वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 134
From जैनकोष
किं वा बहुप्रलपितैरिति सिद्धं यो मनोवचनकायै ।
परिहरति रात्रिभुक्तिं सततमहिंसां स पालयति ।।134꠰।
रात्रिभोजन के त्याग बिना अहिंसाव्रत की सिद्धि का अभाव―आचार्यदेव रात्रिभोजन के त्याग के प्रकरण में अंतिम रूप से यह कह रहे हैं कि बहुत प्रलाप करने से क्या? जो पुरुष मन वचन काय से रात्रिभोजन का त्यागकर देता है वह निरंतर अहिंसा का पालन करता है । याने रात्रिभोजन के त्याग के बिना अहिंसा व्रत की सिद्धि नहीं है । जैसे बहुत से संन्यासी लोग घर भी छोड़ देते, पैसा भी मानो पास में नहीं रखते, जंगलों में भी आश्रमों में भी रहते और मंतव्य के माफिक धर्मपालन भी करते, मगर एक चीज देखी होगी कि काठ की खडाऊ पहिने रहते हैं । चमड़े के जूते तक भी पहिन कर चलते हैं । अब अहिंसा के नाम पर सब कुछ करके भी उन संन्यासी जनों में अहिंसा नहीं है अहिंसा व्रत का पालन नहीं होता । साधु की सबसे पहिली पहिचान तो यह है कि वे नंगे पैर चलते हैं । यह सभी साधारण साधुवों के लिये कह रहा हूं, जो नाम के भी साधु हैं, किसी भी मजहब के साधु हैं वे पैर में जूता या खड़ाऊ पहिनकर चलते हैं समझो कि अभी उनके अंतरंग में दयामयी दृष्टि नहीं बन पायी, उनमें अभी साधुता नहीं आ पायी । तो उनका जीवन कैसा है? लोगों को बहकाने के लिये अथवा अपनी मान मर्यादा रखने के लिये । यहाँ वहाँ की बातें बहुत अच्छी कहेंगे मगर चित्त में धर्म के प्रति रूचि नहीं है । ऐसे ही यहाँ समझिये कि धर्म के नाम पर और भी बहुत सी बातें कर डालते हैं―पूजन करना, विधान करना, अष्टमी चतुर्दशी का उपवास करना, बहुत यात्रायें करना, परोपकार करना आदिक, पर सब कुछ करने पर भी यदि रात्रिभोजन का त्याग नहीं है, रात्रिभोजन की प्रवृत्ति चल रही है तो आचार्यदेव कहते हैं कि रात्रिभोजन के त्याग के बिना अहिंसा व्रत की सिद्धि नहीं है ।
दुर्लभ मनुष्यजीवन को असंयम में बिताने की मूढ़ता―भैया ! कुछ अपनी और से यह भी विचारें कि यह मनुष्य शरीर मिला है, यह सदा नहीं रहेगा, किसी दिन नष्ट अवश्य हो जायेगा और मिला भी यह मनुष्यजीवन तो अन्य जीवों की अपेक्षा बहुत श्रेष्ठता है इस जीवन की । यदि केवल खाने पीने की धुन में ही इस जीवन को लगा दिया―दिन में खाना, रात्रि में खाना, विषय कषायों में ही बसकर अपना जीवन बिताना, अरे इनसे क्या लाभ मिलेगा? जो महाभाग रात्रिभोजन का त्याग कर देता है वह सच्चा अहिंसक है । अहिंसा अणुव्रत में रात्रिभोजनत्याग की मुख्यता का वर्णन है और मुनिव्रत में जहाँ पंचमहाव्रतों का वर्णन है वहां रात्रिभोजन त्याग का वर्णन जगह-जगह आया है । तो अहिंसा व्रत की सिद्धि के लिये रात्रिभोजन का त्याग आवश्यक है । जहाँ मुनियों के महाव्रत का वर्णन किया है वहाँ रात्रिभोजन त्याग का उपदेश क्यों दिया गया है? उसके कई कारण हो सकते हैं । एक तो यह जरूरी नहीं है कि कोई मनुष्य पहिले प्रतिमा ले और बाद में मुनि बने । कोई बिना प्रतिमा लिए सीधा मुनिव्रत धारण करले, यह भी एक विधि है । तीर्थंकर तो प्रतिमायें धारण ही नहीं करते । उनके जब वैराग्य जगता है तो सीधे मुनि बन जाते हैं । तीर्थंकर 5वें गुणस्थान में नहीं आते, चौथे में ही रहे