वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 86
From जैनकोष
जह हवदि धम्मदव्वं तह तं जाणेह दव्वमधमक्खं ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीव ।।86।।
अधर्मद्रव्य का स्वरूप व स्थितिहेतुत्व पर दृष्टांत―जैसे जीव पुद्गल की गति में बहिरंग सहकारी कारण धर्मद्रव्य होता है ऐसे ही गति कर रहे हुए उन जीव पुद्गलों के ठहरने में सहकारी कारण अधर्मद्रव्य होता है । इसमें यह दृष्टांत प्रसिद्ध है । जैसे मुसाफिरों के अथवा घोड़ा आदिक तिर्यंचों के ठहरने में सहकारी कारण पृथ्वी है । देखिये हम आप ठहरते हैं तो पृथ्वी का सहारा लिए बिना नहीं ठहर सकते, तो हम आपके ठहराने में कारणभूत यह पृथ्वी हैकि नहीं? जैसे हम इस चौकी पर बैठ गये तो हम अपनी ताकत से बैठे हैं या चौकी की ताकत से बैठे हैं? हम तो अपनी ही ताकत से, अपने ही परिणमन से बैठे हैं । सबको देखने में लग रहा है कि चौकी की ताकत से बैठ गए, पर यह चौकी बहिरंग सहकारी कारण है । ऐसे ही इस पृथ्वी पर चलते हुए में ठहर जायें तो इस पृथ्वी ने हमें जबरदस्ती नहीं ठहराया है, हम अपनी ही शक्ति से ठहरते हैं, पृथ्वी हमारे ठहराने में सहकारी कारण है।
स्थितिहेतुत्व पर पथिक छाया का दृष्टांत―अधर्मद्रव्य के स्थितिहेतुत्व में एक दृष्टांत और प्रसिद्ध लिया जाता है कि जैसे मुसाफिर के ठहराने में पेड़ की छाया सहकारी कारण है, इस दृष्टांत से भी यह दृष्टांत जोरदार है । यदि कोई मुसाफिर बात झूठ करने के लिये हठ कर जाये कि हम इसी सड़क पर ठहरते हैं, धूपों मरे या कुछ भी हो और कहे अब बतावो छाया हरने में कहाँ कारण हुई? तो इसके मुकाबले पृथ्वी का दृष्टांत ठीक है ना । तखत आदि पर ठहरे कोई तो वह भी पृथ्वी कल्प है, किंतु छाया वाला दृष्टांत भी कमजोर नहीं है । दृष्टांत जितने अंश को सिद्ध करने के लिये दिया जाता है उतने के लिये ही समझना होता है । देखिये―कहीं वह छाया बुलाकर तो उस मुसाफिर को नहीं ठहराती है । तो वह छाया उस मुसाफिर के ठहराने में सहकारी कारण है । कहीं वह छाया उस मुसाफिर को पकड़कर अपनी ओर खींचती नहीं है । वह तो वहीं की वहीं पर है । यह मुसाफिर स्वयं अपनी इच्छा से वेदना शांति का प्रयोजन लेकर छाया के नीचे पहुंच जाता है ।
छाया का उपादान व निमित्त―देखिये पेड़ की छाया कहना, यह भी व्यवहार की बात है । पेड़ के नीचे जो छाया पड़ती है बतावो वह छाया पेड़ की है कि पृथ्वी की है? पेड़ की चीज, पेड़ का गुण, पेड़ की परिणति, पेड़ का प्रभाव, पेड़ का सर्वस्व पेड़ में रहेगा या उससे बाहर अन्यत्र जायेगा? किसी भी द्रव्य का परिणमन, किसी भी द्रव्य का प्रभाव उस द्रव्य से बाहर कहीं नहीं जाता । लो पेड़ की छाया तो वह नहीं रही । पेड़ की जो कुछ चीज है वह पेड़ में ही समायी हुई है । पेड़ में रूप है तो वह रूप उस वृक्ष से बाहर तो नहीं है ना? वृक्ष में गंध है तो वह गंध भी वृक्ष से बाहर नहीं है । इसमें तो आप शंका कर सकते हैं कि वृक्ष की गंध तो मीलों तक फैल जाती है । वृक्ष की गंध तो बाहर चली गई । अरे वृक्ष की गंध बाहर नहीं गई ।