वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 133
From जैनकोष
अर्कालोकेन बिना भुंजानः परिहरेत्कथं हिंसां ।
अपि बोधित: प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजंतूनाम् ꠰꠰133।।
रात्रिभोजन में विशेषहिंसा होने का प्रतिपादन―रात्रि में दीपक के प्रकाश में बहुत से छोटे-छोटे जंतु आ जाते हैं । दिन में रात्रि की अपेक्षा स्वभावत: जंतुवों का आवागमन कम रहता है । रात्रि में मक्खा मक्खी कीड़ा मकौड़ों की भरमार विशेष रहती है । अत: रात्रिभोजन करने में प्रत्यक्ष हिंसा है । जो रात्रिभोजन करेगा वह प्रत्यक्ष हिंसा से कभी बच नहीं सकता । यह द्रव्यहिंसा की ओर से उत्तर है । आजकल बाबू लोग क्या कहने लगते हैं कि हमारे पास तो दिन में इतना काम रहता है कि दिन में खाने को टाइम नहीं मिलता । जब काम से फुरसत मिलती हे तो रात्रि को विवश होकर खाना पड़ता है । इस समस्या का समाधान यह है कि यदि किसी के चित्त में यह बात अच्छी तरह समा गई है कि रात्रि भोजन करना पाप है तो उसमें हिंसा विशेष है और रात्रिभोजन त्यागने के योग्य है । यदि ऐसा भाव मन में आ जाये तो अपनी समस्या का हल ढूंढ लेगा । दूसरे, दिन में एक बार भोजन करने को तो सभी को मिलता ही है । अगर कदाचित समय पर दिन में ही भोजन न मिल सके, रात्रि को न खायेंगे उससे हमें कोई बाधा नहीं है । ऐसा विचार बन जाये तो उसकी चर्या भी ऐसी हो जायेगी कि बाधा न होगी । तीसरी बात यह हे कि कोई नियम तो ले । किसी भी जगह जायें, दिन में भोजन करने का समय सभी लोग दे देंगे, पर चूंकि रात्रि भोजन त्याग के प्रति विशेष प्रेम नहीं है और सामूहिक रूप से रात्रिभुक्तित्याग में प्रेम नहीं है, इस कारण लोग भी जानते हैं कि कितना ढोंग धतूरा है । कभी रात्रि को खाते हैं कभी नही, मन में आया खा लिया न मन में आया न खाया, कोई नियम नहीं है । कोई रात्रिभोजन के त्याग पर अडिग रहे तो उसे ऐसे मौके न आयेंगे कि जिससे उसे कष्ट हो । इस गाथा में द्रव्यहिंसा की ओर से उसे समाधान देते हैं कि जो व्यक्ति रात्रिभोजन का त्यागी नहीं है वह हिंसा से कभी बच नहीं सकता । इस कारण रात्रि में न भोजन बनाना चाहिये और न खाना चाहिये । एक विशेष आश्चर्य की बात और भी है कि । कोई पुरुष धर्म तो खूब करे―एक बार खाना, मंदिर दर्शन नियम से करना, बहुत यात्रायें करना आदिक, पर उसे यह पता नहीं है कि ये सब क्रियायें कषायरहित बनने के लिये की जा रही हैं, तो वह ये सब क्रियायें करने पर भी कषायें खूब करता है तो वह लोगों की दृष्टि में हंसी का पात्र बनता है । वह व्यक्ति ही हंसी का पात्र नहीं बनता बल्कि लोग तो यों कहने लगते हैं इस धर्म के लोग बड़ा क्रोध करते हैं, बड़ा घमंड रखते हैं, बड़ा मायाचार करते हैं और बड़े लोभी होते हैं । तो अपने मन में यह बात जरूर रखनी चाहिए कि हम जो बाह्य में धर्म का पालन करते हैं, व्रत नियम संयम आदिक करते हैं वे सब इसलिये किये जा रहे हैं कि हमारी कषायें मंद हों, हमारी आत्मा पर दृष्टि जाये । मैं अपने आपके स्वरूप में रमण करूं इसलिये ये बाह्य नियम हैं । यह लक्ष्य यदि नहीं है तो बड़ी विडंबना की बात है कि परिश्रम भी खूब करते हैं, भूखे भी रहते हैं और-और भी कष्ट उठाते हैं और फिर भी सही विधि से धर्मपालन नहीं हो पाता । इससे अंतरड्ग में कषायें मंद रखें और आगे बढ़ने के लिये इन विशेष नियमों का पालन करें ।