वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 14
From जैनकोष
सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं।
दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि।।14।।
वस्तु के किसी भी एक धर्म को समझने के लिये उद्यत होने पर सप्तभंगों का औचित्य―द्रव्य की सिद्धि का प्रकरण चल रहा है। द्रव्य के विषय में तीन लक्षणों द्वारा काफी प्रकाश दिया गया। द्रव्य सत् लक्षण वाला है, द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त है, द्रव्य गुणपर्यायमय है, ऐसे परस्पर सहयोगी तीन लक्षणों द्वारा द्रव्य के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है, और भली-भाँति न्याय विधि से उस द्रव्य के अस्तित्व की प्रसिद्धि की गई है। उस जाने हुए द्रव्य के विषय में अब यहाँ सर्व अपेक्षाओं से द्रव्य का परिचय कराया जा रहा है। जब कभी यह धर्म उपस्थित हो अस्ति अथवा नास्ति तो एक कोई सी भी बात चर्चा के लिए हो जाय तो उस एक बात के दिये जाने पर उसके भंग 7 हो जाते हैं। उसका कारण यह है कि जो एक बात पेश की, जैसे द्रव्य के विषय में द्रव्य अस्ति है, यह बात पेश की तो किसी अपेक्षा से ही तो यह बात रही, तो उसके विपक्ष नय से यह जोड़ना पड़ेगा कि स्याद् नास्ति। अब एक के कहते ही दो तो हो ही गए। वस्तु के बारे में कोई कुछ कहे एक तो वह और एक उसके खिलाफ, ऐसी दो बातें एक के कहते ही आ गई। अब उन दो बातों को एक साथ बोला न जा सकेगा, क्योंकि दृष्टियाँ भिन्न-भिन्न हैं। उन दृष्टियों का वाच्य भिन्न है, उन सबको एक निगाह से एक बोला जाय इस कारण तीसरी बात तभी आ जाती है कि अवक्तव्य है। तो सप्तभंगी में पहले तीन भंग हैं―स्याद् अस्ति, स्याद् नास्ति और स्याद् अवक्तव्य। ऐसे तीन न जानना कि स्याद्अस्ति, स्याद्नास्ति, स्यादअस्तिनास्ति। किंतु तीन भंग हैं―अस्ति, नास्ति, अवक्तव्य। प्रसिद्धि यद्यपि लोगों में ऐसी है कि जब भंग बोलेंगे तो पहले अस्ति, फिर नास्ति, फिर अस्ति-नास्ति, लेकिन ऐसा प्रयोग करना क्रमरहित है। क्रम क्या है कि पहले इकहरे भंग बताओ। तो इकहरे भंग ये हैं अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य। अस्ति-नास्ति तो संयोगी भंग हैं, वह स्वतंत्र अकेला भंग नहीं है। इसलिए पहले एक-एक भंग बताना चाहिए, फिर दो-दो के संयोग वाले बताने चाहिए, फिर तीन-तीन के संयोग वाले कहने चाहिए। द्रव्य के बारे में कहा जा रहा―द्रव्यं स्यात् अस्ति, याने द्रव्य कथंचित् है, कौनसी अपेक्षा आयी? अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है। इस ‘है’ के कहते ही विपक्ष की बात आ जाती है। द्रव्य स्यात् नास्ति, किसी अपेक्षा से नहीं है, किस अपेक्षा से नहीं है? पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नहीं है।
