वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 88
From जैनकोष
ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स ।
हवदि गती सप्पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ।।88।।
धर्मास्तिकाय न तो खुद जाता है और न अन्य द्रव्य का गमन कराता है । वह धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की गति का प्रवर्तक मात्र होता है, निमित्तमात्र होता है और इस ही प्रकार अधर्मद्रव्य को भी समझना । वह स्थिति का निमित्तमात्र होता है ।
धर्मद्रव्य में प्रेरकगतिहेतुता का अभाव―कहीं धर्मद्रव्य को इस प्रकार गति का कारण न समझ लेना कि जैसे घोड़ा पर चढ़ा हुआ असवार । घोड़ा चलता है ना, तो असवार भी चल रहा है। उस असवार के चलाने का निमित्त जैसे यह घोड़ा है इस तरह जीव और पुद्गल की गति का निमित्त धर्मद्रव्य नहीं है । वह चलता हुआ गति का कारण नहीं बनता, अथवा जैसे चलती हुई हवा ध्वजा को हिलाने-डुलाने का कारण बनती है इसी प्रकार जीव और पुद्गल की गति का कारण धर्मास्तिकाय नहीं है । हवा की तरह यह धर्मास्तिकाय चल-चलकर जीव और पुद्गल का गमन कराता हो ऐसा स्वरूप धर्मद्रव्य में नहीं है, क्योंकि धर्मद्रव्य निष्क्रिय है । निष्क्रिय होने के कारण यह रंच भी गति परिणमन को प्राप्त नहीं हो सकता है ।
दृष्टांतपूर्वक धर्मद्रव्य की उदासीन गतिहेतुता की सिद्धि―यहाँ यह जिज्ञासा हो सकती है कि धर्मद्रव्य जहाँ का तहाँ जैसा का तैसा स्थित है, कुछ भी हिलता-डुलता नहीं,प्रेरणा नहीं करता, फिर यह गति परिणमन का कारण कैसे हो जायेगा? कैसे जीव पुद्गल की गति में धर्मद्रव्य सहकारी कारण बन सकेगा? तो इसका समाधान सुनिये । जैसे पानी मछलियों के चलाने में बहिरंग कारण है, जल खुद चलने के लिए प्रेरणा नहीं करता। वह उदासीन रूप से जहाँ का तहाँ पहिले से ही अवस्थित है, तो उदासीन अवस्थित वह जल जैसे मछली के गमन में बहिरंगकारण है, ऐसे ही न चलता हुआ यह धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल के गमन में कारण है । वह उदासीन रूप से ही गति का हेतुभूत है। जैसे धर्मद्रव्य ने यह उदासीन हेतुता है इसी प्रकार अधर्मद्रव्य की भी बात निरखो ।
अधर्मद्रव्य में प्रेरकस्थितिहेतुता का अभाव―अधर्मद्रव्य किसी को ठहराने में इस प्रकार कारण नहीं होता जैसे कि चलते हुए घोड़े पर असवार मनुष्य चल रहा है ना, सो घोड़ा जब ठहर जाये तो मनुष्य को भी ठहर जाना पड़ता है, इस तरह अधर्मद्रव्य किसी जीवपुद्गल को जबरदस्ती ठहराता हो ऐसा नहीं है । अधर्मद्रव्य तो पहिले से ही स्थिर स्थित है, उसमें गमन होता ही नहीं है। गतिपूर्वक स्थिति अधर्मद्रव्य में नहीं है, वह तो घोड़ा गतिपूर्वक स्थित हुआ है । अधर्मद्रव्य का यह घोड़ा असवार का दृष्टांत योग्य नही है । यह अधर्मद्रव्य निष्क्रिय होने के कारण कभी भी गमन पूर्वक स्थिति के परिणमन से परिणमित नहीं होता है ।
दृष्टांतपूर्वक अधर्मद्रव्य में उदासीनस्थितिहेतुता की सिद्धि―यहां यह जिज्ञासा हो सकती है कि फिर यह अधर्मद्रव्य गतिपूर्वक ठहरने वाले दूसरे जीव पुद्गल का हेतुभूत कर्ता कैसे हो जायेगा? उसके समाधान में यह दृष्टांत दिखाया है कि जैसे घोड़ा चल रहा है, वह चलता हुआ रुक जाये तो उसके उस ठहरने में पृथ्वी बहिरंग कारण है । इस प्रकार जीव और पुद्गल चल रहे हैं, चलते हुए जीव पुद्गल ठहर जायें तो उनके ठहरने में अधर्मद्रव्य बहिरंग कारणभूत है । इस प्रकार धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य की सिद्धि करने के पश्चात् अब इस गाथा में उसकी उदासीनता बताई गई है । निमित्त तो निमित्तमात्र ही हुआ करता है, चाहे वह अधर्मद्रव्य की बात हो अथवा अन्य बात हो, सभी पदार्थ निमित्तमात्र हैं, और वे अपने में से कुछ भी द्रव्यगुणपर्याय निकलकर कहीं बाहरी पदार्थों में नहीं जाया करते हैं । सब अपने-अपने स्वरूप में स्वतंत्रतया परिपूर्ण हैं ।
