वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 145
From जैनकोष
रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् ।
न कदाचन कुर्वीत श्रवणर्जनशिक्षणादीनि ।।145꠰।
दुःश्रुतिविरतिनामक अनर्थदंड विरति का वर्णन―जो रागद्वेष मोह आदिक को बढ़ावे, जिसमें अज्ञानता भरी हुई हो ऐसी खोटी कथावों का सुनना, सीखना, खोटी कथावों का संग्रह करना―ये सब अनर्थ दंड हैं । बिना प्रयोजन के कामों जिन में पापों का प्रारंभ हो उसे अनर्थदंड कहते हैं । कुछ कथायें ऐसी होती हैं जो खोटी? बातों से भरी होती हैं । किसी पुरुष ने किस तरह से प्रेम किया, किस तरह से धोखा दिया, किस तरह से मारा, आदि । तो ऐसी पुस्तकों का खरीदना यह सब अनर्थ दंड है । क्योंकि जिन कथावों में शृंगार बसा हो, जिसमें प्रीति काम की बात सिखाई गई हो, धोखा छल चोरी, डकैती आदिक बताये गए हों उनसे धर्म तो है नहीं, लेकिन इस प्रकार की कथावों में लोगों का चित्त बहुत लगता है ओर ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन भी बहुत होता है उन विकारभरी कथावों को उपन्यास की पुस्तकों में अंत में लिख देते हैं कि इसके आगे की कथा दूसरे भाग में है, तो लोग उस भाग की पुस्तक को बहुत-बहुत खोज करके खरीदते हैं । तो ऐसी पुस्तकों का पढ़ना यह सब अनर्थदंड है । इससे न तो कोई आजीविका की सिद्धि है और न कोई परलोक की सिद्धि है । यहाँ भी लोगों को दो बातों की आवश्यकता है, एक तो आजीविका का साधन ठीक बना रहे और दूसरे परलोक हमारा ठीक रहे । सभी लोग जानते हैं कि यदि गृहस्थी में रहकर आजीविका का साधन नहीं है तो बड़ा कष्ट होता है और वह निर्धन व्यक्ति अधर्म पर भी उतारू हो जाता है । पैसा पास में न होने पर वह अनर्थ कर सकता है । किसी को मारकर धन लूट ले, किसी को चालबाजी से फंसा दे, वेश्यागमन, परस्त्री सेवन तथा और-और प्रकार की विडंबनाएं बना सकता है । हां, वह निर्धन व्यक्ति यदि ज्ञान बढ़ाकर साधु बन जाये तो बात और है, पर जहाँ घर बसाये हैं, बीबी बच्चे हैं वहाँ उनके पालन पोषण की चिंता रहेगी । तो पास में कुछ पैसा न होने पर वह बडे-बड़े अनर्थ कर सकता है । तो आजीविका का साधन बनाना गृहस्थों के लिए बहुत आवश्यक बात है । तो दूसरी बात यह आवश्यक है कि ऐसा श्रद्धान करें जिससे परलोक न बिगड़े । मान लो एक भव में बड़ा मौज कर लिया तो यह 50, 60, या 100 वर्ष का समय इस अनंत काल के सामने क्या समय है? एक बहुत बड़े भारी स्वयंभूरमण समुद्र में एक बूंद की तो कुछ गिनती हो सकती, उस एक बूंद का भी गणित बन सकता है पर इस सागरों पर्यंत समय के आगे यह 100, 50 वर्ष का जीवन कुछ भी कीमत नहीं रखता । तो मान लो एक इस भव को मौज में ही बिता देने से क्या लाभ है? विषयकषायों में ही रमकर यदि इस थोड़े से जीवन को बिता भी लिया तो उससे क्या पूरा पड़ेगा? अरे कुछ समय बाद फिर आगे बहुत काल तक संसार में जन्म मरण करना पड़ेगा । तो गृहस्थों को सर्वप्रथम आवश्यक है आजीविका का साधन बनाना और फिर अपने परभव की संभाल रखना तो जिन कामों के करने से न आजीविका का संबंध है और न धर्म का ही संबंध है, वे सब कार्य अनर्थदंड हैं । विकारयुक्त कथन पढ़ने सुनने से, उनमें उपयोग लगाने से तो पापबंध ही होता है, तो ऐसे कथन सुनने पढ़ने का सर्वथा त्याग करना चाहिये यदि कोई ऐसी बातें सुने तो वह दुश्रुति नामक अनर्थदंड है ।
