वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 146
From जैनकोष
सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सद᳭म मायाया: ।
दूरात्परिहरणीयं चौयसित्यास्थदं द्यूतम् ।।146।।
अनर्थसिरताज जुवा के त्याग का उपदेश―श्रावकों के आचार में यह अनर्थदंड व्रत चल रहा है । जिन कामों में न तो अपनी आजीविका का प्रयोजन हो, न अपने उदरपोषण का प्रयोजन हो और न कोई धर्म की सिद्धि हो, ऐसे कामों का करना अनर्थदंड है । जैसे पहिले बता चुके हैं कि पाप भरा उपदेश देना, हिंसा की चीज दूसरे को देना, बिना काम ही बहुत चिंतन करना, कुत्ता बिल्ली पालना, फल कुल, पत्र तोड़ना―ये सब अनर्थदंड हैं । यहाँ बतलाते हैं कि सब अनर्थों का राजा जुवा है । जुवा में बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । हारा है तो हार गया, जीता है तो जीत गया । समस्त अनर्थों में प्रथम समस्त व्यसनों का प्रथम मुखिया जुवा है जो कि संतोष को नाश करने वाला है । जुवा खेलने वाले लोग कभी संतोष नहीं कर सकते । उनकी जिंदगी बेकार है और जिसे जुवें का व्यसन लग गया वह कोई रोजगार भी नहीं कर सकता ꠰ उसे तो केवल जुवा का ही शौक है, उसकी ही धुन है, उसमें ही वह अपनी बर्बादी करता है । भिखारी बनकर भीख मांगता है, उसे संतोष नहीं होता । दूसरे जुवा मायाचार का घर है । जुवा खेलने वाले बहुत अधिक मायाचार करते हैं । एक दूसरे से छल का व्यवहार करना, एक दूसरे से कपट रखना, अपने मन की बात किसी दूसरे से न बताना, सारे कपट जुवे में चलते हैं । जुवा, चोरी और झूठ का स्थान है । जुवारी लोग सत्यवादी नहीं होते । किसी भी प्रकार हो धन चाहिए । जुवा के धोरे भी खड़ा होना पाप है, उसकी बात सुनना समझना ये सब अनर्थ हैं । तो समस्त अनर्थों का मुखिया जुवा है । बड़े-बड़े रोजा महाराजा भी यदि जुवे के चक्कर में आये तो उनको राज्य खो देना पड़ता है । एक पांडवों की ही कथा सुनी होगी । कौरवों ने एक जुवा का नाटक रचा जिससे पांडवों का राज्य छीन लिया जाये । तो फिर क्या-क्या बातें घटी सो सभी जानते हैं यह जुवा बरबादी का ही कारण है ꠰ अगर जुवा खेलने वाले के पास संपदा भी रहे तो उसके चित्त में संतोष नहीं रहता । इसलिए जुवा व्यसन सब अनर्थों का राजा है । जुवा खेलने वाले चोरी डकैती भी करते हैं । जब पास में पैसा नहीं है तो चोरी करेंगे । जुवा खेलने वाले झूठ बोलते हैं सच्चाई का वहां काम ही नहीं है । झूठ बोल बोलकर हैरानी उठाना यह उनका काम है । जब हारते हैं तो जीतने की तृष्णा में अथवा मोह में चोरी करना पड़ता है, सो असत्य बोलते हैं । जब जीतते हैं तो वेश्यागमन करना, शिकार खेलना, ऐश आराम करना ये सब बातें बन जाती हैं । सब व्यसनों का राजा जुवा है । जुवा में भावहिंसा बहुत है । हालांकि उसमें कोई कीड़ा मकौड़ा नहीं मर रहे पर जुवा खेलने वाले के परिणाम में इतनी आकुलता रहती है कि उसे चैन नहीं है, वह निरंतर अपने चैतन्यप्राण का घात करता रहता है । तात्पर्य यह है कि जुवा खेलने में पाप बंध अधिक होता है, वह भी बुरे भाव का पाप है । भाव मरण कहो । अपने भाव से अपने ही स्वभाव का मरण करता जा रहा है । जहाँ ज्ञान और आनंद की सुध नहीं रहती, जहाँ अपने आप में चेतने की सुध नहीं है उसे तो बेहोश समझना चाहिए जुवा खेलने वाले का उपयोग बाहर में बहुत भटकता हे । मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुष ही ऐसे व्यसनों में आसक्त होता है ।