वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 15
From जैनकोष
भावस्य णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
गुणपज्जयेसु भावा उप्पादवये पकुव्वंतिओ?।15।।
सदुच्छेद व असदुत्पाद न होने पर भी गुणपर्यायों में उत्पादव्यय का संदर्शन―इससे पहली 14वीं गाथा में सप्तभंगी का वर्णन किया गया था। द्रव्य स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति आदिकरूप से बहुत विवेचन हुआ। उस विवेचन को सुनकर कोई दार्शनिक यह शंका रख सकता है कि द्रव्य हो तब तो उसके बारे में नास्ति आस्ति भंग बनायें, पर कोई पहले से सत् नहीं है कि जिसकी बाद में अस्ति नास्ति की बात कही जाय। जो उत्पन्न हुआ है वह पहले न था, एक अपूर्व नया ही बनता है। जो उत्पन्न हो चुका अब वह आगे नहीं टिकता। आगे तो कोई नया बनेगा। तो असत् का ही उत्पाद होता है और सत् का विनाश होता है, ऐसा क्षणिक एकांत मानने वाले कह रहे हैं। कुछ न था और हो गया, असत् का ही तो उत्पाद हुआ। असत् का उत्पाद हुआ तो वह सत् बन गया । अब उसका ही तो नाश हो गया। सर्वथा क्षणिक एकांत में सत्ता एक समय को ही रहती है, अगले समय में पदार्थ का विनाश है, उत्पन्न होने से पहले पदार्थ नहीं है, इस तरह से जगत में सब निष्पत्ति चल रही है, ऐसा सिद्धांत मानने वाले यह आशंका रखते हैं कि जब असत् का उत्पाद है और सत् का विनाश है तो सप्तभंगी फिर कहाँ ठहरेगी? इस ही आशंका के उत्तर में इस गाथा का अवतार हुआ। इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि सत् का नाश नहीं होता, असत् का उत्पाद नहीं होता। किंतु पदार्थ है और वह अपने गुण की पर्यायों में उत्पादव्यय किया करता है। ऐसा तो कोई दार्शनिक नहीं मानता है―एक क्षणिकवादियों को छोड़कर असत् का उत्पाद। एक भागवत गीता है, जिसके विषय में बताते कि व्यास जी ने रचा तो वहाँ भी यह बात मानते कि ‘‘न सतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’’ याने जो है नहीं उसका सद्भाव नहीं होता और जो है, सत् है उसका कभी अभाव नहीं होता। क्या-क्या है? जैनशासन की ही तो घोषणा है। पदार्थ है, अनादि से अनंत काल तक। कहीं असत् का उत्पाद नहीं होता और जो पदार्थ है, अनंत काल तक रहेगा, सत् का विनाश नहीं है, किंतु उस वस्तु में गुण की पर्यायें चलती रहती हैं, शक्तियों के परिणमन चलते रहते हैं, शरीर ही में उत्पादव्यय हुआ करते हैं, मूलभूत वस्तु में उत्पादव्यय नहीं होता, इसका स्पष्टीकरण यह है कि जो चीज है, जैसे एक जीव है, द्रव्य है, तो उसका द्रव्यरूप से विनाश नहीं है। अर्थात् जीवद्रव्य ही न रहे ऐसा असंभव है, उसकी अवस्थाओं का ही विनाश है, वस्तु का विनाश नहीं और जीवद्रव्य के परिणमन चल रहे हैं, उत्पाद चल रहे हैं तो उन उत्पादों में कहीं अन्य द्रव्य का उत्पाद नहीं हो गया। वह जीव का ही उस प्रकार का परिणमन चल रहा है। तो जो द्रव्य है उसका विनाश नहीं और उत्पाद होने पर किसी अन्य द्रव्य का उत्पाद नहीं होता। वस्तु है, अपने गुणों में उत्पादव्यय करती है।