प्रस्तुतपक्ष और विपक्ष का तथा अवक्तव्यता का एकत्वदर्शन―देखो हर एक चीज में ये दो बातें अनिवार्य हैं कि नहीं? मोटेरूप से ही देख लो―जैसे कहा कि यह चौकी स्यात् अस्ति, चौकी किसी अपेक्षा से है, किस अपेक्षा से है? चौकी में जो द्रव्य है, क्षेत्र है, काल है, भाव है उसकी अपेक्षा से है, ऐसा कहते ही विपक्ष की बात भी आ जाती। चौकी स्यात् नास्ति, चौकी किसी अपेक्षा से नहीं है। किस अपेक्षा से नहीं है? चौकी को छोड़कर बाकी जितने पदार्थ हैं भीत, दरी, आदमी वगैरा, इनके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है। बताओ चौकी में ये दो बातें जरूर हैं कि नहीं? चौकी अपने स्वरूप से है दूसरे के स्वरूप से नहीं है। यदि आप यह कहे कि हम दो नहीं मानते, एक मानते हैं तो भला कौनसा एक मानते? दो बातें अभी रखी हैं। चौकी अपने स्वरूप से है, दूसरी बात क्या कि चौकी अन्य चीज की अपेक्षा से नहीं है। इन दो में से कौन-सी बात बोलते हो और किसको मना करते हो? अगर कहो कि हम नास्ति की बात मना करते हैं, सिर्फ एक ही बात कहेंगे कि चौकी स्यात् अस्ति तो मना किसे किया? चौकी दरी, चटाई, भीत आदिक के स्वरूप से नहीं है, इसको मना कर रहे, तो इसको मना करने का अर्थ क्या हुआ कि चौकी दरी, चटाई, भीत आदिक के रूप से है। नास्ति को मना करने का अर्थ क्या है? अस्ति। तो जब चौकी, दरी, चटाई आदिक के स्वरूप से हो गयी तो अब चौकी तो न रही । खतम हो गई चौकी । देखो नास्तित्व का भी कितना बल है? पदार्थ में नास्तित्व धर्म है उसका भी कितना महत्व है? स्वरूप, वस्तु की सत्ता बनी रहती है नास्तित्व के बल पर। जैसे अस्तित्त्व के बल पर पदार्थ है ऐसे ही नास्तित्व के बल पर भी पदार्थ में सत्ता है। तो मना तो नहीं किया जा सकता कि चौकी अन्य द्रव्यों के स्वरूप से नहीं है, इस धर्म को कोई मना नहीं कर सकता। अच्छा अब कोई कहे कि हम पहली बात को मना कर देंगे। क्या थी पहली बात? चौकी अपने स्वरूप से है, लो इसको मना कर दिया तो इसका अर्थ क्या निकला कि चौकी अपने स्वरूप से नहीं है। तो चौकी कहाँ रही? सत्ता ही मिट गई। चर्चा किसकी करते? तो अस्ति और नास्ति―ये दो धर्म हुए पदार्थ में। दो बातें लो सिद्ध हो गई। ये स्वतंत्र बातें हैं। अब कोई प्रश्न करे कि तुमने ये दो बातें किस अपेक्षा से कहीं? हम तो एक बार में ही तुम्हारे मुख से सुनना चाहते हैं कि पदार्थ कैसा है? एक बार में कह दो, देर मत करो। वस्तु का स्वरूप समझने को हम बहुत तेज कमर कसकर आये हैं। हम धीरे-धीरे न सुनना चाहेंगे। हमें तो एक बार में बता दो कि पदार्थ कैसा है? देर करके क्यों बताते? पहले कहा―स्यात् अस्ति, फिर बताओगे स्यात् नास्ति। इतनी देर से न कहो, एक बार में बताओ कि द्रव्य क्या है? तो भाई एक बात एक साथ कही ही नहीं जा सकती कि वस्तु क्या है? इस कारण अवक्तव्य है। अब ये तीन धर्म हो गए, तीन की अपेक्षा है। द्रव्य अपने स्वरूप से है, द्रव्य पर के स्वरूप से नहीं है। द्रव्य में दोनों को एक साथ नहीं कहा जा सकता ऐसा अवक्तव्य है। ये तीन स्वतंत्र बातें हुई।
