वर्णीजी-प्रवचन:परमात्मप्रकाश - गाथा 68
From जैनकोष
णवि उप्पज्जइ णवि मरह बंधु ण मोक्खु करेइ ।
जिउ परमत्थें जोइया जिणवर भणेइ ।।68।।
हे योगी पुरुष ! परमार्थ से तो यह जीव न तो उत्पन्न होता है और न मरता है । फिर बंध, और मोक्ष को तो करेगा क्या? अर्थात् शुद्धनिश्चयनय से जीव बंध से व मोक्ष से रहित है, ऐसा जिनेंद्र देव का कहना है । जब यह मुझमें शुद्ध आत्मतत्त्व अनुभूत नहीं होता है? तब शुभ और अशुभ उपयोग की परिणति रहती है और जीवन-मरण व शुभ-अशुभ पुण्य-पाप बंधों को करता है । पर शुद्ध आत्मा का अनुभव हो जाने पर यह जीव शुद्धोपयोग को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है तो भी शुद्ध परमपारिणामिक भाव की दृष्टि से, शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से यह आत्मा कुछ नहीं करता । शुद्ध पारिणामिक भाव उसे कहते हैं कि जिस शक्ति के परिणमन विभिन्न भी ही रहे हों पर सर्व
शक्ति की आधारभूत जो एक शक्ति है वह शक्ति परमपारिणामिक भाव कहलाती है । उस भाव को ग्रहण करने वाले शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से न आत्मा जन्म करता है, न मरण करता है, न बंध करता है और न मोक्ष करता है । वह तो शुद्धज्ञानस्वरूप शाश्वत विराजमान रहता है । ऐसे ही इस परमात्मतत्त्व के बारे में यहाँ विचार किया जा रहा है ।
जैसे दर्पण के सामने कोई लाल-पीली चीज रख दी जाय तो दर्पण में लाल-पीला परिणमन हो जाता है । यह तो बतलाओ कि दर्पण अपने रस से, अपने स्वभाव से, अपने सत्व के कारण क्या लाल-पीला बन जाता है? क्या ऐसा लाल-पीला होना दर्पण का निजी काम है? नहीं । वह समस्त निमित्त के सान्निध्य से लाल पीला परिणम गया है । इसी प्रकार यह आत्मा जब अपने शुद्ध निजस्वरूप? सत्तामात्र भावों का अनुभव नहीं करता है, तब अशुद्धोपयोगरूप परिणम-परिणाम कर जीवन मरण शुभ अशुभ बंधों को करता है और जब यह अपने शुद्धस्वरूप की खबर रखता है, अनुभव करता है तब शुद्धोपयोग से परिणमकर मोक्ष को करता है । तो भी शुद्ध पारिणामिक परमभाव के ग्रहण करने वाले निश्चयनय से अथवा शुद्धद्रव्यार्थिकनय से बंध, मोक्ष, जीवन, मरण किन्हीं भी अवस्थाओं को नहीं करता है ।
भैया ! सामने ही यहीं देख लो । इस चौकी पर हाथ की छाया पड़ रही है तो क्या इस छायारूप परिणमन को यह चौकी अपनी सत्ता के कारण कर रही है? अपने स्वभाव से कर रही है? नहीं । यह तो हाथ के आने पर इसमें परिणमन हो गया । तो निश्चय से देखो कि चौकी ने छायारूप परिणमन नहीं किया और जब निमित्तनैमित्तिक संबंध से वर्तमान अवस्था की दृष्टि से देखा तो द्रव्य छायारूप परिणम गया ।
यहां कोई शिष्य पूछता है कि यदि द्रव्य शुद्धद्रव्यार्थिकनय से, शुद्ध निश्चयनय से यह मोक्ष को नहीं करता है तो इसका अर्थ यह है कि शुद्ध निश्चयनय से मोक्ष है ही नहीं । तो फिर मोक्ष के लिए अनुष्ठान करना, व्रत, तप, संयम आदि करना ये व्यर्थ हो जायेंगे? शंका के उत्तर में परिहार करते हैं कि भाई मोक्ष होता है, बंधपूर्वक छुटकारा होगा । इसका अर्थ यह है कि पहले बंधा था, अब छूट गया । तो मोक्ष होंता है बंधपूर्वक और शुद्धनिश्चयनय से बंध है नहीं । इस कारण से जो बंध का प्रतिपक्षभूत मोक्ष है वह भी शुद्धनिश्चयनय से नहीं है । यदि शुद्धनिश्चयनय से बंध हो जाय तो फिर सदा ही बंध रहना चाहिए । शुद्धनिश्चयनय से बंध हो तो बंध कभी नहीं छूट सकेती । जैसे शुद्धनिश्चयनय से जीव में ज्ञान हैं तो कभी नहीं छूट सकता। इसी तेरह बंध हो जाय तौ बंध भी क?भी छूट नहीं सकता । सदा ही बंध रहा करेगा ।
एक दृष्टांत दिया जा रहा है कि जैसे कोई एक पुरुष बेड़ियों से बंधा हुआ ठहरा रहता है और दूसरा कोई पुरुष बंधनरहित ठहरा रहता है । तो जिसके बेड़ी पड़ी है उसके बेड़ी मिट जाने पर कहा जायगा कि तेरे बंध का अभाव हो गया है याने तेरा छुटकारा हो गया है । जो बंध था वह नहीं है और जो बेड़ी से बंधा ही न था, उससे कहो कि तू बेड़ी से छूट गया है या कोई जेल गया ही नहीं और उससे कहा जाय कि आप जेल से छूट गये हैं तो वह बुरा मानेगा? क्यों भाई ! छूटने की ही तो बात कही है, मुक्ति की ही तो बात बताते है, बुरा क्यों मान रहे हो? बुरा यों मान रहे हैं कि छुटकारे की बात कहने में बंधों की बात आ जाती है । जेल से छूटने की बात कहने में, ‘जेल में था’ की बात आ जाती है। इसलिए उसको सह नहीं सकता वह पुरुष; इसी तरह इस जीव के यदि बंधन न होता तो इसके छूटने की बात भी नहीं कहीं जाती, पर शुद्धनिश्चयनय से यदि छूटने की बात कही जाती हैं तो शुद्ध निश्चयनय से बंधन की बात आ जाती है । और स्वभाव में यदि यह बंधन है तो कभी छूटता नहीं । सो इसका बंधन कभी भी नहीं छूट सकता है । बंध भी व्यवहारनय से है और मुक्ति भी व्यवहारनय से है । शुद्धनिश्चयनय से तो न जीव में बंध है, न जीव का मोक्ष है, अशुद्ध नय में ही बंध है । इसलिये बंध के नाश का यत्न भी अवश्य करना चाहिए । इस दोहे में उपादेय चीज क्या बताई कि वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन मुक्तजीवों के सदृश जो निजशुद्धआत्मा है वह ही उपादेय है,। अब यह कहते हैं कि निश्चयनय से जीव की न तो उत्पत्ति है, न बुढ़ापा, न मरण है, न रोग है, न लिंग है, न रूप है ।