उदाहरणपूर्वक वस्तु की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता का दिग्दर्शन―जैसे एक अंगुली अभी सीधी है, अब टेढ़ी कर दी तो टेढ़ी कर देने में किसी चीज का नाश तो हुआ है, मगर अंगुली का नाश नहीं हुआ। अंगुली का जो सीधा परिणमन था, उस सीधे परिणमनरूप अवस्था का नाश हुआ, अंगुली का नाश नहीं हुआ। और जब अंगुलि टेढ़ी कर दी गई तो वहाँ एक टेढ़ी अवस्था का उत्पाद हुआ, कहीं अंगुली को छोड़कर अन्य द्रव्य नहीं उत्पन्न हो गया, अंगुली ही रही। गुणपर्यायों में दृष्टांत लो। एक आम के पेड़ में लो―शुरू-शुरू में वह नीला है, जब जरा बड़ा हुआ तो वह हरा हो गया, तो वहाँ आम का विनाश नहीं हुआ, और न आम को छोड़कर अन्य कुछ बन गया क्या? हरा हो जाने से जामुन बन जाय, केला बन जाय, ऐसा तो वहाँ नहीं दिखता और नीला मिट जाने से आम मिट जाय, ऐसा तो नहीं है वहाँ। एक दृष्टांत है यह स्थूल। ऐसे ही कोईसा भी पदार्थ, उस पदार्थ का परिणमन हुआ, नई अवस्था हुई। सो कहीं उस अवस्था में पदार्थ का उत्पाद नहीं हुआ, कोई नया पदार्थ नहीं बन गया और न उस पदार्थ का विनाश हुआ। द्रव्य रह गया अनादि अनंत, उसकी अवस्थायें चलती रहती हैं, उनका उत्पादव्यय है। कैसा सीधा वस्तु का सुगम प्ररूपण है कि वहाँ कुछ युक्तियाँ नहीं बनानी पड़ती, कुछ कृत्रिमता नहीं करनी पड़ती। जैसा है वैसा ही व्याख्यान किया गया। जैसे मिट्टी से घड़ा बना तो घड़े से पहले क्या था? वह एक पिंड था, उसका बना दिया घड़ा। तो मिट क्या गया? लोंधा। तो अवस्था मिटी, कहीं मिट्टी का विनाश नहीं हुआ, और बना क्या? घड़ा। तो घड़ा बनने से कोई नया द्रव्य नहीं बन गया, किंतु वह मिट्टी ही तो है जो पहले से सत् है । द्रव्यदृष्टि से न उत्पाद है, न विनाश। जीव संसार में रुल रहा। मनुष्य भव पाकर उस जीव ने ऐसा पौरुष किया कि अपने आपके स्वरूप को देखने में, उसके श्रद्धान में, उसमें रमने में उस जीव को मोक्ष लाभ हो गया। तो संसार पर्याय का नाश हुआ और मुक्ति पर्याय का उत्पाद हुआ। नाश वहाँ जीवद्रव्य का नहीं हुआ कि संसार पर्याय मिट गई तो लो जीव ही मिट गया। मोही जन तो ऐसा विश्वास किए हुए हैं कि हमारा यह संग मिट गया तो मैं ही मिट गया, यह शरीर मिट गया तो मैं ही मिट गया और ये क्षणिक दार्शनिक यह कहते हैं कि वह मूलभूत पदार्थ ही मिट गया। पदार्थ तो एक समय को आता है, फिर रहता ही कहाँ? ऐसा तो यहाँ नहीं हुआ। मुक्त पर्याय हो जाने पर संसार अवस्था का तो विनाश है, संसार पर्याय का विनाश हो जाने पर मुक्त पर्याय का उत्पाद है। सो गुणपर्याय में उत्पादव्यय होता है, कहीं जीव का नाश हो गया हो और जीव को देखकर अन्य कोई द्रव्य बंध गया हो मुक्त होने पर ऐसा तो नहीं है। जो जीव था वही अब निरुपाधि हो गया, और जब ऐसा है कि द्रव्य अनादि अनंत है और ऐसे प्रत्येक पदार्थ अनादि अनंत हैं और उनमें परस्पर अत्यंताभाव है तथा निरंतर पर्यायों में उत्पादव्यय किया करते हैं तो सप्तभंगी घटती गई। स्यात् अस्ति में भी सप्तभंगी बन गयी,स्यात् नित्य की भी सप्तभंगी हो गई, स्यात् अवक्तव्य की भी सप्तभंगी हो गई। कैसा स्पष्ट पदार्थ का स्वरूप है। फिर वे दार्शनिक उन पदार्थों में जबरदस्ती कोई अपनी बात लाना चाहते हैं।
