वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 31
From जैनकोष
अगुरुलघुगा अणंता तेहिं अणंतेहिं परिणदा सव्वे ।
देसेहिं असंखादा सिय लोगं सव्वमावण्णा ।।31।।
केचित्तु अणावण्णा मिच्छादंसणकसायजोगजुदा ।
विजुदा य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा ।।32।।
पदार्थपरिणमन―अगुरुलघु गुण अनंत होते हैं । उन अनंत गुणों से परिणमन करनेवाले समस्त पदार्थ हुआ करते हैं । उनमें से यह जीवपदार्थ प्रदेशों की अपेक्षा तो असंख्यातप्रदेशी है, पर कदाचित् समस्त लोक को भी प्राप्त हो जाता है । कोई जीव यों व्यापक है, सर्वलोक में विस्तृत है । केवल लोकपूरण अवस्था में अरहंत देव के आत्मा के प्रदेश सर्वलोक में व्यापक होते हैं । और अनेक संसारी जीव अव्यापक हैं । अनेक जीव मिथ्यात्व, कषाय और योग से युक्त हैं और अनेकों जीव मिथ्यात्व आदिक विभावों से रहित हैं । कोई जीव सिद्ध हैं और कोई संसारी हैं ।
जीवभेदविस्तार―इन दो गाथावों में जीव का भेद विस्तार बताया गया है । पदार्थों में अगुरुलघुत्व गुण हुआ करता है जिसके प्रभाव से ये पदार्थ प्रति समय परिणमते रहते हैं । एक परिणमन के बाद इसका परिणमन होने में वृद्धि-हानि हुआ करती है । किसी-किसी समय तो मोटे परिणमन में वृद्धि-हानि नजर आती है और कहीं नहीं नजर आती है । लेकिन यह निर्णय है कि वृद्धि-हानि हुए बिना दूसरा परिणमन नहीं हो पाता । न हो कुछ भी वृद्धि, न हो कुछ भी हानि तो वह दूसरा परिणमन ही क्या? जो शुद्ध परिणमन भी होते हैं उन शुद्ध परिणमनों की भी यही पद्धति है । वहाँ पर भी वृद्धि हानि होती है । यह वृद्धि हानि विकाररूप नहीं किंतु यह पदार्थ के स्वभाव में शामिल है । कोई-सा भी काम अपने को व्यवहार में जो दिखता है उसमें भी वृद्धि हानि चल रही है । कोई एक पुरुष आधा मन का बोझ हाथ पर उठाये खड़ा है बिल्कुल स्थिररूप से हिलता डुलता नहीं हैं, हमें नहीं मालूम पड़ रहा है, पर उसके भीतर सूक्ष्मरूप में कितनी हलन-चलन और वृद्धि हानि हो रही है? इसे वही अनुभव कर रहा है ।
शुद्ध परिणमन में भी नूतनत्व―एक दीपक या बल्ब आधा घन्टे तक एक-सी स्पीड में जल रहा है, कहीं बिजली के तार में कुछ खराबी भी नहीं है जिससे वह कभी मंदा और कभी तेज हो जाय । एकसा जल रहा है, इतने पर भी इस बिजली विभाग के जानकार जानते हैं कि प्रति सेकेंड अथवा उसके भी कई भाग में जो नई-नई रोशनी हो रही है उस बीच में वृद्धि हानि हो जाती है । किसी-किसी समय तो अपने को भी मालूम पड़ जाता है कि जगमग हुए बिना यह प्रकाश नहीं हो सकता । जगमग मायने वृद्धि हानि । जग मायने वृद्धि, मग मायने हानि । जग गया, उठ गया, मग गया, अंदर की ओर संकुचित हुआ तो वृद्धि हानि बिना परिणमन नहीं हुआ करता । ऐसी शक्ति प्रकृति प्रत्येक पदार्थ में है । उनसे भी षट्स्थान पतित वृद्धि हानिरूप अविभाग प्रतिच्छेद सिद्धांत में कहे गये हैं। उन गुणों से ये समस्त अनंतजीव प्रति समय परिणमते चले जा रहे हैं ।
