वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 143
From जैनकोष
भूखनन वृक्षमोट्टन शाद्वलदलनांबुसे से चनादीनि ।
निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि चै ।।143꠰।
प्रमादचर्यानामक अनर्थदंडव्रत का वर्णन―इस अर्थदंड के प्रकरण को सुनकर इतनी बात तो पहिले लेना ही चाहिए कि हमारा मनुष्यों के प्रति साधर्मियों के प्रति ऐसा विशुद्ध व्यवहार हो कि किसी को कोई कष्ट उत्पन्न न हो मेरे व्यवहार के कारण । इतनी बात तो होनी ही चाहिए, नहीं तो अनर्थदंड के नाम पर हम छोटे-छोटे पेड़ पौधों के जीवों की तो रक्षा करें और साधर्मी मनुष्य जैसे बड़े मन वाले पुरुषों का कोई विचार ही न करें, उनको चाहे कष्ट हो पर अपना व्यवहार खोटा रखें तो यह अनर्थदंड से भी महान् अनर्थदंड है । यह प्रमादचर्या नामक अनर्थदंड में बतला रहे हैं कि गृहस्थ त्रस जीवों की तो हिंसा कुरता ही है मगर त्रस जीवों की हिंसा करे तो व्रत भंग ही हो गया लेकिन और स्थावर जीवों का घात भी बिना प्रयोजन न हो, जैसे पृथ्वी खोदना, अपने को बहुत जरूरी हो मिट्टी की तो मिट्टी खोदकर लाना पड़ता है पर व्यर्थ में मिट्टी न खोदना चाहिए, इसी प्रकार बिना प्रयोजन डाली पत्ती फल फूल वगैरह भी न तोड़ना चाहिये । बहुत लोगों को यह शौक होता है कि छोटी-छोटी घास को मशीन से काटकर गद्देदार बनाते हैं फिर उस पर चलते हैं, पर यह तो बतावो कि उसमें लाभ कौनसा पाया? यह भी अनर्थदंड है । बहुत पानी सींचना, बहुत पानी बिखेरना, बहुत पानी से नहाना―ये सब अनर्थदंड हैं । भगवान के नाम पर भी अनेक तरह के फूल तोड़कर लाना फिर किसी देव को पूजना यह भी एक अटपटी सी बात है । बिना प्रयोजन पत्र फल फूल तोड़ना इसकी भी मनाही है । तो कहते हैं कि गृहस्थ जीव त्रस हिंसा का तो पूर्ण परित्याग करते ही हैं, पर जहाँ तक बने स्थावर जीवों की भी रक्षा करनी चाहिये । जब तक कोई खास जरूरत न हो तब तक किसी भी जीव की विराधना न करें । इसके अलावा और भी अनेक बातें हैं । जैसे कुत्ता पालना, बिल्ली पालना, तोता, कबूतर पालना इनसे आत्मा की कौनसी सिद्धि है? बहुत से कबूतर पाले, किसी बिल्ली ने कबूतर खा लिए तो खुद को भी बड़ा खेद होगा, खुद को भी हिंसा लगेगी, यही बात तोता आदिक पालने में भी है । किसी तोते को पालने से तो वह तोता बंधन में आ गया । स्वतंत्र होता तो जहाँ चाहे खेलता पर स्वतंत्र न होने से वह कहीं जा नहीं सकता । कुत्ता पाल लिया तो वह हिंसक जानवर है, उसके पालने से कोई सिद्धि नहीं है । रही यह बात कि कदाचित् मान लो अपना मानकर उसे खिलाते तो श्रावकाचार में किसी को अपना मानना यह भी बात ठीक नहीं मानी गयी । यदि कोई हिंसक जानवर पाला है तो उसे उसी प्रकार का हिंसक खाना देना पड़ता है, तो वह भी अनर्थदंड है । उससे कुछ सिद्धि नहीं है । जहाँ कुछ सिद्धि नहीं हैं, केवल पापों का बंध है ऐसे अनर्थ दंड का भी त्याग करना चाहिये । चौथा अनर्थदंड बताते हैं हिंसा दान ।