वर्णीजी-प्रवचन:पंचास्तिकाय - गाथा 87
From जैनकोष
जादो अलोगलोगो जेसिं सब्भावदो य गमणठिदी ।
दो वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ।।87।।
धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य के सत्त्व की सिद्धि―धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य इन दोनों द्रव्यों की प्रसिद्धि साधारणजनों में नहीं है । उन दोनों द्रव्यों के सद्भाव में यहाँ एक हेतु रखा जा रहा है जो कि धर्म अधर्म की सिद्धि में पूर्ण समर्थ है । धर्म अधर्मद्रव्य हैं, अन्यथा लोक और अलोक का विभाग नहीं किया जा सकता था । जीवादिक समस्त पदार्थों का एक क्षेत्र में रहने का नाम है लोक, अर्थात् जितने क्षेत्र में जीवादिक समस्त पदार्थ रहा करते हैं उसे लोक कहते हैं और जहाँ केवल आकाश ही आकाश पाया जाता है उसे अलोक कहते हैं । लोक का अर्थ है लोक्यंतेसर्वद्रव्याणि यत्र सः लोक:। जहाँ समस्त द्रव्य देखे जायें, पाये जाये उसे लोक कहते हैं और न लोक: इति अलोक: । जहाँ समस्त द्रव्य न पाये जायें और केवल आकाश ही है उसे अलोक कहते हैं । यदि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य न होते तो लोक और अलोक का विभाग नहीं हो सकता था । इससे सिद्ध है कि धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य है ।
धर्म व अधर्मद्रव्य की सिद्धि का विवरण―अब इस अनुमान का विवरण कर रहे हैं । जीव और पुद्गल अपने स्वभाव से गति और गतिपूर्वक स्थिति का परिणमन करने में समर्थ है, अर्थात् जीव अपनी शक्ति से गमन करते हैं, पुद्गल अपनी शक्ति से गमन करते हैं और गमन करते हुए ये दोनों जब ठहरते हैं तो अपनी शक्ति से ही ठहरा करते हैं, उन दोनों की जो कि गतिपरिणमन को स्वयं अनुभव रहे हैं और स्थिति परिणमन को स्वयं अनुभव रहे हैं, उन दोनों जीव पुद्गलों की गति और स्थिति का बहिरंग कारण निमित्त कारण यदि धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य न होता तो ये जीव पुद्गल निरर्गल गति और स्थिति को प्राप्त हो जाते, अर्थात् धर्मद्रव्य का तो अभाव मान लिया गया और जीव में चलने की सामर्थ्य स्वभाव से है सो वह चलता रहता । कहाँ तक जायें, कहीं ठहरे कैसे? कोई सिद्धांत तो ऐसा मान भी रहे हैं । जीव जब मुक्त हो जाता है तो यह ऊपर चलता रहता है । और कहाँ तक चलता है? चलता ही रहता है । ठहरने की बात ही नहीं है । ऐसा ऊर्ध्व गमन माना कि कही रुकता ही नहीं । अब देख लो―ऐसे मुक्त जीव को चलने ही चलने का काम पड़ा हुआ है । वे कब तक चलेंगे? अनंतकाल तक चलेंगे । लो और विडंबना बना दी।
धर्म व अधर्मद्रव्य में लोकालोकविभागहेतुता―गति में समर्थ यह जीव स्वयं है, पर यह कहीं जाकर ठहरता तो है जिससे आगे कोई जीव न पाया जाये । इसका कोई बहिरंगकारण न होता तो यह व्यवस्था न बन सकती थी । गति का कारण बहिरंग धर्मद्रव्य है, ऐसे ही इस स्थिति का कारण बहिरंग अधर्मद्रव्य है । यदि यह धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य न होता तो लोक और अलोक का विभाग भी नहीं सिद्ध हो सकता था । धर्म और अधर्मद्रव्य को, गति-स्थिति का बहिरंग कारण मान लेने पर यह बात सिद्ध हो जाती है कि यह तो लोक है और यह अलोक है।
