वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 16
From जैनकोष
भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा।।16।।
सर्व बाधाओं को दूर करने का उपाय अंतस्तत्त्व का परिचय―सर्व बाधाओं को दूर करने का उपाय सिवाय तत्त्वज्ञान के, सिवाय तत्त्व दृष्टि के अन्य कुछ न किसी के हुआ और न कभी अन्य हो सकेगा। जीव यदि एक अपने आपके स्वरूप को ही निरख ले और यहाँ ही संतुष्ट हो सके तो वह कृतार्थ है। केवल एक मोह बुद्धि ही है जो किसी परपदार्थ के संबंध से अपने आपको यह जीव सुखी शांत समझता है। वह केवल भ्रम है, जिसका फल बुरा होता है। तो चाहिए यह कि सब तरफ से ध्यान हटकर आत्मा का जो सहज चैतन्यस्वरूप है, यही मेरा सर्वस्व है, इस ही में सदा रहना है और अपने स्वरूप के अनुसार दृष्टि बन गई तो पवित्रता हो जाती है और सारे संकट दूर हो जाते हैं। वह तत्त्वज्ञान क्या है ? तत्त्व क्या है, उसके विषय में सब वर्णन चल सकता है। तत्त्व वह है जो सत् है अर्थात् पदार्थ, जिसमें उत्पादव्ययध्रौव्य होता है, जो गुणपर्यायों में तन्मय है, अपने स्वरूप से है, अन्य सबके रूप से कतई नहीं है, ऐसा अन्य सबसे निराला स्वयं कोई एक याने प्रत्येक पदार्थ तत्त्व है। मैं भी एक पदार्थ हूँ, अपने स्वरूप से हूँ, अन्य अनंतानंत जीवों से जुदा हूँ, समस्त पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल से जुदा एक अमूर्त शुद्ध चैतन्यस्वरूप यह मैं आत्मा अपने लिए सर्वस्व हूँ । अपने में आत्मा की पहिचान करना है―मैं क्या हूं?
पदार्थव्यक्तित्व का परिचय―पदार्थ की पहिचान बनती है, उसकी शक्ति जानें, उसकी अवस्था जानें। दो परिचयों से पदार्थ का परिचय होता है। तो आत्मा का स्वरूप बतला रहे हैं कि आत्मा में गुण क्या है और आत्मा की पर्यायों का क्या हुआ करता है, इन दो बातों का इस गाथा में प्रतिपादन है। लोक में समस्त पदार्थ 6 जाति के हैं―जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। अन्य दार्शनिकों ने बहुत कोशिश की यह समझने की, बताने की कि सारे पदार्थ कितने होते हैं, मगर किस कुंजी से इसका उत्तर मिलता है उस कुंजी को छोड़ देने से पदार्थों की संख्या अथवा नाम सही नहीं कर सकता। कुंजी यह है कि एक परिणमन जितने में पूरे में हो और जिससे बाहर न हो वह एक पदार्थ कहलाता है। याने एक पदार्थ की अवस्था जो भी बने वह उस पदार्थ की एकदेश में न बनेगी, पूरे में बनेगी। अगर एक देश में बने तो समझो वह एक पदार्थ नहीं है, अनेक पदार्थ है। जैसे चौकी का खूंट काट डाला या आग लग गई तो सारी चौकी तो नहीं जलती। तो वह चौकी एक चीज नहीं है। वह अनंत परमाणुओं का समूह है, सो कुछ जल गई, कुछ नहीं जल रही। अगर एक चीज हो तो जो भी अवस्था बनेगी, वह पूरे में बनेगी, आधे में न बनेगी। यह एक पदार्थ की पहिचान है और वह अवस्था उस एक के प्रदेश से बाहर न रहेगी। यह एक पदार्थ की पहिचान का उपाय है। यह भी व्यक्तिगत बात। अब ऐसे पदार्थ अनंतानंत हैं।
