वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 140
From जैनकोष
इति विरतो बहुदेशात् तदुत्थहिंसाविशेषपरिहारात् ।
तत्कालं विमलमति: श्रयत्यहिंसा विशेषेण ।।140꠰।
देशव्रत में भी अहिंसा का विशिष्ट पालन―इस देशव्रत में बहुत से क्षेत्र का वह त्यागी हो गया, फिर भी बहुत से देशों से क्षेत्र से निकलता निर्मल बुद्धि वाला यह श्रावक उतने काल पर्यंत जितने काल में देशव्रत का नियम लिया है उतने काल में उस मर्यादा के क्षेत्र से बाहर में उसकी हिंसा न होगी । उससे बाहर त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का परिहार हो गया तो वह उस व्रत को और अच्छी तरह निभा रहा है । प्रथम तो यह जानना चाहिए कि हमारे जितने भी व्रत हैं छोटे से लेकर बड़े तक तो उन व्रतों का लक्ष्य है अहिंसा व्रत का पालन हो, क्योंकि अहिंसा ही परमब्रह्म है अहिंसा ही देवता है, अहिंसा ही शरण है । भगवान किसे कहते हैं? जो अहिंसा की साक्षात् मूर्ति हो उसका नाम भगवान है । अहिंसा की मूर्ति मायने ऐसा विशुद्ध ज्ञान, ऐसा रागद्वेष रहित निर्मल ज्ञान जिस ज्ञान में कोई दोष नहीं, कोई तरंग नहीं, जिस ज्ञान से अपना बोध हो रहा है, आत्मस्वरूप का घात नहीं है ऐसा ही स्वरूप है अरहंत भगवंत का । तो वह अरहंत क्या है, वह परमब्रह्म क्या है? अहिंसा । अब अपने आपको विचारे, अपने आपका स्वरूप कारणसमयसार शुद्ध ज्ञायकस्वभाव आत्मा का लक्षण, आत्मा का निजस्वभाव इसे परमब्रह्म कहते हैं, वह अंहिसा की मूर्ति है? स्वभाव में हिंसा नहीं पड़ी है । स्वभाव स्वभाव का घात नहीं करता । न यह चैतन्य को छोड़कर जड़ बन जाता है । तो ऐसा जो अहिंसा स्वभावरूप परमब्रह्म है उस परमब्रह्म की साधना ही समस्त व्रतों का लक्ष्य है । कोईसा भी व्रत पालें, अहिंसा व्रत है । यह बात स्पष्ट ही है कि शुद्ध ज्ञानमात्र रहने का लक्ष्य है अहिंसा व्रत का । झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह―इन पापों के त्याग का भी यही लक्ष्य है । विकल्प जाल हटे, शुद्ध ज्ञान रहे और आत्मा का जो विशुद्ध स्वरूप है उस स्वरूप में हमारा रमण हो, छोटे से लेकर बड़े तक सभी व्रतों का लक्ष्य है अहिंसाव्रत का पालन करना । दिग्व्रत का भी यही लक्ष्य रहा । और दिग्व्रत में की हुई मर्यादा से बाहर तो यह पूरा संयमी है । देशव्रत में भी यही लक्ष्य रहा, पर दिग्व्रत की अपेक्षा देशव्रत में कुछ थोड़ी सी कमी है वह कमी यह हैं कि इसमें यह भाव भरा है कि 10 दिन के लिए हमारा इतना नियम है, तो उसके बाद के समय की कुछ न कुछ मन में तरंगसी बन जाती है, पर दिग्व्रत में वह तरंग नहीं होती । इस प्रकार जो पुरुष दिग्व्रत और देशव्रत का पालन करते हैं । वे पूर्ण अहिंसाधर्म की रक्षा करते हैं । और इसमें मूल जो अहिंसाणुव्रत है, अहिंसा व्रत है उस अहिंसा व्रत में अरक्षा हुई है । इस प्रकार अणुव्रतों की रक्षा के लिए 7 शील पालन करना चाहिए, ऐसा जो बताया गया था, उन 7 शीलों में से 2 शीलों का वर्णन किया गया है । इस प्रकार दिग्व्रत और देशव्रत का नियम धारण करना चाहिए ।