लोक की सीमितता―सीधीसी बात यह है कि यह लोक परिमित तो अवश्य हैं,जो चीज पिंडरूप होती है उस पिंडरूप का किसी जगह समाप्त होना यह तो है ही, असीम तो पिंड होता नहीं, तो यह पिंड यह द्रव्यों का संचय जहाँ तक भी हो वह लोक कहलाता है ।आप उसे बहुत दूर तक माने तो वही बात तो 343 घन राजू बताकर कही गई है । एक राजू कितना बड़ा होता है? जिसमें असंख्याते द्वीप समुद्र समा गये, मध्य लोक में । प्रथम द्वीप से प्रथम समुद्र दुगुना है, उससे दूना दूसरा द्वीप है, इस प्रकार दूने-दूने विस्तार वाले द्वीप-समुद्र हैं । जंबूद्वीप एक लाख योजन के विस्तार का है तब आप समझिये असंख्यातवाँ अंतिम द्वीप कितने विस्तार वाला होगा? ये सब द्वीपसमुद्र मिलाकर भी एक राजू नहीं हुए । एक राजू से भी कम है अभी क्षेत्र । और,यह राजू तो एक प्रतररूप में बताया । उतने ही राजू नीचे व सर्वत्र घनरूप, ऐसे 343 घन राजूप्रमाण लोक है । यहाँ तक ही जीव और पुद्गल का गमन है, आगे नहीं है । इस कारण धर्मास्तिकाय का अभाव है । यदि धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य न होते तो यह लोक और अलोक का विभाग न बनता ।
धर्म व अधर्मद्रव्य की विभक्तता व अविभक्तता―अब अन्य बातें धर्म अधर्म में देखो ।धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य दोनों परस्पर भिन्न-भिन्न अस्तित्व से सो गए हैं, अतएव विभक्त हैं। धर्मद्रव्य का अस्तित्व धर्मद्रव्य में है, अधर्मद्रव्य का अस्तित्व अधर्मद्रव्य में है, ये विभक्त है, भिन्न-भिन्न हैं और एक क्षेत्र में रहने के कारण अविभक्त हैं । जैसे सिद्ध लोक में सिद्ध भगवान विराजे हैं, वे समस्त सिद्ध प्रत्येक सिद्ध अपने-अपने ज्ञान और आनंदस्वरूप का अपने-अपने में अनुभव किया करते हैं । इस कारण प्रत्येक सिद्ध एक दूसरे से भिन्न है, फिर भी वहाँ अमूर्तज्ञानानंदस्वरूप मात्र सिद्ध जीव जहाँ जो विराजे हैं उस ही जगह अनंत सिद्ध भी मौजूद हैं अतएव वे अविभक्त हैं ।
एकमाही एक राजे एकमाहि अनेकनो―हिंदी स्तुति में एक जगह लिखा है कि ‘‘जो एक माँही एक राजै, एक माहि अनेकनो । एक अनेकन की नहीं संख्या, नमो सिद्ध निरंजनो ।।’’बात कितनी सीधी है, किंतु इसमें मर्म बहुत है । वे सिद्ध भगवान एक में अनेक विराज रहे हैं, एक में एक राज रहे हैं । प्रत्येक सिद्ध आत्मा जो अपने स्वरूप से है वह अपने स्वरूप में ही है, एक में एक ही है, एक में दूसरा सिद्ध नहीं पहुंचता है और फिर जिस जगह वह सिद्ध है वह अमूर्त पवित्र चेतन है, उस ही जगह अनेक सिद्ध भी विराज रहे हैं । यों देखो एक में अनेक विराज रहे हैं ।