पदार्थों की जाति का परिचय―सर्व पदार्थों में अब जाति की बात देखो―जिस रूप से जितने पदार्थ पूरे एक समान हों, जरा भी अंतर न आये तो वे एक जाति के पदार्थ कहलाते हैं। मगर और बात में पूरे समान हैं केवल एक बात में फर्क है तो भी वे एक जाति के पदार्थ न होंगे। वह जाति न्यारी हो जायगी। जैसे जीव एक जाति है, इसमें कितने जीव आ गए? अनंत। सिद्ध महाराज भी, निगोदिया जीव भी, अन्य संसारी जीव भी, अरहंत भगवान, सब एक जाति में आ गए, उनमें जरा भी फर्क नहीं। भव्य और अभव्य जीव में फर्क नहीं है। उसकी योग्यता, पर्याय, होनहार, इनका भेद पड़ गया, मगर जीव का जो निज में स्वरूप है उस स्वरूप की दृष्टि से भव्य और अभव्य के भेद न पड़ेंगे। अगर भव्य जीव बिल्कुल अन्य जाति के हों और अभव्य जीव अन्य जाति के हों तो पदार्थ 6 प्रकार के न कहकर 7 प्रकार के कहे जाते। इस जीव में भव्य अभव्य का भी अंतर नहीं स्वरूप दृष्टि से । चाहे वह कभी मुक्त न जा सके, मगर स्वरूप चेतन है और वह सब में एक समान है। शक्ति, ज्ञान, दर्शन आदिक सब जीवों में एक समान हैं। भव्य में भी उतनी ही शक्तियाँ हैं, अभव्य में भी उतनी ही शक्तियां हैं। फर्क शक्ति की व्यक्ति होने की शक्ति में है याने जिसमें आत्मशक्ति व्यक्त न हो सके उसे अभव्य कहते हैं, जिसमें आत्मशक्ति व्यक्त हो उसे भव्य कहते हैं, मगर शक्तियाँ सबमें एक समान हैं। अगर शक्तियां न होती तो अभव्यजीव के केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण ये कर्म होने की जरूरत भी न थी, क्योंकि केवलज्ञान की शक्ति ही नहीं है अभव्य में तो केवलज्ञानावरण किसलिए? तो अभव्य में भी केवलज्ञान की शक्ति है और उसका आवरण करने वाला केवलज्ञानावरण सदा रहेगा। यह अंतर तो है, मगर स्वरूप में शक्ति में भेद नहीं है। तो एक जीव जाति है जिसमें अनंतानंत जीव आये। पुद्गल जाति याने कुछ पदार्थ ऐसे हैं कि मिलकर एक पिंड बन जाये और बिछुड़ भी जायें। ऐसी कला केवल पुद्गल में ही है। जीव-जीव परस्पर मिल नहीं सकते। धर्म अधर्म कोई भी पदार्थ नहीं मिलते। यहाँ तक कि जीव और पुद्गल भी परस्पर में मिलकर पिंड नहीं होते। अगल-अगल ही मिलकर पिंड बन जायें और बिखरकर परमाणु एक रह जाय, ऐसी कला जिन पदार्थों में है उनका नाम है पुद्गल। पूरण और गलन―यह प्रकृति जिसमें पायी जाय उसे पुद्गल कहते हैं। पुद्गल जाति में अनंतानंत पदार्थ हैं, जीव से भी अनंतानंतगुणे पदार्थ हैं, क्योंकि सिद्ध से अनंत गुणे हैं संसारी जीव और एक-एक संसारी जीव के साथ अनंत परमाणुओं का शरीर लगा है, कर्म लगे हैं, तो एक जीव के साथ ही अनंत परमाणु हैं, फिर अनंतानंत जीवों के साथ कितने हैं? तो जीवों से अनंतानंतगुणे पुद्गल द्रव्य हैं। धर्म द्रव्य एक है उसमें एक यह ही कला है कि जीव पुद्गल चल सकते हैं एक जगह। यह तो एक निमित्तनैमित्तिकयोग की बात है। जैसे पानी हो तो उसमें मछली चल सकती है ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है। तो इस लोक में धर्म द्रव्य एक है, जिसके होने से ये जीव पुद्गल चल सकते हैं। अब अधर्मद्रव्य एक है जिसके होने से चलता हुआ जीव पुद्गल रुक सकता है। कोई भी काम एक हो रहा हो और उसके खिलाफ कोई