वस्तु में संयोगी चार भंगों का दिग्दर्शन―अब चलो―द्रव्य अपने स्वरूप से है, ऐसा होने पर भी द्रव्य पर स्वरूप से नहीं है, यह भी एक अपेक्षा है, इसे कहेंगे स्यात् अस्ति नास्ति। द्रव्य अवक्तव्य होने पर भी अपने स्वरूप से है, इसे कहेंगे स्यात् अस्ति अवक्तव्य। द्रव्य अवक्तव्य होने पर भी पर के स्वरूप से नहीं है―यह हुआ नास्ति अवक्तव्य। द्रव्य अवक्तव्य होने पर भी स्वरूप से है, पररूप से नहीं है। कहीं सर्वथा अवक्तव्य मत समझ लेना अन्यथा सब चुपचाप बैठो। कुछ बात भी न बोली जा सकेगी क्योंकि अवक्तव्य है। तो इस तरह द्रव्य में अस्ति धर्म के नाते से 7 भंग होते हैं। ऐसे ही और भी उदाहरणों में ले लो।
वस्तु के सभी धर्मों में स्याद्वाद की योजना―बताओ जीव नित्य है कि अनित्य? जीव सदा रहता है ना? जो सत् है वह कभी मिटता नहीं, जीव है वह मिटे नहीं, इसके मायने है कि जीव नित्य है। किस दृष्टि से कहा? द्रव्यदृष्टि से । जीव नित्य है, सदा है, अनादि अनंत है। अच्छा देखो एक बात पहले बहुत बार आयी कि वस्तु में द्रव्य और पर्याय ये दो बात मानना तो अनिवार्य ही है। गुण की तुम्हारी मर्जी, उसमें तुम कल्पना नहीं करना चाहते तो मत करो, भेददृष्टि नहीं रखना चाहते तो मत बोलो, मगर पर्याय को मना नहीं कर सकते क्योंकि द्रव्य का स्वरूप ही है यह कि सदा रहता हुआ भी प्रति समय परिणमता रहता है। यदि ऐसा न हो तो पदार्थ है ही नहीं बन सकता। तो द्रव्य और पर्याय ये दो अनिवार्य हैं। तो जीव के बारे में या किसी भी द्रव्य के बारे में पूरा वर्णन द्रव्य और पर्याय दोनों से करेंगे तो कहलायगा। तो द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य है और पर्याय दृष्टि से जीव नित्य नहीं है। ये दो बातें आयी। स्यात् नित्यं अस्ति, स्यात् नित्यं नास्ति। नित्य है एक भंग, अनित्य है दो भंग। अब एक साथ एक बार में बताओ कि कैसा है द्रव्य? तो एक बार में कहा नहीं जा सकता इस कारण अवक्तव्य है। तीन इकहरे भंग हो गए। द्विसंयोगी भंग तीन और अपनी द्रव्यदृष्टि से नित्य है, पर्यायदृष्टि से अनित्य है, इन दो अपेक्षाओं को एक मूड में लाकर रखा, इसलिए वह एक भंग (चौथा) कहलाया। मूड (आशय) से भंग बनता है। फिर अवक्तव्य होने पर भी जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है। यह 5वां भंग है। जीव अवक्तव्य होने पर भी अनित्य है यह छठा भंग हुआ। अब तीनों का संयोगी भंग। अवक्तव्य होने पर भी जीव द्रव्य से नित्य है, पर्याय से अनित्य है। ये 7 भंग हो गए। देखो―सप्तभंगी व्यवहार की मूल जड़ है। इन 7 दृष्टियों से वस्तु का परिचय करने पर पूरा द्रव्य बनता है। किसी आदमी के बारे में सोचो, एक आदमी को लक्ष्य में लेकर कहो। यह पुत्र है। है ना पुत्र? पिता की अपेक्षा से पुत्र है। स्यात् पुत्र: । अच्छा तो स्यात् पुत्र:, एक अपेक्षा से पुत्र नहीं है। किस अपेक्षा से? पुत्र की अपेक्षा से पुत्र नहीं है, भाई आदिक की अपेक्षा से पुत्र नहीं है। पिता को छोड़कर बाकी सबकी अपेक्षा से पुत्र नहीं है। एक बार में तो बताओ? अवक्तव्य है यह पुरुष, जिसका हम परिचय करा रहें? अवक्तव्य है और पुत्र भी है, अपुत्र भी