फिर एकदम साधु हो गए । बड़े पुरुषों को कुछ ऐसी ही प्रवृत्ति रहती है । तीर्थंकर देव अपने जीवन में जब वे घर में चौथे गुणस्थान में हैं, कोई व्रत नहीं है, सम्यग्दर्शन जरूर है, जब उनके वैराग्य जगा तो एकदम मुनि दीक्षा ले लिया । पहिली, दूसरी, तीसरी प्रतिमा आदि धारण नहीं करते, इसका कारण है कि वे ऐसी महान् आत्मा हैं कि उनमें वैराग्य जगा तो पूरा जगा । अधूरा धर्म पालने की उनकी नीति नहीं है, या तो अव्रत अवस्था में रह रहे या वैराग्य हुआ तो एकदम साधु अवस्था में रह रहे । इसके मायने यह नहीं है कि उन तीर्थंकरों के प्रतिमाधारियों के प्रति तुच्छता का भाव है । पर बड़े पुरुषों की ऐसी प्रकृति होती है तीर्थंकर भगवान की दृष्टि एकदम नमस्कार के लिए जायेगी तो सिद्ध प्रभु पर जायेगी, उससे भी यह मतलब न निकालना कि उनकी अरहंत भगवान के प्रति उपेक्षा है । अरहंत भगवान के प्रति उनके आदरभाव हैं, अरहंत ही नहीं बल्कि साधुवों और मुनियों के प्रति भी उनके आदरभाव हैं । तो कोई लोग बिना प्रतिमा धारण किए सीधे मुनि भी हो जाते हैं, इसमें कोई विरोध की बात नहीं है । ऐसे मुनिजनों को लक्ष्य में लेकर भी रात्रिभोजन त्याग का उपदेश है । रात्रिभोजन का सर्वथा त्याग रहे, संकल्प भी न आये, दूसरों के लिये इशारा भी न करे, ऐसे सर्वथा रात्रिभोजन के त्याग में उनके दृढ़ता आये, इसलिये रात्रिभोजन त्याग की बात मुनियों के महाव्रत के बाद कही गई है ।
अहिंसाव्रत की सिद्धि के लिये रात्रिभोजनत्याग की अनिवार्यता―प्रकरण में यह बात बतायी जा रही हैकि रात्रिभोजन करने वाले पुरुष के अहिंसाव्रत की सिद्धि नहीं होती है । इसलिये रात्रिभोजन का त्याग अवश्य ही करना चाहिये । कोई घटना ऐसी नहीं है कि रात्रिभोजन का त्याग कर दे तो उसे कोई कष्ट हो । कोई कष्ट की बात नहीं हैं । रात्रिभोजन का त्याग न कर सकने से कुछ आदत ऐसी बन गयी है कि जिससे उसे ऐसा लगने लगा कि रात्रि को खाये बिना गुजारा ही नहीं चलता, दिन में खा लेने का हमें टाइम ही नहीं मिलता, पर चूंकि रात्रिभोजन के त्याग का नियम नहीं है, सो मन में यही बात बनी रहती कि 8 बजे खा लेंगे, 9 बजे अथवा 10 बजे खा लेंगे । तो नियम न होने से ऐसा महसूस होता है कि रात्रिभोजन का त्याग निभ नहीं सकता, लेकिन अहिंसा व्रत के पालन में अपने आपकी भावहिंसा बचाने के लिये और द्रव्यहिंसा बचाने के लिये रात्रिभोजन का त्याग अवश्य ही करना चाहिए । रात्रिभोजन त्याग में एक गुण और विशेष है जिसे अजैन लोग भी महसूस करते हैं । दिन में भोजन से निपट जाने पर रात्रि में समय खूब मिलता है । इससे उलझन आरंभ और भोजन आदि की चिंता नहीं रहती । उस समय में शाम से लेकर जब चाहे तब तक भजन, सामायिक जाप, शास्त्रसभा आदि करें । इन सभी धार्मिक कार्यों के करने के लिए खूब समय मिलता है । कुछ अजैन लोग भी कभी-कभी इस बात पर मन में मात्सर्य करने लगते कि मैं क्यों न हुआ ऐसा, जैन जो दिन-दिन में ही खाने से निपट लेते हैं । तो इस दृष्टि से भी रात्रिभोजन का त्याग आवश्यक है । इस प्रकार इस प्रकरण में रात्रिभोजन त्याग पर उपदेश दिया गया है । श्रावकों को रात्रिभोजन का त्याग अवश्य करना चाहिए ताकि उनकी भावहिंसा भी टल जाये और द्रव्यहिंसा भी टल जाये ।