दूसरा काम हो तो कोई बाह्य निमित्त होता है तब होता है। अगर बाह्य कारण न हों तो जो परिणमन चल रहा वही-वही परिणमन एक समान चलता रहेगा। जीव पुद्गल चलते रहे और चलते हुए में रुक सके तो इसमें भी कोई कारण है । एक साधारण सहयोग, उसे कहते हैं अधर्मद्रव्य। आकाश अमूर्त है और जहाँ सब पदार्थ ठहर सकते हैं। कालद्रव्य लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु अवस्थित है और वह वहीं रहता हुआ समय-समय पर्याय के रूप से परिणमन करता है। जिसे कहते हैं वर्तना। उसी वर्तना का स्थूलरूप मिनट घड़ी घंटा सेकेंड आदिक बन जाते हैं। ऐसे लोक में 6 जाति के पदार्थ हैं, उन सब पदार्थों में शक्तियाँ क्या हैं और उनकी अवस्थायें कैसे बनती हैं, यह बात जानने की होती है, क्योंकि पदार्थ में शक्ति और पर्याय ये स्पष्ट समझ में आये तो यह सुगमतया भान रहेगा―एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कुछ भी नहीं लगता। भेदविज्ञान पाने के लिए पदार्थों का स्वरूप जानना अत्यंत आवश्यक है।
जीव के गुण व पर्यायों की चर्चनीयता―जीव के विषय में इस गाथा में गुण पर्यायों का जिक्र है। जीव के गुण हैं चेतना और उपयोग। ये दो बातें कही गई हैं―चेतना और उपयोग। कहीं दो लक्षण नहीं हैं अलग-अलग कि किसी जीव में चेतना लक्षण हो, किसी जीव में उपयोग लक्षण हो, मगर ये दो बातें बताने का कोई रहस्य है। चेतना का अर्थ है चेतना, अपने आपको चेतना, यह ही एक मात्र दृष्टि है। अब अपने आपको यह जीव अगर सही रूप में चेतता है तो उसे कहते हैं ज्ञान चेतना। अगर कोई जीव अपने आपको किसी बाहरी पदार्थ, बाहरी भाव के कर्तारूप में चेतता है कि मैं इसका करने वाला हूँ तो वह कहलाया कर्म चेतना। कोई जीव कर्मफल के रूप से अपने को चेतता हो―मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं आनंद भोग रहा हूँ, मैं सुख भोग रहा हूँ, किसी भी प्रकार भोगने की बात अपने आप में लगायें तो वह कर्मफल चेतना है। तो चेतना भेद बताकर तो यह बात दर्शायी गई कि जीव अपने को चेतते हैं। अब कैसे चेतते हैं, इसकी विशेषता पर संसार और मोक्षमार्ग की बात है। अपने को मैं शुद्धज्ञानमात्र हूँ । केवल ज्ञानात्मक जानन हो यह ही तो कर्तापन है। एक जानन रहे, यह ही भोक्तापन है। ज्ञान के इन परिणामों के अतिरिक्त मेरे में और कुछ कर्ताभोक्तापन नहीं है, ऐसी चेतना की दृष्टि से जीव का गुण चेतना कहा है और उपयोग एक बाह्य विस्तार समझने के लिए कि यह जीव क्या-क्या जानता है, कहाँ-कहाँ उपयोग चलता है, फिरता है, यह बाहरी विस्तार समझने के लिए उपयोग गुण बताया गया है। जैसे उपयोग गुण की कितनी ज्ञान पर्यायें हैं? आठ और चार दर्शन पर्यायें हैं―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, ये तो अपूर्ण हैं मगर समीचीन हैं। कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये मिथ्या हैं, फिर भी ये सातों के ही सातों ज्ञान अशुद्ध कहलाते हैं, क्योंकि कर्म का क्षयोपशम साथ है। कर्म का आवरण लगा हुआ है इस ज्ञानी के साथ, ऐसी दशा में ज्ञान हुए हैं, इस कारण ये