणवर्गणावों में अब कर्मत्व परिणमन नहीं हो पा रहा है, कर्मत्वपरिणमन रुक गया है वह है अजीव सम्वर । सीधा तात्पर्य यह हुआ कि रागद्वेष मोह को दूर करो, सो यह तो हुआ जीव सम्वर और फिर कर्म अपने आप ही न आयेंगे । कार्माणवर्गणावों में कर्मरूप परिणमन न होगा तो यह हो गया कर्मसम्वर ।
निर्जरा और बंध―सम्वर के बाद निर्जरा का नाम है । निर्जरा भी दो प्रकार की है-एक जीव संबंधी निर्जरा और एक अजीव संबंधी निर्जरा । कर्मशक्ति का घात करने में समर्थ और बहिरंग अंतरंग तपस्यावों की विशुद्धि से बढ़ा हुआ जो जीव का शुद्धोपयोग रूप परिणमन है वह तो है भावनिर्जरा और उस भावनिर्जरा के प्रताप से पूर्वबद्ध कर्मों का एकदेश विनाश होना यह है कर्मनिर्जरा । निर्जरा का प्रतिपक्षी है बंध । अत: निर्जरा के बाद बंध का नाम लिया गया है । बंध भी दो प्रकार का है―एक जीवबंध और एक अजीवबंध । जो मोह राग-द्वेष की चिकनाई का परिणाम है वह तो है जीवबंध और उस चिकनाई के निमित्त से कर्मरूप से परिणत हुए पुद्गल का जीव के साथ एकमेक हो जाने का नाम सम्मूर्छित बनने का नाम है बंध ।
मोक्ष―अत्यंत उपादेय होने से अंत में मोक्ष का नाम बताया है । लोग भी कहते हैं ना कि सब निपट जावो, फिर सारभूत बात कहूंगा । यों मोक्ष का नाम अंत में है । इसलिए शुद्ध आत्मा की उपलब्धि हो जाना यह तो है भावमोक्ष । जीव निर्विकारस्वरूप हैं, वही का वही रह गया, यही है मोक्ष और जीव का कर्मपुद्गल का सदा के लिए वियोग हो जाना, यही है कर्ममोक्ष । इस प्रकार 9 पदार्थों का नाम और संक्षेप में स्वरूप कहा गया है।