वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 66
From जैनकोष
दुक्खु वि सुक्खु वि वविहुहउ जीवहं कम्मू जणेइ ।
अप्पा देक्खइ मुणइ पर णिच्छउ एउँ भणेइ ।।66।।
जीव के जो नाना प्रकार के सुख और दुःख लगे हैं ये जीव स्वयं अपने आपके स्वभाव से नहीं करते हैं । इन्हें कर्म उत्पन्न करते हैं । आत्मा तो देखता और जानता है । रागद्वेष नहीं करता, सुख-दुःख नहीं करता । सुख-दु:ख के करने वाले तो कर्म हैं―यह बात बतलाते हैं । जब तक जीव के अज्ञान रहता है तब तक इसे किसी अवस्था में शांति नहीं हैं । दरिद्र है, गरीब है तो वहां, शांति नहीं हैं । हाय ! मेरे पास कुछ नहीं है । लोगो की कितनी इज्जत है, हमारी कोई पूछ नहीं और धन हो जाये तो और तरह की अशांति है । जितना धन बढ़ गया उसकी रक्षा करो, इसकी चिंता, इससे कम न हो जाये इसका शल्य और इससे ज्यादह हो जाये इसकी आशा; ये सबके सब इस आत्मा को मुदी चोट जैसी पीड़ा पहुंचा रहे हैं । पुत्र हो जाये तो दुःख, न हो जाये तो दुःख। संतान हो जाती हैं तो वहाँ चिंताएं लग जाती हैं । उन चिंताओं में घुल जाते हैं । पुत्र कपूत हो गया या सुपूत हो गया इसका भी तो दुःख हैं । अगर पुत्र कपूत हो गया तो उसमें सुख है कि दुःख? सुख न मिलेगा और अगर पुत्र सपूत हो गया तो उससे भी ज्यादह क्लेश होते हैं । कपूत को तो एक बार चित्त से अलग कर दो क्षोभ मिट गया । पर सपूत है आज्ञाकारी है, विनयशील है तो उसके प्रति ऐसा परिणाम होता है कि, मैं इसे क्या कर दूँ? कितना धनी बना जाऊं? कितनी जायेदाद कर जाऊं ? इस तरह से उस सपूत के पीछे गधे की तरह जुतना पड़ेगा । तो पुत्र सपूत है तो उसमें । क्लेश और कपूत है तो उसमें क्लेश और अगर पुत्र नहीं है तो उसमें क्लेश ।
भैया ! तो कैसे हो कि जिससे क्लेश मिटे ? इज्जत हो जाये तो उसमें क्लेश और इज्जत न हो तो उसमें क्लेश । जिनकी इज्जत है देश में, बड़े नामी हैं उनको तो रात-दिन नींद भी न आती होगी । उन पर भार है, उनके चिंता हैं, जिम्मेदारी हैं, और जिनकी इज्जत नहीं हैं वे ख्याल बना बनाकर दुःखी होते हैं । इनकी पूछ है हमारी पूछ नहीं है । संसार में कौनसी स्थिति ऐसी है कि जिसमें शांति मिलती हो । यहाँ शांति नहीं है । शांति का साधन तो अपने ध्रुव चैतन्यस्वभाव की दृष्टि है । यह स्वभाव दुःख और सुख से रहित है । कैसा है आत्मा का आनंद? अनाकुलतारूप परम वीतरागता का आनंद है । उससे प्रतिकूल ये संसार के सुख दुःख हैं । सो ये सुख-दुख यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय से जीव के द्वारा उत्पन्न किए गए हैं; किंतु शुद्ध निश्चयनय से देखा जाये तो ये सब कर्मजनित है ।
भैया ! आत्मा ने अपने आपको अपने में सुखदुःख उत्पन्न नहीं किया । सुख तो निर्विकल्प समाधि स्वभाव रूप है । वह इन पर वस्तुओं को उसके स्वभाव रूप से देखता है, जानता है पर रागादिक नहीं करता है । यहाँ यह शिक्षा लेना है कि वास्तविक सुख से विपरीत जो संसार के सुखदुःख और विकल्प जो हैं वे हेय हैं । हम जिसमें बुद्धिमानी समझते हैं वे सब हेय हैं । ज्ञान तो केवल ज्ञान है मेरी पापों की चतुराई क्या चतुराई है? वह सब अज्ञान है । जो ज्ञान अपने स्वरूप को न जाने वह ज्ञान नहीं है, अज्ञान है । ऐसा यह मैं आत्मतत्व हूँ । पर देखो तो भ्रम लग गया है । भ्रम की मार बहुत बुरी होती है ।
एक बार चैत के महीने में जब गेहूं कट रहे थे, शाम हो, गई तो खेतों का मालिक कहता है मजदूरों से, कि अरे मजदूरों ! जल्दी करो, अब अंधेरी आयगी । हमें उतना डर शेर का नहीं है जितना की अंधेरी का है । यह बात पास छिपे हुए किसी शेर ने सुन ली कि अंधेरी कोई मुझसे भी बड़ी चीज होती है । अब सब लोग तो चले गये । उसी दिन क्या हुआ कि एक कुम्हार का गधा खो गया था सो वह उसे ढूंढ़ने गया । रात्रि में 8 बजे वह वहीं ढूंढ़ता हुआ गया, जहाँ कि शेर था । अंधेरा तो था ही, शेर वहीं बैठा था । शेर उतना ही ऊंचा होता है जितना कि गधा । कुम्हार ने जाना कि यह गधा बैठा है सो निःशंक होकर वहाँ पहुंचा, कान पकड़ा और दो डंडे जमाये । अपने यहाँ सब गधों के बीच में लाकर बांध दिया । अब शेर रात्रि में बंधा हुआ सोचता है कि यह वही अंधेरी है जिसको मैंने सुन रखा था कि हम से भी बड़ी अंधेरी कोई चीज है । देखो इस अंधेरी ने दो डंडे भी जमाये और यहाँ लाकर बांध दिया । इस प्रकार से वह शेर सोचता है । वह रात्रि को डरता ही जाता कि हाय मेरे ऊपर अंधेरी और अधिक चढ़ न आवे । जब सुबह हुआ तो शेर ने अपने को गधों के बीच में पाया । देखा कि यहाँ तो 8-10 गधे बंधे हुए हैं । अंधेरी नहीं है । शेर सोचता है कि देखो इस भ्रम से यह मेरा क्या हाल हुआ? सो उसने जोर की आवाज दी । अब तो कुम्हार भाग गया और गधे भी अपने-अपने खूंटे तोड़ कर भग गये ।
इसी तरह यह आत्मा है । इसको भ्रम हो गया इसी कारण इन बाह्य पदार्थों में यह रागद्वेष करने लगा और अर्हंत सिद्ध की तरह परम आनंद का निधान होकर भी जिस चाहे जीव के जाल में, बंधन में पराधीन हो जाता है । भगवान का दर्शन अपने स्वरूप के ख्याल के लिए किया जाता है । हे प्रभो ! जैसी आपमें सामर्थ्य है, ज्ञान है, दर्शन है, सुख है, वही तो मेरा स्वरूप है । इतनी बात यदि लक्ष्य में न ला सके तो ये बाह्य समागम मेरा क्या भला कर सकते हैं । ये सुख-दुःख जीव के कर्म उत्पन्न करते हैं । आत्मा तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा है । अब यह बात कहते हैं कि निश्चय से बंध और मोक्ष को भी कर्म करते हैं ।