ज्ञान अशुद्ध कहलाते हैं । शुद्ध तो एक केवलज्ञान है, क्योंकि कर्म का अभाव हो गया। ज्ञानावरणकर्म रहा नहीं, इस कारण वह ज्ञान तो शुद्धपर्याय है, शुद्ध दशा है, बाकी 7 ज्ञान अशुद्ध हैं। उन अशुद्ध में भी दो भेद पड़ते हैं। अशुद्ध होते हुए भी सही, अशुद्ध लेते हुए मिथ्या, ऐसे 8 प्रकार के जिसके ज्ञान परिणमन हैं उस गुण का नाम है उपयोग । इसी तरह चार दर्शन होते हैं, जिनमें केवलदर्शन तो शुद्ध अवस्था है और चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन ये अशुद्ध अवस्था हैं, क्योंकि इनके साथ आवरण लगे हुए हैं आवरण के क्षयोपशम के अनुसार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन होता है। इस तरह ये उपयोग के भेद बताये, यह तो हुआ गुण। अब इसका और विस्तार बनाये तो श्रद्धान, चारित्र, आनंद आदिक अनेक गुण हैं। मगर जीव के जिस गुण की पकड़ से लक्ष्य से जीव की बात चलती है अच्छी बुरी, मोक्षमार्ग चले संसारमार्ग चले वे ये दो गुण हैं―चेतना और उपयोग।
पदार्थों की द्रव्यपर्यायों का दिग्दर्शन―अब देखो जीव में पर्यायें क्या होती हैं? तो जीवद्रव्य में चूंकि जीव प्रदेशवान द्रव्य है, सभी द्रव्य प्रदेशवान होते हैं और गुण भी हैं तो गुणों के जो परिणमन होंगे उनका नाम तो है गुणपर्याय और जो प्रदेश में परिणमन होगा उसका नाम है द्रव्यपर्याय। देव, नारकी, तिर्यंच, मनुष्य ये द्रव्यपर्याय है। इनमें प्रदेशों के प्रसार की शकल बन जाती है। जैसा देह पाया उसी आकार के जीव के प्रदेश बने। तो यह कहलायी द्रव्यपर्याय, और जो गुण हैं ज्ञानादिक, उनकी अवस्था को गुणपर्याय कहते हैं। तो जीव की पर्याय जानने में जो प्रतिपादन हैं वे दो तीन तरह से पाये जाते हैं, मगर उनमें लक्ष्य एक है, समझ एक है। एक पद्धति यह है कि यह जानें कि जीव में पर्यायें दो तरह की होती हैं―(1) द्रव्यपर्याय और (2) गुणपर्याय। मायने जीव के प्रदेश का आकार बने, वह तो है द्रव्यपर्याय। अगर केवल जीवद्रव्य के ही आकार देखे जा रहे और विशुद्ध एक लक्ष्य से देखे जा रहे तो उसे कहेंगे शुद्ध द्रव्यपर्याय। वे हैं सिद्ध भगवान। और जीव पुद्गल के मेल से जो पर्याय बनती है वह है अशुद्धपर्याय―देव, नारक आदिक। तो चार गतियों की जो पर्यायें हैं वे विभाव द्रव्य पर्याय कहलाती हैं, यह द्रव्य पर्यायों का भेद हुआ। द्रव्यपर्याय वही है, अनेक द्रव्यों के मेल से जो परिणमन बने, आकार बने उसे कहते हैं द्रव्य पर्याय याने अनेक पदार्थों में एक है, ऐसी जानकारी का जो विषयभूत है वह द्रव्यपर्याय है। जैसे पशु, मनुष्य, काठ, इनको देखकर कोई एक ही बात तो समझी जाती है और चेष्टा से जहाँ शरीर जाय वहाँ जीव जाय, जहाँ जीव जाय वहाँ शरीर जाय, तो ऐसे अनेक द्रव्यों में एकता की प्रतिपत्ति का जो कारण है, अनेकों में एक प्रतिपत्ति बनने में जो बात बनती है वह है द्रव्यपर्याय। सो अनेक द्रव्यों की मिलकर जो बात बनती है वह तो है अशुद्धपर्याय और एक ही द्रव्य का जो आकार रहता है वह है शुद्ध द्रव्यपर्याय। तो ऐसी जो ये द्रव्यपर्यायें हैं, अनेक पदार्थ मिलकर बन जायें