अपने व्यवहार को सर्व अनर्थदंडों से बचाये रहने की प्रेरणा―हमारे जीवन में व्यवहार में ऐसे वचनों का प्रयोग न होना चाहिये जो वचन दूसरे के मर्म को भेदे, दूसरे को कष्ट पहुंचायें ऐसे वचन न बोले जायें जैसे किसी का अपमान करने वाले वचन ꠰ इतनी हिम्मत बनायें, इतना ज्ञान बढ़ाये कि किसी भी घटना में अपने को क्रोध उत्पन्न हो रहा हो तब भी वचन हम ऐसे न बोलें कि मर्म को छेद देवें । कारण यह है कि क्रोध में हम दूसरे को बुरा समझ रहे हैं । हम तो समझ रहे, क्या यह निश्चित है कि वह बुरा ही है? जब क्रोध उत्पन्न होता है तो बुद्धि आधी रह जाती है, बिगड़ जाती है । हम सही बात का बिचार नहीं कर सकते । तो क्रोध में जो कुछ निर्णय किया जाता है वह निर्णय सही नहीं बनता । अपनी ऐसी प्रकृति बनावें कि कैसा ही कारण उपस्थित हो, दूसरे को मर्मछेदी वचन न बोलें । और यह बात तब सिद्ध हो सकती है जब पहिले तौ यह लक्ष्य बनावें कि हमें बहुत कम बोलना है । बोलना ही नहीं है । कोई काम पड़ जाये तो बोलें । ऐसी आदत बने तो उसमें यह प्रकृति बनेगी कि दूसरे का अपमान करने वाले मर्मछेदी वचन न बोलेंगे । एक कहावत में कहते हैं कि जितनी चोट तीर से भी नहीं लगती उतनी चोट बात से लगती है और फिर बात की चोट पहुंचाने से इसे कुछ सिद्धि भी नहीं मिलती । कितना ही कठिन समय हो, कैसी भी बात अपने पर गुजरे, पर मर्मभेदी वचन किसी को न बोलना चाहिये जिसे आज अपना विरोधी समझा है उससे यदि वचनव्यवहार अच्छा रखा जाये तो सभी मित्रों से बढ़कर यह आपका मित्र बन सकता है । खोटे वचनों से सिद्धि क्या और उसे जो सुनेगा उसे बुरा कहेगा ? यह बड़ा तुच्छ है? छोटे दिल वाला है, अधीर हैं, इस प्रकार लोग इसे तुच्छ समझेंगे, अतएव खोटे वचन न बोलने चाहियें । यह बात तब बनती है जब यह निर्णय बना लें कि हमें बोलना कम है । जब काम पड़े जब सोच विचार कर बोलें । ऐसा व्यक्ति प्रिय वचन बोलेगा जो कि दूसरों के लिए हितकारी होंगे । हम सभी कर्मों के, शरीर के बंधन में पड़े है, इस संसार के संकटो से निकलना है इसके लिए शांत वातावरण बनाना है । शांत वातावरण बनाने का प्रधान साधन है हित मित प्रिय वचन बोलना । हित, मित, प्रिय वचन बोलने से खुद को भी और दूसरों को भी शांति मिलेगी तो यह 5वां अनर्थदंड बतला रहे हैं दुश्रुति । खोटे वचन सुनना सुनाना यह सब दुश्रुति अनर्थदंड है । ऐसे समस्त अनर्थदंड केवल पाप के बंध के कारण हैं, ये आत्मा के लाभ की बात नहीं करते, अतएव इनका त्याग कर देना अनर्थदंड विरति व्रत है । इस प्रकार श्रावकों का यह तीसरा शीलव्रत है अनर्थदंड विरति व्रत ।