वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 139
From जैनकोष
तत्रापि च परिमाणं प्रामापणभवनपाटकादीनाम् ।
प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ।꠰139।।
देशव्रतनामक द्वितीय शील का महत्त्व―एक साधारणरूप से व्रतों की कथनी कर लेने से उन व्रतों का महत्त्व और व्रतों के पालन का सही मर्म विदित नहीं होता । तब उन व्रतों का क्या लक्ष्य है, उन व्रतों के पालन करने से हम दृष्टि कहा ले जाते हैं ? इस बात का बोध हो तो व्रत का महत्त्व विदित होता है और उनका मर्म ज्ञात होता है । दिग्व्रत पालन करने में जैसे बताया था कि श्रावक का उस मर्यादा से बाहर का विकल्प हट गया, अब उसने बाहर के त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा की वासना मिट गयी । बाहर की अपेक्षा से वह बाहर के लिये महाव्रती की तरह है और भी देखिये―जैसे कोई भोगोपभोग महाव्रत में हरी का नियम ले लेता है, मैं अमुक-अमुक नाम की 50 हरी के अलावा बाकी हरी अपने जीवन में न खाऊंगा तो समझिये कि नियम से बाहर की हरी का त्याग उससे इस प्रकार है जैसे कि सकल त्याग हो जाता है, सर्वथा त्याग हो जाता है । ऐसे ही जो व्यक्ति देशव्रत पालन करता है वह मर्यादा से बाहर के क्षेत्र से अपना किसी भी प्रकार का संबंध नहीं रखता । इसका ही नाम देशव्रत है । यह देशव्रत किसी पर्वादि के समय पर किया जाता है । मैं इतने दिन तक अब इस मौहल्ले से अथवा इस नगर से बाहर न जाऊंगा, ऐसा नियम लेने पर फिर वह उतने से बाहर का न व्यापार कर सकता, न संबंध बना सकता, न किसी को बाहर भेज सकता, न किसी को बाहर से बुला सकता । अब तक यह मर्म और यह लक्ष्य ज्ञात नहीं होना तब तक व्रतों का पालन करने में विडंबना ही आती रहती है और अनेक हंसी मजाक हुआ करती है ।
व्रत का उद्देश्य न जानने से क्रियाओं में विडंबना―जैसे एक कथानक है कि एक भाई जी थे, यह सागर की बात है । तो जहाँ पर भाई जी रहते थे वहीं पर हमारे गुरुजी भी रहते थे । उस समय गुरुजी थोड़े ही नियम लेकर घर पर ही रहते वे । तो बात क्या हुई कि उस भाई जी के यह नियम था कि हम कभी साग न छौंकेंगे और एक दिन न खायेंगे, ऐसा उनका नियम था । सो जो दिन उनका खाने का होता था वह उनका पूरा दिन खाना बनाने व प्रबंध करने में बीतता था । और साग तो काटकर रख लिया और उसे छौंकने के लिये दूसरे का इंतजार कर रहे थे कि कोई आवे तो साग छौंकवायें वह खुद न छौंक सकते थे क्योंकि उनके न छोंकने का नियम था ꠰ आखिर गुरु जी आ गए । भाई जी बोले कि हमारा साग छौंक दो । गुरु जी बोले कि तुम क्यों नहीं छौंक लेते? तो भाई जी ने कहा कि हमारा तो साग छौंकने का त्याग है । तो गुरु जी ने कहा कि हम साग तो छौंक देंगे पर कह देंगे कि उससे जो पाप लगेगा वह तुम्हीं को लगेगा । भाई जी ने बहुत मना किया पर गुरु जी ने छौंकते समय बोल ही दिया कि इसमें जो हिंसा का पाप लगे वह भाई जी पर लगे । तो व्रतों के पालन करने का लक्ष्य पूरा होना चाहिए तब व्रतों का पालन होता है । देशव्रत और दिग्व्रत के पालन करने का भाव यह है कि मर्यादा के बाहर व्यापार संबंधी, आने जाने का आनने पठाने का कोई संबंध न रखे, दिग्व्रत में तो जंमपर्यंत का त्याग बताया है और देशव्रत में नियतकाल पर्यंत त्याग बताया है । मैं 6 माह तक इतनी दूरी से ज्यादा का संबंध न रखूंगा, ऐसा नियम हो तो उसमें विकल्प कम होते हैं और उससे देशव्रत का पालन होगा, और अगर विकल्प बढ़ाया तो पालन न होगा । जैसे कोई भोजन में त्याग तो कर दे कि इन-इन चीजों को हमने त्याग दिया, मानो एक मीठे रस का त्याग कर दिया, कुछ धर्मबुद्धि में आकर त्याग किया या भावुकता में आकर त्याग कर दिया । पर जब भोजन करने को होता तो बहुत-बहुत छुहारा किसमिस वगैरह की मीठी चीजें बनवाकर खाते तो यह कोई मीठे रस का त्याग नहीं है । इस बात को सभी लोग जानते हैं । तो हर एक व्यक्ति का त्याग का कोई लक्ष्य होना चाहिए । जब लक्ष्य हो तभी त्याग निभता है । और कोई व्रत का लक्ष्य न पहिचानकर व्रत ग्रहण करे तो उससे व्रत नहीं निभता है । तो देशव्रत में कौनसा महत्त्व है इस बात को अब एक गाथा में बतलाते हैं ।