है, पिता की अपेक्षा पुत्र है और अपिता की अपेक्षा अपुत्र है। और अवक्तव्य होने पर भी पुत्र है, अवक्तव्य होने पर भी अपुत्र है। अवक्तव्य होने पर भी पुत्र और अपुत्र है। किसी भी जगह लो, मुख से कुछ बोला कि उसमें 7 भंग आ गए। यह सप्तभंगी का तत्त्व विज्ञान पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को कहता है और इस जीव को मोह से बचाता है। एक बार कोई अजैन विद्वान जैन हो गया तो उसका लोग मजाक उड़ाये कि अब तो तुम सप्तभंगियों में मिल गए क्योंकि जैन लोग तो सप्तभंगियों का शासन मानते हैं। तो वह विद्वान बोला कि भाई क्या बतायें? मुझ पर और आशय में रहने से इतना मैल जम गया था कि 7 भंगियों के बिना वह मैल दूर नहीं हो सकता। इसलिए हम सप्तभंगी में हो गए । भंग के मायने क्या? धर्म। 7 प्रकार के धर्मों की योजना का नाम है सप्तभंगी।
सप्तभंगी के परिचय से शिक्षण―सप्तभंगी के विज्ञान से हमें क्या शिक्षा मिलती है? भली प्रकार परख कर लेने पर जो एक फल मिलता है किसी भी काम में किसी भी पुरुषार्थ का फल मिलता है, परमविश्राम मिलता है। लोक में भी तो दुनिया के बहुत काम करके आप चाहते क्या हैं ? इकट्ठा पूरा आराम मिल जाय। अच्छा तो इसी प्रकार से सप्तभंगों द्वारा पदार्थ का खूब स्वरूप जानकर आपको चाहिए क्या? परम विश्राम। वो कैसे मिलता? भली-भांति जीव का परिचय कर लो। परिचय करने के बाद अपने आप ही यह विदित हो गया कि जीव में सारतत्त्व है सहजचैतन्यस्वरूप। बस यह उपादेय है। काम की बात अनेक परिश्रमों के बाद मिली। जैसे कोई रोटियां ही न खा लेगा। बहुत परिश्रम के बाद रोटी मिलेगी। पहले कमायी करेगा, फिर वह रोटी बनाने बैठेगा, बड़ा श्रम करेगा, और उसके बाद जब भोजन करने बैठता तो बहुत मौज और आराम से हर्षित होता हुआ बैठता कि हमने अथक परिश्रम किया और अब उसका फल पा रहे हैं। तो ऐसे ही समझिये ज्ञान के क्षेत्र में हमने नाना दृष्टियों से वस्तु का स्वरूप समझा तो इतना समझ करके अब हमें करना क्या है? अपना जो सहज शुद्ध आत्मद्रव्य है उसमें रमण करना है यह फल है। सब चीजों के भारी-भारी जानने का क्या फल है उनका जानना छोड़ दो, आराम से बैठो वाह बहुत बढ़िया फल बताया। बहुत-बहुत जानने के बाद द्रव्य से, पर्याय से, भेद से, अभेद से, स्व से, पर से सारी बात समझ लेने के बाद अब कह रहे कि जो कुछ तुमने समझा, जो तुमने विकल्प किया उनको छोड़ दो और उन विकल्पों से हटकर आराम से बैठ जावो। तो कोई एक नया आदमी कह उठेगा कि आपने बहुत अच्छा कहा, इसीलिए तो हम कुछ जानना नहीं चाहते। कौन बहुत-बहुत पुस्तकें पढ़े, द्रव्य के भेदअभेद पढ़ने में कौन दिमाग लगाए, क्योंकि आप ही तो कहते हो कि जानने का फल है कि जानना छोड़ दो तो हम पहले से ही छोड़ रहे। लोग तो जिंदगीभर परिश्रम करके जानने के बाद छोड़ेंगे, हम अभी से छोड़ रहे तो ऐसा छोड़ना काम न देगा, क्योंकि अज्ञान बसा है। अज्ञान में विकल्प हट कैसे सकेगा? तो सर्व अपेक्षाओं से वस्तु का परिचय करके एक सारभूत जो एक निर्विकल्प शुद्धचैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व है उसको दृष्टि में लो, वह मैं हूँ, इस प्रकार का प्रयत्न करके विश्राम लो, इसके लिए हैं बहुत-बहुत प्रकार की जानकारियाँ।
