वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 160
From जैनकोष
इत्थमशेषितहिस: प्रयाति स महव्रतित्वमुपचारात् ।
उदयति चरित्रमोहे लभते तु न संयमस्थानम् ।꠰160।।
प्रोषधोपवासी का उपचार से महाव्रतीपना―इस प्रकार संपूर्ण हिंसावों का त्याग करके यह प्रोषधोपवास व्रत वाला पुरुष उपचार से महाव्रती है । उस श्रावक का परिणाम देखो जिस श्रावक ने 16 प्रहर तक के लिये व्यापार आरंभ आहार कषाय का परिहार करके एकांत स्थान में रहकर, साधुजनों की संगति में रहकर जो धर्मध्यान में स्वाध्याय अध्ययन में सामायिक आदिक कार्यों में अपना चित्त लगाता है उस पुरुष का परिणाम मुनि की तरह है । यद्यपि थोड़े कपड़े भी रखे हुए हैं, मुनिभेष उसका नहीं है और कुछ समय के लिये ही त्याग किया है, उसके बाद वह ग्रहण करेगा―इन दो बातों के कारण वह मुनि नहीं कहलाता, लेकिन उसका परिणाम इतना मंद कषायरूप है कि मुनि की तरह उसका निर्मल परिणाम चलता है क्यों कि सब आरंभ परिग्रहों से उतने समय तक के लिये वह विरक्त हो गया है । तो यद्यपि चारित्र मोह का उदय है उस श्रावक के इसलिए संयम का साधन उसने नहीं पाया । गुणस्थान छठा नहीं हुआ लेकिन परिणामों की विशुद्धता को देखो और त्याग की पराकाष्ठा को देखो तो उसके उपचार से महाव्रत है ऐसा आचार्यसंत देवों ने कहा है ।