वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 142
From जैनकोष
विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पिजीविनां पुंसाम् ।
पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ꠰꠰142।।
पापोपदेशदाननामक अनर्थदंडव्रत का वर्णन―विद्या व्यापार मसीकृषी सेवा शिल्प की आजीविका करने वाले पुरुषों को पाप का उपदेश देने वाले वचन कभी न बोलने चाहिये । ऐसे वचन कभी न बोलने चाहियें जो पाप उत्पन्न करे । जैसे विद्या सिद्ध करने की बातें बताना । देखो ऐसे विद्या बांध लो तो जिस चाहे पुरुष को तुम अपना सेवक बना लोगे । जिसे जैसा चाहोगे उसे वैसा बना लोगे । ऐसी कोई बात कहे । ऐसा कोई करने लगे और उससे दूसरे का दिल दु:खे, तो ऐसी विद्या का उपदेश न देना चाहिए । इस प्रकार का भी उपदेश न देना चाहिए जिसमें दूसरे जीवों की हिंसा हो । जैसे बताना कि अमुक देश में गाय भैस बहुत हैं वहाँ से खरीदो, वहाँ ले जावो, इस प्रकार की बात बताना यह पापोपदेश है । जिससे कुछ लाभ भी नहीं है और वहाँ ही आनंद आता है । यहाँ वहाँ की बात बताने में पापोपदेश की बात कही है । चाहिए तो यह गृहस्थ को कि हमेशा कम बोले । पाप के उपदेश का व्याख्यान तो दूर रहा, अपना जिसमें प्रयोजन है ऐसा कम से भी कम बोले । कम बोलने में एक तो बुद्धि सजग रहती है यह बहुत कुछ विचार कर सकता है और कम बोलने वाला पुरुष जब बोलेगा तो संभाल कर बोलेगा, अपनी और दूसरे की भलाई के वचन बोलेगा । इसलिए प्रथम कर्तव्य है कि कम से कम बोले और बोले भी तो ऐसी बात बोले जिसमें दूसरे जीवों को दुःख न उत्पन्न हो, अपने आपको झंझट और विकल्प न आये । तो ऐसे कोई वचन हों जिनसे हिंसा हो तो वह पापोपदेश अनर्थदंड है । इसी प्रकार और और प्रकार के आजीविका करने वाले पुरुष ऐसे वचन बोलते हैं जिन में पापोपदेश हो तो पापोपदेश नाम का अनर्थदंड है । इसमें अपने को लाभ कुछ नहीं होता, केवल पाप का बंध होता है । व्यर्थ के विकल्प बढ़ाना यह भी अनर्थ दंड में शामिल है, तीसरा अनर्थदंड बताया प्रमादचर्या ।