द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु में द्रव्यदृष्टि व पर्यायदृष्टि से भंगों के निर्माण की समीचीनता―देखिये―अनेकांत होता है पक्ष और विपक्ष की दृष्टि से । अब कुछ दिनों से ऐसा अनेकांत चला दिया कुछ मनचले लोगों ने। कैसा यह है अनेकांत? पदार्थ नित्य है, पदार्थ अनित्य नहीं ऐसा क्यों चलाना पड़ा कि जो हमने समझा उसकी हठ रह जाय, उसके विपक्ष में सिद्धि बने। जैसे पर्याय सब नीयत हैं, पर्यायें अनियत नहीं हैं। सुनो―यदि है और नहीं, इन दो शब्दों ने और लुभा दिया लोगों को, पर हुआ कहाँ अनेकांत? अनेकांत होता है द्रव्य और पर्याय दो दृष्टियों से । वह तो एक ही दृष्टि की बात रही। जैसे कहा जीव नित्य है, एक यह भंग, दूसरा भंग जीव अनित्य नहीं है, तो भला यह बतलावो―किस दृष्टि से जीव नित्य है? द्रव्यदृष्टि से । और किस दृष्टि से जीव अनित्य नहीं है? द्रव्यदृष्टि से । एक वह दृष्टि जब आयी तो भंग कहाँ बना? पुनरुक्त हो गया इसलिए स्याद्वाद की हँसी उड़ाना अज्ञान से और दूसरे का पद फैलाना, यह तो बड़ा पाप है। जो सही बात है उसको छुपाकर अपनी प्रसिद्धि के लिए एक नये ढंग की बात कहना, यह कोई ज्ञानीपन का काम नहीं है। जैसे घटघट है, घटपट आदिक नहीं है, तो इसमें दो दृष्टियाँ आ गईं―स्व और पर की दृष्टि, भिन्न दो दृष्टि। अगर यह कहो कि घटघट है, खंड नहीं है तो एक दृष्टि रहेगी, वहाँ दो दृष्टियाँ नहीं हैं। द्रव्य और पर्याय ये दो दृष्टियाँ चलती हैं। उनके आधार से अनेकांत की सृष्टि हुई, क्योंकि इन दो को कभी छोड़ा नहीं जा सकता। पदार्थ द्रव्यपर्यायमय है। केवल द्रव्य-द्रव्य ही नहीं है, पर्याय रहित नहीं है, और केवल पर्याय पर्याय ही नहीं है, द्रव्य रहित नहीं है। इसलिए इन दो दृष्टियों के आधार से भंग बनाया जाय तो अनेकांत बनेगा अन्यथा नहीं, क्योंकि और तरह तो सभी दार्शनिक अनेकांती हो गए। कैसे कि बौद्ध कहते हैं कि पदार्थ क्षणिक है तो दूसरा संग ले तो साथ में पदार्थ अक्षणिक नहीं है। उस पदार्थ को अगर अनेकांत एक माडर्न टाइप का बन गया तो उनका भी अनेकांत, कैसा? ब्रह्मवादी कहते हैं कि ब्रह्म अथवा सत्त्व कूटस्थ नित्य है, दूसरा भंग बना दो अनित्य नहीं है, वे भी अनेकांती हो गए, फिर तो कोई एकांतवादी ही न रहा। एक ही दृष्टि की बात अस्ति और नास्ति से कही जाय तो कोई भी एकांती नहीं। इससे द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि―इन दोनों दृष्टियों से धर्म का निर्णय करना चाहिए। यहाँ तक बात क्या आयी? पदार्थ अनेकांतात्मक है, अनेकांत और स्याद्वाद में अंतर क्या है? वैसे एक ही घर की बातें हैं, इसलिए चाहे कभी किसी शब्द से बोल दो, कुछ हर्ज नहीं। कभी पुरुष अपनी स्त्री को बुलाये तो वह लड़का या लड़की का नाम लेकर बुला लेता