एक अनेकन की नहीं संख्या नमौं सिद्ध निरंजनो―सिद्धों की इस स्तुति में एक तीसरी बात क्या कही है । एक अनेकन की नहिं संख्या नमो सिद्ध निरंजनो । सिद्ध की संख्या नहीं है, अनंत हैं, पर आध्यात्मिक एक मर्म यह है कि जब हम सिद्ध भगवान के शुद्ध स्वरूप पर उपयोग लगाते हैं तो उस उपयोग में केवल एक शुद्ध चित्प्रकाश ही दृष्ट होता है, और ऐसे उपयोग की स्थिति में न एक ठहरता है, न अनेक ठहरते हैं । जैसे कुछ दार्शनिक लोग इस ब्रह्म को एक मानते हैं । जैनसिद्धांत भी इन समस्त जीवों के जब स्वभाव पर दृष्टि देता है तो उस दृष्टि से इस जैनसिद्धांत में भी यह चैतन्यमात्र ही नजर आता है, यों वह चैतन्यस्वभाव एक कह लीजिए ।अब कुछ देर के लिए इसे एक मान लो । एक का अर्थ एक भी है और एक का अर्थ समान भी है । जैसे कोई तीन चार मित्र बैठे हों तो कोई कहे कि ये तो साहब एक ही हैं, उस एक का अर्थ समान है । यह चैतन्यस्वरूप सब जीवों में एक है अर्थात् समान है, एक दृष्टि इसमें और दृढ़ लगायें तो चैतन्यस्वरूप में व्यक्तियाँ तो नजर नहीं आती । वह तो एक स्वरूप है प्रतिभास है, प्रकाश है, अतएव वह एक है । जरा और गहरी दृष्टि से देखो तो एक है, ऐसा कहना सहजसिद्ध स्वरूप के प्रतिभास में कलंक है, वहाँ एक भी नहीं है, अनेक भी नहीं है तो क्या है, कितना है? कुछ नहीं है । जो है सो अनुभव में आ रहा है । यों सिद्ध भगवान के उस सहजस्वरूप पर दृष्टि देते हैं तो वह न एक है, न अनेक है, किंतु क्या है? कोई निरंजन सिद्धत्व है ।
सिद्धों के दृष्टांतपूर्वक धर्म व अधर्मद्रव्य में विभक्तता व अविभक्तता की सिद्धि―इस स्याद्वाद दृष्टि में चलकर निरख लीजिए―जैसे सिद्ध भगवान परस्पर में विभक्त हैं, किंतु एकक्षेत्र में ही विराज रहे हैं इस कारण अविभक्त हैं । ऐसे ही यह धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य स्वरूपदृष्टि से विभक्त है । अस्तित्त्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्व, प्रमेयत्व―ये 6 साधारण गुण हैं और साथ ही धर्म और अधर्म में जो कोई एक विशेष गुण है उस विशेष गुण के कारण यह साधारण धर्म भी उस-उस धर्मी के धर्म हैं, धर्मद्रव्य के सर्व धर्म धर्मद्रव्य में हैं, अधर्मद्रव्य के सब धर्म अधर्मद्रव्य में हैं। इन 6 गुणों की साधारणता समानता इस दृष्टि से हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि अस्तित्त्व गुण एक है और वह सबमें व्याप रहा है, ऐसा एकपना द्रव्य में हुआ करता है, व्यक्ति में हुआ करता है । भाव में क्या संख्या ?आपमें कितना क्रोध है 2-3-4-10, क्या कुछ गिनती बता सकते, भाव में क्या गिनती है? गिनती द्रव्य में हुआ करती है, पिंड में, प्रदेश में गिनती हुआ करती है । यह शुद्ध स्वरूप तो भावात्मक है, उसमें क्या गिनती? तो जैसे वह सिद्ध विभक्त और अविभक्त दोनों है इस ही प्रकार धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य भी विभक्त और अविभक्त है।
धर्म व अधर्मद्रव्य की निष्क्रियता―ये दोनों द्रव्य निष्क्रिय हैं, इनमें क्रिया नहीं है, ये डोलते नहीं, चलते नहीं, हिलते नहीं, इनमें कभी भी परिस्पंद नहीं । ये समस्त लोक में रह रहे हैं और जीव पुद्गल की गति और स्थिति का उपग्रह किया करते हैं, अतएव ये दोनों द्रव्य हैं । इस प्रकार धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य की सिद्धि युक्तिपूर्वक की गई है । अब अगली गाथा में यह बतावेंगे कि धर्मद्रव्य व अधर्मद्रव्य हैं तो गति और स्थिति में कारणभूत, परंतु हैं अत्यंत उदासीन । इस उदासीनता का वर्णन अगली गाथा में किया जा रहा है ।