क्षणिकत्वैकांतवाद में संवाद और प्रवर्तन का लोप―देखो वस्तु कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है, ऐसा माने बिना कोई इस भव की जिंदगी चला सकता क्या? दुकान, व्यवहार आदिक कोई कर सकता क्या? मानो ऐसा एकांत कर लिया कि जीव तो क्षण-क्षण में नया-नया बनता है और बना कि मिट गया, ऐसा मानने वाले दुकान चला लेंगे क्या अपनी? भोजन भी खा सकेंगे क्या? अरे जीव क्षणभर को हुआ और मिट गया तो धर्म कौन करे? कौन प्रवृत्ति करे? एक समय आत्मलाभ का है, दूसरा समय कुछ काम करने को था सो दूसरे समय तो रहता नहीं तो कोई काम ही नहीं कर सकता, और फिर मान लो कोई कहे कि काम कोई नहीं कर सकता, मगर जो नया आत्मा पैदा हुआ और उस सिलसिले में जिस धारा में वह पैदा हुआ तो पूर्व जीवों का संस्कार रहता है, इसलिए आगे-आगे का जीव अपना व्यवहार बनाता रहता है। जैसे कोई अफसर स्थगित कर दिया गया तो वह दूसरे को चार्ज सम्हला देता है, ऐसे ही क्षणिकवादी कहते हैं कि आत्मा तो एक समय में उत्पन्न हुआ और मर गया, मगर वह अपना सर्वस्व एक नये आत्मा को सौंप देता है। तरकीब तो अच्छी दृढ़ निकाली, मगर यह न सोचा कि उस नये आत्मा को अपना ज्ञान दें गया वह ताकि नया आत्मा यह बात का स्मरण करता रहे तो आत्मा को तो वह नया आत्मा अत्यंत निराला है अन्य–अन्य है तो और शरीर में उत्पन्न होने वाले आत्मा को क्यों नहीं सौंप जाता यह ज्ञान? उसी शरीर में होने वाले आत्मा को ही क्यों सौंपा? और सौंपता क्या? वह तो हुआ और गुजर गया। सौंपने को समय ही कहाँ मिला? कोई प्रवृत्ति नहीं हो सकती। तब ही तो एक कथा बहुत प्रसिद्ध है कि एक क्षणिकवादी सेठ की गाय एक ग्वाला चराने ले जाया करता था। उस ग्वाले ने खूब चराया। जब महीना पूरा हो गया तो वह ग्वाला सेठ के पास जाकर कहता है कि मालिक हमारी चराई दीजिए, हमारा महीना पूरा हो गया । तो वह क्षणिकवादी सेठ कहता है अरे काहे की चराई? देखो जिसने तुम को गाय चराने को दी थी वह अब नहीं रहा और जिसको गाय चराने को दी थी वह भी नहीं रहा, पैसे का क्या सवाल? तो ग्वाला अपना मुख लेकर चला आया। अब वह सोचने लगा कि सेठ से कैसे पैसे वसूल किए जायें? उसकी समझ में आ गया। दूसरे दिन उसने गाय को अपने घर बाँध लिया, सेठ के घर न भेजा। तो अब सेठ को चिंता हुई, वह पहुंचा ग्वाले के घर, ग्वाले से पूछा―अरे भाई तुमने गाय हमारे घर क्यों नहीं भेजी? तो ग्वाला बोला―देखो सेठजी ! जिसने गाय दी थी वह अब नहीं रहा और जिसने गाय चराने को ली थी वह भी अब नहीं रहा, तो गाय लेने-देने का क्या सवाल? सेठ ने माफी मांगी, अपनी भूल पर पछताया। जब ग्वाले को चराई दी तब गाय वापिस पायी। तो पदार्थ को द्रव्यदृष्टि से नित्य और पर्यायदृष्टि से अनित्य न मानने पर व्यवहार नहीं चल सकता।
नित्यत्वैकांतवाद में भी संवाद और प्रवर्तन का लोप―जो लोग नित्य एकांतवादी हैं, वस्तु है और ज्यों की त्यों रहती है, वस्तु में परिणमन नहीं होता, ऐसा कूटस्थ नित्य कहने वाले भी कुछ नहीं कर सकते। रोजिगार क्या करे? कौन करे? परिणमन तो होता ही नहीं। कौन खाये पिये? परिणमन तो होता ही नहीं। सर्वथा नित्य में व्यवहार नहीं, सर्वथा अनित्य में व्यवहार नहीं । व्यवहार धर्म वाले भी मुक्ति नहीं पा सकते और सर्वथा अनित्य मानने वाले भी मुक्ति नहीं पा सकते। जीव है वह उपाधि के संसर्ग में, मलिन अवस्था में है। उपाधि के अभाव में उसकी पवित्र अवस्था हो जाती है। चीज वही रही, वस्तु वही रहा, जीव वही रहा, ऐसी जीवद्रव्य की बात है। सभी द्रव्यों की बात