वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 119
From जैनकोष
हिंसापर्यायत्वात्सिद्धा हितांतरंगसंगेषु ।
बहिरंगेषु तु नियतं प्रयातु भूर्छैव हिंसात्वम् ।।119।।
अंतरंगपरिग्रहों की स्वयंसिद्ध हिंसारूपता एवं बहिरंग परिग्रह मूर्छा की हिंसारूपता―5 पाप जो बताये गए―हिंसा, झूठ, चोरी कुशील और परिग्रह, ये पांचों के पांचों पाप हिंसा कहलाते हैं । इनमें हिंसा नाम का पहिला पाप है―उसका अर्थ है दूसरे जीवों को मारना सताना पीटना । इसमें खुद का परिणाम बिगड़ता है । खुद के संक्लेश परिणाम होने का नाम हिंसा है, इसी प्रकार झूठ, चोरी, कुशील तथा परिग्रह वगैरह में अपने परिणाम बिगड़ते हैं इसलिये वे सब हिंसा हैं । उनमें परिग्रह जो 5वां पाप है उसके दो भेद किए―अंतरंग और बाह्यपरिग्रह । अंतरंग परिग्रह हुआ मिथ्यात्व और 4 कषायें और व 9 नवकषायें । ये सब हिंसा हैं ही । इसमें कोई तर्क करने की बात नहीं क्योंकि वहाँ कषाय है वहाँ अपने चैतन्य प्राण का घात है, अपने परमात्मतत्त्व का घात है, अतएव हिंसा है । किंतु जो बहिरंग परिग्रह हैं खेत मकान धन धान्य आदिक ये परिग्रह स्वयं हिंसा नहीं हैं, क्योंकि परिग्रह में जो मूर्छा परिणाम होता है वह परिणाम हिंसा है । जो कोई बाह्यपरिग्रह रखता है उसके अंतरंग में मूर्छा परिणाम है तभी तो बाछ परिग्रह रखता है । इसलिये कारण में कार्य का उपचार करके उन्हें हिंसा कहा है । वास्तव में हिंसा तो भाव हिंसा ही हिंसा कहलाती है और भावहिंसा परिग्रह में काफी है । अज्ञान अवस्था में अगर हिंसा होती है तो अज्ञान खुद हिंसा है, ज्ञानी पुरुष ईर्यासमिति से चलता है, जीवदया का परिणाम रखकर चलता है । इसलिये उसके द्वारा कदाचित् किसी छोटे जीव की हिंसा भी हो जाए तो वह हिंसा नहीं मानी गयी है । कोई कहे कि अनजान में अगर किसी जीव की हिंसा हो जाए तो उसमें पाप न लगना चाहिए, मगर ऐसी बात नहीं है । इसी तरह झूठ बोलने में तो इरादा करता ही है वह जीव कि मैं झूठ बोलूं । तो झूठ बोलने में हिंसा है । अगर कोई झूठ कषायरहित हो तो उसमें भी हिंसा नहीं है । जैसे शस्त्र का प्रकरण चल रहा है । बड़ी सूक्ष्म चर्चायें होती हैं । जैसे धवल में बताया किसी आचार्य ने कि 16 प्रकृतियों का वास है, किसी जगह आचार्य ने बताया कि 8 प्रकृतियों का वास है । अब इन दोनों में कोई एक किसी अन्य आचार्य के विचार से मिल जाए के एक का विचार झूठ न कहलायेगा, क्योंकि उसका झूठ बोलने का इरादा नहीं है । तो हिंसा तो परिणामों पर निर्भर है । जैसे कोई पुरुष किसी से बातचीत करने में लग गया, किसी की चीज अपने हाथ में ले ली, अपने घर चला आया । घर आने पर जब उसने उस वस्तु को देखा तो ध्यान आया । ओह ! अमुक की अमुक चीज भूल से मेरे पास आ गयी, वह जाकर उसकी चीज उसके पास पहुंचा देता है । तो चूंकि उस पुरुष का चोरी करने का परिणाम न था, अत: चोरी करने का पाप कैसे नहीं लगा । कोई चोरी करता है तो अपने परिणाम बिगाड़कर ही करता है इसलिये चोरी करने में हिंसा है । कुशील भी हिंसा है । क्योंकि कुशीलसेवन में अपने आत्मा की सुध नहीं रहती । परिग्रह में भी ममता परिणाम है । वस्तु तो भिन्न है और मानना कि यह मेरी है, ऐसे मिथ्या अभिप्राय के कारण परिग्रह मी हिंसा है । अंतरंग में जो 14 प्रकार के विभाव परिणाम बताये वे तो हिंसा हैं ही, पर बहिरंग में जो खेत मकान आदिक हैं उनमें चूंकि ममत्वपरिणाम होता है इसलिये वे बाह्यपरिग्रह भी हिंसा हैं, लेकिन किसी मुनि पर कोई वस्तु डाल दी यदि हार, वस्त्र आदिक से कोई उस मुनि का शृंगार कर दे तो भी चूंकि अंतरंग में उनके प्रति ममत्व परिणाम नहीं है, इसलिये उन्हें परिग्रह का दोष न लगेगा । अरहंत भगवान बड़े शृंगार युक्त समवशरण में विराजमान होते हैं पर उन्हें परिग्रह का दोष नहीं लगता, क्योंकि उसके प्रति ममता का परिणाम अरहंत भगवान के नहीं है ।