परिणमनस्वरूप के अवगम से शिक्षा―जिसे हित की धुन हो उसे सब बातों में शिक्षा मिल जाती है । जिसे हित की धुन नहीं है, साक्षात् शिक्षा के वचनों में भी उसे शिक्षा नहीं मिलती । यहाँ यह शिक्षा ग्रहण करते हैं कि जब पदार्थ अपने आपमें पाये गये अगुरुलघुत्व गुण से परिणमते रहते हैं तब किसी भी पदार्थ में मेरा क्या अधिकार है, मेरा क्या कर्तव्य है? अपने आपके स्वरूप को सम्हालकर फिर इस तत्त्व मर्म को निरखिये । यह मैं आत्मा क्या हूँ, कितना हूँ, क्या कर पाता हूं? जरा अंतर्दृष्टि करके निरखिये । मोह ममता के रंग में आपको कुछ भी लाभ न होगा, सदा सूने के सूने ही रहोगे । वस्तु का स्वरूप ही ऐसा है । यदि कोई किसी का बन जाता तो आज को यह संसार भी न मिलता, सर्वापहार हो जाता, सर्व शून्यता आ जाती । ये सबके सब अब तक हैं, यह इसी बात का प्रमाण है कि प्रत्येक पदार्थ मात्र अपने स्वरूप का अधिकारी है, कोई किसी दूसरे के स्वरूप का अधिकारी नहीं । ऐसा जानकर हे भव्य पुरुषों ! अपने आप में संतुष्ट रहने को प्रकृति बनावो । किसी परपदार्थ में चित्त बसाकर संतुष्ट होने का यत्न मत करो, अन्यथा कई गुणा कष्ट पाओगे । अपने आपको सम्हाल लो ।
स्वावलंबन की सीख―यह जैन शासन स्वावलंबन सिखाता है, अपने मन को सम्हाल लो । अपने इन विकल्पों पर संयम पा लो, फिर कहीं आकुलता नहीं है । मेरा तो कुछ है नहीं उसे दिल में बसाया है, उसे अपना माना है । अरे क्या पहिले था या आगे रहेगा, और अब भी क्या कोई आपका साथी है । व्यर्थ के मोह का रंग इतना तीव्र चढ़ाकर यह जीव दुःखी हो रहा है । यह वस्तुस्वरूप हमें यह सिखा रहा है कि प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है । मैं किसी का कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं, किसी का स्वामी नहीं । किसी अन्य पदार्थ से मेरा रंच भी संबंध नहीं है। भले ही चाहे बड़ी शक्ति लगाकर लीनता करें, पर कोई अपना नहीं हो पाता ।
मिथ्यावासना से हानि―भैया ! कंजूस लोग इस वस्तुस्वरूप की दृढ़ता के कारण दुःखी रहा करते हैं । एक तो कंजूसी कर-करके धन जोड़ा, और जब यह देखा जाता कि यह धन उसका रहता नहीं है, पास से छूट रहा है तो कोशिश तो बहुत करता है कि यह मेरा बनकर रह जाय, पर वस्तुस्वरूप का उल्लंघन कौन कर सकता है? मिटता है, बेकार होता है, उसे बड़ा कष्ट भोगना पड़ता है । अरे उस कंजूसी से लाभ क्या मिला? जीवनभर दु:खी रहे और मरते समय तो बुरी हालत करके मरे, छूटा आखिर सब कुछ । रहा यह अकेला का ही अकेला, पर उस मोह के स्वप्न में अनेक नाटक कर डाले गये ।
जीव का परिमाण―प्रत्येक पदार्थ स्वयं परिणमनशील है । आपका किसी भी पदार्थ में कोई दखल नहीं है । ये समस्त जीव अपने-अपने अगुरुलघुत्व गुण के कारण परिणमते चले जा रहे हैं । ये सब जीव कितने परिमाण के हैं? इनमें प्रदेश असंख्यात हैं प्रत्येक जीव में । कदाचित् ये जीव लोक में फैल जाये, व्यापक हो जाये । यह ज्ञानपुंज तो समस्त लोक में व्याप सकता है ।