है, स्त्री का नाम नहीं लेता और स्त्री पति को बुलाती तो लड़के का नाम लेकर कहती है―ऐ फलाने, तो यह अपने घर की बात है, किसी का भी नाम ले लो, बात ठीक है, तो इसी तरह जब एक ही बात की घोषणा है स्याद्वाद और अनेकांत, तो कोई स्याद्वाद कहता है, कोई अनेकांत, पर अंतर यह है कि अनेकांत तो वस्तु का नाम है और स्याद्वाद कथन शैली का नाम है, यह अंतर है, क्योंकि अनेकांत का अर्थ है अनेकांत: अस्मिन् स अंत:, जिसमें अनेक धर्म हों उसे अनेकांत कहते हैं। अनेकांत क्या हुआ? पदार्थ सहित बुद्धि और स्याद्वाद क्या हुआ? स्या, मायने अपेक्षा से, वाद मायने कथन करना, अपेक्षा से कथन करना, इसका नाम है स्याद्वाद। तो स्याद्वाद द्वारा अनेकांत वस्तु का परिचय होता है।
सर्व अपेक्षाओं से विदित वस्तु में भूतार्थता के परिचय की सुविधा―देखो जब कोई बात सब तरफ से समझ ली जाती है तो उसकी समझ दृढ़ हो जाती है। कोई आदमी आया आपके घर का अतिथि जो बड़े शहर में रहता है, आपके घर के 6 रास्ते है, आते ही वह घर तो आ गया, मगर रास्ते का परिचय नहीं है, सो वह घर के पीछे के रास्ते से आया तो वह वहीं डोलता रहेगा, कुछ न जान पायगा। सभी रास्तों का, आपके मकान के सब ओर के रास्तों का परिचय हो तो वह दृढ़ परिचय है। बनारस में एक ब्राह्मण विद्वान था। जैन न्याय पढ़ाते-पढ़ाते उसको जैन धर्म पर दृढ़ श्रद्धा हुई। तो उस ब्राह्मण के अनेक बिरादरी के लोग उसके पास आये और बोले―साहब ! आप यह क्या कर रहे? अपने कुल की बात छोड़ रहे और जैनशासन की महिमा आप बखानते रहते हैं, यह क्या है स्याद्वाद? स्यात् नित्य, स्यात् अनित्य। एक पागलों जैसी बात इस धर्म में कहीं गई है, कहीं संदेह मिटता ही नहीं, और वही संशय वाला धर्म आप अपना रहे, ऐसा आप क्यों कर रहे? तो वहाँ उस ब्राह्मण विद्वान ने कहा तो कुछ नहीं। वह अपने घर की फोटो ले आया। उसने पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण इन चारों दिशाओं से अपने मकान का फोटो खिंचवा रखा था। सबसे पहले पूरब दिशा से खींची गई फोटो दिखायी और पूछा कि बताओ यह किसका फोटो है? तो वे बिरादरी के लोग बोले―यह तो आपके मकान का फोटो है। और यह दूसरी? यह भी आपके मकान का ही फोटो है। कैसे? यह मकान के पश्चिम दिशा से ली गई फोटो है, फिर तीसरी फोटो दिखाया तो फिर वही उत्तर दिया कि यह भी आपके मकान का फोटो है पर मकान की उत्तरदिशा से ली गई फोटो है। चौथी फोटो दिखायी तो फिर वही उत्तर मिला―यह आपके मकान की दक्षिणदिशा से ली गई फोटो है। तो वह ब्राह्मण बोला―बस यही उत्तर जैनशासन का है। जब द्रव्यदृष्टि से फोटो लिया तो पदार्थ नित्य लगा, पर्यायदृष्टि से फोटो लिया तो पदार्थ अनित्य लगा। तो तब वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। इस प्रकार दोनों दृष्टियों से परीक्षा करें तो वस्तु का परिचय होता है। पूर्ण परिचय करके अपनी सब पर्यायों में व्याप के अनादि अनंत अहेतुक अंत: द्रव्यत्व का परिचय करें। इस आत्मपरिचय से विशुद्ध आनंद जगता है।