वृक्ष की गंध वृक्ष में है, पर ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि वृक्ष के पास लगे हुए परमाणु स्कंध वृक्ष के सुगंधित अंश के सन्निधान का निमित्त पाकर जो कुछ सूक्ष्म स्कंध उसके पास हैं, वे भी गंधरूप से परिणम जाते हैं और यों पास के स्कंध गंधरूप से परिणमते चले जाते हैं ।जहाँ तक यह परिणमन विधान बन सकता है वहाँ तक यह गंध फैल जाती है । पर उस वृक्ष से बाहर वह गंध नहीं है । जैसा भी हरा, पीला, काला रूप है वह वृक्ष से बाहर है क्या? नहीं है । और वृक्ष में कठोरता, वृक्ष की चिकनाई उस वृक्ष में ही समाई हुई है । वृक्ष की चीज वृक्ष में ही है, वृक्ष से बाहर नहीं है । और छाया तो वृक्ष से बहुत दूर है । कभी-कभी तो उस वृक्ष के नीचे भी वह छाया नहीं रहती, वृक्ष से पच्चीस हाथ दूर कहीं वह छाया पड̣ती है । तो वह छाया उस वृक्ष की नहीं है, किंतु सूर्य के प्रकाश का जो अवरोधन होता है उस स्थिति में वह पृथ्वी ही खड़े हुए वृक्ष का निमित्त पाकर छायारूप परिणम जाती है ।
दृष्टांत और दार्ष्टांत में उदासीननिमित्तपने की सिद्धि―यह मुसाफिर जब उस वृक्ष की छाया में पहुंचता है तो जैसे छाया उदासीन बहिरंग सहकारी कारण है, इस जीव को जबरदस्ती अपनी ओर खींचती नहीं है, इसी प्रकार यह अधर्मद्रव्य भी चलते हुए जीव पुद्गल के चलने में सहकारी कारण है । इस गाथा में पृथ्वी का दृष्टांत दिया गया है । जैसे पृथ्वी स्वयं पहिले से ही ठहरी हुई है और किसी चलते हुए जीवपुद्गल को यह जबरदस्ती ठहराती भी नहीं है, किंतु स्वयं ही ठहरे हुए घोड़ा मनुष्य आदिक जीवों को ठहराने में उदासीन और अविनाभूतसहकारी कारणमात्र होकर अनुग्रह करती है, ऐसे ही यह अधर्मद्रव्य स्वयं चलता हुआ ठहरता नहीं है अथवा चलते हुए जीव पुद्गल को जबरदस्ती ठहराता नहीं है,किंतु जो ठहर रहे हैं अपनी शक्ति से उनके इस ठहराने में अधर्मद्रव्य बहिरंग सहकारी कारण मात्र होता है । यदि यह धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य चलने और ठहराने का काम जबरदस्ती करता होता तो आज धर्म और अधर्म की बड़ी विकट लड़ाई होती, कोई जबरदस्ती ढकेलता, कोई जबरदस्ती ठहराता । यह उदासीन सहकारी कारण है, पर उपादान कारण तो यह चलने वाला और ठहरने वाला जीव पुद्गल ही स्वयं है ।
उपग्रह के अतिरिक्त अन्य लक्षणों में धर्म व अधर्मद्रव्य की समानता―धर्मद्रव्य गति का निमित्त है और अधर्मद्रव्य स्थिति का निमित्त है, बाकी और सब बातें अधर्मद्रव्य में धर्मद्रव्य की तरह समझना । जैसे धर्मद्रव्य रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित है इस ही प्रकार अधर्मद्रव्य भी इस मूर्तिकता से रहित है । जैसे धर्मद्रव्य लोक में सर्वत्र भरा पड़ा हुआ है ऐसे ही यह अधर्मद्रव्य भी