जीव की व्यापकता का अवसर―जीव की यह व्यापक अवस्था हुआ करती है लोकपूरण समुद्घात में । अरहंत भगवान के जिनके चार घातिया कर्म तो नष्ट हो चुके, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार अघातिया कर्म शेष रहे । तो जब कुछ अंतिम निकट समय आता है उस समय करीब-करीब यह स्थिति रहा करती है कि आयु कर्म तो थोड़ा रह गया और बाकी तीन कर्म बहुत लंबी स्थिति के रह गये, आयु अभी नहीं मिटी । यदि सिद्ध होंगे तो यों नहीं होते कि पहिले आयु मिट जाय, जब नाम की गोत्र की स्थिति का नंबर आयगा मिटने का तो वह मिट जायगा । चारों अघातिया कर्म एक साथ नष्ट होते हैं, उनकी प्रकृतियों में एक समय का तो अंतर हो जायगा । कुछ प्रकृतियाँ द्विचरमसमय में क्षय होंगी और कुछ कृत्तियां चरमसमय में, पर इतने का क्या अंतर है? यों ही समझिये कि चारों अघातिया कर्म एक साथ नष्ट होंगे ।
केवलिसमुद्धात की परिस्थिति―अब यह बानक कैसे बने? आयु की तो थोड़ी स्थिति है और बाकी कर्मों की बड़ी स्थिति है तो इस समय स्वभावतः समुद्घात होता है । समुद्घात का अर्थ है―अपने मूल शरीर को न छोड़कर आत्मा के प्रदेशों का फैल जाना । अरहंत प्रभु यदि पद्मासन में विराजे हों तो एक घूंटे से लेकर दूसरे घूंटे तक का जितना क्षेत्र है, फैलाव है उतनी ही मोटाई से उनके प्रदेश नीचे जाते हैं और ऊपर फैलते हैं । फिर दूसरे समय में अगल-बगल में फैलने लगते हैं जहाँ तक उन्हें लोक मिलता है, वातवलयों में नहीं और शेष लोकों में फैल जाते हैं । इसके पश्चात् पीठ और पेट की तरफ उनके प्रदेश कहाँ तक फैलते हैं जहाँ तक वातवलय नहीं आता, फिर इसके बाद जो शेष वातवलय रह गये थे उनमें भी ये प्रदेश फैल जाते हैं । अब लोक में कोई प्रदेश ऐसा नहीं बचता जहाँ इस अरहंत आत्मा का प्रदेश न हो । ये सब एक-एक समय की बातें हैं । अब इसके बाद संकोच होना शुरू होता है । तो जैसे-जैसे यह फैला तैसे ही तैसे यह सिकुड़ा और अंत में अपने शरीर में समा जाता है । इस प्रक्रिया में प्राय: वे तीन कर्म आयुकर्म के बराबर हो जाते हैं । यदि थोड़ी-सी कसर रह गयी है तो इसके बाद ही बराबर हो जाती है । जिसे कहते हैं समुद्घात । इसके बाद अंत में कर्मों को एक साथ दलकर के मुक्त हो जाते हें ।
जीवपरिमाण का विविध विस्तार―देखो यह जीव लोकपूरण समुद्घात में लोक भर में फैल गया, बाकी समयों में तो यह जीव देहप्रमाण रहता है । और अन्य समुद्घातों में कुछ फैलकर भी असंख्यात प्रदेशों में ही कहीं फैला हुआ है, पूरे लोक में नहीं फैला । यह तो प्रदेशों की बात है। ज्ञानभाव से तो लोकालोक में व्यापक है । अपने आपके अंत:स्वरूप का ज्ञान महाविज्ञान है । इसही को लक्ष्य में लेकर कुछ अनेक दार्शनिकों ने इसका स्वरूप बताना चाहा, पर स्वरूपदृष्टि में न होने से स्वरूप का बताना विभिन्न रूपों में हो गया है और कुछ ऐसा लगने लगा कि दूसरे की कहानी कही जा रही हो, अपने आपके इस स्वरूप का ज्ञान हो, स्याद्वाद पद्धति से स्वरूप का निर्णय हो तो ये सब बातें स्पष्ट अपने आपके ज्ञान में आ जाती हैं । ये सब जीव कोई तो व्यापक हैं, कोई अव्यापक हैं ।
