वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 109
From जैनकोष
जोइज्जइ तिं बंभु परु जाणिज्जइ तिं सोइ ।
बंभु मुणेविणु जेण लहु गम्मिज्जइ परलोइ ।।109।।
यह परम ब्रह्म परमात्मा उस पुरुष के द्वारा जाना जाता है जो पुरुष अपने स्वरूप को जानकर इस परलोक को शीघ्र प्राप्त होता है । अब देखो यह यहाँ लोक है और यहीं परलोक है । इसी आत्मा में यह लोक है और इसी आत्मा में परलोक है । रागद्वेष विकल्पजालसहित बाह्यपदार्थों की ओर उन्मुख हो गया तो उसके यहाँ यह लोक है और भ्रमजाल छोड़कर अपने आप में बसे हुए शुद्ध ज्ञानस्वरूप में उपयोग लगा दें तो यही परलोक है । बाहर में तो है लोक और अंतर में है परलोक । जैसे किसी से बात करें और बात करते हुए किसी आश्चर्य घटना में पहुंच जायें तो उससे कहते हैं वाह तुम तो एक दूसरी दुनिया पहुंच गए । दूसरी दुनियाँ क्या है? जिसको बस, लोग मानते हैं, जानते हैं वह तो है यह दुनियाँ और जिसे सब नहीं जान सकते है, केवल कोई ही जानता है तो वह है परलोक, वह है एक न्यारी दुनियाँ । तो मेरी न्यारी दुनियाँ मेरा परमात्मस्वरूप है ।
इसका निर्णय परमात्मा के स्वरूप के दर्शन होता है । जैसे कोई एक चौड़ी नदी है । एक आदमी उस नदी के रास्ते से पार हो रहा है, निकट पहुंच रहा है । तो उसको देखकर आप उस रास्ते से चलकर तीर पर पहुंच जाते हैं कि नहीं? पहुंच जाते हैं । और आप कहेंगे कि जो आदमी किनारे पहुंच गया वह मुझमें कुछ करता ही नहीं, मुझे पार करता नहीं, खींच ले जाता नहीं, परपदार्थ है उसको क्यों तकें? मुझको यों देखना पड़ता है कि मुझे अपना मार्ग सही मिल जाये । परमात्मा के निर्दोष सर्व ज्ञानमय अनंत आनंदमय स्वरूप के दर्शन करने से विकल्प क्लेश सब समाप्त हो जाते हैं और अपने आपके उस शुद्ध ज्ञानानंद का अनुभव होता है । इसलिए परमात्मस्वभाव आराध्य है ।
भैया ! कैसे माना जाये कि यह मैं आत्मा ज्ञान और आनंद से भरपूर हूं? इसके परमात्मप्रकाश प्रवचन दो ही तो उपाय हैं―(1) अपने में अनुभव जगे और (2) ऐसे जो बन गए हैं उनमें विश्वास हो, यह परमात्मस्वरूप अत्यंत पवित्र है, ज्ञानानंदमय है, आनंदघन है । वह परमात्मतत्त्व उन्हें शीघ्र प्राप्त होता है जो अपने आप उन रागादि विकल्पजालों को छोड़कर अपने को अनुभवते हैं । मुक्त होकर आत्मा लोक के अग्रभाग पर ठहरता है वही ब्रह्मलोक है, वही विष्णु लोक है और वही शिवलोक है । और यह अंतर में जो अनादि अनंत शाश्वत प्रकाशमान लोक है वही ब्रह्मा विष्णु और शिव है । मैं सत् हूँ । मेरा कुछ न कुछ परिणमन होता ही रहेगा । मेरे पर मेरी पूरी जिम्मेदारी है । दूसरा कोई मुझे पार नहीं लगा देगा―ऐसा जानकर अपने आपके उस आनंदघन चैतन्यस्वभाव को देखो । इसी संबंध में और कहते हैं―