ऐसी है। दृष्टांत में जीव ले लो। जीवद्रव्य में प्रतिसमय पर्यायें बनती रहती हैं और नवीन पर्याय बनने के मायने यह नहीं हैं कि जीवातिरिक्त अन्य कुछ द्रव्य बन गया हो और पुरानी पर्याय मिटने के मायने यह नहीं हैं कि जीवद्रव्य ही खतम हो गया। अपने आप पर घटित करो―मैं द्रव्यदृष्टि से नित्य हूँ, सदाकाल रहने वाला हूँ । लगता भी यह ही है। बचपन में भी हम थे, जवानी में भी हम थे, बुढ़ापे में भी हम ही हैं। इससे पहले भव में भी हम थे, तो हमारा उत्पाद होने की तो जरूरत क्या? विनाश कभी हो सकता नहीं। हम न हों, तो उत्पाद की जरूरत समझें। हम सत् हैं, उत्पाद की क्या वहाँ बात? और जिस जिसका भी उत्पाद होता है, कहीं कोई अपूर्व चीज नहीं उत्पन्न होती। जो है उसकी ही एक दशा नई बन गई। इस तरह जो भाव है, द्रव्य है, वस्तु है उसका तो नाश नहीं है और जो है नहीं उसका उत्पाद नहीं है। पर उत्पादव्यय चल तो रहा है, वह सब गुणपर्यायों में चल रहा है।
दृष्टांत पूर्वक स्थायित्व और सर्ग संहार का परिचय―एक दृष्टांत और लो―गाय का दूध ले लो, उसे क्या बोलते? गोरस। दूध का दही बन गया तो भी वह गोरस ही तो रहा, अर्थात् दूध का दही बन गया तो कहीं गोरस नहीं मिट गया याने दूध मिट गया उसके मायने यह नहीं कि गोरस मिट गया। और दही बन गया तो इसके मायने यह नहीं कि वह और कुछ बन गया, गोरस न रहा, किंतु अन्य कुछ बन गया, ऐसा नहीं है और उन दोनों अवस्थाओं में गोरसपने का ध्रौव्य है। ऐसी ही हमारी बात है। लोग क्यों घबड़ा जाते कि उनको द्रव्यदृष्टि से अपने सहज सत्व का परिचय नहीं है। हाय मैं मिट गया, यह मिट गया, यह मोह की दुनिया, यह कितनी विडंबना है, उसमें कितनी आपत्तियाँ भरी हैं? रंच भी मोह इस जीव को बरबाद करने वाला है। कोई कहे कि हम को दुनिया में किसी से मोह नहीं रहा, सिर्फ एक बच्चे से या एक अपनी स्त्री से मोह है, बाकी अनंत जीवों के प्रति हमारा मोह खतम हो गया है। सो देखो बहुत सम्यक्त्व तो मेरे पैदा हो गया, क्योंकि अन्य किसी जीव में हम को ममता नहीं है। हम में 99 प्रतिशत सम्यक्त्व तो पैदा हो गया है, सिर्फ एक प्रतिशत सम्यक्त्व होना हममें बाकी रह गया है, क्योंकि हम में सिर्फ एक स्त्री भर का मोह रह गया है, तो उसका यह कहना मिथ्यात्व है। अरे एक भी प्राणी में ममता है तो वहाँ सारा मोक्षमार्ग ढक गया। अब तो वह धर्म के मार्ग में चलने वाला ही न रहा। धर्म की धुन में लोग काम तो बहुत-बहुत कर डालते, पर जो असली बात है मोह मिटना सो धर्म है इसको गौण क्यों करते? इसका उद्देश्य ही नहीं है कि धर्म इसमें मिलता है । व्रत कर लिया, दशलक्षण कर रहे, सोलह कारण कर रहे, उपवास चल रहे, शुद्ध धोती पहिनकर खा रहे? कोई छुवे नहीं, बस वहाँ तो याद है कि हम धर्म कर रहे, पर यह याद भी नहीं रखता, इस ओर दृष्टि भी नहीं जाती कि धर्म तो मोह के विनाश का नाम है सो हमने वह कितना विनाश कर पाया? और कोई तत्त्वज्ञान उत्पन्न करके मोह का विनाश करे और वह न कर पाये व्रत, तपश्चरण तो उसका मोक्षमार्ग में नाम तो आ ही गया। धर्म करने की चाह है। तो पहली बात यह मानो कि मेरा किसी भी प्राणी में मोह मत जगे। अरे छोड़ना तो है ही सब। रहेगा तो कुछ नहीं, पर यहाँ ज्ञानबल से सही बात विचारकर छोड़ दें तो यहाँ आत्मानुभव