विकार व विकास―इन जीवों में कोई जीव तो मिथ्यात्व से रंगे पंगे हैं और कोई मिथ्यात्व के रंग से मुक्त हो गये हैं । मिथ्यात्व नाम है किसका? मिथ्या शब्द मिथ् धातु से बना है, जिसका अर्थ है दो का मेल । लोग तो मिथ्या का अर्थ झूठ बताते हैं, पर मिथ्या का अर्थ झूठ नहीं है । मिथ्या मायने दो का मेल । यह मिथ्या शब्द मिथुन या मैथुन शब्द से बनता है। दो के संबंध को, दो के मेल को मिथ्या कहते हैं । यह मेरा है―इस तरह दो के संबंध का विकल्प रखना इसका नाम है मिथ्या । चूंकि दो का संबंध सही नहीं है इसलिए मिथ्या का अर्थ लोगों ने लगा दिया झूठ, और यह ठीक भी है, पर सही अर्थ झूठ नहीं है । मिथ्या का झूठ अर्थ तो फलित है । कितने ही जीव मिथ्यात्व के रंग से रंगे पगे हैं । यह देह मैं हूँ, यह घर मेरा है, यह भैया मेरा है, ये हमारे घर के लोग हैं, इनके लिए तो जान तक न्यौछावर हो जाती है । सब कुछ इनके ही लिए तो है । कितना अज्ञान का अंधेरा छाया है, जीव के स्वरूप का भान ही नहीं हो पा रहा है । यदि स्वरूप का भान होता तो इसकी दृष्टि में वह चैतन्य नजर आता जो सब जीवों में एक समान है । अनंतानंत प्राणी इस मिथ्यात्व के मल से मलिन हैं और कोई विरले ही ज्ञानी संत व प्रभु परमात्मा ऐसे हैं जो मिथ्यात्व के रंग से मुक्त हैं ।
भ्रम का महाक्लेश―भैया ! भ्रम का बड़ा क्लेश होता है । एक कहानी है―देहात के 10 मित्र जुलाहा किसी गांव के बाजार में कपड़ा बेचने गये । बेचकर लौटे तो रास्ते में नदी पड़ती थी । जाते समय तो बेचने की धुन थी, कोई विकल्प नहीं हुआ । बेच करके आये काम करके आये ना, तो चित्त में वह उत्सुकता नहीं है ना, तो विकल्प चले, नदी से पार होकर जब किनारे पहुंचे तो उनमें से एक ने कहा कि आवो अपन गिन तो लें । दस लोग गये थे, दसों के दसों लोग हैं कि नहीं । तो एक ने गिना, निगाह डाली तो उसको 9 ही लोग नजर आये । कहा कि अरे 9 ही लोग रह गये । एक का पता ही नहीं है । यों ही सभी ने गिना तो सभी को 9 के 9 ही नजर आये, सभी खुद को गिनना भूल गये । सोचा कि अपन में से एक मित्र नदी में बह गया होगा । सभी दुःखी हो गये, रोने लगे, पत्थरों से अपना सिर फोड़ने लगे । अरे भाई कौन मर गया बतावो तो सही? बस मर गया कोई एक मित्र । लो खुद को गिनना सभी भूल गये । भ्रमवश यह हालत हो गयी, सभी के सिर से खून बहने लगा । एक कोई सूझता पुरुष उसी रास्ते से जा रहा था, पूछा- भाई! आप लोगों की क्यों यह हालत हो गयी है? सभी ने सारी कहानी बतायी । बताया