तो ऐसे अनेक पदार्थ एक ही जाति के हैं तो उनका नाम है समानजातीय द्रव्यपर्याय। जैसे जितने पुद्गलस्कंध दिखते हैं ये सब समानजातीय द्रव्यपर्याय हैं याने अचेतन पुद्गल परमाणु मिल-मिलकर यह पिंड बना। समानजातीय द्रव्यपर्याय केवल पुद्गलों को होगा। और असमानजातीय द्रव्यपर्याय ये जीव के होते हैं, याने जीव और पुद्गल परमाणु शरीर के अणु, कर्म के अणु, इन सबके बंधन में जो एक दशा बनती है वह है असमानजातीय द्रव्यपर्याय। तो समानजातीय द्रव्यपर्याय होना और असमानजातीय द्रव्यपर्याय होना, यह सब अशुद्ध द्रव्यपर्याय कहलाती है, क्योंकि अनेक के मेल से बना, मायारूप है, बिखर जायगा। स्वभाव की बात नहीं है, इसलिए इसे अशुद्ध पर्याय कहा गया।
पर्यायों के यथार्थ परिचय का महत्त्व―पर्यायों के सही परिचय से यह बात सामने आ जाती कि यह पुत्र है या घर का कोई है तो यह है क्या? समानजातीय द्रव्यपर्याय है। हम से इसका क्या मतलब? बहुत से परमाणु मिल गए व यह जीव है, इसका कर्म इसके साथ है, यह असमानजातीय पिंड है, मेरे से उसका कोई ताल्लुक नहीं है। केवल मोह में कल्पना से मानते। दूसरे का लड़का हो वह क्या कोई और तरह से बना हुआ है? अरे जैसे आपका यह लड़का बना है अनेक द्रव्यों के मेल से ऐसे ही दुनियाभर के बच्चे, वे भी अनेक द्रव्यों के मेल से बने हैं। जरा भी फर्क नहीं है कि यह तो आपका कहलाये और यह गैर कहलाये। स्वरूप की ओर से किसी भी जीव में, बच्चे में कोई भेद की बात न आनी चाहिए। और भेद आता है तो वह सब मोह और राग का परिणाम है। स्व पर का पर में भेद है नहीं, सब जुदे-जुदे हैं। तो समानजातीय अनेक द्रव्यपर्यायों के जान लेने से यह स्पष्ट विचार रहता है कि मेरा क्या मतलब इससे? भिन्न वस्तु है, केवल एक गृहस्थी में गुजारा करने के लिए ही परस्पर में राग है, पर एक का दूसरा कुछ नहीं है। समानजातीय द्रव्यपर्याय, देखिये ये सब भीत हैं, सोना है, चाँदी है, वैभव है, उसके प्रति एक ममता जगती है, वह वैभव है क्या? अनेक परमाणुओं का पिंड है। जब तक इकट्ठा है, बिखर रहा तो बिखर रहा, वह कोई सारभूत तो नहीं है। मकान हो, जेवर हो, कोई भी वस्तु हो वह सारभूत चीज नहीं है, मायारूप चीज है, अनेक परमाणुओं के मेल से बना है, सो जब तक मिला हुआ है सो मिला है, बिखर गया तो बिखर गया। इन सब पर्यायों के बोध से ममत्व के विनाश का उपाय बनता है। तो ये अनेक द्रव्यपर्याय जीव पुद्गल में ही संभव हैं, अन्य द्रव्य में नहीं, क्योंकि संबंध दो प्रकार के होते हैं एक तो संश्लेष संबंध और एक-एक क्षेत्रावगाह संबंध। तो संबंध तो हमारा सभी द्रव्यों से है। जहाँ जीव है वहाँ ही पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल आदिक सभी पदार्थ हैं। तो संबंध है ना, मगर इन संबंधों से कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सब अपने-अपने में अपने अनुसार परिणम रहे हैं। संश्लेष संबंध का इससे निकट संबंध है, जैसे जीव का कर्म, जीव का शरीर। सो जीव का धर्म, अधर्म, आकाश, काल किसी के साथ भी संश्लेष संबंध नहीं है और द्रव्यपर्याय बनती है तो संश्लेष संबंध में बनती है, केवल क्षेत्रावगाह के संबंध से भी नहीं बनती। इस कारण धर्मादिक द्रव्यों में द्रव्यपर्याय नहीं होती। यह तो द्रव्यपर्यायों की चर्चा हुई।