निमित्त के प्रकार और वस्तु का स्वातंत्र्य―परिणति में वस्तुस्वातंत्र्य होनेपर भी निमित्त की परिस्थिति देखकर निमित्त का भेद किया जाता है । कहीं यह बात नहीं है कि कोई प्रेरक निमित्त अपने द्रव्य गुणपर्याय को उपादान में चलाकर उसे प्रेरित करता हो, किंतु निमित्तभूत पदार्थ यदि क्रिया संपन्न हैं तो उन्हें प्रेरक निमित्त कहते हैं । यदि वे क्रिया संपन्न नहीं हैं तो लोक में उन्हें उदासीन निमित्त कहते हैं और इस प्रकार लोकभावना के कारण इसके दो भेद कर दीजिए । क्योंकि यह बात सबमें समान है । तो कोई भी निमित्त अपने द्रव्य गुण और पर्याय उपादान में चलाकर उपादान को परिणमाया नहीं करते । जैसे दो पहलवान लड़ रहे हैं, लड़ने जैसी स्थिति से बढ़कर और प्रयोग का दृष्टांत दिया जाये, जहाँ बल भी लग रहा है । एक बड़ा पहलवान छोटे पहलवान को उलट दे, चित कर दे, ये सब बातें बन गयीं तो भी स्वरूप को स्वरूप में देखो तो उस समर्थ भी उस बड़े पहलवान ने जो कुछ भी यत्न किया, अपने शरीर में यत्न किया, जो भी परिणमाया अपने शरीर को परिणमाया, किंतु उस परिणमते हुए शरीर के संयोग के समय में आया हुआ यह छोटा पहलवान यह अपनी क्रिया से परिणम रहा है । इस बड़े पहलवान ने छोटे पहलवान में अपने रूप, रस, गंध, वर्ण, क्रिया, स्वभाव, प्रभाव कुछ भी नहीं डाला है । उन दोनों पहलवानों की सारी क्रियाएँ अपने में हुई हैं, यह भी दिख रहा है, किंतु साथ ही यह भी तो दिख रहा है कि कैसा यह प्रेरक निमित्त है, कैसा इसने उसे पटक दिया? तो जो स्वयं क्रिया संपन्न हुआ है व जो क्रिया संपन्न नहीं है उसमें प्रेरक और उदासीन का भाव दिखाया जा सकता है । वहाँ भी प्रेरकता का कथन उपचार से है ।
धर्म अधर्मद्रव्य की उदासीननिमित्तता―जो शाश्वत अवस्थित हैं, जहाँ के तहाँ ठहरे हुए हैं ऐसे शाश्चत् अवस्थित धर्म और अधर्मद्रव्य उदासीन निमित्त कारण हैं । जब ये जीव-पुद्गल चलें तो उनके चलने में यह धर्मद्रव्य बहिरंग सहकारी कारण है और जब चलते हुए ये ठहर जायें तो उस समय अधर्मद्रव्य बहिरंग सहकारी कारण है ।
वस्तुस्वातंत्र्य व उदासीननिमित्तता―यह निमित्त उपादान की व्यवस्था धर्म और अधर्मद्रव्य के दृष्टांत से सर्वत्र विशेष स्पष्ट हो जाती है । हाँ केवल एक निष्क्रिय निमित्त और सक्रिय निमित्त इतने कहने का अंतर है । इतना अंतर होने पर भी वस्तु की स्वतंत्रता में कहीं कोई बाधा नहीं आती है । किसी बालक ने किसी बालक को पीट दिया, ठीक है, परंतु उस बालक में जो दुःख वेदना रोना जो भी क्षोभ होगा वह बालक अपने आप में अकेले ही करेगा कि यह पीटने वाले की परिणति को लेकर करेगा या परस्पर दोनों मिलकर करेंगे? जब कभी किसी घर इष्ट का वियोग हो जाता है तो उसके घर फेरा करने वाले लोग आते हैं, महिलायें आती हैं तो वे रोती हुई आती हैं, घर के लोग भी रोने लगते हैं, पर जितने भी लोग वहां रो रहे हैं और जिस डिग्री में रो रहे हैं वे सब अपने आपमें अकेले में अकेले के परिणमन से रोने का परिणमन कर रहे हैं । किसी के रुदन को समेटकर ग्रहण कर के दूसरा रोता हो, ऐसा नहीं होता ।
ये धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की गति और स्थिति में केवल एक बहिरंग कारण होते हैं । इस प्रकार धर्म अधर्मद्रव्य का व्याख्यान किया गया है । अब आगे इसकी उदासीनता को एक दृष्टांत से सिद्ध करेंगे ।