कि हम लोग 10 मित्र कपड़ा बेचने गये थे । अब हम 9 मित्र ही रह गये हैं । एक हमारा मित्र नदी में डूबकर शायद मर गया है । तो उसने सरसरी निगाह से देख लिया कि दसों के दसों तो हैं । पूछा―भाई कौन नहीं है? सभी ने खुद को छोड़कर 9 लोगों को गिनकर बताया । उस सूझते पुरुष ने बताया कि हम तुम्हारे 10वें मित्र को बता देंगे । तो उन्होंने समझा कि इसने कहीं देखा होगा तो हमें हमारे मित्र को बता देगा । सभी बड़े खुश हुए और कहा बतावो । उसने क्या किया कि सभी को एक लाइन में खड़ा किया, एक हाथ में एक डंडा लिया और एक तरफ से एक-एक डंडा धीरे-धीरे मार कर बताता जाय―देखो एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ, नौ और 10वें को जरा जोर से मारे ताकि ध्यान रहे, कहा 10वें तुम हो, यों ही सभी की अंत में जोर से मारकर बतावे कि 10वें तुम ही हो । तो भाई जब भ्रम था तब उन्हें कितना कष्ट या कितनी विह्वलता थी, कितना अंधेरा था? जब भ्रम मिट गया तो यद्यपि सिर से खून अभी भी बह रहा, बंद नहीं हुआ, फिर भी वे आकुलित नहीं हैं। भ्रम में बहुत बड़ी आकुलता होती है ।
संसरण का मूल भ्रम―भ्रमवश ही लोग इस संसार में भटक रहे हैं । मेरा यह गया, मेरा वह गया, मेरा यह मिटा, मेरा वह मिटा । अरे इसमें किसी को मिटने का क्लेश नहीं है । क्लेश तो इस बात का है जो परपदार्थ को मान लिया है कि यह मेरा है, इस कारण जब तक भ्रम है तब तक यह दुःखी रहेगा । सभी जीव मिथ्यात्व के रंग में पगे हुए हैं, वे इस देह को ही अपना सर्वस्व समझते हैं । कुछ ही विरले जीव मिथ्यात्व से छूटे हुए हैं ।
कषाय और योग का प्रभाव―अनेक जीव कषाय से युक्त हैं, और कुछ विरले जीव कषाय से रहित हैं । जिन जीवों के मिथ्यात्व पाया जाता है उनके कषाय तो अवश्य होती है और जिन जीवों के कषायें पायी जाती हैं प्राय: उनके मिथ्यात्व होता है, पर नियम नहीं है, कषाय हो उसके साथ मिथ्यात्व हो भी सकता, नहीं भी हो सकता है, इससे समझिये कषाय का रंग मिथ्यात्व से हल्का है । ज्ञानी सम्यग्दृष्टि साधुसंत पुरुषों के भी परिस्थितिवश कषाय जगती है, पर मिथ्यात्व नहीं है, अनेक जीव कषाय से युक्त हैं और विरले जीव कषाय से रहित हैं । कर्म आस्रय का कारण है योग । प्रदेशों का सकंप हो जाना, हलन-चलन होना योग है । अनंत जीव योग से सहित हैं और विरले जीव योग से रहित हैं ।
जीवविस्तारविवरण से शिक्षा―यों इन सब जीवों में एक प्रकरणवश इतने भेद कर लिये हैं । उनमें अनंत तो सिद्ध जीव हैं और सिद्ध जीवों से अनंतगुणे संसारी जीव हैं । यों समस्त जीव सिद्ध और संसारी इन दो भागों में विभक्त हैं । हम इस कथन से यह शिक्षा लें कि सर्व प्रकार की आशा का त्याग करके यहाँ तक कि जीने की भी आशा न बनाये, और अंतरंग में यह देखें कि शुद्ध जीवों के सदृश परमानंदस्वाद से तृप्त अथवा आनंदमय यह शुद्ध जीवास्तिकाय ही दृष्टि में लेने योग्य है ।