लोक में सर्वत्र भरा पड़ा हुआ है । तत्वार्थसूत्र के पंचम अध्याय में एक सूत्र आया है―धर्माधर्मयो: कृत्स्ने । देखो यहाँ कृत्स्ने शब्द बोलना । कुछ कठिनाई मालूम पड़ी ना, इस शब्द के बोलने में जीभ को सारे मुख में घुमाना पड़ेगा तब यह शब्द बोला जा सकेगा और इस शब्द का अर्थ क्या है? सबमें । धर्म और अधर्मद्रव्य का अवगाह सब लोकाकाश में है । आचार्यदेव ने हम आपके सामने इस तरह का दिक्कत वाला शब्द क्यों रख दिया? तो उस समय आचार्यदेव ने अपनी लीला दिखाई । जैसे बच्चे लोग होते हैं वे चलते हैं तो सीधे नहीं चलते हैं, कलासहित चलते हैं, उठे बैठे तो कलासहित । ऐसे ही आचार्यदेव ने भी इस शब्द को बोलकर अपनी लीला दिखा दी है । इस शब्द में यह कला छिपी हुई है कि जैसे इस शब्द के बोलने में जीभ को सारे मुख में घूमना पड़ता है, अर्थात् सारे मुख में जीभ व्यापक हो जाती है, ऐसे ही धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य इस लोक में व्यापकर रह रहे हैं । जैसे धर्मद्रव्य निरंतर लोक व्यापने घनरूप स्थित है त्यों ही अधर्मद्रव्य इस लोक में घन है । जैसे धर्मद्रव्य असंख्यातप्रदेशी है ऐसे ही अधर्मद्रव्य भी असंख्यातप्रदेशी है । शेष जो लक्षण धर्मद्रव्य में हैं वे ही लक्षण इस अधर्मद्रव्य में भी हैं । फिर भी इन दोनों के कार्य में विपरीतता है, एक गति में कारण है तो एक ठहराने में कारण है ।
अधर्मद्रव्य की स्थितिहेतुता पर आध्यात्मिक दृष्टांत―अब इस हेतुता को आध्यात्मिक दृष्टि के दृष्टांत से भी देखिये । जैसे कोई जीव निज शुद्ध आत्मस्वरूप में ठहरता है तो उस शुद्धआत्मस्वरूप में स्थित होने का निश्चय से कारण तो रागद्वेषरहित निर्विकल्प शुद्ध चैतन्यमात्र अंतस्तत्त्व का सम्वेदन है और व्यवहार से अरहंतादिक पंचपरमेष्ठियों के गुणों का वर्णन सहकारीकारण है । अपने आत्मा में निर्विकल्प स्थिति करना चाहिए अर्थात् यह आत्मा आत्मा में ही निस्तरंग होकर ठहर जाये तो इस आत्म स्थिति का वास्तव में कारण क्या है? उस ही का जो रागद्वेषरहित निर्विकल्प शुद्ध ज्ञानस्वरूप का सम्वेदन है वह आत्म स्थिति में कारण है, पर ऐसी आत्म स्थिति करने के लिए उस भव्य जीव ने पहिले और क्या-क्या प्रयत्न किया है? उसने अरहंत सिद्ध आदिक परमेष्ठियों के गुणों की भक्ति की है । यद्यपि यह भक्ति आत्म स्थिति का निश्चय कारण नहीं है, लेकिन बहिरंग सहकारी कारण है । इसी प्रकार जीव और पुद्गलों की स्थिति का निश्चय से अपना-अपना स्वरूप ही उपादान कारण है, फिर भी स्थिति का बहिरंग सहकारी कारण अधर्मद्रव्य है । इस प्रकार अजीव अमूर्त पदार्थों में प्रथम ही प्रथम धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य का वर्णन किया । जीव व पुद्गलों का गति व स्थिति में विशेष क्रिया विक्रिया का संबंध है, इसी कारण प्रथम धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य का वर्णन किया गया ।