वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 118
From जैनकोष
उभयपरिग्रहवर्जनमाचार्या: सूचयंत्यहिंसेति ।
द्विविधपरिग्रहवहनं हिंसेति जिप्रवचनज्ञा: ।।118।।
परिग्रहों के त्याग में अहिंसा और परिग्रहों के वहन में हिंसा―जो जिन प्रवचन के ज्ञाता है, जैनसिद्धांत के ज्ञानी आचार्य पुरुष हैं वे दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग करते हैं । इन्हीं परिग्रहों के त्याग का नाम अहिंसा है । 10 बाह्य परिग्रह कौन से हैं? खेत, मकान, गाय, भैंस, धन, अनाज, सोना, चांदी, बर्तन भांडे, दासी दास दाम कपड़े ये सब बाह्य परिग्रह हैं । जो भी बाहर में चीजें मौजूद हैं वे सब बाह्य परिग्रह हैं । उनके कैसे ही भेद बना लो तो बाह्य परिग्रहों का ढोना और अंतरंग परिग्रहों का ढोना, ये सब हिंसा कहलाते हैं । और दोनों प्रकार के परिग्रह न हो तो वह अहिंसा कहलाती है । जहाँ मिथ्यात्व नहीं है, किसी प्रकार का कषाय परिणाम नहीं है वह परिणाम कितना उज्जवल होता है? वहां एक आत्मीय आनंद का अनुभव होता है, विशुद्ध ज्ञान चलता रहता है, ज्ञाता द्रष्टा की स्थिति रहती है । पदार्थ जानने में तो आ रहे पर उनकी पकड़ नहीं है, विकल्प नहीं है ऐसा निर्विकल्प ज्ञाता द्रष्टा रहने का परिणाम जगता है तो सच्ची अहिंसा इसही परिणाम से समझी जाती है । किसी भी परवस्तु में रागादिक न हों और अपने आप में विशुद्ध ज्ञान का प्रकाश बना रहे जिसके प्रताप से शुद्ध आनंद का अनुभव होता है उसे अहिंसा कहते हैं । इसे क्षोभरहित परिणाम कहो, अहिंसा कहो, धर्म कहो, रत्नत्रय कहो, शांति कहो यह सब एक ही बात है । अहिंसा शांति का कारण है तो उस शांति को पाने के लिए हमें पांचों प्रकार के पाप जो एक हिंसा नाम से कहे गये हैं इनका त्याग करें और अपने आत्मा में ज्ञाताद्रष्टा रहने की स्थिति बनायें, यही अहिंसा की मूर्ति है । ऐसा जैन सिद्धांत के ज्ञाता विद्वान् पुरुषों का उपदेश है । एक परिग्रह का बोझ हुआ करता है । जैसे कोई बाह्य में परिग्रह लाद ले तो बड़ा बोझ हो जाता है । इसी प्रकार अंतरंग में चिंता, शोक, भय आदिक हों, कषायें जगें तो उससे भी आत्मा पर बोझ पड़ता है । दबाव है, किंकर्तव्यविमूढ़ता है, वहाँ एक अपने आपमें रीतापन अनुभव किया जाता है । जैसे बाह्य परिग्रह ढोने में बोझ है इसी प्रकार अंतरंग परिग्रह ढोने में भी बोझ है । कितना कषायों का बोझ ये अज्ञानी जीव लादे हैं और उसे खुश होकर ढोते फिरते हैं । कषायें न हों तो यह जीव तुरंत शांति का अनुभव करता है । कषायों के अभाव से क्षमा, मार्दव, आर्जव और शौच आदिक गुण प्रकट होते हैं । क्रोध और क्षमा में अंतर देखिये । जब अपने आपको क्रोध आता हे तो अपनी गल्ती नहीं महसूस होती, पर दूसरा कोई अगर क्रोध कर रहा हो तो झट उसकी गल्ती महसूस हो जाती है, उस दूसरे की गल्ती देखकर हँसते हैं । जब तक अपने में क्रोध भाव है तब तक आत्मा में क्षमा गुण नहीं प्रकट होता । इस तरह चित्त में जब घमंड होता है तो चाहे बरबादी हो जाये पर अपनी हठ जरूर रखना चाहिए, ऐसी बात आ जाती है । जब तक अंहकार है तब तक नम्रता नहीं उत्पन्न होती इसी प्रकार जब तक मायाचार है तब तक सरलता नहीं उत्पन्न होती । उसमें धर्मभाव नहीं ठहर सकता । इसी प्रकार जब तक लोभ कषाय है तब तक सद्बुद्धि नहीं उत्पन्न होती । तो ये 14 प्रकार के अंतरंग परिग्रह और 10 प्रकार के बाह्य परिग्रह इनका बोझ इस जीव पर है । इन कषायों को हटाये तो यह जीव भाररहित होगा, तभी अपने आपके विशुद्ध स्वरूप का दर्शन करेगा और तभी सच्चे आनंद का अनुभव होगा । ऐसे अनुभव के लिए हमारा कर्तव्य है कि हिंसा, झूठ, चोरी कुशील और परिग्रह―इन पांचों प्रकार के पापों का त्याग करें ।