करते रहेंगे, वह सत्य, आनंद तो मिलता रहेगा। मोह के त्याग में धर्म है और उसकी अपने में परख कर लें। अगर आपका धन आपके परिजनों पर ही खर्च हो पाता है, आपके ममता के साधनों में ही खर्च हो पाता है, अन्य के लिए एक पैसे की भी गुंजाइश नहीं, इतना कठिन जिसके जड़ वैभवों में लगाव है उसे आप क्या कहेंगे? मोही ही कहेंगे ना, धर्मात्मा तो न कहेंगे। मोह का त्याग करे तो धर्म है। मोह का विलास बनाये तो धर्म नहीं। चाहे ऊँचे से भी ऊँचे कठिन तपश्चरण कोई कर ले, पर यदि मोह है तो वहाँ धर्म नहीं।
सकलसंकटमूल मोह के विनाश का उपाय―अब जीवों में मोह न रहे, इसके लिए उपाय क्या है? मोह नाम किसका? दो या अनेक वस्तुओं में परस्पर भिन्नता का बोध न रहे और इसका यह कुछ है, ऐसा अज्ञान रहे उसे कहते हैं मोह। तो मोह मिटाना है तो क्या करना है? ऐसा ज्ञान जगाना कि जिस ज्ञान में यह स्पष्ट जंचे कि मेरा कहीं कुछ नहीं। अकिंचनोऽहं। मैं केवल अपने ही चैतन्यप्रकाशमात्र हूँ । ज्ञानी और अज्ञानी की पटरी नहीं बैठती, क्योंकि ज्ञानी तो मोह का त्याग करता है। बच्चों में भी मोह नहीं, वैभव में भी मोह नहीं, और अज्ञानी लोग यों देखते कि यह पागल हो रहा क्या? न घर सम्हालता, न बच्चों को देखता और अहर्निश अपनी धुन में मस्त रहता है। तो मोहियों की और निर्मोही की कहाँ पटरी बैठी? निर्मोही की प्रक्रिया अलौकिक है और मोहियों की प्रक्रिया संसार में रुलने की है। पर जो इतना विजित है कि जिसको यह चाह न रही कि लोग हमारी प्रशंसा करें वह पुरुष ज्ञानी है और वह अपनी अंतर्धुन में रहकर अपना कल्याण कर लेता है। दुनिया के ये लोग मेरे प्रभु हैं क्या? जो ऐसी आशा लगाये कि ये तो मुझे अच्छा समझें, ये तो मेरे हृदय के गुण समझें, क्या पड़ी है? कोई प्रभु हैं क्या मेरे, जो भविष्य को सुधार दें या बिगाड़ दें? तो अन्य द्रव्य से हमारा क्या संबंध है? आया है इस जीव में और परिणम गया है कुछ ज्ञान साधन तो इसका सदुपयोग बनायें। मैं शुद्ध चैतन्यमात्र हूँ । श्रद्धा बनाये, पकड़ें अपने अंत:नाथ को । मैं सहजज्ञानमात्र हूँ, अन्य कुछ नहीं हूँ । दूसरे की चिंता रखने से कहीं उसका पालन नहीं होता, दूसरे की उपेक्षा रखने से कहीं उसका विनाश नहीं हो जाता। दूसरे का अच्छा होना, बुरा होना, यह सब उसकी क्रिया पर निर्भर है। तो जब वस्तु का ऐसा अलौकिक स्वरूप है, पृथक् है परस्पर तो बस यह ज्ञान जहाँ जगा वहाँ मोह नहीं ठहरता। मोह में कायरता जगती है। अपने भीतरी दिल को तौल लो। मोह में अपना विघात है। मोह दूर हुआ कि निराकुलता रहती है। यह मोह मिटता है तत्त्वज्ञान से, पदार्थों के स्वरूप के निर्णय से । एक पदार्थ का दूसरा कुछ भी नहीं लगता। बिल्कुल स्पष्ट बात है, सामने है। जब एक का दूसरा कुछ नहीं है, ऐसा दिखेगा तो यह पर से कुछ न चाहेगा, और पर में कुछ करने के लिए कमर न कसेगा। सहजवृत्ति बने, इतना साहस अंत: जगे तो इस जीव का उद्धार हो सकता है। केवल एक साधारण ऊपरी मन, वचन, काय की चेष्टा करने में धर्म नहीं। जहाँ धर्म है वहाँ उसका मधुर फल अवश्य मिलेगा―शांतिलाभ। ऐसी ही एक अलौकिक शांत दशा पाने के लिए वस्तुस्वरूप का निर्णय चल रहा। वस्तु वही का वही अनादि अनंत है और उसका पर्यायों में उत्पाद और व्यय हुआ करता है।