जीव के गुणपर्यायों का दिग्दर्शन और उसके परिचय का लाभ―अब गुणपर्याय देखिये तो गुणपर्याय समझने की कुंजी यह है कि एक ही द्रव्य का परिणमन जहाँ देखा जा रहा है वह गुणपर्याय है। भले ही कषायादिक भी तो गुणपर्याय हैं और वे कर्म अनुभाव का निमित्त पाकर होते हैं, सो भले ही कितने ही निमित्त हों, पर परिणमा तो केवल जीव ही कषायरूप। इस कारण से वह गुणपर्याय कहलाता है। एक ही द्रव्य में जो पर्याय बनती है दूसरे द्रव्य की मिलकर नहीं बनती परिणति, वह सब गुणपर्याय कहलाती है या यों कहो कि अन्य-अन्यरूप जो परिणति है, उनमें जो एकत्व को किए हुए हो वह गुण है और उसकी ये पर्यायें गुणपर्याय कहलाती हैं। जैसे पुद्गल में देखो किसी भी फल में रूप, रस, गंध, स्पर्श बदलते भी रहते हैं तो यह परिणमन जीव में देखो तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञानादिक के परिणमन चलते हैं। ये गुणपर्यायें कहलाती हैं। अब गुणपर्यायों को दो रूप में देखिये―(1) स्वभावगुणपर्याय (2) विभावगुणपर्याय। और एक होता है सूक्ष्मगुणपर्याय तो सूक्ष्मगुणपर्याय तो अवक्तव्य है जिसे शुद्ध अर्थपर्याय कहते हैं। मायने एक परिणमन के बाद उसमें जो दूसरा परिणमन आता है तो वह षड्गुणहानिवृद्धिरूप लिए आता है और यह अवक्तव्य है, आगमगम्य है। सूक्ष्म बताया गया और अन्य गुणपर्याय दो प्रकार से हैं―(1) स्वभावगुणपर्याय, (2) विभावगुणपर्याय। केवलज्ञानादिक स्वभाव गुणपर्याय हैं और लेश्या आदिक विभावगुणपर्याय हैं और इन पर्यायों का बहुत अच्छा व्यापक प्रचार करना है तो यों करना चाहिए कि पदार्थ में दो प्रकार की पर्यायें हैं―(1) व्यंजनपर्याय और (2) अर्थपर्याय। अर्थपर्याय तो सूक्ष्म है । षड्गुणहानिवृद्धिरूप अवक्तव्य जो एक आधार मात्र है, न हो षड्गुणहानिवृद्धिरूप परिणति तो स्थूल परिणति कहां से हो? इसलिए स्थूल परिणमनों का वह सूक्ष्म षड्गुणहानिवृद्धि एक आधार है और सर्वद्रव्यों में साधारण है। और व्यंजनपर्याय के दो भेद हैं―(1) द्रव्यव्यंजनपर्याय और (2) गुणव्यंजनपर्याय। द्रव्यव्यंजनपर्याय तो आकार का नाम है। जो-जो कुछ आकार की पर्याय कही थी वह सब द्रव्यव्यंजनपर्याय में आता है और आकार को छोड़कर शेष जो पर्यायें हैं वे सब गुणपर्याय कहलाती हैं। तो जीव में गुणपर्याय जो कुछ भी हो रही है उसका संबंध जीव से है, अन्य से नहीं है। तो एक पदार्थ का दूसरा पदार्थ कुछ भी नहीं है―यह बात समझने के लिए प्रत्येक पदार्थ का गुण और पर्याय ठीक समझना चाहिए। जिससे यह बोध हो कि किसी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के साथ न तो गुण का संबंध है, न पर्याय का संबंध है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में न गुण को रखता है, न पर्याय को रखता है, ऐसी दृष्टि स्पष्ट हो जाती है तो वहाँ ममता को अवकाश नहीं रहता। ममत्व न रहे, इसी में जीव का कल्याण है।